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आज ऐसा दौर है, जब विश्व में डेटा का प्रवाह, सामानों के व्यापार को पीछे छोड़ रहा है. जहां तकनीकी आपूर्ति श्रृंखलाओं की बड़ी सख़्ती से निगरानी हो रही है. ऐसे में भारत का लक्ष्य होना चाहिए कि वो ख़ुद को डिजिटल भूमंडलीकरण के बड़े केंद्र के तौर पर विकसित करे.
पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन के बीच हुए मौजूदा हिंसक संघर्ष पर किसी को अचरज नहीं होना चाहिए. दोनों देशों के बीच ये भिड़ंत तो होनी ही थी. इस संघर्ष को अंजाम तक पहुंचाने की शुरुआत तो वर्ष 2017 में उस वक़्त ही हो गई थी, जब भारत ने चीन के साम्राज्यवादी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) प्रोजेक्ट में शामिल होने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था. तब से ही चीन ने भारत के ख़िलाफ़ साज़िशों के अटूट सिलसिले की शुरुआत कर दी थी. चीन ने उसी साल गर्मियों में भारत को तगड़ा झटका दिया था. जब डोकलाम के पठार में दोनों देश आमने सामने आ गए थे. हिमालय का राजनीतिक भूगोल बदलने की चीन की साज़िशों को नाकाम करते हुए, भारत ने चीन की इस चाल का भी डट कर मुक़ाबला किया था. भारत को चीन की हर घुसपैठ को मज़बूती से असफल करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए. फिर चाहे चीन ये अतिक्रमण, हमारे पर्वतों पर करे, हमारी ज़मीन पर करे, हमारे समुद्री इलाक़ों में या फिर हमारे डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर करे.
भारत के टिप्पणीकार बेवजह ही चीन की हालिया हरकतों को लेकर फ़िक्रमंद हैं. हमें चीन के इस क़दम के पीछे की रणनीति पर अटकलें लगाने के बजाय ईमानदारी से ये बात मान लेनी चाहिए कि चीन वैसा ही बर्ताव कर रहा है, जैसा वो है
भारत के टिप्पणीकार बेवजह ही चीन की हालिया हरकतों को लेकर फ़िक्रमंद हैं. हमें चीन के इस क़दम के पीछे की रणनीति पर अटकलें लगाने के बजाय ईमानदारी से ये बात मान लेनी चाहिए कि चीन वैसा ही बर्ताव कर रहा है, जैसा वो है. भारत ने वही फ़ैसले लिए हैं, जो एक स्वतंत्र देश अपनी संप्रभुता का इस्तेमाल करके लेता है. इसके उलट कोई और तर्क देने का अर्थ है कि हम ‘मेड इन चाइना’ महामारी कोविड-19 के दौरान, चीन की हरकतों को समझे बिना ये बातें कह रहे हैं. दक्षिणी चीन सागर में अपने अधिकार क्षेत्र का विस्तार करना हो, या फिर भारी विरोध के बावजूद राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के ज़रिए हॉन्ग कॉन्ग पर अपना शिकंजा मज़बूत करना, ताइवान के हवाई क्षेत्र का बार बार उल्लंघन हो या फिर जापान के सेनकाकू द्वीपों के इर्द गिर्द आक्रामक नौसैनिक गतिविधियां चलाना. या फिर नेपाल की सीमा में अतिक्रमण की सबसे ताज़ा घटना.
चीन के इस पागलपन के पीछे एक सोची समझी रणनीति है. चीन की इस न समझ में आने वाली अधीरता के पीछे एक कारण है.
वर्ष 2002 में पूर्व राष्ट्रपति जियांग ज़ेमिन ने 16वीं पार्टी कांग्रेस को एक रिपोर्ट सौंपी थी. इस रिपोर्ट में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने भविष्य दृष्टि अपनाते हुए अगले बीस वर्षों को चीन के लिए ‘सामरिक अवसर के दौर’ के रूप में देखा था. इसका सीधा संबंध, विश्व व्यापार संगठन (WTO) में चीन के प्रवेश के साथ साथ मध्य पूर्व में अमेरिका की अदूरदर्शी दख़लंदाज़ी से था. इन कारणों से चीन को चौपड़ के शातिराना दांव खेलने का मौक़ा मिल गया. इसकी मदद से चीन ने अपनी राष्ट्रीय शक्ति का निर्माण किया. चीन के सम्राट शी जिनपिंग, जो एक स्वर्गीय जनादेश के माध्यम से जीवन भर के लिए सत्ता में आसीन हो गए हैं, अब चीन की उसी राष्ट्रीय शक्ति का इस्तेमाल कर रहे हैं. जिससे कि वो अमेरिका के घटते प्रभाव और बिखरते यूरोपीय संघ की कमज़ोर होती इच्छाशक्ति के कारण दुनिया में चीन को विकल्प के तौर पर प्रस्तुत कर सकें. ये लम्हा चीन में शी जिनपिंग राजवंश (माओ के दौर के गैंग की तरह ही) के कमान अपने हाथ में लेने का है. जिससे वो चीन का एक सदी पुराना ख़्वाब पूरा करने की ओर ले चलें. और वो सपना है, वर्ष 2049 तक विश्व पर राज करने का.
