Published on Dec 01, 2021 Updated 0 Hours ago

विरासती स्थानों को कई दिलचस्प मगर चिंताजनक रूपों में सत्ता और ताक़त के विस्तार के तौर पर इस्तेमाल में लाया जाता है. ऐसे में शहरी योजनाकारों के सामने विरोधाभासी स्थिति पैदा हो गई है.

उपनिवेशवाद और रंगभेद पीड़ित शहरी धरोहरों पर औपनिवेशिक छाप कम करने की क़वायद: ग्लोबल साउथ के तजुर्बे और सीख

परिचय

उपनिवेशवादी दौर के बाद के शहरों में नस्लीय और ग़रीबी-अमीरी के दर्जे से जुड़ी आधुनिकतावादी शहरी योजनाओं का बड़ा भारी योगदान रहा है. राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर की सरकारें अब विरासती जगहों को अपनी सत्ता और नियंत्रण के विस्तार के तौर पर इस्तेमाल में लाती हैं. व्यापक अर्थों में विरासत की कल्पना वर्तमान में अतीत के इस्तेमाल और सत्ता की धुरी के तौर पर की गई है. इसके तहत समाज में दबदबा रखने वाली ताक़तें भविष्य पर नियंत्रण पाने के लिए समसामयिक लक्ष्यों के संदर्भ में ऐतिहासिक तथ्यों को जायज़ बनाकर इस्तेमाल में ला सकती है. विरासती स्थानों को कई दिलचस्प मगर चिंताजनक रूपों में सत्ता और ताक़त के विस्तार के तौर पर इस्तेमाल में लाया जाता है. ऐसे में शहरी योजनाकारों के सामने विरोधाभासी स्थिति पैदा हो गई है. एक तरफ़ तो उन्हें ऐसे राजनेताओं के साथ काम करना पड़ता है जो अतीत के औपनिवेशिक निशानों को तबाह कर देना चाहते हैं. वहीं दूसरी ओर वही राजनेता आर्थिक फ़ायदों के लिए उपनिवेशवादी प्रतीकों का इस्तेमाल भी करते हैं. इसी को औपनिवेशिक विस्मरण (colonial amnesia) के तौर पर जाना गया है. इसके पीछे की सोच को समझने की ज़रूरत है. दरअसल, इसके पीछे का विचार यही है कि शहरी विकास और आधुनिकीकरण के लिए मौक़े बनाए जा रहे हैं. इस सिलसिले में नाम बदलना, तोड़फोड़ करना या औपनिवेशिक विरासत को अपने हाल पर ढहने के लिए छोड़ देना शामिल है. वहीं दूसरी ओर इस सोच के तहत साम्राज्यवादी ताक़तों के अत्याचारों और दमन की निशानियों को संजोकर रखा जाता है, ताकि उस काले अंधियारे औपनिवेशिक अतीत की याद दिलाई जा सके. उपनिवेशवाद के बाद का राजनीतिक नेतृत्व इसे अपने प्रति भरोसा कायम करने वाले कारक के तौर पर इस्तेमाल करता है.

 साम्राज्यवादी ताक़तों के अत्याचारों और दमन की निशानियों को संजोकर रखा जाता है, ताकि उस काले अंधियारे औपनिवेशिक अतीत की याद दिलाई जा सके. उपनिवेशवाद के बाद का राजनीतिक नेतृत्व इसे अपने प्रति भरोसा कायम करने वाले कारक के तौर पर इस्तेमाल करता है. 

