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लोकतांत्रिक देशों द्वारा एक बेलगाम होते देश के ख़िलाफ़ तकनीक की दीवार खड़ी करना एक ज़रूरी संकेत देने जैसा होगा. भारत अब तक इस मसले पर चीन से खुली लड़ाई मोल लेने से बचता रहा है.
दूरसंचार के क्षेत्र में सात बरस का मतलब है एक पीढ़ी का गुज़र जाना. इसीलिए, जब ब्रिटेन ने एलान किया कि वो वर्ष 2027 तक अपने यहां के 5G नेटवर्क से चीन की दूरसंचार कंपनी हुवावे के सभी उपकरणों और मशीनरी को निकाल बाहर करेगी, तो इसका अर्थ ये हुआ कि ब्रिटेन अगले सात साल और पांच महीनों में हुवावे को अपने यहां से बाहर का रास्ता दिखाएगी. कुल मिलाकर कहें, तो ब्रिटेन का ये एलान शोर ज़्यादा और एक्शन बेहद मामूली है. दो शक्तिशाली देशों के संघर्ष के बीच फंसे ब्रिटेन का ये फ़ैसला प्रतीकात्मक है. ब्रिटेन ने अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की विदेश नीति से सहमति जताने का इशारा भर किया है. लेकिन, इससे चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के अतिक्रमण अभियान पर मामूली फ़र्क़ भी नहीं पड़ने वाला है. इस घोषणा के साथ ही ब्रिटेन उन देशों की क़तार में शामिल हो गया है, जो चीन की टेलीकॉम कंपनी हुवावेको अपने यहां से बाहर कर रहे हैं. हाल के दिनों में ऐसे देशों की संख्या लगातार बढ़ रही है. ब्रिटेन के इस निर्णय से उन देशों को भी हौसला मिलेगा, जो अब तक हुवावे के ख़िलाफ़ एक्शन को लेकर दुविधा में हैं. यक़ीन मानिए, हुवावे के ख़िलाफ़ बढ़ता ये शोर जल्द ही भारत पहुंचने वाला है.
ब्रिटेन ने हुवावे से दूरी बनाने का फ़ैसला, अमेरिका के एक एलान की बुनियाद पर किया है. 15 मई 2020 को अमेरिका के वाणिज्य विभाग ने हुवावे पर कई प्रतिबंध लगाने की घोषणा की थी. अमेरिका के प्रतिबंध लगाने के कारण, हुवावे अब अमेरिकी तकनीक और सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करके अन्य देशों में अपने सेमीकंडक्टर का न तो डिज़ाइन बना सकेगी और न ही उनका निर्माण कर सकेगी. अमेरिका के प्रतिबंध लगाने के ठीक दो महीने बाद ब्रिटेन ने भी हुवावे के विरुद्ध कार्रवाई का एलान कर दिया. ब्रिटेन डिजिटल, कल्चर, मीडिया और स्पोर्ट्स सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट ओलिवर डॉडेन ने इस प्रतिबंधों की घोषणा करते हुए कहा कि, ‘अमेरिका ने हुवावे पर जो प्रतिबंध लगाए हैं, वो उसके द्वारा कोई पहला क़दम नहीं है, जिससे 5G नेटवर्क के लिए उपकरणों की आपूर्ति की हुवावे की क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा. लेकिन, अमेरिका ने हुवावे पर पहली बार ऐसी पाबंदियां लगा दी हैं, जिससे ब्रिटेन को 5G नेटवर्क के लिए मशीनें और उपकरण सप्लाई करने की हुवावे की क्षमता बुरी तरह प्रभावित होगी.’
