Author : Abhishek Das

Published on Jul 31, 2023 Updated 0 Hours ago

सत्ता संभालने के बाद पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ के सामने बेशुमार मसलों पर तत्काल तवज्जो देने की चुनौती है.

पाकिस्तान: नए प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ के सामने चुनौतियों का पहाड़!
पाकिस्तान: नए प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ के सामने चुनौतियों का पहाड़!

हफ़्तों चले सियासी ड्रामे के बाद, पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में अविश्वास प्रस्ताव के ज़रिए इमरान ख़ान को सत्ता से बेदख़ल कर दिया गया. इस तरह इमरान ख़ान भी अपने पहले के सभी प्रधानमंत्रियों की तरह कार्यकाल पूरा होने से पहले ही सत्ता से बाहर हो गए. हालांकि, मुल्क में अविश्वास प्रस्ताव के चलते कुर्सी गंवाने वाले वो पहले प्रधानमंत्री हैं. इमरान ख़ान के सत्ता से हटने के बाद पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) के नेता शहबाज़ शरीफ़ को विपक्षी गठजोड़ का नेता चुना गया, जिसके बाद उन्होंने देश के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली. बहरहाल, इस लेख में उन चुनौतियों की चर्चा की जा रही है जिनसे शरीफ़ को तत्काल निपटना होगा. 

चुनौतियां

पाकिस्तान के सामने सबसे पहली और प्राथमिक चुनौती वहां की अर्थव्यवस्था है. हालांकि, इस ओर शायद ही कभी तवज्जो दी जाती है. अगर पाकिस्तानी सरकार चीन या सऊदी अरब जैसे मुल्कों या वित्तीय संस्थानों से कर्ज़ हासिल करने में कामयाब हो जाती है, तभी इस मसले को मीडिया में जगह मिलेगी. दरअसल, पाकिस्तान जून 2018 से फ़ाइनेंसियल एक्शन टास्क फ़ोर्स (FATF) की ग्रे लिस्ट में बना हुआ है. ऐसे में आर्थिक मोर्चे पर मुल्क के हालात बदतर हो गए हैं. पाकिस्तान की विकास दर में गिरावट जारी है. देश का विदेशी मुद्रा भंडार भी घटता जा रहा है. कर्ज़ पर बढ़ती निर्भरता से पाकिस्तान वित्तीय दिवालियेपन की कगार पर आ गया है. बहरहाल इन तमाम मुश्किलों के बीच उम्मीद की इकलौती किरण ये है कि पाकिस्तान के मुख्य कर्ज़दाता चीन ने अपने सरकारी मीडिया के ज़रिए शहबाज़ शरीफ़ की तारीफ़ की है. चीन ने पाकिस्तान के प्रति अपना समर्थन जताते हुए कहा है कि उसकी मदद किसी ख़ास शख़्स पर निर्भर नहीं है. हालांकि, चीन द्वारा दिए जाने वाले कर्ज़ ज़्यादा यक़ीन दिलाने वाले नहीं होते. दिवालिया हो चुकी श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था पर इन कर्ज़ों के प्रभाव से ये बात ख़ासतौर से उभरकर सामने आई है. पाकिस्तान की डूबती अर्थव्यवस्था को तत्काल तवज्जो की दरकार है. ऐसे में जितनी जल्दी कार्रवाई होगी पाकिस्तान और शहबाज़ शरीफ़ की हुकूमत के लिहाज़ से उतना ही बेहतर होगा. 

पाकिस्तान जून 2018 से फ़ाइनेंसियल एक्शन टास्क फ़ोर्स (FATF) की ग्रे लिस्ट में बना हुआ है. ऐसे में आर्थिक मोर्चे पर मुल्क के हालात बदतर हो गए हैं. पाकिस्तान की विकास दर में गिरावट जारी है. देश का विदेशी मुद्रा भंडार भी घटता जा रहा है. कर्ज़ पर बढ़ती निर्भरता से पाकिस्तान वित्तीय दिवालियेपन की कगार पर आ गया है.

