Author : Shruti Pandalai

Published on Dec 23, 2021 Updated 0 Hours ago
हिंद-प्रशांत की भूराजनीति में उभरते रुझान: ‘भारतीय तौर-तरीक़ों’ से तय होगी आगे की राह

Source Image: Imtiyaz Shaikh — Anadolu Agency via Getty

ये लेख स्ट्रैटेजिक हाई टाइड इन द इंडो-पैसिफ़िक: इकॉनोमी, इकोलॉजी, एंड द सिक्योरिटी नाम की निबंध श्रृंखला का हिस्सा है.


हिंद-प्रशांत क्षेत्र (Indo-Pacific Region) में एक लंबे वक़्त से सामरिक और रणनीतिक ज्वार उठते आ रहे हैं. दरअसल इस पूरे इलाक़े में सहयोग और तालमेल की साझा बुनियादी लकीर खींचने के लिए अनेक देश अलग-अलग तरीक़े के दांव-पेच चलते रहे हैं.  इस पूरी क़वायद का मकसद समानता और न्याय के साथ नियम आधारित व्यवस्था क़ायम करना है. एक ऐसी व्यवस्था जिसमें किसी के बेलगाम और एकतरफ़ा तौर-तरीक़ों और बर्ताव पर प्रभावी रूप से अंकुश रहेगा. चीन विश्व मंच पर अपना दबदबा क़ायम करने के लिए आक्रामक रूप से आगे बढ़ रहा है. ऐसे में हिंद-प्रशांत क्षेत्र लगातार भूराजनीतिक उथल-पुथल का अड्डा बना हुआ है. बहरहाल, इस इलाक़े से ताल्लुक़ रखने वाले तमाम छोटे-बड़े देश तीखी होती सामरिक प्रतिस्पर्धा के कुप्रभावों की रोकथाम की क़वायद में जुटे हैं. ऐसे में इलाक़े की बड़ी ताक़तों से राजनीतिक इच्छाशक्ति और काबिलियत का इज़हार किए जाने की उम्मीद की जा रही है.

कोविड-19 (Covid_19) के बाद के कालखंड में मानवीय सुरक्षा की व्यापक परिकल्पना के दायरे में इस तरह की कोशिशें हो रही हैं. निश्चित रूप से हिंद प्रशांत का विकास और सुरक्षा से जुड़ा एजेंडा अलग-अलग नहीं है.

ज़ाहिर तौर पर इलाक़े में उभरती भूराजनीति से कुछ मोटे-मोटे रुझान सामने आ रहे हैं. इनमें बढ़ती फ़ौजी गतिविधियों के बीच सुरक्षा और आर्थिक सहयोग में दोबारा संतुलन बिठाने की क़वायद प्रमुख है. इसके अलावा कामचलाऊ सहयोग या तालमेल और सुरक्षा की नई परिकल्पना के मौक़ों की तलाश से जुड़े प्रयास भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है. ख़ासतौर से कोविड-19 (Covid_19) के बाद के कालखंड में मानवीय सुरक्षा की व्यापक परिकल्पना के दायरे में इस तरह की कोशिशें हो रही हैं. निश्चित रूप से हिंद प्रशांत का विकास और सुरक्षा से जुड़ा एजेंडा अलग-अलग नहीं है. इनमें से ज़्यादातर प्रयास समान सोच वाले देशों के बीच सहयोग की परंपरा स्थापित करने के लक्ष्य को लेकर चलाई जा रही हैं. ये प्रयास साथ-साथ आगे बढ़ रहे हैं.