ब्रिटिश सरकार की ओर से दो बड़े प्रस्ताव लाए गए हैं, जिन्हें आगे चलकर एक नए बिल के माध्यम से लागू किया जाएगा. इस विधेयक का नाम है द टेलीकॉम्स सिक्योरिटी बिल. इस प्रस्तावित विधेयक के अंतर्गत 31 दिसंबर 2020 के बाद हुवावे से 5G का कोई नया उपकरण ख़रीदने पर प्रतिबंध लग जाएगा. इसका अर्थ ये होता है कि ब्रिटिश टेलीकॉम कंपनियां अगले पांच महीनों तक हुवावे से 5G नेटवर्क के लिए ज़रूरी उपकरण ख़रीदने के लिए स्वतंत्र होंगी. और इस बात की पूरी संभावना है कि वो अगले पांच महीनों में हुवावे से उपकरणों के सौदे करेंगी. और ब्रिटेन के इस विधेयक में दूसरा बड़ा प्रस्ताव ये है कि उसके यहां के 5G नेटवर्क से हुवावे के सभी उपकरण और मशीनरी 2027 तक हटा दिए जाएंगे. इसका मतलब ये है कि ब्रिटेन, अपने 5G नेटवर्क से हुवावे को अगले सात बरस में बाहर का रास्ता दिखाएगा. ये 5G नेटवर्क का पूरा जीवनकाल होगा. क्योंकि, दूरसंचार के क्षेत्र में सात वर्षों का अर्थ एक पीढ़ी होता है. उम्मीद की जा रही है कि वर्ष 2028 तक 6G नेटवर्क का कारोबार शुरू हो चुका होगा. मिसाल के तौर पर सैमसंग को ये अपेक्षा है कि वो वर्ष 2028 तक 6G तकनीक के कारोबार को लॉन्च कर देगी. कंपनी का मानना है कि वर्ष 2030 तक 6G तकनीक का व्यापक रूप से इस्तेमाल होने लगेगा. तो वास्तविकता ये है कि ब्रिटेन ने चीन की टेलीकॉम कंपनी हुवावे पर जो प्रतिबंध लगाया है, वो अमेरिका को ख़ुश करने के लिए शब्दों की बाज़ीगरी ज़्यादा है. और ऐसे प्रतिबंध का कोई मतलब नहीं बनता. ये ठीक वैसे ही है कि आज सरकार फीचर फ़ोन पर पाबंदी लगा दे. जबकि, पूरी दुनिया ने पहले ही स्मार्टफ़ोन का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था.
ऐसा लगता है कि अमेरिका भी हुवावे के ऊपर ब्रिटेन की इस प्रतीकात्मक कार्रवाई से संतुष्ट हो गया है. ब्रिटेन के एलान के बाद अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने कहा कि, ‘ब्रिटेन अब चेक गणराज्य, डेनमार्क, एस्टोनिया, लैटविया, पोलैंड, रोमानिया और स्वीडन के साथ उन लोकतांत्रिक देशों की फ़ेहरिस्त में शामिल हो गया, जिन्होंने भविष्य में हुवावे को अपने नेटवर्क में जगह न देने का फ़ैसला किया है.’ पॉम्पियो ने आगे कहा कि, ‘5G नेटवर्क की ईमानदार कंपनियों जैसे कि भारत की जियो, ऑस्ट्रेलिया कि टेलस्ट्रा, दक्षिण कोरिया की एसके और केटी, जापान की एनटीटी और अन्य कंपनियों ने भी अपने नेटवर्क में हुवावे की एंट्री पर प्रतिबंध लगा दिया है.’
ब्रिटेन के इस निर्णय पर चीन की प्रतिक्रिया उम्मीद के अनुसार ही आई. ब्रिटेन में चीन के राजदूत लियु शियाओमिंग ने ब्रिटिश सरकार के फ़ैसले को ‘निराशाजनक और ग़लत’ करार दिया. इसके साथ साथ, चीन के राजदूत ने सवाल उठाया कि क्या अब ब्रिटेन अन्य देशों की कंपनियों को अपने यहां मुक्त, निष्पक्ष और भेदभाव से विहीन माहौल में कारोबार की गारंटी दे सकता है? लेकिन, ब्रिटेन और चीन की सरकारों के बीच इस संयमित संवाद से इतर, चीन का मीडिया, जो वहां की सरकार का ही एक अंग है, वो ब्रिटेन से बेहद ख़फ़ा नज़र आता है. चीन के समाचार पत्र ग्लोबल टाइम्स के मुख्य संपादक हू शिजिन ने ट्वीट किया कि, ‘चीन की हुवावे कंपनी को 5G तकनीक का जन्मदाता कहा जा सकता है. इसके मुक़ाबले, यूरोप की कंपनियां बहुत पीछे हैं. वो केवल 4.5G तकनीक ही उपलब्ध करा सकती हैं. ख़ुद ब्रिटेन 2027 में जाकर हुवावे को अपने नेटवर्क से पूरी तरह हटा सकेगा. इसका अपने आप में मतलब है कि हुवावे से अलग हो पाना मुश्किल है. हो सकता है कि उससे पहले या बाद में कुछ बदलाव हो जाए.’
