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वित्तीय तकनीक के माध्यम से उपलब्ध कराए जाने वाले आर्थिक समावेशन से महिलाओं की मनोदशा सुधारने में काफ़ी सहयोग मिल सकता है.
भयंकर ग़रीबी को दूर करने में वित्तीय समावेशन को एक अहम माध्यम माना जाता है. इस की मदद से किसी व्यक्ति की आर्थिक और उत्पादकता की क्षमता को बढ़ाया जा सकता है. इस की मदद से किसी व्यक्ति का जीवन स्तर सुधारा जा सकता है. आज डिजिटल दुनिया में नए नए आविष्कारों से एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हुई है, जो एक बड़े बदलाव की ओर ले जा रही है. इन नई-नई तकनीकों की मदद से हम लोगों के वित्तीय समावेशन की रफ़्तार को और आगे बढ़ा सकते हैं. भारत में ग्रामीण फ़ाउंडेशन के सदस्यों द्वारा की गई एक स्टडी के मुताबिक़, जो लोग संस्थागत वित्तीय संस्थानों जैसे बैंकिंग व्यवस्था के दायरे से बाहर हैं, उन के सशक्तिकरण और वित्तीय समावेशन में नई डिजिटल तकनीक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. इस अध्ययन में पता चला था कि इलाहाबाद के बाहरी इलाक़े में स्थित झूंसी गांव में ज़्यादातर लोगो अपनी रोज़ी चलाने के लिए संघर्ष कर रहे थे. लेकिन, कुछ ऐसे परिवार भी थे जो सूक्ष्म वित्तीय संगठनों की मदद से मिले क़र्ज़ की बदौलत अपने परिवार का अच्छे से पालन कर रहे थे और अपने बच्चों की शिक्षा का भी प्रबंध कर पा रहे थे. इन में से रामपति और उनके पति के नाम का ज़िक्र अध्ययन में ख़ास तौर से किया गया था. ये सूक्ष्म वित्तीय संस्थान पूरे उत्तर प्रदेश में सक्रिय था. और दो लाख से ज़्यादा ग़रीब महिलाओं की सेवा कर रहा था. छोटे स्तर पर वित्तीय मदद हासिल होने की वजह से रामपति और उस के परिवार ने छोटे स्तर पर बकरियां पालना शुरू किया. बैंकिंग सुविधाएं न होने की वजह से रामपति को डिजिटल माध्यमों से क़र्ज़ मुहैया कराया गया. इस से रामपति को न केवल अपनी आमदनी और ख़र्च का हिसाब रखने में मदद मिली, बल्कि इससे उसे बार-बार बैंक जाने की जद्दोज़हद से भी निजात मिल गई. फिर उसे क़र्ज़ जमा करने के लिए नक़दी ले कर बैंक की लाइन में लगने की ज़रूरत भी ख़त्म हो गई.
अगर महिलाओं का वित्तीय समावेशन होता है और उन का सशक्तिकरण होता है, तो उस के दूरगामी सामाजिक आर्थिक प्रभाव पड़ेंगे.
वित्तीय समावेशन से किसी भी व्यक्ति को अपनी बचत को इकट्ठा करने और अपनी उत्पादकता सुधारने में मदद मिलती है. महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए ऐसा होना बेहद महत्वपूर्ण है. क्योंकि आम तौर पर महिलाओं के साथ मज़दूरी में भेदभाव होता है. और आर्थिक संसाधनों से लेकर वित्तीय माध्यमों पर उन का नियंत्रण नहीं होता. महिलाओं के वित्तीय सशक्तिकरण से उन के समुदाय में एक नई लहर उठती है. क्योंकि आम तौर पर महिलाएं अपनी बचत के पैसे अपनी ज़िंदगी बेहतर बनाने में लगाती हैं. हार्वर्ड बिज़नेस रिव्यू का एक अध्ययन कहता है कि उभरती अर्थव्यवस्थाओं में महिलाएं अपनी आमदनी की 90 फ़ीसद रक़म मानव संसाधनों के विकास में लगाती हैं. जैसे कि शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य की बेहतरी में. महिलाओं के मुक़ाबले, पुरुष अपनी आमदनी का केवल 40 प्रतिशत हिस्सा मानव संसाधनों की बेहतरी में लगाते हैं. इसका मतलब ये हुआ कि अगर महिलाओं का वित्तीय समावेशन होता है और उन का सशक्तिकरण होता है, तो उस के दूरगामी सामाजिक आर्थिक प्रभाव पड़ेंगे. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुताबिक़ महिलाओं और पुरुषों की आमदनी में लैंगिक असमानता दूर करने से किसी भी देश की जीडीपी में औसतन 35 प्रतिशत का इज़ाफा हो सकता है. यानी इसका व्यापक आर्थिक लाभ हो सकता है.
