Author : Ramanath Jha

Published on Nov 19, 2020 Updated 0 Hours ago

‘एरिया सभा’ या नगर राज विधेयक के विपरीत, ‘जन सभा’ के फ़ैसलों का पालन करना, वार्ड कमेटियों के लिए बाध्यकारी होगा. ये फ़ैसले स्थानीय कार्यों और धन के व्यय को लेकर होंगे. जो संबंधित वार्ड के बजट का हिस्सा होंगे.

शहरी स्थानीय निकायों में नागरिकों का सशक्तिकरण

ज़मीनी स्तर पर सशक्तिकरण और एक स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था के विकास और उसे समृद्ध बनाने में इसकी महत्वपूर्ण योगदान को विद्वान लंबे समय से मानते आए हैं. उन्नीसवीं सदी के फ्रांसीसी राजनीतिक वैज्ञानिक और इतिहासकार टॉकविल ने कहा था कि, ‘स्थानीय संस्थान ही असल में राष्ट्रों की वास्तविक शक्ति होते हैं. किसी भी देश में स्वतंत्र सरकार की व्यवस्था स्थापित की जा सकती है. लेकिन, बिना स्थानीय संस्थानों के इस सरकार की आत्मा स्वतंत्र नहीं हो सकती.’ ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र को लेकर महात्मा गांधी के विचार तो और भी मज़बूत थे. महात्मा गांधी की नज़र में लोकतंत्र का तो अर्थ ही यही था कि देश के हर नागरिक की व्यापक स्तर पर ऐसी लामबंदी करना, जिससे सबका हित हो. ये बात सच है कि महात्मा गांधी के लोकतंत्र संबंधी ये विचार गांवों के सशक्तिकरण पर ज़ोर देते थे. 1990 के दशक में इन विचारों को संविधान का हिस्सा बनाया गया था. जब भारत के संविधान के 73वें संशोधन क़ानून के तहत ग्राम सभाओं को भारतीय लोकतंत्र का अटूट अंग बनाया गया. संवैधानिक परिभाषा के अनुसार, ‘ग्राम सभा एक ऐसी संस्था है, जो किसी गांव की मतदाता सूची में दर्ज लोगों की संस्था है. ये लोग पंचायत या गांव के स्तर की इस संस्था के सहभागी होंगे.’ वहीं, शहरी संदर्भ में देखें तो, संविधान में 74वें संशोधन के अंतर्गत भागीदारी वाले लोकतंत्र को वैसा दर्जा नहीं दिया गया. शायद इसकी वजह ये रही होगी कि शहरों के स्थानीय निकायों का आकार बड़ा होता है. और उन्हें ‘शहरी सभा’ के दायरे में रखना मुश्किल लगा होगा. इसीलिए, संविधान में संशोधन का विधेयक बनाने वालों ने शहरी स्थानीय निकायों में जन भागीदारी के विचार की अनदेखी कर दी.

हालांकि, वैश्विक स्तर पर लोकतांत्रिक देशों में शहरी प्रशासन लगातार ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत करने की दिशा में अग्रसर हो रहा है. अभी शहरी निकायों में जो लोकतांत्रिक भागीदारी की व्यवस्था है. उसके तहत पांच साल में एक बार वोट देकर जनता अपनी भागीदारी जताती है. उसके बाद अगले पांच साल के लिए स्थानीय प्रशासन पार्षदों के हवाले हो जाता है. अब नागरिकों की ज़रूरतों और अपेक्षाओं को ये लोकतांत्रिक व्यवस्था पूरी कर पाने में असमर्थ साबित हो रही है. इससे ज़मीनी लोकतंत्र की जनता की मांग संतुष्ट नहीं की जा सकी है. इसके अलावा, स्थानीय स्तर पर प्रशासनिक अक्षमताओं और भ्रष्टाचार ने जनता के असंतोष को और भी बढ़ा दिया है. इन कारणों से नागरिकों, शहरी विचारकों और कार्यकर्ताओं को ये लगने लगा है कि स्थानीय स्तर पर फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में स्थानीय निवासियों की भागीदारी को और बढ़ाने की ज़रूरत है. भूमिका में ऐसे परिवर्तन की परिकल्पना को साकार करने में तकनीक की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही है. कई बार राह से भटकने की दिक़्क़त के बावजूद, सोशल मीडिया पर छेड़े गए नागरिकों के आंदोलन, पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में मज़बूत आकार ग्रहण करते जा रहे हैं. सामुदायिक संवाद के ऑनलाइन मंचों से एक ऐसी क़िस्म की पारदर्शिता आई है, जिसे अपने काम-काज में लाने के लिए अधिकारी और जन प्रतिनिधि तैयार नहीं दिखते हैं. इसका नतीजा ये हुआ है कि सरकारों को अपने नागरिकों के लिए कुछ लोकतांत्रिक स्थान छोड़ने को मजबूर होना पड़ा है. और उन्हें स्थानीय प्रशासन के मौजूदा लोकतांत्रिक ढांचे में भी परिवर्तन करना पड़ा है.