अब ज़रा पीछे चलते हैं. ब्रिटेन ही नहीं, पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देशों के 5G नेटवर्क में हुवावे का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, इसके पीछे एक बड़ी वजह है. और वो है चीन का नेशनल इंटेलिजेंस लॉ. चीन ने ये क़ानून तीन साल पहले 27 जून 2017 को लागू किया था. इस क़ानून से चीन के नागरिकों, संगठनों और कंपनियों को चीन की सरकार के लिए ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने का संसाधन घोषित कर दिया गया था. चीन के नेशनल इंटेलिजेंस लॉ की धारा 7 कहती है कि, ‘सभी संगठनों और नागरिकों को ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने के राष्ट्रीय प्रयासों का क़ानून के तहत समर्थन और सहयोग करना चाहिए. सभी नागरिकों और कंपनियों को चीन के राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी ख़ुफ़िया जानकारियों के संरक्षण में भी पूरा सहयोग देना चाहिए. उन्हें हर वो जानकारी की रक्षा करनी चाहिए, जो राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी है और जिसके बारे में वो जानते हैं.’
राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन ने हर चीज़ को अपनी सरकार का हथियार बना लिया है. फिर चाहे वो व्यापार हो या तकनीक, द्वीप हों या निवेश. जापान और दक्षिणी चीन सागर से लेकर हिमालय पर्वत पर भूटान और भारत से लगने वाली सीमा तक, चीन ने अपने ज़्यादातर पड़ोसी देशों के साथ युद्ध के संकेत दे दिए हैं
आगे, चीन के इस क़ानून की धारा 9 में उन लोगों और संगठनों के लिए प्रोत्साहन (सम्मान और पुरस्कार) का भी प्रावधान है, जो जासूसी के राष्ट्रीय प्रयासों में योगदान देने हैं. इसके अलावा, नेशनल इंटेलिजेंस लॉ की धारा 14 चीन के ‘संगठनों और व्यक्तियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करती है कि वो ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने के लिए आवश्यक समर्थन और सहयोग प्रदान करें.’ जनवरी 2019 में आई मैनहाइमर स्वार्टलिंग की रिपोर्ट के अनुसार, ये क़ानून चीन की कंपनियों की विदेशी शाखाओं और विदेश में काम करने वाले चीन के नागरिकों पर भी लागू होता है. हाल ही में आए एक दस्तावेज़, ‘चाइनाज़ इलीट कैप्चर’ में चीन की दूरसंचार कंपनियों को वहां की कम्युनिस्टर सरकार की सामरिक संपत्ति बताया गया है. इस दस्तावेज़ में हुवावे कंपनी का समर्थन करने वाले लोगों को ‘उपयोगी मूर्खों’ की संज्ञा दी गई है. ऐसे में इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि ब्रिटेन की सरकार द्वारा हुवावे को प्रतिबंधित करने की घोषणा से कुछ ही समय पहले हुवावे के ब्रिटेन के बोर्ड के अध्यक्ष जॉन ब्राउन ने पद छोड़ने का एलान कर दिया था.