विश्व बैंक के ग्लोबल फिनडेक्स डेटाबेस 2017 के मुताबिक़, आज भारत की केवल 76 फ़ीसद महिलाओं के खाते ही संस्थागत वित्तीय संस्थानों में हैं. लेकिन, ये आंकड़ा उनके वास्तविक वित्तीय समावेशन का सूचक नहीं है. प्रधानमंत्री जन धन योजना (PMJDY) के तहत जो खाते खोले गए थे, उन में गिरावट आ रही है. सितंबर 2019 तक, प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत खोले गए खातों में से 13 प्रतिशत ज़ीरो बैलेंस खाते थे, यानी उन में कोई रक़म नहीं जमा थी. वहीं, 17 प्रतिशत खाते निष्क्रिय हो चुके थे. बड़ी तादाद में महिलाओं के खाते खोलने के बावजूद, भारत के क़र्ज़ बाज़ार को देखें तो महिलाओं और पुरुषों के बीच बड़ा फ़ासला नज़र आता है. गोल्डमैन सैक्स की ग्लोबल इन्वेस्टमेंट रिसर्च रिपोर्ट ने पाया है कि महिलाओं के मालिकाना हक़ वाले छोटे और लघु उद्योगों के लिए क़र्ज़ की अर्ज़ी ख़ारिज करने की तादाद पुरुषों द्वारा चलाए जाने वाले ऐसे औद्योगिक संस्थानों को क़र्ज़ देने से इनकार करने की तादाद से दो गुनी थी. ऐसा इसलिए है, क्योंकि बेरोज़गार महिलाओं से आम तौर पर ये अपेक्षा होती है कि वो घरेलू कामकाज निपटाएं. जबकि मर्दों से ये अपेक्षा होती है कि वो घर की वित्तीय ज़िम्मेदारी संभालें. महिलाओं के वित्तीय ज़िम्मेदारी उठाने की क्षमता तब और घट जाती है, जब पारिवारिक संपत्ति पुरुषों के मुक़ाबले उन्हें बहुत कम हिस्सेदारी दी जाती है. ये बात इस तथ्य से और भी साबित होती है कि कृषि क्षेत्र में सक्रिय कुल कामगारों में महिलाओं की तादाद 42 प्रतिशत है. लेकिन, कुल ज़मीन के मालिकाना हक़ में महिलाओं के नाम केवल दो प्रतिशत ज़मीन है.
नई वित्तीय तकनीकों के इस्तेमाल में चीन के बाद भारत का दूसरा नंबर है. यहां 57.9 प्रतिशत लोग वित्तीय तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं. भारत में डिजिटलीकरण की मांग बढ़ रही है. मोबाइल की पहुंच बढ़ने के साथ इस में और तेज़ी से इज़ाफा हो रहा है.