अभी शहरी निकायों में जो लोकतांत्रिक भागीदारी की व्यवस्था है. उसके तहत पांच साल में एक बार वोट देकर जनता अपनी भागीदारी जताती है. उसके बाद अगले पांच साल के लिए स्थानीय प्रशासन पार्षदों के हवाले हो जाता है. अब नागरिकों की ज़रूरतों और अपेक्षाओं को ये लोकतांत्रिक व्यवस्था पूरी कर पाने में असमर्थ साबित हो रही है. 

शहरों में रहने वाले लोगों ने लोकतांत्रिक अधिकार हासिल करने के लिए जो संघर्ष किए हैं, पश्चिमी यूरोप में उसके काफ़ी अच्छे नतीजे देखने को मिले हैं. कई यूरोपीय शहरों में औपचारिक रूप से नागरिक सलाहकार प्रक्रिया की शुरुआत हुई है. हालांकि, ऐसा नहीं है कि वो चुनौतियों से पार पा चुके हैं. वहां भी समस्याएं उभरी हैं. स्विटज़रलैंड में शहरों के निवासियों को इस बात का अधिकार है कि किसी महत्वपूर्ण विषय पर पचास हज़ार नागरिक हस्ताक्षर अभियान चलाकर जनमत संग्रह की मांग कर सकते हैं. इसके बाद, क़ानूनी प्रक्रिया के तहत एक जनमत संग्रह कराने का आदेश दिया जाता है. ये जनमत संग्रह संघीय, कैंटन या सामुदायिक (स्थानीय) स्तर पर कराए जा सकते हैं. इस व्यवस्था से स्विटज़रलैंड, लोकतांत्रिक प्रक्रिया में नागरिकों को सीधे दखल देने वाला अग्रणी देश बन गया है. जहां पर संस्थागत तरीक़े से नागरिकों की भागीदारी को सुनिश्चित कर दिया गया है. पश्चिमी यूरोप के ज़्यादातर देशों ने नागरिकों से सलाह मशविरे की ऐसी व्यवस्था विकसित कर ली है, जिसकी अनदेखी कर पाना स्थानीय सरकारों के लिए असंभव सा हो गया है. इसी तरह, एशिया के विकसित देश भी शहरों में जनता की ज़मीनी स्तर पर भागीदारी की राह पर चल रहे हैं. दक्षिण कोरिया में 1990 के दशक से ही सरकार और नागरिकों के बीच संबंध को मज़बूती प्रदान करने की प्रक्रिया चल रही है. इसका मक़सद सरकारी संस्थाओं और सरकार में नागरिकों के भरोसे को बढ़ाना है. इसके अलावा, नागरिकों का विश्वास जीतकर साउथ कोरिया की सरकार और वहां की सार्वजनिक संस्थाएं नागरिकों की उम्मीदों पर भी खरा उतरने की कोशिश करती हैं, जिससे कि वक़्त आने पर उनका समर्थन हासिल कर सकें. जापान में तो शहरों की योजनाएं बनाने में एक नया ही दृष्टिकोण अपनाया गया है. इसे मचिज़ुकुरी का नाम दिया गया है, जिसका अर्थ नागरिकों और स्थानीय सरकारों द्वारा आपसी साझेदारी से उठाए निर्णय प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए गए क़दम होता है.

संविधान में संशोधन

वहीं भारत में, संविधान के 74वें संशोधन की कमियों को दूर करने के लिए बाद में कई क़दम उठाए गए हैं, जिससे कि नागरिकों के संवाद करने के अवसर उत्पन्न हो सकें. भारत सरकार ने ख़ास तौर से शहरों के लिए ऐसी व्यवस्था बनाने की कोशिश की है, जहां संबंधित शहरों के लोग किसी योजना पर आपसी संवाद कर सकें. योजनाएं बनाने वाले लोग आम नागरिकों से संवाद कर सकें. इसके लिए केंद्र सरकार ने अपनी योजनाओं को माध्यम बनाया है. उदाहरण के लिए, स्मार्ट सिटी मिशन के तहत स्मार्ट सिटी का प्रस्ताव बनाना ज़रूरी होता है. ये प्रस्ताव नागरिकों के साथ सलाह मशविरे पर आधारित होता है. इससे पहले, जवाहर लाल नेहरू अर्बन रिन्यूअल मिशन (JnNURM) के तहत शहरों के विकास की योजनाओं (CDP) में नागरिकों के साथ सलाह मशविरा करने की व्यवस्था की गई थी. हालांकि, इन नागरिक समूहों का जोड़-जमा बड़ा अस्थायी क़िस्म का था. स्थानीय निकाय अक्सर ख़ुद ही लोगों को जोड़ने का काम करते थे. इसके लिए वो स्थानीय समस्याओं को लेकर अपनी समझ का ही इस्तेमाल करते थे. सलाह-मशविरे के लिए उन्हीं लोगों को बुलाया और चुना जाता था, जो भविष्य में स्थानीय निकायों के प्रतिनिधियों के किसी काम आ सकें.

