बीजिंगः चीन की ‘वन बेल्ट वन रोड’ (ओबीओआर) परियोजना में धीरे-धीरे यूरोप का भी शरीक होना तीन साल पहले चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की ओर से इस योजना के अनावरण के बाद से इस परियोजना के इतिहास में सबसे अहम मील का पत्थर है। व्यापार के सरकारी संरक्षण को जरूरी मानने वाली मर्केंटाइलिजम नीति में विश्वास रखने वालों की नजर में ओबीओआर महज एक कनेक्टिविटी की परियोजना नहीं है, बल्कि चीन के निर्यात को बढ़ावा देने में मदद के लिए किया जाने वाला एक समझौता है जो अंतरराष्ट्रीय वैल्यू चेन में चीन की स्थिति बेहतर कर सकेगा। चीन का सबसे बड़ा विदेशी बाजार यूरोप है, जहां वे एक बिलियन डॉलर का कारोबार रोजाना करते हैं और साथ ही जिसकी क्रय क्षमता भी सबसे ज्यादा है। ऐसे में यूरोप की ओर से ओबीओआर परियोजना को ले कर दिखाई जा रही दिलचस्पी का मतलब है कि यह परियोजना आने वाले समय में भी टिकी रहेगी। आखिर, चीन के लिए ‘ट्रांजिट ईकॉनॉमी’ का तब तक कोई मतलब नहीं, जब तक कि अंतिम व्यपारिक लक्ष्य से पुख्ता गारंटी नहीं मिले जाए।
लेकिन यूरोपीय संघ (ईयू) की ओर से ओबीओआर की पुष्टि के भौगोलिक-राजनीतिक मायने भी हैं और इन सभी का भारत के हितों पर पर्याप्त प्रभाव होगा:
१. ओबीओआर का अंतरराष्ट्रीयकरण
२. कनेक्टिविटी व्यवस्था का ओबीओआर के ईर्द-गिर्द संस्थानीकरण
३. राजनीतिक रिश्तों को आर्थिक संबंधों के आधार पर नया आकार देना
ओबीओआर का विश्वव्यापी (ग्लोबल) हो जाना
अगर ओबीओआर सिर्फ चीन की तेजी से बढ़ती निर्यात क्षमता को पूरा करने के लिए है तो फिर इसमें ईयू की दिलचस्पी की क्या वजह हो सकती है? शुरुआत ब्रूसेल्स से करते हैं, जो मानता है कि यूरेशिया में अगले एक दशक तक इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में निवेश का प्रारंभिक स्रोत चीन ही होगा। जहां यूरोपीय कूटनीतिक पहले ओबीओआर में स्पष्टता के अभाव में इंतजार कर रहे थे, अब वे इसमें साझेदारी के अवसर तलाश रहे हैं। ईयू की सबसे अहम रणनीतिक प्राथमिकताओं में चीन के साथ मुक्त व्यापार संधि (एफटीए) सबसे ऊपर है। इसमें भी उनका जोर सर्विस सेक्टर पर है। बहुत से यूरोपीय मध्यस्थों का मानना है कि ‘बेल्ट एंड रोड’ परियोजना एफटीए प्रस्ताव के साथ दोनों पक्षों के लिए उपयोगी होगी। मुमकिन है कि ओबीओआर को मदद करने की एवज में ईयू कुछ खास क्षेत्रों में चीन के निवेश को हासिल करने की इच्छा रखता होगा।
ईयू चीन को इस बात के लिए भी झुका सकता है कि बेल्ट के साथ-साथ वह टिकाउ बुनियादी ढांचा भी खड़ा करे और इन अर्थव्यवस्थाओं में हरित प्रौद्यागिकी के उपयोग को बढ़ावा दे। ओबीओआर के सभी नहीं भी तो अधिकांश लक्षित देश पेरिस समझौते में शामिल हैं। ऐसे में ईयू ओबीओआर के जरिए अपने जलवायु नेतृत्व यानी ‘क्लाइमेट लीडरशिप’ को स्थापित करने और समझौते की शर्तों को लागू करवाने की कोशिश कर सकता है। और अंत में ओबीओआर में भागीदारी यूरोपीय प्रभुत्व के भविष्य से भी जुड़ी है। कई पश्चिम यूरोपीय शक्तियां एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक में संस्थापक सदस्य हैं जो ओबीओआर को वित्तीय मदद मुहैया करवाने में बड़ी भूमिका निभाने वाला है। ये शक्तियां इन परियोजनाओं के आकार लेने में दिलचस्पी लेंगी और साथ ही जिन अर्थव्यवस्थाओं को उससे लाभ मिलना है, उन पर भी नजर रखेंगी।