5G कोई रूटीन तकनीकी अपग्रेड नहीं है. ये ऐसी तकनीक है, जिससे आने वाले समय में इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स (IoT) स्मार्ट खेती, स्मार्ट शहरों, ऊर्जा के उपभोग की निगरानी, स्मार्ट घर और दूर से निगरानी व ख़ुद से चलने वाली कारों का संचालन किया जाएगा. ये तमाम नेटवर्कों का नेटवर्क है. इसके ज़रिए भारी तादाद में डेटा जमा किया जाता है. और 5G तकनीक में ये क्षमता है कि वो चुनाव की दशा दिशा तय करने जैसे बड़े कामों को भी अंजाम दे सकती है. इसके अलावा इस तकनीक से हर घर पर निगरानी की जा सकती है. चीन में आम नागरिकों को इस निगरानी से कोई संरक्षण नहीं हासिल है. लेकिन, लोकतांत्रिक देशों के नागरिकों को ऐसी तकनीकी घुसपैठ से सुरक्षा मिली हुई है. ऐसे में लोगों के घरों तक में पैठ बनाने वाली इस तकनीक की बागडोर ऐसी कंपनी को देना घातक हो सकता है, जो क़ानूनी तौर पर चीन की सरकार के लिए ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने को बाध्य है. ये ठीक वैसे ही होगा जैसे हम चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को किसी लोकतांत्रिक देश में चुनाव कराने का ठेका दे दें.
हुवावे की तकनीक चाहे जितनी अच्छी हो. चाहे इसके उत्पाद कितने भी सस्ते क्यों न हों. चाहे इस कंपनी के पास नए नए प्रोडक्ट की भरमार ही क्यों न हो. आख़िर मे तो हुवावे है तो चीन की दूरसंचार कंपनी. राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन ने हर चीज़ को अपनी सरकार का हथियार बना लिया है. फिर चाहे वो व्यापार हो या तकनीक, द्वीप हों या निवेश. जापान और दक्षिणी चीन सागर से लेकर हिमालय पर्वत पर भूटान और भारत से लगने वाली सीमा तक, चीन ने अपने ज़्यादातर पड़ोसी देशों के साथ युद्ध के संकेत दे दिए हैं. पड़ोस में रहने वाले किसी डॉन की तरह, चीन ने एशिया के लगभग हर उस देश को धमकी दे डाली है, जिसके साथ उसके कारोबारी रिश्ते हैं. अब चीन, बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव में शामिल हर देश को दिवालिया बनाने की जुगत में भिड़ा हुआ है. चीन की सरकार, हॉन्ग कॉन्ग की स्वायत्तता का गला घोंट चुकी है. अब वो ताइवान पर क़ब्ज़ा जमाना चाहती है.
भारत के मुक़ाबले, ब्रिटेन और अन्य देश चीन से भौगोलिक रूप से काफ़ी दूर हैं. ऐसे में उन्हें चीन से केवल अपने डेटा में सेंध लगाने, निजता में ख़लल डालने और कॉरपोरेट जासूसी का ख़तरा है. इन बातों से इतर, अगर कुछ दिन पहले तक हुवावे की तकनीक एकदम सुरक्षित थी, तो अचानक से ब्रिटेन को वो असुरक्षित क्यों लगने लगी?
