Author : Ramanath Jha

Published on Jul 16, 2018 Updated 0 Hours ago

दिल्ली के अनूठे चरित्र को स्वीकार किए जाने की जरुरत है। पहली बात तो यह है कि दिल्ली का मूल तत्व एक नगर का है। यह राष्ट्रीय राजधानी भी है और राष्ट्रीय स्तर पर सबसे महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाने का केंद्र भी है।

दिल्ली: सरकार कम और शासन अधिक की जरुरत

दिल्ली के मुख्यमंत्री के आवास पर दिल्ली के मुख्य सचिव से जुड़ी आधी रात की हंगामेदार घटना ने राष्ट्रीय राजधानी में शासन का संकट पैदा कर दिया। इस घटना ने सियासी दलों को एक दूसरे के खिलाफ जहर उगलने का एक बड़ा मौका दे दिया। जैसाकि अमूमन होता ही है, जब राजनीति एक दूसरे पर कीचड़ उछालने के स्तर पर आ जाती है तो सच्चाई दूर कहीं छिप जाती है। तब उनका एकमात्र उद्वेश्य होता है विरोधी दलों को नीचा दिखाना और अपनी छवि साफ और न्यायपरायण दिखाने का प्रयास करना। अफसोसनाक यह होता है कि ऐसी थुक्कम फजीहत में आम जनता की फिक्र किसी को भी नहीं होती। दिल्ली में हाल में जो कुछ हुआ, उसका नतीजा भी बिल्कुल ऐसा ही देखने में आया। बदकिस्मती से, तेज चिल्लपों के बीच उन सारी बड़ी संस्थागत त्रुटियों पर बहुत कम ध्यान दिया गया, जिन्होंने दिल्ली के शासन पर मुद्वत से अंधेरा साया डाल रखा है।

दिल्ली का शासकीय ढांचा हमेशा से एक गूढ़ रहस्य में लिपटी पहेली रही है। सच्चाई यह है कि यहां शासन के इतने सारे जटिल कानूनों को ऐसे फंदों के जंजाल में पिरो दिए गए हैं कि वे स्पष्ट नहीं हो पाते हैं और नतीजतन लोगों को समुचित सेवाएं भी प्राप्त नहीं हो पाती हैं। दिल्ली ऐतिहासिक घटनाओं और राजनीतिक प्रतिद्वंदिताओं का सप्तक वर्तमान स्थिति में अपने चरम पर दिख रहा है। इस लेख में सुशासन और राष्ट्रीय सुरक्षा के सिद्धांतों रोशनी में दिल्ली के शासन के मूल मुद्वों की ही समीक्षा की गई है।

1992 तक, कुछ अंतराल को छोड़ कर, दिल्ली भारत सरकार के पूर्ण नियंत्रण के तहत एक संघ शासित प्रदेश था। जहां स्थानीय राजनेता हमेशा से ही दिल्ली को राज्य का दर्जा दिए जाने के लिए आंदोलन करते रहे, नेहरू एवं अंबेडकर समेत कई नेता इसके पक्ष में नहीं थे। शुरु से लेकर आजतक, दिल्ली के संस्थापकों से लेकर पुराने एवं नए राजनेताओं और राष्ट्रीय स्तर के नेताओं तथा देश के सबसे बड़े दो सियासी दलों समेत देश की राजधानी को केंद्र सरकार के अलावा किसी और को सुपुर्द करने को लेकर हमेशा ही एक प्रकार का संशय का भाव रहा है। उन सभी की आशंकाओं में एक ही भावना समान तथा सबसे ऊपर रही है कि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी है। बहरहाल, राज्य का दर्जा दिए जाने की दशकों तक स्थानीय रूप से वकालत किए जाने के बाद, 1990 के दशक के पूर्वार्द्ध में बेमन से दिल्ली को मुख्यमंत्री और लोकप्रिय रूप से निर्वाचित, एक सदन वाले विधानमंडल के साथ ‘राज्य का दर्जा‘ दिया गया। लेकिन इसके बावजूद ‘राज्य‘ के अधिकार बहुत कम रहे। इसका रूप राज्य का रहा लेकिन वास्तविक रूप से इसकी रूपरेखा संघ शासित प्रदेश की ही रही जिसमें लेफ्टिनेंट गवर्नर इसके मुख्य कार्यकारी बने रहे।

1992 तक, कुछ अंतराल को छोड़ कर, दिल्ली भारत सरकार के पूर्ण नियंत्रण के तहत एक संघ शासित प्रदेश था। जहां स्थानीय राजनेता हमेशा से ही दिल्ली को राज्य का दर्जा दिए जाने के लिए आंदोलन करते रहे, नेहरू एवं अंबेडकर समेत कई नेता इसके पक्ष में नहीं थे।