ख़ास तौर से तीन मुख्य रुझान स्पष्ट विशेषताओं के साथ उभरकर सामने आए हैं. ये आज हिंद-प्रशांत में सहयोग की नींव या आधार स्तंभ के तौर पर काम कर रहे हैं. (1) कार्य और क्रियाशीलता से प्रेरित मुद्दों पर आधारित गठजोड़, जिसमें इन व्यवस्थाओं का लचीलापन एक बड़ी सामरिक शक्ति है, (2) द्विपक्षीय, लघुपक्षीय (मुट्ठीभर या चंद देशों का समूह) और बहुपक्षीय स्वरूपों से आगे निकलकर समान सोच वाले देशों का एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करना. इस क़वायद का मकसद वैश्विक कार्यक्रमों को विस्तार देना है ताकि वो क्षेत्रीय स्तर पर समान सोच वाली ताक़तों के राष्ट्रीय एजेंडे में संस्थागत रूप से समाहित हो जाएं. (3) हिंद-प्रशांत के देशों में क्षमता निर्माण को लेकर समर्पित प्रयास. इसका लक्ष्य वैचारिक और राजनीतिक टकरावों की बुनियाद पर खींची गई आर-पार की व्यवस्थाओं से इन देशों को व्यावहारिक विकल्प मुहैया कराना है.

अब ये बात स्थापित हो चुकी है कि मुद्दों पर आधारित गठजोड़ कामचलाऊ सहयोग के मुख्य अड्डे बन गए हैं. ये प्रणाली धीरे-धीरे लोकप्रिय होती जा रही है. गठजोड़ की इस व्यवस्था में देशों के बीच के जुड़ाव स्वरूप की बजाए क्रियाकलापों से संचालित होते हैं. दरअसल आज की दुनिया में उभरती नई-नई चुनौतियों से निपटने में पुरानी वैश्विक बहुपक्षीय व्यवस्थाएं नाकाम होती जा रही हैं. इसी के नतीजे के तौर पर ये नया रुझान देखने को मिल रहा है. धीरे-धीरे ये लगने लगा है कि दुनिया के देशों के बीच विभिन्न स्वरूपों में बढ़ती नज़दीकियां ज़्यादा कारगर साबित हो रही हैं. अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों और बारीकी से तय किए गए मसलों (आर्थिक, सुरक्षा, तकनीकी या सामरिक)  को लेकर देशों के बीच तालमेल का उभरता चलन वैश्विक शासन प्रणाली के मौजूदा विभाजित और अनुपयोगी उपकरणों से ज़्यादा कारगर है. दरअसल इन समूहों का लोचदार स्वरूप ही इनकी सबसे बड़ी ताक़त है.

कोरोना महामारी की प्रचंड मार के दौरान इस व्यवस्था के ज़रिए वैक्सीन के विकास में तालमेल कायम किया गया. टीके के निर्यात को सुगम बनाया गया. साथ ही आर्थिक गतिविधियों को पटरी पर लाने के तौर-तरीक़े भी ढूंढे गए.  

क्वॉड्रिलैट्रल संवाद और उसके विस्तृत स्वरूप (जिन्हें बोलचाल में क्वॉड प्लस का नाम दिया गया है) मुद्दों पर आधारित गठजोड़ों की बेहतरीन मिसाल हैं. कोरोना महामारी की प्रचंड मार के दौरान इस व्यवस्था के ज़रिए वैक्सीन के विकास में तालमेल कायम किया गया. टीके के निर्यात को सुगम बनाया गया. साथ ही आर्थिक गतिविधियों को पटरी पर लाने के तौर-तरीक़े भी ढूंढे गए.  इसके बाद कई अहम क्षेत्रों को ध्यान में रखकर गठित किए गए कार्यदलों का उदाहरण भी ले सकते हैं. इनमें अहम तकनीकों, टीकों, जलवायु परिवर्तन, अंतरिक्ष, जैवतकनीकी और 5जी प्रमुख हैं. इनसे जुड़े कार्यदलों का मकसद इन तमाम क्षेत्रों में नियम-क़ायदों की स्थापना और वैश्विक मानदंड क़ायम करना रहा है. भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया ने ठोस आपूर्ति श्रृंखला तैयार करने से जुड़ा कार्यक्रम शुरू किया है. इसका मकसद आपूर्ति श्रृंखलाओं को मज़बूत बनाना है, ताकि निवेश जुटाने के साथ-साथ आपूर्ति के भरोसेमंद स्रोत सुनिश्चित किए जा सकें. COP26 सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने ज़ोर देकर कहा कि “भरोसेमंद स्रोत, पारदर्शिता और समय-सीमा” वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला का नियमन करने वाले तीन बुनियादी क्षेत्र हैं. उन्होंने भारत को सूचना प्रौद्योगिकी और दवाइयों से जुड़ी आपूर्ति श्रृंखला का विश्वसनीय स्रोत करार दिया. इसके साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने स्वच्छ तकनीकी से जुड़ी आपूर्ति श्रृंखला में भागीदारी करने को लेकर भारत की ख़्वाहिशों को भी दोहराया. दरअसल आपूर्ति श्रृंखलाओं को चीन पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता वाले हालात से बाहर निकालने की अब तक की प्रक्रिया काफ़ी तकलीफ़देह रही है. हालांकि ये क़वायद अब रफ़्तार पकड़ने लगी है.