दूसरी चुनौती वो बहुदलीय गठजोड़ है जिसकी बदौलत शहबाज़ प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे हैं. शहबाज़ जिस गठजोड़ की अगुवाई कर रहे हैं, उसकी बुनियाद 2 मुख्य मसलों पर टिकी है. पहला, असैनिक सियासत में फ़ौजी दख़लंदाज़ी से जुड़ी मायूसी और दूसरे, इमरान ख़ान- जो सियासत में फ़ौज की दख़लंदाज़ियों की जीती-जागती मिसाल बन चुके थे. बहरहाल, इमरान ख़ान अब सत्ता से बाहर हो चुके हैं. ऐसे में शहबाज़ शरीफ़ को अपने कुनबे को एकजुट रखना होगा. इसके लिए तमाम सियासी पार्टियों, उनकी आपसी रस्साकशियों और उनकी अपनी-अपनी उम्मीदों के बीच ज़बरदस्त तालमेल की दरकार होगी. इस मक़सद के सामने 2 अहम चुनौतियां हैं. पहले ख़ुद इमरान ख़ान हैं जो इस गठजोड़ को अमेरिका के हाथों की कठपुतली क़रार दे चुके हैं और शरीफ़ हुकूमत द्वारा ग़लती किए जाने की ताक में बैठे हैं. दूसरी चुनौती गठजोड़ में बिलावल भुट्टो ज़रदारी की मौजूदगी से जुड़ी है. बिलावल के सियासी मंसूबे अभी मोटे तौर पर छिपे हुए हैं. गठबंधन में बिलावल की मौजूदगी शहबाज़ शरीफ़ के लिए कांटों भरा एहसास है. 19 अप्रैल को हुए कैबिनेट विस्तार में बिलावल ने मंत्री के तौर पर शपथ नहीं ली है. इस तरह फ़िलहाल बिलावल भुट्टा औपचारिक रूप से पाकिस्तान की सरकार का हिस्सा नहीं हैं. ग़ौरतलब है कि अपनी मां बेनज़ीर भुट्टो के क़त्ल के वक़्त बिलावल भुट्टो ज़रदारी 19 साल के थे. हत्या की तफ़्तीश का काम संयुक्त राष्ट्र के सुपुर्द कर दिया गया था. हालांकि बिलावल ने अपनी मां की हत्या के लिए जिहादी तंजीमों और फ़ौजी इंतज़ामिया के बीच की मिलीभगत को ज़िम्मेदार ठहराया था. ज़ाहिर तौर पर अपनी मां की हत्या के वक़्त के मुक़ाबले वो अब कहीं ज़्यादा परिपक्व हो चुके हैं. इतना ही नहीं जनरल बाजवा के मातहत पाकिस्तानी फ़ौज ख़ुद को 2007 में जनरल मुशर्रफ़ की अगुवाई वाली फ़ौज के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा तटस्थ या निष्पक्ष साबित कर चुकी है. बहरहाल, बेनज़ीर भुट्टो के क़त्ल में फ़ौज की भूमिका को लेकर बिलावल के ख़्यालात अगर अब भी वैसे ही हैं तो बदक़िस्मती से शहबाज़ शरीफ़ को विरासत में एक बड़ा टकराव मिलने वाला है. हालांकि, इस टकराव की आंच फ़िलहाल सतह से नीचे है.

दूसरी चुनौती गठजोड़ में बिलावल भुट्टो ज़रदारी की मौजूदगी से जुड़ी है. बिलावल के सियासी मंसूबे अभी मोटे तौर पर छिपे हुए हैं. गठबंधन में बिलावल की मौजूदगी शहबाज़ शरीफ़ के लिए कांटों भरा एहसास है. 19 अप्रैल को हुए कैबिनेट विस्तार में बिलावल ने मंत्री के तौर पर शपथ नहीं ली है.

तीसरा, पाकिस्तानी फ़ौज का भरोसा जीतना नए प्रधानमंत्री की प्राथमिकताओं में है. पाकिस्तान में ज़्यादातर लोग यही मानते हैं कि फ़ौज ने ही इमरान ख़ान को प्रधानमंत्री के तौर पर बिठाया था. इससे नाइत्तफ़ाकी रखने वाले लोगों की तादाद बेहद कम हैं. हालांकि, ये बात साफ़ नहीं है कि इमरान ने फ़ौज का भरोसा कैसे खो दिया या फिर पाकिस्तानी सेना अचानक निष्पक्ष कैसे बन गई. बहरहाल इसके पीछे की वजहें चाहे जो भी हों, लेकिन सत्तारूढ़ गठबंधन और रावलपिंडी के जनरलों को अपने-अपने रुख़ का नए सिरे से आकलन करके उन्हें दोबारा तय करना होगा. इन्हीं क़वायदों के ज़रिए वो एक दोस्ताना फ़ैसले तक पहुंच सकेंगे ताकि पाकिस्तानी अवाम की बेहतरी के लिए वहां की नागरिक सरकार स्थिरता के साथ काम कर सके. गठबंधन की हुकूमत के मुखिया के तौर पर नए प्रधानमंत्री के सामने पाकिस्तानी फ़ौज का भरोसा हासिल करने की चुनौती है.