‘राज्य का दर्जा‘ मिलने के बाद पहले की तुलना में दिल्ली शासन में व्याप्त जटिलता और भी बढ़ गई। एक लेफ्टिनेंट गवर्नर, कई नगरपालिकाओं एवं सरकार के नियंत्रण वाले संगठनों (पैरासिटल्स), जिन्होंने पहले ही अपने लिए उन कामों को चुन लिया था, जिसे नगर प्रशासक को अंजाम देना था, के बीच बाद में मुख्यमंत्री और कैबिनेट के सदस्य भी शामिल हो गए जिसके बाद सत्ता और अपने-अपने ‘वाजिब हक ‘ को लेकर आपस में तेज रस्साकशी शुरु हो गई। उनके पीछे आम जनता द्वारा चुने जाने की अतिरिक्त रूप से ताकत थी। नतीजतन, दिल्ली एक ऐसी स्थिति में फंस गई, जहां केंद्र के कई विभाग थे, राज्य के कई विभाग थे, कई अंतःसरकारी संगठन थे और टुकड़ों में शासन प्रदान करने वाले पांच यूएलबी (शहरी स्थानीय निकाय) थे। यकीनन यह कहा जा सकता है कि देश के किसी भी अन्य राज्य एवं शहरों की तुलना में दिल्ली में सरकार ज्यादा है और शासन कम है। इसलिए, इस सवाल का उत्तर दिया जाना सबसे जरुरी है कि किस प्रकार प्रक्रिया को सरल बनाया जाए जिससे कि दिल्ली में कारगर तरीके से सुशासन स्थापित हो सके।

इसके संभावित समाधान के लिए दिल्ली के अद्वितीय चरित्र को मान्यता/स्वीकृति दिए जाने की जरुरत है। पहला तथ्य यह है कि मूल रूप से दिल्ली एक नगर है। यह राष्ट्रीय राजधानी भी है और सर्वाधिक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय निर्णय लिए जाने का केंद्र भी। यह इसे अन्य सभी नगरों, संघ शासित प्रदेशों एवं राज्यों से अलहदा बनाता है। दिल्ली की इस असाधारण प्रकृति के कारण उसे स्वाभाविक रूप से शासन के मामले में विशिष्ट दर्जा दिए जाने की जरुरत है। कई लोगों का तर्क है कि दिल्ली का विशाल जनसांख्यिकीय आकार इसे निश्चित रूप से पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने का पूरी तरह हकदार बनाता है। ये तर्क संदर्भित असाधारण परिप्रेक्ष्य में ठोस प्रतीत नहीं होते। इसके अतिरिक्त, दिल्ली के आकार को भारतीय परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरुरत है। दिल्ली के लगभग 1,500 वर्ग किमी में 17 मिलियन लोग रहते हैं। बहरहाल, यह संख्या भारत की आबादी के एक प्रतिशत से थोड़ी ही अधिक है और भारत के भौगोलिक मानचित्र का एक छोटा सा हिस्सा है। हमें यह भी समझने की जरुरत है कि पूर्ण राज्य की मांग का समर्थन कोई राष्ट्रीय मजबूरी नहीं है। बल्कि दिल्ली की स्थानीय राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं द्वारा प्रेरित मांग है। बहरहाल, दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी है और इसे अनिवार्य रूप से पूरे देश के हितों के नजरिये से देखा जाना चाहिए।

इसे दुहराये जाने की जरुरत नहीं है कि देश इन दिनों बेहद अराजक समय से गुजर रहा है जिसकी वजह से राष्ट्रीय सुरक्षा की आवश्यकता बहुत बढ़ गई है। सबसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय संगठनों एवं हस्तियों ने दिल्ली में डेरा डाल रखा है और उन्हें 24 घंटे सुरक्षा दिए जाने की जरुरत है। इस फेहरिस्त में विदेशी दूतावासों के साथ साथ संसद, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय, जनरल एवं नीति निर्माता शामिल हैं। भारत की सर्वश्रेष्ठ सुरक्षा एजेन्सियां भारत सरकार के नियंत्रण के तहत हैं। इसलिए, सुरक्षा और नीति निर्माण को राज्य पर नहीं छोड़ा जा सकता। यही स्थिति भूमि की भी है जिन पर इन संस्थानों के कार्यालय हैं। इसलिए भूमि तथा भूमि उपयोग योजना निर्माण को भी भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन रखा जाना जरुरी है। दिलचस्प बात यह है कि यही वे विषय या मुद्वे हैं जो पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग के केंद्रीय हिस्से हैं।

हो सकता है, पूर्ण राज्य का दर्जा एक महान लोकतांत्रिक आदर्श हो। बहरहाल, उपरोक्त उल्लेखित स्थितियों के तहत, राष्ट्रीय राजधानी में सरकार के दो स्वतंत्र स्तरों के बीच कटु राजनैतिक प्रतिद्वंदिता चल रही है जिसके गंभीर राष्ट्रीय हित संबंधी निहितार्थ हो सकते हैं। दिल्ली ‘राज्य‘ के निर्माण के समय से ही केंद्र और राज्य सरकार में ठनी हुई है। इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण 1955 में लेफ्टिनेंट गवर्नर के साथ अनबन के बाद दिल्ली के प्रथम मुख्यमंत्री का इस्तीफा था। इसके बाद बनने वाले मुख्यमंत्रियों का भी लेफ्टिनेंट गवर्नर के साथ रिश्ते खराब ही रहे और निंदात्मक लहजे के साथ पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की लगातार बढ़ती उनकी मांगों ने हालात को मौजूदा स्तर पर ला खड़ा किया है। ऐसे हालात से बचने की जरुरत है। निश्चित रूप से, लोकतंत्र के सिद्धांतों में कोई राष्ट्रीय आत्महत्या समझौता शामिल नहीं होता जिसके तहत कोई राष्ट्र खुद को लोकतंत्र की वेदी पर कुर्बान कर दे।

