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भारत सरकार के आंकड़ों में यह दावा किया गया है कि वर्ष 2016 तक देश में कुल बिजली खपत में 32 प्रतिशत हिस्सेदारी आवासीय एवं वाणिज्यिक इमारतों की रही थी।
12 जुलाई 2018 को आवास एवं शहरी मामलों के मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने सतत विकास पर उच्च स्तरीय राजनीतिक फोरम (एचएलपीएफ) में अपने संबोधन में कहा कि भारत को अपने यहां शहर संबंधी मांगों को पूरा करने के लिए वर्ष 2030 तक हर साल 700-900 मिलियन वर्ग मीटर के आकार वाले शहरी स्थल का निर्माण करना होगा। उन्होंने कहा कि यह मांग हर साल एक ‘नए शिकागो’ शहर का निर्माण करने के बराबर है। उन्होंने इस तथ्य पर भी प्रकाश डाला कि संयुक्त राष्ट्र के 2030 विकास एजेंडे की सफलता समावेशी, हरित और सुदृढ़ ढंग से भारत में शहरीकरण होने से काफी निकटता से जुड़ी हुई है क्योंकि इस तरह से होने वाला विकास कई सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) पर प्रत्यक्ष रूप से व्यापक असर डालता है।
एक अध्ययन से पता चला है कि भारत में वर्ष 2050 तक कुल मिलाकर 40 अरब वर्ग मीटर का निर्मित फर्श क्षेत्रफल (फ्लोर स्पेस) होगा। जाहिर है, जब ईंट-गारे से निर्मित इतना विशाल क्षेत्र अस्तित्व में आ जाएगा तो उसमें ऊर्जा का उपयोग भी काफी हद तक बढ़ जाना तय है। अत: ऐसे में शहरीकरण के तहत एक महत्वपूर्ण फोकस क्षेत्र निर्मित भवनों या इमारतों में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल की जा रही ऊर्जा अथवा बिजली है। अब समय आ गया है कि भारत अपने यहां की इमारतों में ऊर्जा दक्षता अथवा कम-से-कम बिजली की खपत सुनिश्चित करने से जुड़े मसलों पर गंभीरता से गौर करे और इसके साथ ही टिकाऊ हरित भवनों एवं बुनियादी ढांचागत सुविधाओं के निर्माण के लिए ठोस नीतियां तथा मानक विकसित करे।
भारत सरकार के आंकड़ों में यह दावा किया गया है कि वर्ष 2016 तक देश में कुल बिजली खपत में 32 प्रतिशत हिस्सेदारी आवासीय एवं वाणिज्यिक इमारतों की रही थी। जैसे-जैसे देश में शहरीकरण रफ्तार पकड़ेगा, इस हिस्सेदारी का और ज्यादा बढ़ना तय है। नीति आयोग द्वारा प्रस्तुत भारत में ऊर्जा सुरक्षा के परिदृश्य के अंतर्गत यह अनुमान व्यक्त किया गया है कि ‘दृढ़संकल्प प्रयास वाले परिदृश्य’ में वर्ष 2047 तक इमारतों में बिजली खपत में तकरीबन 860 प्रतिशत की वृद्धि (238 टेरावाट-घंटा या टीडब्ल्यूएच वार्षिक से बढ़कर 2,287 टीडब्ल्यूएच वार्षिक) दर्ज की जाएगी, जो वर्ष 2012 से लेकर उस समय तक 6.7 प्रतिशत की सीएजीआर को दर्शाएगी। इस कुल अनुमानित विद्युत खपत में आवासीय एवं वाणिज्यिक इमारतों में रोशनी की व्यवस्था, विभिन्न उपकरणों और कमरे को गर्म एवं ठंडा रखने में इस्तेमाल होने वाली बिजली शामिल है। भारत की कुल वार्षिक प्राथमिक उर्जा खपत में यहां के भवनों में इस्तेमाल होने वाली समग्र बिजली की हिस्सेदारी 37 प्रतिशत (अर्थात 213 एमटीओई या ‘मिलियन टन तेल के समतुल्य) है।
बढि़या जीवन स्तर सुनिश्चित करते हुए भवनों से निकलने वाली ऊर्जा की बढ़ी हुई मांग का समुचित प्रबंधन करना नीति निर्माताओं के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती है। भारत सरकार ने भी अपनी जलवायु योजना के एक हिस्से के रूप में जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए ऊर्जा दक्षता सुनिश्चित करने की अहमियत पर प्रकाश डाला है। हालांकि, 30 से 40 वर्षों की लॉक-इन अवधि को देखते हुए यह तय है कि ‘ज्यादा ऊर्जा खपत वाली इमारतों’ के बढ़ते स्टॉक या संख्या के कारण आने वाले समय में ऊर्जा की मांग और ज्यादा बढ़ जाएगी। इस वजह से ज्यादा बिजली का उत्पादन करना होगा जिसके लिए काफी अधिक पूंजी और संसाधनों की जरूरत पड़ेगी। हालांकि, ऊर्जा की यह बढ़ती मांग इस लिहाज से भारत के लिए एक बढि़या अवसर है कि वह भवनों में ऊर्जा उपयोग में योजनाबद्ध वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए अभी से ही ठोस उपाय कर सकता है।
