Published on Dec 08, 2021 Updated 0 Hours ago

हाल के दिनों में ताइवान को लिथुआनिया की मान्यता ईयू को चीन की दादागिरी की रणनीति के ख़िलाफ़ खड़ा होने का अवसर प्रदान करती है.

ताइवान के मुद्दे पर यूरोपीय संघ को चीन के ख़िलाफ़ ‘लिथुआनिया का समर्थन’ ज़रूर करना चाहिए

जीडीपी (GDP) के मामले में यूरोपीय संघ के 27 देशों में इसकी रैंकिंग 22वीं है और वो लक्ज़मबर्ग, बुल्गारिया और क्रोएशिया जेसे देशों से पीछे है. प्रति व्यक्ति आमदनी के मामले में ये 19वें पायदान पर है और वो एस्टोनिया, चेक गणराज्य और पुर्तगाल से नीचे है. लेकिन चीन की ज़्यादती के ख़िलाफ़ नैतिक और साहसी रवैया अपनाने के मामले में छोटा सा देश लिथुआनिया अपने असर से काफ़ी आगे है और उसने एक मानदंड तय किया है जिसका समर्थन और पालन यूरोपीय संघ (EU) के बाक़ी देशों को ज़रूर करना चाहिए. ऐसे नेतृत्व, ख़ास तौर पर तब जब जर्मनी और फ्रांस जैसे देश आगे बढ़ते इस शरारती देश के दबाव और आक्रमण के आगे झुक रहे हैं, का दुनिया भर के देशों के द्वारा समर्थन करने की ज़रूरत है.

चीन की ज़्यादती के ख़िलाफ़ नैतिक और साहसी रवैया अपनाने के मामले में छोटा सा देश लिथुआनिया अपने असर से काफ़ी आगे है और उसने एक मानदंड तय किया है जिसका समर्थन और पालन यूरोपीय संघ (ईयू) के बाक़ी देशों को ज़रूर करना चाहिए 

लिथुआनिया के द्वारा 18 नवंबर 2021 को विल्नियस में ताइवान के प्रतिनिधि का कार्यालय स्थापित करने और ‘ताइपे’- देश की राजधानी जिसका आधिकारिक नाम ‘रिपब्लिक ऑफ चाइना’ है- की जगह ‘ताइवान’ शब्द का इस्तेमाल, जैसा कि दुनिया के बाक़ी देश करते हैं, करने के तीन दिन के बाद चीन ने अपनी हमेशा की तरह अपना ग़ुस्सा दिखाते हुए इस बाल्टिक देश के साथ राजनयिक संबंधों को कम करके एंबेसडर की जगह चार्ज डी अफेयर्स के स्तर पर ला दिया. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) की धमकी, जिसके तहत एक देश संलग्न है, का लिथुआनिया के लिए कोई ख़ास मतलब नहीं है. आर्थिक तौर पर चीन कोई महत्वपूर्ण व्यापारिक साझेदार नहीं है. आयात के मामले में चीन की रैंकिंग 10वीं है और निर्यात के मामले में चीन लिथुआनिया के लिए 10 बड़े बाज़ारों में शामिल नहीं है. आयात और निर्यात- दोनों मामलों में लिथुआनिया का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार रूस बना हुआ है.

सुरक्षा के मामले में चीन न तो लिथुआनिया के साथ सीमा साझा करता है, न ही वो ईयू के दूसरे देशों को रौंदे बिना लिथुआनिया तक पहुंच सकता है. इसके अलावा नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (नैटो) के सदस्य के तौर पर लिथुआनिया के सुरक्षा हित की रक्षा “सामूहिक सुरक्षा” के हिस्से के तौर पर 30 देश करते हैं, जहां नाटो के किसी भी एक देश के ख़िलाफ़ हमले को सभी देशों के ख़िलाफ़ हमले की तरह समझा जाता है.

चीन के खिलाफ़ अमेरिका का समर्थन

इसलिए ये आश्चर्य की बात नहीं है कि लिथुआनिया को अमेरिका से सामरिक आर्थिक समर्थन मिलता है. सितंबर में अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी जे ब्लिंकन ने लिथुआनिया के विदेश मंत्री गैब्रिएलियस लैंड्सबर्गिस का स्वागत करते हुए चीन के ख़िलाफ़ सख़्ती दिखाई. उन्होंने कहा, “लिथुआनिया और अमेरिका नैटो में बेहद मज़बूत साझेदार हैं. सामूहिक रक्षा और सुरक्षा के लिए हम साथ खड़े हैं. हम आर्थिक दबाव, जिसमें चीन की कोशिश शामिल है, के ख़िलाफ़ खड़े हैं.” 23 नवंबर 2021 को लैंड्सबर्गिस ने अमेरिकी निर्यात-आयात बैंक के साथ 600 मिलियन अमेरिकी डॉलर के निर्यात उधार समझौते पर दस्तख़त किए.

