Author : Kabir Taneja

Published on Feb 25, 2020 Updated 0 Hours ago

मजलिस पर सुधारवादियों के बदले रुढ़िवादियों और कट्टरपंथियों का कब्ज़ा इसे ठीक करने का मौक़ा गंवाने की तरह होगा. इस ऐतिहासिक मौक़े को खोने की ज़िम्मेदारी काफ़ी हद तक ट्रंप प्रशासन की भी होगी.

अमेरिका के साथ तकरीबन युद्ध के बाद ईरान में चुनाव की हलचल

ईरान के लिए पिछले दो महीने घटनाओं से भरपूर रहे. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की वर्षों पुरानी दुश्मनी की वजह से इराक़ में बग़दाद हवाई अड्डे पर अमेरिकी हमले में बड़े सैन्य नेता जनरल क़ासिम सुलेमानी के मारे जाने के बाद पूरा इलाक़ा क़रीब-क़रीब युद्ध की चपेट में आ गया. अब पिछले कुछ हफ़्तों में तनाव कम होने के बाद ईरान में 21 फरवरी को चुनाव होने जा रहे हैं. 11वां संसदीय चुनाव बेहद चुनौतीपूर्ण राजनीतिक माहौल में होगा.

सुलेमानी की मौत के साथ परमाणु समझौते से अमेरिका के अलग होने, ट्रंप प्रशासन की तरफ़ से पाबंदियों को कठोर करने और यूरोप की अगुवाई में INSTEX (व्यापार लेन-देन के समर्थन में दस्तावेज़) में देरी की वजह से राष्ट्रपति हसन रूहानी जैसे उदारपंथियों और सुधारवादियों के सामने रूढ़िवादी मज़बूत हो गए हैं.

मजलिस की 290 सीटों के लिए प्रचार की शुरुआत के साथ ही ईरान की संसद आज अपने सुधारवादी एजेंडे के लिए संघर्ष कर रही है. अयातोल्लाह ख़ामेनेई और 6 क़ानूनविदों के नेतृत्व वाली देश की गार्जियन काउंसिल ने 14 हज़ार से ज़्यादा उम्मीदवारों में से 8 हज़ार उम्मीदवारों की उम्मीदवारी खारिज कर दी है. इनमें से 90 सुधारवादी और उदार मौजूदा सांसद हैं. इससे रुढ़िवादियों का रास्ता साफ़ होगा जिन्हें अमेरिका के साथ ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर बातचीत की वजह से नुक़सान उठाना पड़ा था.

ईरान में 2016 चुनाव के नतीजे ईरान और अमेरिका- दोनों के मौजूदा हालात के बिल्कुल अलग थे. 2016 का चुनाव ईरान और सुरक्षा परिषद के स्थायी देशों के बीच परमाणु समझौता होने के बाद हुआ था. तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा के प्रशासन की तरफ़ से आर्थिक पाबंदी लगाने की वजह से ईरान काफ़ी हद तक बातचीत के लिए तैयार हुआ. जुलाई 2015 में रूहानी और विदेश मंत्री जवाद ज़रीफ़ लंबी बातचीत के बाद समझौते के लिए तैयार हुए. आर्थिक बदहाली के ख़तरे और अरब स्प्रिंग जैसी बग़ावत की आशंका के कारण अयातोल्लाह को रूहानी की योजना पर चलना पड़ा.

परमाणु समझौते से ट्रंप का हटना इस बात की मिसाल है कि रूढ़िवादी और दक्षिणपंथी गुटों को इस बात को उजागर करना चाहिए कि क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ईरान की सरकार या ईरान के लोगों के साथ अमेरिका का इरादा कभी भी अच्छा नहीं था

लेकिन ट्रंप के आने के बाद सब कुछ बदल गया. समझौते और ईरान के मुखर विरोधी ट्रंप मई 2018 में परमाणु समझौते से अनौपचारिक रूप से अलग हो गए. ट्रंप का अपने मतदाताओं से ये चुनावी वादा था. समझौते से अमेरिका के हटने से रुढ़िवादियों और कट्टर गुटों को मज़बूती मिली. शायद वो इसी मौक़े का इंतज़ार कर रहे थे ताकि उन्हें अपना अधिकार जताने और लोगों के बीच ये फैलाने का अवसर मिले कि अमेरिका और उसके सहयोगी इज़रायल का ईरान के साथ शांति का कोई इरादा नहीं है.