दूसरा, द्विपक्षीय, लघुपक्षीय और बहुपक्षीय मंचों को विस्तार देने वाली क़वायदों का मिला-जुला स्वरूप सामने आ रहा है. ये तमाम क़वायद आगे चलकर वैश्विक कार्यक्रमों के विस्तृत स्वरूपों के साथ जुड़ जाती हैं. मौजूदा वक़्त में ये प्रयास निरंतर बढ़ते जा रहे हैं. समान सोच वाले साथी देश इन कोशिशों को संस्थागत रूप देने को लेकर सक्रियता से काम कर रहे हैं ताकि ये प्रयास राष्ट्रीय एजेंडों में शुमार हो सकें. मिसाल के तौर पर भारत ने इलाक़े के देशों के साथ अपने द्विपक्षीय रिश्तों के इस्तेमाल के ज़रिए भारत की अगुवाई वाले बहुपक्षीय मंचों को मज़बूत करने की पहल की है. इन बहुपक्षीय मंचों में हिंद-प्रशांत महासागरीय पहल (IPOI) और आपदा प्रबंधन पर बुनियादी ढांचे से जुड़ा वैश्विक गठबंधन (CDRI) शामिल हैं.

ग़ौरतलब है कि नवंबर 2019 में आयोजित पूर्वी एशियाई शिखर सम्मेलन के दौरान भारत ने हिंद-प्रशांत महासागरीय पहल (IPOI) का प्रस्ताव सामने रखा था. इसका मकसद “खुले या मुक्त रूप में और बिना किसी औपचारिक संधि पर आधारित व्यावहारिक सहयोग के वैश्विक कार्यक्रम” की शुरुआत करना था. इसकी बुनियाद के तौर पर आसियान की अगुवाई वाले ढांचे के इस्तेमाल की बात कही गई थी. इसके सात प्रमुख आधार-स्तंभों में सामुद्रिक सुरक्षा से लेकर समुद्र से जुड़ी अर्थव्यवस्था तक के मसले शामिल हैं. भारत ने इन्हें “साझा समस्याओं के प्रति न्यूनतम साझा रुख़” करार देते हुए इनके निपटारे के लिए “तात्कालिक और समन्वित समाधानों की दरकार” पर ज़ोर दिया है. साझा चिंताओं के नए-नए समाधान ढूंढने के लिए ऑस्ट्रेलिया, जापान, फ़्रांस और इंडोनेशिया जैसे देश भारत की इस पहल के साथ जुड़ भी चुके हैं

हिंद-प्रशांत के मोर्च पर लोकतांत्रिक देशों और एकाधिकारवादी व्यवस्थाओं के बीच प्राथमिक तौर पर टकराव तीखा होता जा रहा है. ऐसे में मध्यवर्ती ताक़तें आपसी तालमेल के अवसर और तौर-तरीक़े ढूंढ रही हैं. 