रोमानिया को ले लीजिए जिसने मार्च 2021 में चीन की कंपनियों को अपने परमाणु और टेलीकॉम सेक्टर से बाहर कर दिया, अपने राष्ट्रपति को चीन की एक बड़ी शिखर वार्ता में भेजने से मना कर दिया और ईयू-नैटो-अमेरिका की त्रिमूर्ति की तरफ़ प्राथमिकता को स्पष्ट कर दिया है. 

आश्चर्य, जिसे चौंकाने वाला भी कह सकते हैं, की बात ये है कि ईयू में शामिल बड़े देश सीसीपी को जगह देने के लिए पीछे की ओर झुकते हुए चीन में मानवाधिकार के मुद्दों और श्रम कैंपों को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं. इसका एक कारण ज़्यादा आर्थिक हिस्सेदारी का ऊंचा दाव हो सकता है. उदाहरण के लिए, जर्मनी रक्षात्मक है क्योंकि चीन की तरफ़ से आर्थिक प्रतिक्रिया का संभावित ख़राब असर फॉक्सवैगन, सीमेंस या बीएएसएफ पर हो सकता है. जर्मनी के साथ फ्रांस भी चीन से कंप्रिहेंसिव एग्रीमेंट ऑन इन्वेस्टमेंट (सीएआई) का समर्थन कर रहा है. जहां तक बात अपने-अपने देशों में चीन की कंपनी हुआवेई के द्वारा 5जी सेवाओं को इजाज़त देने की है तो दोनों देश किनारे पर खड़े हैं. वो भी ये जानते हुए कि सीसीपी का एक अंग होने की वजह से हुआवेई से स्पष्ट और मौजूदा ख़तरा है, ये कंपनी साइबर दुनिया में शरारत करती है और उनके नागरिकों के लिए ख़तरा है और उनके ज़रिए बाक़ी ईयू के लिए भी.

जहां दोनों बड़े देश चीन के वर्चस्व को समायोजित करने के लिए लगातार जगह बना रहे हैं, शिनजियांग में चीन के द्वारा ज़बरदस्ती के श्रम को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं और ईयू में घुसपैठ की इजाज़त दे रहे हैं, वहीं लिथुआनिया जैसे छोटे और नये देश उन सिद्धांतों के लिए खड़े होकर नैतिक तौर पर ऊंची जगह ले रहे हैं जिनके आधार पर ईयू की स्थापना की गई थी. रोमानिया को ले लीजिए जिसने मार्च 2021 में चीन की कंपनियों को अपने परमाणु और टेलीकॉम सेक्टर से बाहर कर दिया, अपने राष्ट्रपति को चीन की एक बड़ी शिखर वार्ता में भेजने से मना कर दिया और ईयू-नैटो-अमेरिका की त्रिमूर्ति की तरफ़ प्राथमिकता को स्पष्ट कर दिया है. या फिर चेक गणराज्य को देखिए जिसने अगस्त 2021 में चीन के दबाव के बावजूद अपने सीनेट प्रमुख मिलोस विस्ट्रसिल का साथ दिया; चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने खुले रूप से विस्ट्रसिल को धमकी देते हुए कहा था कि उन्हें ताइवान का दौरा करने की “भारी क़ीमत चुकानी होगी”. सितंबर 2021 में जिस वक़्त लिथुआनिया ताइवान के प्रतिनिधि कार्यालय को शुरू करने की तैयारी कर रहा था और चीन ने हमेशा की तरह हल्ला मचाना शुरू कर दिया था, उसी वक़्त स्लोवेनिया ने ईयू से चीन के ख़िलाफ़ लिथुआनिया के साथ खड़े होने का अनुरोध किया था.

ईयू की शर्मनाक नीति

चीन की प्रत्येक व्यवस्था के सिरमौर बने शी जिनपिंग के शासन के तहत चीन ने दुनिया को कह दिया है कि उसके पास आर्थिक शक्ति है और वो प्रत्येक चीज़ का गला घोंटने के लिए हथियार के रूप में इसका प्रयोग करेगा, लोकतंत्र और उसके संस्थागत टूट-फूट से लेकर जीत हासिल करने के लिए नक्शे को फिर से बदलने और अपनी निगरानी वाली राज्य व्यवस्था का दुनिया के बाक़ी हिस्सों तक विस्तार करने के लिए. ईयू के लिए ये समय है कि वो तानाशाही, अपमानजनक और युद्ध उन्माद वाली चिल्लाहट के साथ अपने विवाहेत्तर संबंधों को ख़त्म करे. ईयू के अलावा सबको दिख रहा है कि चीन आमतौर पर लोकतंत्र और ख़ास तौर पर ईयू के लिए ख़तरा है. भूगोल के अलावा ईयू का मूल तत्व मूल्य है. और एक घटना के बाद दूसरी घटना, एक समय पर एक देश के साथ ईयू उन्हें छोड़ रहा है. एक समय था जब चीन के उदय को अच्छा, लोकतंत्र की तरफ़ एक क़दम या तानाशाही की कमी के रूप में देखा जाता था. लेकिन अब जो हो रहा है वो इन बातों के विपरीत है. चीन अपने आसपास के लगभग सभी देशों के साथ एक अघोषित युद्ध की स्थिति में है; इसके दो दोस्तों में से एक पाकिस्तान है जो आतंकवाद को अपने देश की नीति के तौर पर इस्तेमाल करता है जबकि दूसरा दोस्त उत्तर कोरिया है जो हर वक़्त परमाणु बटन पर उंगली रखता है. जहां जर्मनी और फ्रांस कॉरपोरेट हितों के अर्थशास्त्र के साथ फंसे हुए हैं वहीं छोटे देश मूल्यों के नेतृत्व का प्रदर्शन कर रहे हैं.