अगर हम चीन की सरकार, उसके राष्ट्रीय ख़ुफ़िया क़ानून और 5G तकनीक के घुसपैठ वाले मिज़ाज को आपस में जोड़ कर देखें, तो ये समझने में ज़्यादा अक़्ल लगाने की ज़रूरत नहीं होगी कि तीनों का ये कॉकटेल लोकतंत्र के लिए कितना घातक है. इसीलिए, हर लोकतांत्रिक देश को अपने यहां के 5G नेटवर्क में शामिल होने से हुवावे को प्रतिबंधित कर देना चाहिए. हाल ही में ब्रिटेन ने 5G तकनीक में चीन की घुसपैठ को रोकने के लिए D10 देशों के गठबंधन का प्रस्ताव रखा था. इसमें G7 देशों के साथ दक्षिण कोरिया, भारत और ऑस्ट्रेलिया को शामिल करने का प्रस्ताव है. लोकतांत्रिक देशों के इस गठबंधन का मक़सद न केवल 5G मोबाइल संचार सेवा को सुरक्षित बनाना बल्कि, चीन पर आधारित आपूर्ति श्रृंखलाओं की कमज़ोरियों को दूर करना भी है. D10 का सुझाव, सही दिशा में उठाया गया एक क़दम है. इन सभी देशों में भारत को अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण, चीन से अधिक ख़तरे हैं. क्योंकि भारत और चीन के बीच 3448 किलोमीटर लंबी सीमा है. हाल ही में लद्दाख में चीन ने इस सीमा में सेंध लगाने की कोशिश की, जिसमें उसे मुंह की खानी पड़ी है. भारत के 5G नेटवर्क को हुवावे (या उसके जैसी किसी और कंपनी, जैसे कि ZTE) के हवाले करना, बहुत जोखिम भरा क़दम होगा.
भारत के मुक़ाबले, ब्रिटेन और अन्य देश चीन से भौगोलिक रूप से काफ़ी दूर हैं. ऐसे में उन्हें चीन से केवल अपने डेटा में सेंध लगाने, निजता में ख़लल डालने और कॉरपोरेट जासूसी का ख़तरा है. इन बातों से इतर, अगर कुछ दिन पहले तक हुवावे की तकनीक एकदम सुरक्षित थी, तो अचानक से ब्रिटेन को वो असुरक्षित क्यों लगने लगी? इस सवाल का जवाब ब्रिटेन की राष्ट्रीय सुरक्षा की नीति से नहीं, बल्कि उसकी विदेश नीति और ख़ास तौर से अमेरिका के संदर्भ में नीति से जुड़ा हुआ है. ब्रिटेन ने हुवावे पर प्रतिबंध लगाने का जो बयान जारी किया, उसे ख़ास तौर से अमेरिका को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था. जबकि, हक़ीक़त ये है कि ब्रिटेन ने हुवावे पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया. ब्रिटेन में हुवावे अगले सात साल तक 5G तकनीक से जुड़े संसाधन उपलब्ध कराती रहेगी. और सात साल बाद तो ये तकनीक ही पुरानी पड़ जाएगी. इस क़दम के ज़रिए, ब्रिटेन ने एक तरह से अपनी ख़ुफ़िया जानकारियां, प्लेट में सजाकर चीन को सौंप दी हैं.
5G और ख़ुफ़ियागीरी के इस खेल में दूसरी बड़ी खिलाड़ी हैं, दूरसंचार कंपनियां. इन कंपनियों और इनके निवेशकों के लिए, 5G का मतलब है, सामने रखा मुनाफ़े का टोकरा है. ये कंपनियां अपने अपने देश की राष्ट्रीय सुरक्षा नीतियों को वित्तीय लागत और बदलते हुए भौगोलिक सामरिक समीकरणों के नज़रिए से ही देखेंगी. इस क्षेत्र में भी कार्रवाई शुरू हो गई है. ब्रिटेन में, ब्रिटिश टेलीकॉम (BT) ने हुवावे पर प्रतिबंध से पैदा हुए हालात से निपटने के लिए पहले ही 50 करोड़ पाउंड के फंड की व्यवस्था कर रखी है. इसी तरह इटली की दूरसंचार कंपनी, टेलीकॉम इटैलिया ने हाल ही में इटली और ब्राज़ील में 5G के कोर नेटवर्क के उपकरणों की बोली में हुवावे के शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया है. यानी अब इटली की इस कंपनी को सिस्को, एरिक्सन, नोकिया, माावेनिर और एफर्म्ड नेटवर्क्स ही हिस्सा ले सकेंगी. इसके अलावा, जापान ने अपने यहां के सरकारी ठेकों की नीलामी में हुवावे और ZTE के शामिल होने पर रोक लगा रखी है. जापान की टेलीकॉम कंपनियों ने भी कहा है कि वो चीन की इन दोनों कंपनियों से 5G तकनीक वाले उपकरण नहीं ख़रीदेंगी.