तीसरा, हिंद-प्रशांत के मोर्च पर लोकतांत्रिक देशों और एकाधिकारवादी व्यवस्थाओं के बीच प्राथमिक तौर पर टकराव तीखा होता जा रहा है. ऐसे में मध्यवर्ती ताक़तें आपसी तालमेल के अवसर और तौर-तरीक़े ढूंढ रही हैं. इस क़वायद का मकसद उभरती और आक्रामक महाशक्ति के ख़तरे से निपटते हुए सिर्फ़ टकराव वाले मसलों से इतर क्षमता निर्माण पर ध्यान केंद्रित कराना है. इस रुख़ से इलाक़े के बड़े-छोटे तमाम देशों को व्यावहारिक विकल्प हासिल होते हैं. इससे उन्हें अपने अधिकारों और नियंत्रण के इस्तेमाल में मदद मिलती है. कोविड-19 के बाद के कालखंड में दुनिया की नई प्राथमिकताएं इसी दायरे के तहत आती हैं. इनमें स्वास्थ्य सुरक्षा और टीके का विकास, डिजिटल डिलिवरी और हरित तौर-तरीक़ों वाला विकास शामिल हैं.

इस सिलसिले में बुनियादी ढांचे से जुड़ी भारतीय कूटनीति की मिसाल ले सकते हैं. दरअसल भारत ने अपने पड़ोसी देशों के साथ चल रहे विकास सहायता कार्यक्रमों के साथ इंफ़्रास्ट्रक्चर डिप्लोमेसी को भी जोड़ रखा है. ऐसे में सहयोग के नए-नए आयाम उभरकर सामने आ रहे हैं. भारत अपने आसपड़ोस में किसी के नुकसान की क़ीमत पर किसी का फ़ायदा करने की नीति और नीयत (zero-sum game) से बचने का पक्षधर रहा है. लिहाज़ा भारत समान सोच वाले साथियों के साथ सामूहिक प्रयासों के ज़रिए बाहरी स्तर पर कनेक्टिविटी के व्यावहारिक विकल्प मुहैया कराने की क़वायदों में जुटा है. हालांकि इसके साथ ही भारत अपने घरेलू उद्योग को इन प्रयासों की अगुवाई करने के लिए प्रेरित भी कर रहा है. इतना ही नहीं भारत दक्षिण एशिया में नेपाल समेत दूसरे साथी देशों को सीमा के आर-पार बिजली मुहैया कराने वाले भरोसेमंद साथी के तौर पर भी उभरा है. यहां ग़ौरतलब है कि नेपाल को यूएस मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (MCC) से जुड़े अनुदान के क्रियान्वयन के लिए ऊपर बताए गए समझौते पर दस्तख़त एक पूर्व शर्त थी. इस पर अमल होने से नेपाल के लिए बिजली ट्रांसमिशन और सड़कों से जुड़े बुनियादी ढांचों की परियोजनाओं के लिए 50 करोड़ अमेरिकी डॉलर का अनुदान हासिल करना मुमकिन हो जाएगा. बुनियादी ढांचों के विकास के लिए MCC से जुड़ी सहायता नेपाल को हाल के इतिहास में अमेरिका से मिलने वाली सबसे बड़ी मददों में से एक है. इसी तरह भारत को अमेरिका की अगुवाई वाले बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड इनिशिएटिव से जुड़ने के लिए भी आमंत्रित किया गया है. ब्लू डॉट नेटवर्क में शामिल होने को लेकर भारत के सामने मौजूद अवसरों के बारे में भी तमाम विशेषज्ञों की पड़ताल जारी है. इसका मकसद पूरे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बुनियादी ढांचों से जुड़ी वित्तीय व्यवस्था या फ़ाइनेंसिंग का मूल्यांकन करना है ताकि आर्थिक रूप से कमज़ोर देशों में पारदर्शिता और आत्मविश्वास सुनिश्चित किया जा सके.