वर्ष 2001 में ऊर्जा संरक्षण अधिनियम (ईसीए) को भारत में ऊर्जा गहनता को कम करने के उद्देश्य से कानून का रूप दिया गया था। इससे वर्ष 2002 में ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई) की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ। नए विशाल वाणिज्यिक भवनों में न्यूनतम ऊर्जा दक्षता आवश्यकता तय करने के लिए वर्ष 2007 में ऊर्जा संरक्षण भवन संहिता (ईसीबीसी) का शुभारंभ किया गया था जिसे वर्ष 2017 में संशोधित किया गया था। ‘ईसीबीसी’ का अनुपालन शुरू होने से पहले वाली इमारतों की तुलना में ईसीबीसी का अनुपालन करने वाली इमारतों में 25 प्रतिशत बिजली की बचत होने की पुष्टि हो चुकी है। इसी तरह ‘ईसीबीसी+’ और ‘सुपर ईसीबीसी’ भवन क्रमशः 35 प्रतिशत एवं 50 प्रतिशत तक बिजली की बचत करने में समर्थ साबित हुए हैं। नई वाणिज्यिक इमारतों के लिए ईसीबीसी 2017 को अपनाने से वर्ष 2030 तक ऊर्जा उपयोग में 50 प्रतिशत की कमी होने का अनुमान लगाया गया है। इससे वर्ष 2030 तक तकरीबन 300 अरब यूनिट बिजली की बचत संभव होगी और बिजली की सर्वोच्च (पीक) मांग में सालाना तकरीबन 15 जीडब्ल्यू की कमी देखने को मिलेगी। इसके परिणामस्वरूप 5.2 अरब अमेरिकी डॉलर की उल्लेखनीय बचत और कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन में 250 मिलियन टन की कमी संभव होगी।
‘ईसीबीसी’ को राष्ट्रीय स्तर पर एक मॉडल कोड (संहिता) के रूप में विकसित किया जाता है। ईसीए की धारा 15 के तहत राज्यों को क्षेत्रीय और स्थानीय जलवायु के अनुरूप ईसीबीसी में संशोधन करने का अधिकार दिया जाता है। कार्बन की बहुलता वाले बुनियादी ढांचे में निवेश से बचने के लिए राज्यों को ईसीबीसी के प्रभावों और लाभों की गहरी समझ होने की जरूरत है। वर्ष 2007 में ईसीबीसी को जारी करने से लेकर अब तक केवल 12 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों ने ही इसे अधिसूचित किया है। वर्ष 2017 में ईसीबीसी में संशोधन किए जाने के बाद ये सभी राज्य नए मानदंडों का अनुपालन करने के लिए अपनी-अपनी अधिसूचनाओं को संशोधित कर रहे हैं।
संहिता के अनुपालन, कार्यान्वयन और प्रवर्तन प्रक्रिया में विभिन्न हितधारकों जैसे कि ऊर्जा विभाग (डीओई), शहरी विकास विभाग (यूडीडी), लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी), राज्य-नामित एजेंसी (एसडीए) और शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) को शामिल करने में समस्या है, ऐसे में क्षेत्राधिकार और अंतर-विभागीय एवं अंतर-एजेंसी समन्वय के मुद्दों से चीजें जटिल हो सकती हैं। हालांकि, अपनी जरूरतों के अनुसार संहिता को संशोधित करने का अधिकार भी उन्हें प्राप्त है।
जहां एक ओर यूडीडी शहर एवं देश नियोजन (टीसीपी) से संबंधित नियमों में संशोधन कर सकता है, वहीं दूसरी ओर लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) सरकारी इमारतों के लिए डिजाइन संबंधी दिशा-निर्देशों को बदल सकता है। इसी तरह, यूएलबी अभिनव नीतिगत कदम उठाने के साथ-साथ भवन निर्माण संबंधी उपनियमों को बदल भी सकते हैं। आइए, अब हम ‘ईसीबीसी’ को अपनाने के मार्ग में आने वाली कुछ चुनौतियों और उपायों पर गौर करते हैं।
ईसीबीसी के अलावा भी ऐसे कई स्वैच्छिक कार्यक्रम हैं जो कम बिजली की खपत वाले टिकाऊ इमारतों के विकास को बढ़ावा देते हैं। एकीकृत आवास आकलन के लिए ग्रीन रेटिंग (गृह) और ऊर्जा एवं पर्यावरण डिजाइन में नेतृत्व (लीड) इनमें शामिल हैं।