कंपनियों पर ऐसे भौगोलिक सामरिक दबावों का सिलसिला ख़त्म नहीं होने वाला है. ब्रिटेन के हुवावे पर प्रतिबंध लगाने के साथ ही, फाइव आईज़ इंटेलिजेंस ओवरसाइट ऐंड रिव्यू काउंसिल देशों यानी-अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड ने हुवावे पर या तो प्रतिबंध लगा दिए हैं, या आगे चलकर लगा देंगे. अब सबकी निगाहें फ्रांस और जर्मनी के रुख़ पर हैं. जर्मनी ने हुवावे पर पाबंदी नहीं लगाई है. और उसके ऐसा क़दम उठाने की संभावना कम ही है. जर्मनी की दूरसंचार कंपनी डायचे टेलेकोम ने कहा है कि वो अपने 5G नेटवर्क के लिए अलग-अलग कंपनियों से मशीनरी ख़रीदेगी. इनमें से पच्ची प्रतिशत हिस्सा यूरोपीय और चीन की कंपनियों का होगा. ख़ास तौर से हुवावे और एरिक्सन का. फ्रांस ने भी कहा है कि वो हुवावे पर प्रतिबंध नहीं लगाएगा. लेकिन, वो अपने देश की दूरसंचार कंपनियों को इस बाद का प्रोत्साहन देगा कि वो चीन की कंपनियों के उपकरण न इस्तेमाल करें. हो सकता है कि आगे चलकर जर्मनी और फ्रांस को अपने रुख़ में बदलाव के लिए मजबूर होना पड़े.
अब ये बस कुछ समय की ही बात है, जब लोकतांत्रिक देशों का रुख़ भारत की ओर होगा और वो चाहेंगे कि भारत भी हुवावे को अपने 5G नेटवर्क से दूर ही रखे. D10 देश भी भारत पर इस बात का नैतिक दबाव बनाएंगे. भले ही ये प्रतीकात्मक क़दम क्यों न लगे. लेकिन, लोकतांत्रिक देशों द्वारा एक बेलगाम होते देश के ख़िलाफ़ तकनीक की दीवार खड़ी करना एक ज़रूरी संकेत देने जैसा होगा. भारत अब तक इस मसले पर चीन से खुली लड़ाई मोल लेने से बचता रहा है. यहां तक कि भारत ने अपने यहां के 5G ट्रायल में हुवावे को हिस्सा लेने की अनुमति भी दे दी है. लेकिन, लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हुई घटनाओं ने हालात को बदल दिया है. और अब हुवावे के लिए भारत की सुरक्षा से संबंधित बाधाओं को लांघ पाना बेहद मुश्किल होगा. भारत के रुख़ में ये परिवर्तन आना लाज़मी है. इसमें सरकार, ग्राहकों, कंपनियों और आम नागरिकों के विचार भी शामिल हैं. अब इस बदलाव को रोका नहीं जा सकता. भारत ने चीन के 59 ऐप्स पर प्रतिबंध लगाया. इसके अलावा चीन की कंपनियों को सड़कों और हाइवे के ठेकों से प्रतिबंधित कर दिया गया है. इसके अलावा सूक्ष्म, मध्यम और लघु उद्योगों के क्षेत्र में भी चीन के निवेशकों के घुसने पर प्रतिबंध लगा दिए गए हैं. दो दिन पहले ही भारत ने अपने व्यापारिक नियमों में बदलाव करके सरकारी ख़रीद की बोलियों में चीन की कंपनियों के शामिल होने की राह में एक और दीवार खड़ी कर दी है. संकेत साफ़ हैं. आगे चलकर भारत द्वारा हुवावे के अपने 5G नेटवर्क में शामिल होने पर प्रतिबंध लगाने की पूरी संभावना है. और ऐसा होना भी चाहिए.
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Gautam Chikermane is Vice President at Observer Research Foundation, New Delhi. His areas of research are grand strategy, economics, and foreign policy. He speaks to ...
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