यहां उपनिवेशवाद के बाद के दौर में शहरों की विरासती जगहों के संदर्भ में सत्ता के रुख़ और क्रियाकलापों की चर्चा की गई है. उम्मीद है कि इस क़वायद से इस संदर्भ में एक निश्चित स्तर पर विवेकपूर्ण कार्रवाई सुनिश्चित हो सकेगी. इससे उपनिवेशवाद के दौर के बाद के शहरों में प्रभावी और सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन लाने और दमन से मुक्त व्यवस्था कायम करने में मदद मिलेगी. फ़ोउकॉल्डियन और फ़ैनोनियन डिस्कोर्स एनालिसिस में औपनिवेशिक और रंगभेदी दौर के बाद के विरासती स्थानों के संदर्भ में सत्ता के संबंधों की पड़ताल के लिए एक ठोस और अहम ढांचा मिलता है. इतना ही नहीं ये विश्लेषण आर्थिक भेदभाव के नज़रिए से तैयार किया गया है. इसके तहत मुख्य दलील ये है कि उपनिवेशवादी और रंगभेदी स्थान आधारित परिदृश्य के धरोहर 1994 से दक्षिण अफ़्रीका में जस के तस बरकरार हैं. साथ ही देश को आर्थिक भेदभावों के चलते ज़्यादा चुनौतीपूर्ण और गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.

औपनिवेशिक व रंगभेदी दौर के बाद के शहरों में धरोहर वाले स्थानों को ग़ैर-औपनिवेशिक स्वरूप देना: आर्थिक भेदभावों के अनुभव

दरअसल हम औपनिवेशिक व्यवस्था के सबब और प्रभावों को उपनिवेशवादी और रंगभेदी दौर में उनकी ताक़तों के संदर्भ में कम करके आंकते रहे हैं. इस सिलसिले में नेल्सन मंडेला का घर एक दिलचस्प मिसाल है. इस कड़ी में ख़ासतौर से दो घटनाओं का ज़िक्र किए जाने की ज़रूरत है. दोनों वाक़ये औपनिवेशिक और रंगभेदी धरोहर की मौजूदगी और उपनिवेशवाद के बाद के विरासती संदर्भ में उसकी व्यापकता को रेखांकित करते हैं.

पहली घटना: सोवेटो के विलाकाज़ी स्ट्रीट में स्थित मंडेला हाउस.

1998 में नेल्सन मंडेला ने इस घर को एक नॉन-प्रॉफ़िट सोवेटो हेरिटेज कंपनी को बेचने का फ़ैसला किया था. इस फ़ैसले के पीछे उनका मकसद सोवेटो में और उसके इर्द-गिर्द सांस्कृतिक आहाता और परिवेश तैयार करना था. आगे चलकर उस घर को संग्रहालय में बदलने की योजना थी. बहरहाल अप्रैल 2021 में सामने आई ख़बरों के मुताबिक मंडेला म्यूज़ियम के हालात बेतरतीब और खस्ता हैं और वो ज्वॉइंट लिक्विडेटर्स के नियंत्रण में है.

दूसरी घटना: जोहानिसबर्ग के हाउटन स्थित मंडेला हाउस

मार्च 2021 में ख़बरें आईं कि जोहानिसबर्ग के हाउटन उपनगरीय इलाक़े में स्थित नेल्सन मंडेला के घर के आहाते में लंबी-लंबी झाड़ियां उग आईं थीं. मकान का बिजली-पानी का बिल बढ़ता ही जा रहा था. कुल मिलाकर मकान भूत-बंगला या खंडहर बनता जा रहा था. ग़ौरतलब है कि जोहानिसबर्ग के हाउटन इलाक़े में समृद्ध लोगों की रिहाइश है. नेल्सन मंडेला यहीं रहा करते थे. जून 2021 में ऐलान हुआ कि मंडेला के घर को एक बुटिक होटल में तब्दील कर उसे सैंक्चुअरी मंडेला का नाम दे दिया गया है. पहले से तय योजना के मुताबिक 1 अगस्त 2021 को इस होटल को आम लोगों के लिए खोल दिया गया. होटल में 9 कमरे हैं, जिनमें 18 मेहमानों के ठहरने की व्यवस्था है. यहां ध्यान लगाने के लिए भी जगह मौजूद है. साथ ही मदीबा (नेल्सन मंडेला को प्यार से मदीबा कहा जाता था) के निजी जीवन से भी इसका जुड़ाव साफ़ नज़र आता है. मंडेला फ़ाउंडेशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सेलो हटांग के मुताबिक, “ये स्थान मेहमानों को मदीबा की विरासत से रुबरु होने और उनकी रूह से प्रेरणा हासिल करने में मदद करेगा. साथ ही अंतरराष्ट्रीय मसलों को सुलझाने के साझे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एकजुट होने और एक महान विश्व नेता के सौम्य स्वभाव और जनसेवा की भावना से ओतप्रोत करेगा.” ये तमाम बातें अपनी जगह ठीक हैं. हालांकि मंडेला की इच्छा थी कि हाउटन स्थित उनके घर में उनके तीन पोते-पोतियां रहें. उनका विचार था कि इस घर को नेल्सन मंडेला ट्रस्ट के ज़रिए संचालित किया जाए और “ये जगह उनकी मृत्यु के बाद भी लंबे समय तक मंडेला परिवार की एकजुटता बनाए रखने के लिए जमावड़े का स्थान बन जाए.”