चीन अपने आसपास के लगभग सभी देशों के साथ एक अघोषित युद्ध की स्थिति में है; इसके दो दोस्तों में से एक पाकिस्तान है जो आतंकवाद को अपने देश की नीति के तौर पर इस्तेमाल करता है जबकि दूसरा दोस्त उत्तर कोरिया है जो हर वक़्त परमाणु बटन पर उंगली रखता है

अपनी तरफ़ से चीन हमेशा की तरह बांटो और राज करो की नीति अपना रहा है- उदाहरण के लिए जैसा उसने अपने पड़ोस में छोटे देशों पर दबाव डालकर भारत की विश्वसनीयता को चोट पहुंचाने में किया है; या रणनीतिक द्विपक्षीय में ईयू के सदस्य देशों पर हमला करके और उसकी एकता को तोड़कर; या व्यापार का लालच देकर उदारवादी लोकतंत्रों को तानाशाही शासन को स्वीकार करने के लिए तैयार करके क्योंकि उसे पता है कि लोकतांत्रित हितों से ज़्यादा व्यापारिक हितों को प्राथमिकता मिलेगी; या बड़े देश चीन के “ग़ुस्से” और “सज़ा” से जल्द सबक़ सीखेंगे. फिलहाल के लिए तो लग रहा है कि यूरोपीय संघ अपने दिमाग़ और मूल्यों को व्यापार के रेत में छिपा रहा है. इसके बदले यूरोपीय संघ को लिथुआनिया के मुद्दे का इस्तेमाल अपनी एकता को मज़बूत करने, हितों को मिलाने और जैसे को तैसा का एलान करने में करना चाहिए.

“नाराज़ चीन” को शांत करने की पूरी सोच का सीसीपी के द्वारा चालाकी से इस्तेमाल किया जाता है, फिर उसे एक दब्बू मीडिया तक पहुंचाया जाता है और नीति निर्माताओं द्वारा सहन किया जाता है. ईयू इस सोच का पालन कर रहा है क्योंकि 15 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर वाला लोकतांत्रिक देशों का संगठन शर्मनाक स्थिति में है. उसे अपनी शक्ति, आर्थिक के साथ-साथ रणनीतिक, को समझने और अपने सदस्यों पर चीन के द्वारा और अधिक हमला रोकने की ज़रूरत है. ईयू के द्वारा चापलूसी और सामंजस्य स्थापित करने से बेहद ख़ुश सीसीपी आपे से बाहर हो रही है. उसने अनाधिकारिक व्यापार प्रतिबंधों के साथ लिथुआनिया पर धावा बोला है. उसने पहले भी आठ देशों– कनाडा, जापान, लिथुआनिया, मंगोलिया, नॉर्वे, फिलीपींस, दक्षिण कोरिया और ताइवान- के साथ ऐसा किया है. सीसीपी को कोई पछतावा नहीं है, वो क़ानून के शासन में विश्वास नहीं करती है. जब कोई देश घुटने टेकता है तो चीन उसे ठोकर मारता है. ये स्वाभाविक है. आप किसी शरारती के आगे झुकते हैं तो आप उसे मज़बूत करते हैं. जिस वक़्त छोटे देश आवाज़ बुलंद कर रहे हैं, उस वक़्त ईयू के द्वारा हाथ मिलाना शर्मनाक है. आज ये विल्नियस है. कल ये बुखारेस्ट, प्राग और लूबियाना था. ये समझना कि ये आक्रमण कल बर्लिन और पेरिस तक नहीं पहुंचेगा, ये रणनीतिक अनाड़ीपन है- बीजिंग के बर्बर लड़ाके आज नहीं तो कल उनके दरवाज़े तक भी पहुंचेंगे.

जब कोई देश घुटने टेकता है तो चीन उसे ठोकर मारता है. ये स्वाभाविक है. आप किसी शरारती के आगे झुकते हैं तो आप उसे मज़बूत करते हैं. जिस वक़्त छोटे देश आवाज़ बुलंद कर रहे हैं, उस वक़्त ईयू के द्वारा हाथ मिलाना शर्मनाक है. 

अब समय आ गया है कि ईयू एक साथ अपना काम करे. और इसमें पहला क़दम, चाहे वो जितनी  भी देर से हो, लिथुआनिया के साथ शुरू होता है.

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