‘गृह’, जो 2500 से अधिक वर्ग मीटर के फर्श क्षेत्रफल (फ्लोर स्पेस) वाली इमारतों के लिए उपयुक्त है, राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत ऊर्जा और पर्यावरण सिद्धांतों के आधार पर किसी भवन के पूर्ण टिकाऊ काल (लाइफ साइकिल) के दौरान उसके प्रदर्शन का आकलन करता है और इसके साथ ही हरित इमारतों के निर्माण को बढ़ावा देता है। वर्तमान में ‘गृह’ के तहत 1,175 परियोजनाओं का आकलन किया जा रहा है।
हरित इमारत रेटिंग प्रमाणीकरण प्रणाली ‘लीड’ , जो घरों से लेकर वाणिज्यिक कार्यालय भवनों तक सभी प्रकार की इमारतों के लिए उपयुक्त है, टिकाऊपन, जल उपलब्धता क्षमता, ऊर्जा, संसाधन, मकान के अंदर (इनडोर) पर्यावरणीय गुणवत्ता और नवाचार जैसे पहलुओं के आधार पर भवनों का आकलन करती है। अमेरिकी ग्रीन बिल्डिंग काउंसिल (यूएसजीबीसी) की ‘लीड’ प्रमाणित इमारतों से जुड़ी शीर्ष दस देशों की वार्षिक रैंकिंग सूची में 752 से अधिक प्रमाणित परियोजनाओं के साथ भारत तीसरे स्थान पर है।
वैसे तो ईसीबीसी और हरित इमारत (ग्रीन बिल्डिंग) कार्यक्रम अलग-अलग तरीकों से काम करते हैं, लेकिन भवनों में ऊर्जा उपयोग को कम करने के एकल लक्ष्य की प्राप्ति के उद्देश्य से इन सभी प्रयासों में सामंजस्य बैठाने की आवश्यकता है। जहां एक ओर ‘ईसीबीसी’ ज्यादा बिजली खपत वाली इमारतों को बाजार से हटाते हुए वाणिज्यिक भवनों के लिए न्यूनतम ऊर्जा दक्षता आवश्यकताएं तय करती है, वहीं दूसरी ओर स्वैच्छिक कार्यक्रम उच्च दक्षता वाली इमारतों का निर्माण सुनिश्चित करते हैं जो समूचे भवन स्टॉक का एक छोटा सा हिस्सा है। इस तरह के कार्यक्रमों के विभिन्न आकलन पैमानों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है जिन्हें सर्वश्रेष्ठ हरित इमारत संहिताओं (कोड) को विकसित करने के लिए साझा किया जा सकता है।
प्रभावकारी कार्यान्वयन की दिशा में ‘ईसीबीसी’ को अपनाना पहला कदम है। ईसीबीसी में व्यापक आर्थिक बचत सुनिश्चित करने के साथ-साथ देश में ऊर्जा परिदृश्य को नया स्वरूप प्रदान करने की भी क्षमता है, अत: इसे अवश्य ही अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। यद्यपि ईसीबीसी केवल वाणिज्यिक भवनों की ही जरूरतों को पूरा करती है, लेकिन एक ब्लूप्रिंट के रूप में इसकी सफलता की पुनरावृत्ति आवासीय भवनों में भी हो सकती है जिनमें रहने वाले ऊर्जा उपभोक्ता कहीं ज्यादा तादाद में होते हैं। हरित इमारतें कम ऊर्जा खपत वाली ऐसी सामग्री एवं उत्पादों के बाजार को काफी बढ़ावा दे सकती हैं जो स्थानीय अर्थव्यवस्था एवं रोजगार सृजन में व्यापक योगदान दे सकते हैं और इसके साथ ही स्टार्ट-अप योजनाओं तथा स्मार्ट सिटी फ्रेमवर्क को आगे बढ़ाने में भी मददगार साबित हो सकते हैं। आर्थिक लाभप्रदता; तकनीकी आविष्कारों; कार्यान्वयन के साधन एवं अपनाने की क्षमता, अमल एवं अनुपालन को ध्यान में रखते हुए अब और भी अधिक दमदार नीतियां बनाई जानी चाहिए।
ऊर्जा परिदृश्य को बेहतर करने और आर्थिक बचत सुनिश्चित करने के अलावा ये कार्यक्रम संबंधित शहर की वायु की गुणवत्ता और स्वास्थ्य संबंधी माहौल को भी बेहतरीन बना सकते हैं। यदि भारत वास्तव में कम ऊर्जा खपत वाले ‘इमारती’ बुनियादी ढांचे का निर्माण करने में सफल हो जाता है, तो यह ढांचा आगे चलकर भारत में हर साल एक समावेशी, हरित, स्वस्थ, सुरक्षित और सुदृढ़ ‘शिकागो’ शहर का सफलतापूर्वक निर्माण करने में मददगार साबित हो सकता है।
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Ameya Pimpalkhare is an Associate Fellow at ORFs Mumbai Centre. He works on the themes of energy and transportation. His key research interests include: sustainable ...
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