मंडेला फ़ाउंडेशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सेलो हटांग के मुताबिक, “ये स्थान मेहमानों को मदीबा की विरासत से रुबरु होने और उनकी रूह से प्रेरणा हासिल करने में मदद करेगा. साथ ही अंतरराष्ट्रीय मसलों को सुलझाने के साझे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एकजुट होने और एक महान विश्व नेता के सौम्य स्वभाव और जनसेवा की भावना से ओतप्रोत करेगा.”  

औपनिवेशिक अतीत वाले नगरों में शहरी नियोजन का प्रभाव

ऊपर से देखने पर ऐसा लगता है कि मंडेला के घरों को विरासती स्थानों की तरह संजोकर रखा जा रहा है. बहरहाल क़रीब से पड़ताल करें तो आर्थिक भेदभाव के स्वरूप में औपनिवेशिक बेदखली से जुड़ा सत्ता का खेल साफ़ दिखाई देता है. सौ बात की एक बात ये है कि मंडेला की इच्छा थी कि उनका विलाकाज़ी वाला घर सोवेटो में रहने वाले समुदायों के आर्थिक तरक्की में काम आए और हाउटन हाउस उनके परिवार के लिए एकजुट होने के स्थान के तौर पर इस्तेमाल में आए. हालांकि, हक़ीक़त ये है कि इनमें से कोई भी इच्छा ज़मीन पर पूरी नहीं हुई है. इन दोनों मकानों के बारे में मंडेला के तमाम फ़ैसलों को उनके देहांत के बाद ठेंगा दिखा दिया गया है. आर्थिक ताक़तों का ज़ोर इन विरासती स्थानों को आर्थिक फ़ायदों के लिए निजी हाथों को सौंपने पर है.

इन कार्रवाइयों के प्रभाव स्पष्ट हैं. उपनिवेशवाद के बाद के शहरों में हिंसा और असुरक्षा से जुड़े सांकेतिक औपनिवेशिक ढांचों को नए सिरे से खड़ा किया जा रहा है. इनके ज़रिए मौजूदा वक़्त और भविष्य के लिए लोगों के जेहन और हक़ीक़त में उन यादों को बड़े पैमाने पर स्थापित करने की क़वायद की जा रही है. मूल रूप से समृद्ध मध्यम वर्गों के लिए तैयार किए गए इन शहरों में आज ग़रीब तबका निवास कर रहा है. ये संपन्न तबका आज भी ‘दूसरों’ की क़ीमत पर सारी सहूलियतों का उपभोग करते हुए ‘ग़रीबों को वहां से बेदखल कर रहा है.’