चीन के सम्राट शी जिनपिंग, जो एक स्वर्गीय जनादेश के माध्यम से जीवन भर के लिए सत्ता में आसीन हो गए हैं, अब चीन की उसी राष्ट्रीय शक्ति का इस्तेमाल कर रहे हैं. जिससे कि वो अमेरिका के घटते प्रभाव और बिखरते यूरोपीय संघ की कमज़ोर होती इच्छाशक्ति के कारण दुनिया में चीन को विकल्प के तौर पर प्रस्तुत कर सकें
शी जिनपिंग के नेतृत्व में गढ़े जा रहे चीन के असाधारणवाद का जो संस्करण हम देख रहे हैं, वो चीन की ऐतिहासिक पहचान से जुड़ा हुआ है. और चीन के स्वर्णिम अतीत की ये छवि, बड़े शातिराना तरीक़े से मिथक के तौर पर गढ़ी गई है. चीन ने अपनी आंखों पर इसी शानदार अतीत के मिथक की पट्टी बांध ली है. अब वो ये मानने को तैयार ही नहीं है कि उसे अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों, नियमों और पैमानों के दायरे में रहकर ही काम करना होगा. आज चीन ने ये तय कर लिया है कि देंग शाओपिंग के दौर वाले चीन ने अपने लक्ष्य और क्षमताओं को लेकर, ‘छुपाओ और अपने समय का इंतज़ार करो’ की जिस रणनीति पर अमल किया था, उस आडम्बर की अब ज़रूरत रही नहीं.
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपने देश में जिस तानाशाही सनक का अधिकार रखती है, अब वो राज पाट के इस मॉडल को दूसरे देशों को भी निर्यात कर रहा है. चीन बाहरी दुनिया का आकलन अपनी मध्ययुगीन दृष्टि से ही करता है. ये हमेशा ही उसकी ख़ासियत रही है. तमाम पड़ोसी देशों के साथ अपनी सीमा को नए सिरे से निर्धारित करने की चीन की प्यास कभी शांत ही नहीं होती. वो इसे एक जोख़िम भरे खेल की तरह खेलने का आनंद उठाता है. इसी तरह वो अपने देश की आबादी (और दूसरे देशों की जनसंख्या को भी) ऐसे गिनता है, जैसे वो इंसान नहीं, बस चारा हैं. चीन का ये बर्ताव, कनाडा के साथ उसकी, ‘बंधक कूटनीति’ से बख़ूबी ज़ाहिर होता है. चीन इस मामले को कैसे देखता है, इसका बेशर्म नमूना चाइना डेली के यूरोपीय संघ के ब्यूरो चीफ चेन वेइहुआ ने इन शब्दों में ज़ाहिर किया था: ‘लोग अक्सर इस बात पर ध्यान नहीं देते कि मेंग वानझाऊ अगर ज़्यादा नहीं तो कम से कम दस माइकल कोवरिग और माइकल स्पावोर के बराबर है.’