यहां इस बात को भी ध्यान में रखना ज़रूरी है कि इमरान ख़ान की हुकूमत के दौरान पाकिस्तान की विदेश नीति में बड़ा बदलाव देखने को मिला. दरअसल, इमरान ख़ान ने पश्चिमी दशों में इस्लामोफ़ोबिया (इस्लाम के प्रति भय) को लेकर अपनी दलीलें पेश कीं. उन्होंने कट्टर इस्लामी तत्वों के ख़िलाफ़ फ़्रांसीसी राष्ट्रपति की कार्रवाई की खुले तौर पर आलोचना की. भारतीय प्रधानमंत्री को खुलेआम भला-बुरा कहा. चीन के क़ैदख़ानों में वीगर मुसलमानों की तकलीफ़ों की ओर से जानबूझकर आंख मूंद लेने की नीति अपनाई. तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन की उन्मादी नीतियों की ओर अपना झुकाव दिखाया. पाकिस्तान के पारंपरिक साथियों सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात से दूरी बनाने की नीति अपनाईअमेरिकी ग़ुलामी की ज़ंजीरों को तालिबान द्वारा तोड़े जाने का खुले तौर पर समर्थन किया और आख़िरकार जाते-जाते अमेरिकी साज़िश का राग अलापा. इन तमाम घटनाओं ने शहबाज़ शरीफ़ के लिए हालात बदतर बना दिए हैं. इन हालातों में तत्काल सुधार की दरकार है. दरअसल, अपने राष्ट्रीय हितों और लोकलुभावन नीतियों में संतुलन लाए बिना अपने हितों को आगे बढ़ाने की क़वायद में पाकिस्तान को लगातार मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा.

एक और बड़ी चुनौती अफ़ग़ानिस्तान के तौर पर सामने खड़ी है. रावलपिंडी के जनरल अफ़ग़ानिस्तान में जंग का ख़ात्मा करने और तालिबान को फिर से बहाल करने में कामयाब रहे. हालांकि इमरान ख़ान और उनकी सरकार को तालिबानी हुकूमत के लिए राजनयिक या आर्थिक तौर पर समर्थन जुटाने में कुछ ख़ास सफलता नहीं मिल पाई. साथ ही, अमेरिकी प्रशासन के तहत अफ़गानिस्तान की सरकार के लिए फ़ंड जारी करवाने में भी वो नाकाम रहे. इतना ही नहीं, डुरंड रेखा को लेकर पाकिस्तानी फ़ौज और तालिबान के बीच टकराव की वारदात आम होने लगी. हर बीतते दिन के साथ हालात बद से बदतर होते चले गए. शहबाज़ शरीफ़ को एहसास हो चुका है कि खाली ख़ज़ाने के साथ वो तालिबानी हुकूमत की कोई मदद नहीं कर सकते. निश्चित रूप से ज़्यादा क़ाबिल अर्थव्यवस्था के बूते भारत अपने सहायता कार्यक्रमों के ज़रिए अफ़ग़ानी अवाम का दिल जीत रहा है. ऐसे में तालिबान को वैश्विक मुख्य धारा में लाना शहबाज़ शरीफ़ के लिए टेढ़ी खीर है. उन्हें इसके लिए कड़ी मेहनत करनी होगी क्योंकि पाकिस्तानी फ़ौज अपने पसंदीदा मंसूबे को “सियासी नाक़ाबिली” के चलते कतई नाकाम नहीं होने दे सकती.

कश्मीर पाकिस्तान के लिए एक दीर्घकालिक मसला है. जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 के ख़ात्मे के बाद ये और अहम मुद्दा बन गया है. भारत इसे केंद्र शासित प्रदेश बनाते हुए अपना रुख़ साफ़ कर चुका है. उसने दो टूक लहज़े में कहा है कि कश्मीर के मसले पर कोई भी बातचीत सिर्फ़ पाकिस्तानी क़ब्ज़े वाले कश्मीर को लेकर ही मुमकिन है.

लाज़िमी तौर पर कश्मीर पाकिस्तान के लिए एक दीर्घकालिक मसला है. जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 के ख़ात्मे के बाद ये और अहम मुद्दा बन गया है. भारत इसे केंद्र शासित प्रदेश बनाते हुए अपना रुख़ साफ़ कर चुका है. उसने दो टूक लहज़े में कहा है कि कश्मीर के मसले पर कोई भी बातचीत सिर्फ़ पाकिस्तानी क़ब्ज़े वाले कश्मीर को लेकर ही मुमकिन है. प्रधानमंत्री मोदी ने शहबाज़ शरीफ़ को पद संभालने की बधाई देते हुए ट्वीट के ज़रिए भारत के इस रुख़ को दोहराया है. ऐसे में ये देखना होगा कि शरीफ़ किस तरह से भारत को बातचीत की मेज़ पर वापस लाते हैं. दरअसल पाकिस्तान की कश्मीर नीति के संदर्भ में जंग और आतंक की दोहरी चाल नाकाम साबित हो चुकी है. लिहाज़ा इस मसले पर शरीफ़ का भावी दांव अहम हो जाता है. निश्चित रूप से कश्मीर मसले पर आगे बढ़ने के लिए उन्हें फ़ौज के समर्थन की दरकार होगी.

निष्कर्ष

शहबाज़ शरीफ़ एक अनुभवी राजनेता हैं. वो अपने साथियों और विरोधियों को बख़ूबी पहचानते हैं. उन्हें असैनिक राजव्यवस्था को नियंत्रित करने के फ़ौज के तौर-तरीक़ों और पाकिस्तानी सेना के बारे में अच्छे से पता है. आने वाले दिनों में 70 साल का ये राजनेता इन पेचीदा मसलों से कैसे निपटता है, ये देखने वाली बात होगी.

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