हो सकता है, पूर्ण राज्य का दर्जा एक महान लोकतांत्रिक आदर्श हो। बहरहाल, उपरोक्त उल्लेखित स्थितियों के तहत, राष्ट्रीय राजधानी में सरकार के दो स्वतंत्र स्तरों के बीच कटु राजनैतिक प्रतिद्वंदिता चल रही है जिसके गंभीर राष्ट्रीय हित संबंधी निहितार्थ हो सकते हैं।

अगर उन विषयों पर, जो राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित करते हैं, भारत सरकार द्वारा ध्यान दिया जाता है तो, जो सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं, वे निम्नलिखित हैं: शेष बची सेवाएं प्रदान करने क्रे लिए किस शासकीय ढांचे को उपयोग में लाया जाना चाहिए? शासन के सिद्धांतों में संगतता एवं सुस्पष्ट जवाबदेही आवश्यक होती है। इस संबंध में इस पर गौर करना दिलचस्प है कि भारत में कई हजार शहरी बस्तियों में से नगरों का एक विशेष वर्ग है जहां व्यापक रूप से समान प्र्रकार का शासन है। ये ऐसे शहर हैं, जिनमें राज्यों की राजधानियां हैं। ऐसे सभी शहरों में, जैसाकि मुंबई एवं बंगलुरु में है, राज्य सरकारें पुलिस, भूमि और भूमि उपयोग योजनाओं के काम को अंजाम देती हैं। इसी के अनुरूप, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में, भारत सरकार उन दायित्वों का निर्वाह करती है जो भूमिका राज्य सरकारें राज्यों की राजधानियों में निभाती हैं।

शेष अधिकांश दायित्वों, जो व्यापक रूप से ऐसी सेवाओं के वर्ग से संबंधित हैं, जिन्हें संविधान के अनुसार, शहरी स्थानीय निकायों द्वारा अंजाम दिया जाना चाहिए,का निर्वहन वर्तमान में राज्यों द्वारा किया जा रहा है। संविधान की अनुसूची 12 में 18 कार्यों की सूची दी गई है जो केवल व्याख्यात्मक हैं, और जिनमें और दायित्व जोड़े जा सकते हैं। संविधान में कहा गया है कि नगरों को ‘ स्व-शासी संस्थान बन जाना चाहिए।‘ दिल्ली अनिवार्य रूप से एक नगर है, और चूंकि ऐसी कोई योजना नहीं है कि मुंबई, कोलकाता,बंगलुरु एवं हैदराबाद जैसे बड़े शहरों को राज्य बन जाना चाहिए, केवल दिल्ली को राज्य बनाने का मुद्वा अनर्गल प्रलाप (सुपरफ्लुअस एडेंडम या कहें एक बेवजह का अनुपूरक) से ज्यादा कुछ नहीं है जो अच्छे शासन की राह में बाधक है। इसकी जगह, जरुरत एक अधिकारसंपन्न मेयर की है जो एक नगरपालिका निकाय के रूप में कार्य करे और ऐसे सभी विषयों तक अपने दायित्वों का विस्तार करे जो भारत सरकार के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते। इससे राष्ट्रीय हितों से समझौता किए बिना, लोगों की लोकप्रिय आवाज सुनी जा सकेगी, जनभागीदारी होगी और उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति हो सकेगी।

संक्षेप में, एक लेफ्टिनेंट गवर्नर के जरिये कार्य कर रही भारत सरकार और व्यापक नगरपालिका सेवाओं के क्षेत्र में कार्य कर रहा एक अधिकारसंपन्न शहरी स्थानीय निकाय (यूएलबी) ही वे मूलभूत माध्यम हैं जो नगर के संचालन के लिए सेवाओं की पूरी श्रृंखला के प्रावधान के साथ सुचारू रूप से कार्य कर सकते हैं। सरकार के नियंत्रण वाली समानांतर संस्थाओं (पैरासिटल्स), जिन्हें संविधान द्वारा मान्यता नहीं मिली हुई है, का यूएलबी में विलय किए जाने की जरुरत है। ऐसा कोई भी विषय/कार्य, जिसका संचालनगत लिहाज से, यूएलबी में विलय मुश्किल है, लेफ्टिनेंट गवर्नर के तत्वाधान में किया जा सकता है। शासन का पुनर्गठन इस प्रकार से किया जाना चाहिए जिसमें विशिष्ट कार्यों को करने की जिम्मेदारी व्यक्ति विशेष/या एकल संगठन पर निर्दिष्ट हो। खंडित जवाबदेही कोई जवाबदेही नहीं होती और अच्छे शासन को पूरी तरह नष्ट कर डालती है।

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