भारत सरकार ने ख़ास तौर से शहरों के लिए ऐसी व्यवस्था बनाने की कोशिश की है, जहां संबंधित शहरों के लोग किसी योजना पर आपसी संवाद कर सकें. योजनाएं बनाने वाले लोग आम नागरिकों से संवाद कर सकें. इसके लिए केंद्र सरकार ने अपनी योजनाओं को माध्यम बनाया है.

शहरों के नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों को मज़बूती देने का सबसे सघन प्रयास मॉडल नगर राज बिल के रूप में किया गया था. इसे जवाहर लाल नेहरू अर्बन रिन्यूअल मिशन (JnNURM) के साथ ही पेश किया गया था. इस विधेयक को भारत सरकार ने वर्ष 2005 में तैयार किया था. तब केंद्र सरकार ने राज्यों की सरकारों को सलाह दी थी कि वो इसे क़ानूनी जामा पहनाने की कोशिश करें. शहरी नागरिकों के सशक्तिकरण का ये ऐसा गंभीर प्रयास था, जो इससे पहले कभी नहीं हुआ था. जहां तक पहले किए गए उपायों की बात है, तो वो कुछ ख़ास योजनाओं के संदर्भ में किए गए थे. लेकिन, नगर राज विधेयक की परिकल्पना, शहरों की प्रशासनिक व्यवस्था के स्थायी और अटूट अंग के रूप में की गई थी. इस विधेयक को राज्यों द्वारा पारित किए जाने के लिए, JnNURM योजना के तहत उन्हें मिलने वाले फंड को तभी जारी किया जाना था, जब वो नगर राज विधेयक को पारित कर देते.

मॉडल नगर राज विधेयक में नागरिकों से सलाह मशविरा करने की जिस प्रमुख व्यवस्था का आविष्कार किया गया था, वो एरिया सभा का था. एरिया सभा की परिभाषा कुछ इस प्रकार थी- एक ऐसी संस्था जो किसी नगर निगम के ख़ास इलाक़े के हर पोलिंग बूथ की मतदाता सूची में दर्ज सभी नागरिकों से बनी हो. इस एरिया सभा का गठन आस-पास के अधिकतम पांच पोलिंग बूथ को मिलाकर किया जाना था. इसकी नुमाइंदगी एक एरिया सभा प्रतिनिधि के हाथ में दी गई थी. नगर राज विधेयक में एरिया सभा के चुनाव कैसे होगा, इस बारे में भी विस्तार से जानकारी दी गई थी. एरिया सभा के प्रतिनिधि का कार्यकाल किसी नगर निगम के साथ-साथ ही चलना था.

राज्य इकाईयों की उदासीनता

अफ़सोस की बात ये रही कि भारत सरकार की इस पहल को राज्यों से कोई ख़ास तवज्जो नहीं मिल सकी. देश के क़रीब दर्जन भर राज्यों ने सामुदायिक भागीदारी बढ़ाने के लिए इस विधेयक को पारित किया, जिसमें एरिया सभा बनाने का प्रस्ताव था. लेकिन, नगर राज विधेयक के माध्यम से स्थानीय प्रशासन में नागरिकों की भागीदारी बढ़ाने की जो परिकल्पना की गई थी, उसे तमाम संशोधनों के द्वारा नष्ट कर दिया गया. इन संशोधनों का एक ही मक़सद था, और वो ये था कि स्थानीय स्तर पर फ़ैसले लेने की प्रक्रिया से आम नागरिकों को कैसे दूर रखा जाए. ऐसा तब हुआ, जब नगर राज विधेयक के अंतर्गत एरिया सभा को संवैधानिक आधार दिया गया था, तो भी उसे सलाह देने वाली व्यवस्था के तौर पर ही परिभाषित किया गया था. इसका मतलब ये था कि एरिया सभा द्वारा दी जाने वाली सलाह किसी नगर निगम की निर्णय प्रक्रिया पर बाध्यकारी नहीं थी.

मॉडल नगर राज विधेयक में नागरिकों से सलाह मशविरा करने की जिस प्रमुख व्यवस्था का आविष्कार किया गया था, वो एरिया सभा का था. एरिया सभा की परिभाषा कुछ इस प्रकार थी- एक ऐसी संस्था जो किसी नगर निगम के ख़ास इलाक़े के हर पोलिंग बूथ की मतदाता सूची में दर्ज सभी नागरिकों से बनी हो. 