(मेंग वांगझाऊ को कनाडा ने अमेरिका के कहने पर गिरफ़्तार कर लिया था. वो चीन की संचार कंपनी हुआवेई के संस्थापक की बेटी हैं. इसी के बदले में चीन ने कनाडा के दो नागरिकों माइकल कोवरिग और माइक स्पावोर को बिना किसी आरोप के गिरफ़्तार कर लिया था)
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपने देश में जिस तानाशाही सनक का अधिकार रखती है, अब वो राज पाट के इस मॉडल को दूसरे देशों को भी निर्यात कर रहा है. चीन बाहरी दुनिया का आकलन अपनी मध्ययुगीन दृष्टि से ही करता है
चीन के पास अपने इस आपराधिक बर्ताव को थोपने के लिए दो महत्वपूर्ण हथियार हैं. एक तो है चीन की विस्तारवादी सेना और दूसरा है अन्य देशों से संबंध के आधुनिक तौर तरीक़े. शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के आधुनिकीकरण का सबसे बड़ा अभियान चलाया गया था. इस दौरान चीन की सेना के भ्रष्ट या ऐसे अफ़सरों को बर्ख़ास्त कर दिया गया, जो शी जिनपिंग के वफ़ादार नहीं थे. साथ ही साथ चीन ने अपनी नेवी के एक सक्षम और विस्तारवादी नौसेना के रूप में परिवर्तन को भी सुनिश्चित किया. सेना में महत्वपूर्ण प्रशासनिक और संगठनात्मक सुधार किए गए. इसके अलावा चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और इसकी विचारधारा के प्रति सेना की वफ़ादारी को फिर से मज़बूत बनाया गया. इसी के साथ साथ, शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन ने दुनिया की आपूर्ति श्रृंखला, तकनीक के प्रवाह, वित्त और आंकड़ों व वैश्विक प्रशासन के संगठनों को सुरक्षा से जोड़ कर, उन्हें अपने हथियार के रूप में बदल दिया. ज़िंदगी के हर मोर्चे पर दखल देने वाली चीन की सरकार, तो उसकी कम्युनिस्ट पार्टी के फ़ायदे के लिए तैयार की गई कठपुतली भर है.
भारत ने बार-बार समुद्र तट से 14 हज़ार फुट की ऊंचाई पर इन तल्ख़ सच्चाइयों का सामना किया है. और जल्द ही भारत को अपने समुद्री क्षेत्र को तेज़ी से अपनी ओर आते लाल तूफ़ान से भी सुरक्षित बनाने की ज़रूरत पड़ेगी. एक स्तर पर, चीन की कोशिश भारत को ये याद दिलाने की है कि एशिया में सबसे ताक़तवर देश कौन सा है. लद्दाख में संघर्ष के ज़रिए चीन भारत को ये बताना चाहता है कि अगर भारत इस भौगोलिक सामरिक हक़ीक़त को स्वीकार नहीं करता है, तो उसे चीन की हुक्म उदूली करना बहुत महंगा पड़ेगा. इससे भी अधिक चिंता की बात ये है कि चीन ने भारत के इतिहास से शायद ये सबक़ लिया होगा कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अत्यधिक आक्रामकता से देर सबेर भारत बातचीत की टेबल पर आने को मजबूर होगा. तब भारत, शांति की क़ीमत के तौर पर चीन को ज़्यादा सियासी रियायतें, अपने बाज़ार तक पहुंच या आर्थिक सौदेबाज़ी के लिए राज़ी हो. एक राष्ट्र के तौर पर भारत को चीन के इस आकलन को न सिर्फ़ ग़लत साबित करना होगा, बल्कि चीन के हर मुग़ालते को सख़्ती से दूर भी करना होगा.
शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन ने दुनिया की आपूर्ति श्रृंखला, तकनीक के प्रवाह, वित्त और आंकड़ों व वैश्विक प्रशासन के संगठनों को सुरक्षा से जोड़ कर, उन्हें अपने हथियार के रूप में बदल दिया
कोविड-19 महामारी के दौर का फ़ायदा उठा कर चीन अपने पूर्वी और दक्षिणी चीन सागर के पड़ोसियों को भी एक संदेश दे रहा है. हालांकि, इस समुद्री क्षेत्र में चीन के आक्रामकता दिखाने पर अमेरिका से सैनिक पलटावर का जोख़िम है. लेकिन, हिमालय की चोटियों के बीच सीमा का फिर से निर्धारण करने की कोशिश, चीन की उसी बदनीयती की ओर इशारा करता है. इस समय चीन, बाक़ी दुनिया को बिना कोई टकराव मोल लिए सुपरपावर अमेरिका की घटती हुई ताक़त का एहसास करा रहा है. नए युग के कन्फ्यूशियसवाद के हिसाब से चीन ये आकलन कर रहा है कि अगर वो भारत को झुकाने में सफल रहता है, तो ये सुपरपावर के तौर पर अमेरिका का मर्सिया पढ़े जाने जैसा होगा. हालांकि, चीन के इन दोनों ही आकलनों के ग़लत साबित होने की संभावना है. पर शर्त ये है कि तमाम देश चीन की हालिया हरकतों की गहरे संदर्भों का सही तरीक़े से आकलन करें.