बहरहाल ये कार्रवाइयां रोज़मर्रा के संघर्षों के संदर्भ से परे हैं. सत्ता इसी के आसपास संचालित होती है. इन्हीं कार्रवाइयों से सांकेतिक हिंसा और असुरक्षा सामने आती है. निश्चित तौर पर उपनिवेशवादी रुख़ में हर उस चीज़ को अहमियत दी जाती है जो उपनिवेशवाद के बाद के संदर्भों में ख़ुद को खड़ा करते हों और जो लाज़िमी तौर पर श्वेत और संपन्न हो. सोवेटो और हाउटन के मंडेला हाउस इसकी बेहतरीन मिसाल हैं. इन्हें अब औपनिवेशिक संकेतों और वस्तुओं में तब्दील कर दिया गया है जो आर्थिक भेदभाव को जन्म देते हैं.

 निश्चित तौर पर उपनिवेशवादी रुख़ में हर उस चीज़ को अहमियत दी जाती है जो उपनिवेशवाद के बाद के संदर्भों में ख़ुद को खड़ा करते हों और जो लाज़िमी तौर पर श्वेत और संपन्न हो. सोवेटो और हाउटन के मंडेला हाउस इसकी बेहतरीन मिसाल हैं. इन्हें अब औपनिवेशिक संकेतों और वस्तुओं में तब्दील कर दिया गया है जो आर्थिक भेदभाव को जन्म देते हैं. 

उपनिवेशवाद के बाद के नगरों में विरासती स्थानों को औपनिवेशिक छाप से मुक्त करना: कुछ सुझाव

नीचे चार अहम सुझाव दिए गए हैं. अगर हम सचमुच उपनिवेशवाद और रंगभेदी दौर के बाद के शहरों की विरासती जगहों को औपनिवेशिक छाप से मुक्त करने के प्रति गंभीर हैं तो ये सुझाव कारगर साबित हो सकते हैं:

  1. हमें उपनिवेशवादी दौर के बाद के शहरों में विरासती स्थानों की संरक्षा से जुड़े आधुनिकतावादी योजना वाले नज़रिए को ठुकराने की ज़रूरत है. इसकी जगह वैकल्पिक उपाय अपनाने की आवश्यकता है, तभी लोगों के जीवन में बदलाव लाने से जुड़ी विचारधारा सामने आ सकती है. इसकी वजह ये है कि “ये नया विचार ही असल में पुरानी विचारधारा है.”
  2. विरासती स्थानों के संरक्षण के बहाने होने वाली बेदखली से उपनिवेशवादी दौर के बाद के शहरों में व्यापक रूप से औपनिवेशिक फ़ितरत बेपर्दा होती है. ये तौर-तरीक़ा शहरी नियोजन में सामाजिक न्याय के लक्ष्य को शामिल किए जाने के रास्ते में रुकावटें डालता रहेगा.
  3. हमें शहरी नियोजन में ऊपर से नीचे की ओर प्रवाहित होने वाले तकनीकी रुख़ से आगे निकलना होगा. औपनिवेशिक अतीत वाले शहरों में सामाजिक न्याय को जोड़ने से जुड़ी जटिलताओं को भली प्रकार से समझने की ज़रूरत है. इस सिलसिले में उन कारकों की पहचान करनी होगी जो असल में इस पूरी प्रक्रिया में अहम रोल निभाते हैं.
  4. अफ़सरशाही और सियासी सत्ता संबंधों, बुनियादी ढांचे के विकास, स्थानिक नियोजन नीतियां और क़ानून शहरी नियोजन के लिए भारी अहमियत रखते हैं. इनकी जांच-पड़ताल होती रहनी चाहिए. जिन क्षेत्रों में शहरी नियोजन के आधुनिकतावादी तौर-तरीक़े सिरे से नाकाम रहे हैं उनमें इस नज़रिए को पूरी तरह से ख़ारिज किया जाना चाहिए. इसके ज़रिए ही अतीत में और मौजूदा वक़्त में छांटे गए स्थानों का स्वरूप बदला जा सकता है.
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