इस घटनाक्रम के बीच रूहानी ने ख़ुद को चुनौतीपूर्ण हालात में पाया. 2017 में महंगाई और आर्थिक हालात की वजह से ईरान के अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शन शुरू हो गए. एक असामान्य क़दम के तहत रूहानी ने प्रदर्शनों को कुछ हद तक तरजीह दी और कहा कि लोगों को सरकार की आलोचना का अधिकार है. हालांकि, प्रदर्शन शांतिपूर्ण ढंग से और संपत्ति को नुक़सान पहुंचाए बिना हो. लेकिन इसके बावजूद चुनौतियां बढ़ती रहीं. अयातोल्लाह के नियंत्रण वाली इस्लामिक रेवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प (IRGC) ईरान के बाहर अपना विस्तार कर रही थी. इसके लिए पैसे चाहिए थे. विस्तार इतना ज़्यादा हो रहा था कि सीरिया और इराक़ में तैनाती के लिए ईरान को अफ़ग़ानिस्तान में लड़ाके ख़रीदने पड़े. इसकी वजह से ईरान को हिज़्बुल्लाह की आलोचना भी झेलनी पड़ी.

इन सबके बीच रूहानी ने ख़ुद को कई मोर्चों पर चुनौती की हालत में पाया. अयातोल्लाह का मानना है कि रूहानी को अमेरिका से समझौते के लिए काफ़ी हद तक समर्थन दिया गया. परमाणु समझौते से ट्रंप का हटना इस बात की मिसाल है कि रूढ़िवादी और दक्षिणपंथी गुटों को इस बात को उजागर करना चाहिए कि क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ईरान की सरकार या ईरान के लोगों के साथ अमेरिका का इरादा कभी भी अच्छा नहीं था.

1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद से पश्चिमी देशों और ईरान के बीच अविश्वास का माहौल बना हुआ है. मजलिस पर सुधारवादियों के बदले रुढ़िवादियों और कट्टरपंथियों का कब्ज़ा इसे ठीक करने का मौक़ा गंवाने की तरह होगा

जनरल सुलेमानी की हत्या ने हालात को और मुश्किल बना दिया. इसने रुढ़िवादियों को मज़बूत कर दिया जबकि सुधारवादियों को हाशिये पर धकेल दिया. हालांकि, इसकी वजह से लोगों की राय पर कितना असर होगा ये अभी पूरी तरह से तय नहीं है. चाहे वो सोच-समझ कर हो या अन्यथा, अगर सुलेमानी की याद में बड़ी तादाद में लोगों के सड़क पर उतरने को पैमाना माना जाए तो अमेरिकी दृष्टिकोण से भी ये शायद ग़लत वक़्त पर हुआ. सुलेमानी गाथा का नतीजा और भी नुक़सानदेह रहा क्योंकि ईरान की सशस्त्र सेना ने ग़लती से यूक्रेन की एयरलाइंस के एक विमान को मार गिराया. इसमें 176 लोगों की मौत हो गई. ईरान में हवाई हादसे पर लोगों की प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण रही. लोगों ने ग़लती को छुपाने की कोशिश नाकाम कर दी. एक रिपोर्ट के मुताबिक़ रूहानी ने धमकी दी कि अगर ग़लती को सार्वजनिक रूप से नहीं माना गया तो वो राष्ट्रपति पद से इस्तीफ़ा दे देंगे.

ईरान की संसद में सुधारवादियों की हार न सिर्फ़ रूहानी और ईरान के लिए बल्कि दुनिया के लिए भी बड़ा झटका होगा. हवाई हादसे के पहले भी दो महीने से ज़्यादा वक़्त से रूहानी के इस्तीफ़े की चर्चा चल रही है. राष्ट्रपति के लगातार इनकार के बाद भी इस्तीफ़े की अटकलें लग रही हैं. 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद से पश्चिमी देशों और ईरान के बीच अविश्वास का माहौल बना हुआ है. मजलिस पर सुधारवादियों के बदले रुढ़िवादियों और कट्टरपंथियों का कब्ज़ा इसे ठीक करने का मौक़ा गंवाने की तरह होगा. इस ऐतिहासिक मौक़े को खोने की ज़िम्मेदारी काफ़ी हद तक ट्रंप प्रशासन की भी होगी.

बदहाल अर्थव्यवस्था, महंगाई और आर्थिक पाबंदी से जूझ रहे ईरान के लोग आख़िरकार चुनाव को बेकार समझेंगे. ईरान और अमेरिका की एक-दूसरे के प्रति आने वाली नीति प्रतिक्रियावादी होने वाली हैं. अमेरिका में चुनावी साल होने की वजह से एक-दूसरे के ख़िलाफ़ दुश्मनी आने वाले महीनों में बढ़ने वाली है.

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