भारत के लिए इसकी अहमियत
जिसे पहले चीन के निवेश के तौर पर देखा जा रहा था, यूरोप की सहमति के बाद अब उसका अंतरराष्ट्रीयकरण संभव होगा। एआईआईबी को ले कर तो भारत सहित पूरे क्षेत्र में काफी सहमति रही है लेकिन इसके विपरीत ओबीओआर को बीजिंग की ओर से अपने निर्यात को बढ़ावा देने की कोशिश के तौर पर देखा जाता रहा है। इस परियोजना को ले कर होने वाली बातचीत भी अब तक पूरी तरह दोतरफा ही रही हैं जिसके तहत चीन के राजनीतिक नेतृत्व ने संबंधित देश की राजधानी में उसके नेतृत्व से बातचीत की। यूरोप के संबंध में भी ऐसा ही रहा है। ओबीओआर के संबंध में चीन और यूरोप के बीच बातचीत ‘16 प्लस 1’ के फ्रेमवर्क के तहत हुई जिसमें परियोजना में भी यूरोप के सीमित जगहों की ही चर्चा की गई। लेकिन अब ईयू के जुड़ जाने के बाद वे देश भी इसमें शामिल होने के लिए तत्पर होंगे जो इसको ले कर अब तक आशंकित थे। इसी तरह यूरोप की ओर से ओबीओआर को टिकाउ विकास के लक्ष्य और पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने से जोड़ने की कवायद से इस परियोजना के संस्थानीकरण को बढ़ावा मिलेगा। साथ ही यूरेशिया के इलाके में आर्थिक विकास की शर्तें भी तय हो जाएंगी। उदाहरण के तौर पर चीन-ईयू के बीच के समझौते इस क्षेत्र में आइसीटी सुरक्षा और डेटा सुरक्षा मानक को तय कर सकते हैं। कारोबार में आसानी की सोच कर मध्य और दक्षिण-पूर्व एशिया के देश भी इसे आसानी से अपना सकते हैं।
इन बदलावों का भारत पर दो तरह का प्रभाव हो सकता है। भले ही बीजिंग ने इस परियोजना को ले कर भारत से संपर्क नहीं किया हो, लेकिन भारत यह सोच कर संतोष करता रहा है कि क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय आपूर्ति श्रृंखला में दोनों देशों की स्थिति बिल्कुल अलग-अलग है। ओबीओआर की वजह से भारत को अपने पड़ोस में बुनियादी ढांचे से जुड़ी योजनाओं को जारी रखने में कोई रुकावट नहीं आई है। साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत के निर्माताओं को अभी घरेलू मांग पूरा करने में भी समय लगेगा। ओबीओआर के जमीनी और समुद्री रास्ते से जुड़ कर भारत इस क्षेत्र में विकिसत होने वाले आपूर्ति मार्ग का फायदा उठा सकता है। इसके जरिए वह उन उत्पादों को बेच सकता है जिनमें यह बेहतर कीमत देने की क्षमता रखता हो। हालांकि, ओबीओआर अगर नियमों और मानकों की नई व्यवस्था खड़ी कर लेता है भारतीय कारोबार को खास तौर पर सेवा क्षेत्र में एशिया में अपने चीन और यूरोपीय समकक्षों का मुकाबला करने में मुश्किल खड़ी हो सकती है। इससे भारतीय उद्योग समूहों को भविष्य में बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं में दाखिल होने में रुकावट भी खड़ी हो सकती है। सबसे खास बात है कि ऐसे आर्थिक संपर्क के आधार पर तैयार होने वाले राजनीतिक रिश्ते एशिया में शक्ति संतुलन को बिगाड़ सकते हैं।
चीन से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह इस क्षेत्र के लिए बिल्कुल अलग आर्थिक एजेंडा अपना ले लेकिन भारत को इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि बीजिंग ओबीओआर से अर्जित अपनी राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल विशेष वरीयता देने वाली शासन प्रणाली अर्थात गवर्नेंस से जुड़े समझौते करने में करेगा।
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