इस संदर्भ में कुछ और सुझाव दिए गए थे, जिनका यहां ज़िक्र करना ज़रूरी है. मार्च 2017 में महाराष्ट्र सरकार ने शहरी स्थानीय निकायों में पारदर्शिता, कार्यकुशलता और जवाबदेही लाने के नज़रिए से तीन सदस्यों की कमेटी बनाई थी. इस कमेटी ने अपने गठन के एक वर्ष बाद अपनी रिपोर्ट महाराष्ट्र सरकार को सौंप दी थी. शहरी स्तर पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जनता की भागीदारी बढ़ाने के लिए, इस कमेटी ने हर शहर के वार्ड में एक जन सभा के गठन का सुझाव दिया था. कमेटी ने कहा था कि इस जन सभा में अधिकतम एक सौ सदस्य हो सकते थे, हालांकि सदस्यों की संख़्या का निर्धारण राज्य सरकार पर छोड़ दिया गया था.

इन जन सभाओं के चुनाव बूथ स्तर पर होने की व्यवस्था की गई थी. जनसभा के चुनाव में किसी बूथ की मतदान सूची में दर्ज मतदाता वोट डाल सकते थे. जन सभाओं के ये चुनाव या तो शहरी स्थानीय निकाय कराते या फिर राज्य सरकार नगर निगम के चुनावों के साथ साथ जनसभा के चुनाव करा सकती थी. जनसभा के सदस्यों का कार्यकाल, किसी शहरी स्थानीय निकाय के सदस्यों के साथ साथ ही चलने का सुझाव दिया गया था, और इनमें से कोई भी दोबारा चुनाव नहीं लड़ सकता था. जन सभाओं में समाज के सभी वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए इसमें आवश्यक वैधानिक प्रावधान करने का भी सुझाव दिया गया था. अगर किसी शहरी स्थानीय निकाय का आकार छोटा था, तो ग्राम सभाओं की तर्ज पर जन सभाओं में भी हर मतदाता को जनसभा का सदस्य माना जा सकता था. इन जन सभाओं के ज़िम्मे, नगर निगमों से संबंधित अपने इलाक़े या वार्ड के काम देखना होना था. कमेटी ने सुझाव दिया था कि जन सभा की हर महीने एक बैठक होनी चाहिए और इसके काम को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए नगर निगम की ओर से कुछ कर्मचारियों को भी नियुक्त किया जाए.

मार्च 2017 में महाराष्ट्र सरकार ने शहरी स्थानीय निकायों में पारदर्शिता, कार्यकुशलता और जवाबदेही लाने के नज़रिए से तीन सदस्यों की कमेटी बनाई थी. इस कमेटी ने अपने गठन के एक वर्ष बाद अपनी रिपोर्ट महाराष्ट्र सरकार को सौंप दी थी. शहरी स्तर पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जनता की भागीदारी बढ़ाने के लिए, इस कमेटी ने हर शहर के वार्ड में एक जन सभा के गठन का सुझाव दिया था.

यहां ये बात बतानी ज़रूरी है कि नगर राज विधेयक के तहत प्रस्तावित एरिया सभा के विपरित, स्थानीय स्तर के कार्यों के लिए, जन सभाओं के फ़ैसले वार्ड कमेटियों के लिए बाध्यकारी होने थे. किसी वार्ड के लिए आवंटित बजट से जुड़े जन सभा के फ़ैसले मानना भी नगर निगम के लिए अनिवार्य रखने का प्रस्ताव दिया गया था. पारदर्शिता कमेटी ने जन सभा के लिए एक अच्छी संरचना वाली वित्तीय व्यवस्था का सुझाव दिया था. हालांकि, किसी वार्ड में काम करने की वास्तविक ज़िम्मेदारी संबंधित वार्ड की कमेटियों के ही ज़िम्मे रखी गई थी. इसकी वजह ये थी कि इस जनसभा के प्रशासनिक ढांचे को हर वार्ड में अलग अलग तौर पर कैसे लागू किया जाएगा, कमेटी ने इस बारे में कोई सुझाव नहीं दिया था. कमेटी ने जन सभाओं को ये अधिकार देने का सुझाव भी दिा था कि वो अपनी सीमा के भीतर होने वाले कार्यों का ‘सोशल ऑडिट’ कर सके. दुर्भाग्य से महाराष्ट्र की पारदर्शिता कमेटी द्वारा दिए गए इन सुझावों को आगे बढ़ाकर उन्हें वास्तविक रूप देने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया. ऐसा लगता है कि शहरों में स्थानीय स्तर पर अपनी भूमिका बढ़ाने के लिए नागरिकों को एक मज़बूत आंदोलन छेड़ने की ज़रूरत है.

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