भारत को इसकी शुरुआत ये सच्चाई स्वीकार करके करनी होगी कि, दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था यानी चीन, लंबी अवधि के लिए उसका बुनियादी आर्थिक और भौगोलिक सामरिक प्रतिद्वंदी है. इसमें कोई दो राय नहीं कि दो देशों के बीच बातचीत होनी चाहिए. वुहान और मामल्लपुरम जैसी अनौपचारिक शिखर वार्ताओं की अपनी अहमियत है. लेकिन भारत को सिर्फ़ एक लक्ष्य साधने पर ज़ोर देना चाहिए कि वो अपने लिए मज़बूत, राजनीतिक, आर्थिक, डिजिटल और सैन्य संसाधन विकसित करे, जो छोटी और मध्यम अवधि के लिए उसकी सीमाओं की रक्षा कर सकें और उत्तर से आने वाले आक्रमणकारी को खदेड़ सकें.
भारत को इसकी शुरुआत ये सच्चाई स्वीकार करके करनी होगी कि, दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था यानी चीन, लंबी अवधि के लिए उसका बुनियादी आर्थिक और भौगोलिक सामरिक प्रतिद्वंदी है
भारत लंबे समय से चीन को उसके दुस्साहत की भारी क़ीमत चुकाने के लिए मजबूर करने से हिचकता रहा है. और इसके बजाय विवादों को कूटनीतिक तरीक़े से हल करने पर ज़ोर देता रहा है. ऐसा करते हुए, भारत ये आकलन करने में असफल रहा है कि शी जिनपिंग के नेतृत्व वाला चीन अतार्किक भले हो, इसका हर क़दम पूरी तरह से अप्रत्याशित नहीं होता. चीन, किसी अन्य देश के वार्ता करने को तरज़ीह देने को उस देश के घुटने टेकने और कमज़ोरी के तौर पर देखता है. भारत को ऐसे विकल्प तलाशने होंगे, जिससे वो इस ग़ैर ज़िम्मेदाराना बर्ताव के लिए चीन को भारी क़ीमत चुकाने को मजबूर कर सके. भारत को चाहिए कि वो चीन के ख़िलाफ़ ग़ैर पारंपरिक और असमानता पैदा करने वाले ऐसे विकल्पों पर काम करे, जो हिमालय पर्वत पर चीन की पहुंच को सीमित कर सकें. इसके लिए, सीमा पर सड़कों और अन्य बुनियादी ढांचों का विकास एक विकल्प है. सरहद पर मोर्चेबंदी मज़बूत करना दूसरा विकल्प है. उन दुर्गम पहाड़ी इलाक़ों में दुश्मन को एक ही बात समझ में आती है, भारी भरकम ताक़त मौजूदगी और उसका इस्तेमाल.
पुरानी कहावत, ‘सारा खेल पैसे का है’ आज से ज़्यादा प्रासंगिक कभी न थी. आज भारत के सामने सिर्फ़ एक लक्ष्य होना चाहिए. अपनी आर्थिक शक्ति का भरपूर विकास. अन्य प्राथमिकताएं इसके बाद आती हैं. चीन की तरक़्क़ी का राज़ भूमंडलीकरण के साथ उसका सामरिक संबंध जोड़ना था. आज ऐसा दौर है, जब विश्व में डेटा का प्रवाह, सामानों के व्यापार को पीछे छोड़ रहा है. जहां तकनीकी आपूर्ति श्रृंखलाओं की बड़ी सख़्ती से निगरानी हो रही है. ऐसे में भारत का लक्ष्य होना चाहिए कि वो ख़ुद को डिजिटल भूमंडलीकरण के बड़े केंद्र के तौर पर विकसित करे. भारत ने चीन के बीआरआई प्रोजेक्ट में शामिल होने के प्रस्ताव को ठुकरा कर बिल्कुल सही फ़ैसला लिया. अब भारत को सुनिश्चित करना होगा कि वो बीआरआई के डिजिटल अवतार को भी ख़ारिज करे.