हिंद प्रशांत की उभरती राजनीति से भारत के लिए कई मौके निकलकर सामने आते हैं. इससे भारत को साझा चिंताओं के सहयोगात्मक समाधान भी हासिल होते हैं. इसके साथ ही ये इलाक़ा और यहां के हालात भारत को इस क्षेत्र में एक शीर्ष ताक़त के तौर पर ख़ुद को सामने रखने का भी मौका देते हैं. भारत इन क़वायदों से यहां के देशों को ये जता सकता है कि वो ज़रूरत पड़ने पर उनकी मदद के लिए सामने आने की इच्छा रखता है. भारत अब वैश्विक स्तर पर संवादों, कार्यक्रमों और पहलों की अगुवाई करने लगा है. भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर अंतरराष्ट्रीय पटल पर “भारतीय तौर-तरीक़ों” की वक़ालत करते रहे हैं. जयशंकर के मुताबिक “दरअसल हिंद-प्रशांत हमारी राजनीतिक, आर्थिक, कनेक्टिविटी, यात्राओं और सामाजिक हितों का बुनियादी इज़हार है. ये काफ़ी हद तक सामुद्रिक दायरे की सुरक्षा और बचाव सुनिश्चित करने से जुड़ी क़वायद पर निर्भर है.” भारत की नौसेना और कोस्ट गार्ड अब बहुपक्षीय और द्विपक्षीय अभ्यासों में पहले के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा शिरकत करने लगे हैं. इनका मकसद विश्वास पैदा करना, पारस्परिक क्रियाशीलता हासिल करना और कार्यों से जुड़े मानकों (SOPs) का साझा तौर पर उभार सुनिश्चित करना है. भारत व्हाइट शिपिंग इंफ़ॉर्मेशन एक्सचेंज से जुड़े प्रयासों की अगुवाई कर चुका है. इसमें तमाम देशों ने हिस्सा लिया था. इस दिशा में सहयोग के और भी व्यावहारिक उदाहरण हमारे सामने हैं. भारत ख़ासतौर से हिंद महासागरीय क्षेत्र (IOR) के देशों को पानी से जुड़ा खाका तैयार करने के लिए हाइड्रोग्राफ़िक सर्वे में मदद कर रहा है.

इसके अलावा संकट के समय क्षेत्रीय नेतृत्व का प्रभावी रूप– मसलन आस-पड़ोस और वैश्विक स्तर पर कोविड-19 से निपटने को लेकर संपर्क और जुड़ाव वाला अभियान भी इस सिलसिले में एक अहम मिसाल है. इनके अलावा टीके के विकास और निर्यात को लेकर समाधान मुहैया कराने और स्वास्थ्य सेवाओं को सामरिक संपत्ति के तौर पर देखने की पहल भी इसी कड़ी का हिस्सा हैं. हिंद महासागरीय क्षेत्र में सबसे पहले प्रतिक्रिया जताने वाला और पसंदीदा साथी बनकर या हिंद प्रशांत के विस्तृत इलाक़े में समान सोच वाले साथियों के साथ मिलकर वैश्विक पहलों की परिकल्पना तैयार करना भी इसी क़वायद का हिस्सा है. ये तमाम पहल वैश्विक ताक़तों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर समय-समय पर उभरने वाली परिस्थितियों से निपटने को लेकर भारत की काबिलियत का इज़हार करते हैं.

संकट के समय क्षेत्रीय नेतृत्व का प्रभावी रूप- मसलन आस-पड़ोस और वैश्विक स्तर पर कोविड-19 से निपटने को लेकर संपर्क और जुड़ाव वाला अभियान भी इस सिलसिले में एक अहम मिसाल है.

बात चाहे क्वॉड के स्वरूप की हो या ऑकस के इर्द-गिर्द होने वाली बहसों की, ऐसा लगता है कि भारत मानवीय सुरक्षा के मसले से जुड़े व्यापक दायरे पर काम कर रहा है. इसमें “सर्वसम्मति” ही गठजोड़ और पारस्परिकता का आधार है. सार यही है कि भारत के लिए भागीदारियां, पहले से की गई तैयारियां और आपस में जुड़े क्षेत्र का तेज़ी से विस्तार ही भविष्य या आगे की ओर जाने वाला रास्ता है.

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