आज भारत के सामने सिर्फ़ एक लक्ष्य होना चाहिए. अपनी आर्थिक शक्ति का भरपूर विकास. अन्य प्राथमिकताएं इसके बाद आती हैं. चीन की तरक़्क़ी का राज़ भूमंडलीकरण के साथ उसका सामरिक संबंध जोड़ना था
चीन के ऐप्स पर प्रतिबंध लगाकर भारत ने उसे महत्वपूर्ण संकेत दिया है. मगर, इसका चीन पर बहुत मामूली आर्थिक दुष्प्रभाव पड़ेगा. इसका कारण ये है कि दोनों देशों के बीच व्यापार बहुत असंतुलित है. ऐसे में भारत के डिजिटल ढांचे और नेटवर्क (5G) की कड़ाई से निगरानी करनी होगी. साथ ही एक अरब से ज़्यादा भारतीयों के डिजिटल प्लेटफॉर्म को भी चीन के अतिक्रमण और घुसपैठ से बचाना होगा. जो वो कभी खुलकर करता है तो कभी चोरी से. भारत के सामने इन लक्ष्यों की प्राप्ति में कोई दुविधा या अस्पष्टता नहीं होनी चाहिए. लेकिन, भारत ये सब अकेले नहीं कर सकता. और यहीं जाकर भारत के लिए सामरिक अवसरों के द्वार खुलते हैं. शी जिनपिंग की तानाशाही के ख़िलाफ़ मज़बूत आवाज़ उठाते हुए सिंघुआ यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर शू झैंग्रुन चीन की वैश्विक आक्रामकता के नतीजों को लेकर अफ़सोस जताते हैं. वो लिखते हैं कि, ‘चीन, विश्व समुदाय के क़रीब जाने के बजाय, बाक़ी दुनिया से ख़ुद को अलग कर रहा है.’ भारत के सामने चुनौती ये है कि वो इस अवसर को लपक ले. विदेश नीति को आत्मसम्मान से जोड़ने की पुरानी आदत का परित्याग करे. और ऐसी व्यवहारिक विदेश नीति विकसित करे जो व्यवहारिक हो. और यहां तक कि अपने हितों पर आधारित हो. भारत को ऐसी साझेदारियां विकसित करनी चाहिए, जो उसकी अर्थव्यवस्था को नई शक्ति दें. उसे नई तकनीक प्रदान करें. उसकी सेना को नए हथियारों से लैस करें और उसकी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं की आपूर्ति करें.
मगर, अफ़सोस की बात है कि अभी भी भारत में गुट निरपेक्षता को विदेश नीति के विकल्प के तौर पर आज़माने को लेकर चर्चा हो रही है. ये इस बात का प्रतीक है कि भारत अभी भी सामने खड़ी कड़वी सच्चाई को देख नहीं पा रहा है. दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ नहीं पा रहा है. दूरदृष्टि कमी के कारण ही आज भारत अपने भविष्य पर नज़र नहीं डाल पा रहा है. जब गुट निरपेक्ष आंदोलन की कल्पना की गई थी, तब की दुनिया बिल्कुल अलग थी. तब भारत, दो महाशक्ति के प्रभुत्व वाली दुनिया में अपने लिए एक अलग स्थान बनाना चाहता था. लेकिन, क्या वो सिद्धांत आज भी विश्व मंच पर भारत को उसका स्थान दिला पाएंगे? या फिर एक के बाद एक कई सामरिक साझेदारियां (जो इस समय की भारत की सामरिक साझेदारियों से अलग हों), भारत के हितों की बेहतर ढंग से रक्षा कर सकेंगी?
भारत के पास अब ‘सामरिक दुविधा’ की आड़ में ख़ुद को छुपाने का समय समाप्त हो गया है. अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भारत की भागीदारी के बारे में भी यही बात नई हक़ीक़त बन चुकी है. आख़िर, भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपनी सदस्यता का लाभ कैसे लेगा? वो G-20 देशों की अध्यक्षता के सामने खड़े अवसर को कैसे भुनाएगा? या फिर विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्यक्ष पद, वैश्विक आर्टिफ़िशियल एलायंस में अपनी उपस्थिति का लाभ कैसे ले सकेगा? या फिर अंतरराष्ट्रीय सौर ऊर्जा गठबंधन के नेतृत्व का फ़ायदा कैसे उठा पाएगा? आज भारत को बार बार वैश्विक प्रशासन में भागीदार बनने का अवसर मिल रहा है. सवाल ये है कि क्या भारत इन अखाड़ों में उतरने का अधिकताम लाभ ले पाने के लिए तैयार है? क्या भारत अपने कूटनीतिक संसाधनों का इस्तेमाल करके अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इस बात का विश्वास दिला सकता है कि हिमालय की चोटियों पर हुई घटनाओं के वैश्विक प्रभाव देखने को मिलेंगे. और इस मोर्चे पर भारत की ख़ामोशी केवल चीन के अन्य भौगोलिक क्षेत्रों और मोर्चों पर विश्व शक्ति बनने के बदइरादों को ही बढ़ावा देगी. क्या भारत, चीन के ख़िलाफ़ ताइवान, तिब्बत, शिन्जियांग और हॉन्ग कॉन्ग जैसे मुद्दों पर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बोलने का साहस जुटा सकेगा? और क्या वो विश्व स्तर पर ऐसी परिचर्चाओं के लिए जगह बना सकेगा, जो चीन की भेड़िये जैसी चाल वाले दुष्प्रचार का मुक़ाबला कर सके?
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Samir Saran is the President of the Observer Research Foundation (ORF), India’s premier think tank, headquartered in New Delhi with affiliates in North America and ...
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