पिछले तमाम वर्षों में पारंपरिक बैंकिंग सेवाओं ने कम आमदनी वाले, शोषित समुदायों तक सेवाएं पहुंचाने में आधी अधूरी कामयाबी ही हासिल की है. वहीं, वित्तीय सेवाओं में नई तकनीक की आमद ने पारंपरिक बैंकिंग सेवाओं के एकाधिकार को ज़बरदस्त चुनौती दी है. 2018 की एक रिसर्च के मुताबिक़, नई वित्तीय तकनीकों के इस्तेमाल में चीन के बाद भारत का दूसरा नंबर है. यहां 57.9 प्रतिशत लोग वित्तीय तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं. भारत में डिजिटलीकरण की मांग बढ़ रही है. मोबाइल की पहुंच बढ़ने के साथ इस में और तेज़ी से इज़ाफा हो रहा है. 2020 तक देश की 90 फ़ीसद आबादी के पास मोबाइल होने की उम्मीद जताई जा रही है. वित्तीय तकनीक की सेवाएं देने वाली कंपनियां क़र्ज़, बचत और बीमा जैसे माध्यमों से वित्तीय सशक्तिकरण को सुरक्षा कवच दे सकती हैं. ताकि समाज के हाशिए पर पड़े समुदायों, ख़ास तौर से महिलाओं को रोज़मर्रा की चुनौतियों से निजात दिला सकें. इस की रफ़्तार बढ़ाने के लिए, सरकार को नई योजनाओं और नए अभियानों को शुरू करने की ज़रूरत होगी.
भले ही बैंकों में बहुत से खाते निष्क्रिय हों, फिर भी प्रधानमंत्री जन धन योजना से आज 35.7 करोड़ ऐसे लोगों के बैंक में खाते हैं, जिन्होंने अपने जीवन में बैंक का खाता नहीं खोला था. अब इन के अपने नाम से बैंकों में खाते हैं. इन लोगों में से 53 प्रतिशत खाता धारक महिलाएं हैं. प्रधानमंत्री जन धन योजना और डायरेक्ट बेनेफ़िट ट्रांसफर जैसी योजनाओं ने वित्तीय तकनीक के प्लेटफॉर्म का रास्ता सुगम किया है. यूनाइटेड पेमेंट इंटरफ़ेस यानी यूपीआई (UPI) ने इसकाम को एक नई धार दी है. अक्टूबर 2019 में 92 बैंकों ने यूपीआई का प्रयोग किया था. इस के माध्यम से 115 करोड़ लेन-देन किए गए. इसके अलावा, इंटरनेट की पहुंच बढ़ने के साथ ही ग़ैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों द्वारा एक दूसरे को क़र्ज़ देने को बढ़ावा देने से, वित्तीय तकनीक प्रदान करने वाली कई स्टार्ट अप कंपनियां शुरू हुई हैं.
हाल ही में हुई एक स्टडी से पता चला है कि मोबाइल बचत से महिलाओं की सामाजिक आर्थिक स्थिति मे काफ़ी सुधार हुआ है. तंज़ानिया के दो शहरों में रैंडमाइज़्ड कंट्रोल ट्रायल के ज़रिए यहां दो महिलाओं को मोबाइल बचत माध्यम एम-पावा को उपलब्ध कराया गया. इस के साथ ही साथ, कुछ महिलाओं को कारोबार के हुनर बेहतर करने के लिए 12 हफ़्तों की ट्रेनिंग भी दी गई. इस के बाद ये देखा गया कि एम-पावा ग्रुप से जुड़ी महिलाएं एक हफ़्ते में उन महिलाओं से तीन गुना ज़्यादा बचत कर रही थीं, जो किसी और समूह में थीं. जब कि एम-पावा के साथ साथ कारोबार की ट्रेनिंग पाने वाली महिलाओं की बचत पांच गुना तक ज़्यादा थी.
वित्तीय सेवाएं देने वाली स्टार्ट अप तकनीकी कंपनियां भी महिलाओं का सशक्तिकरण कर रही हैं. साथ ही ये कंपनियां समाज के कमज़ोर तबक़े को भी मदद कर रही हैं. मसलन, एक वित्तीय तकनीक देने वाली स्टार्ट अप कंपनी कम पढ़े लिखे लोगों को आसानी से इस्तेमाल होने लायक़ इंटरफेस दिया है. इसका ये फ़ायदा हुआ है कि इन लोगों को पश्चिमी शब्दों और लिखे हुए संदेशों पर कम से कम निर्भर रहना पड़ता है. एक और स्टार्ट अप कंपनी किराने की दुकानों में इस्तेमाल हो रहे तकनीकी संसाधनों में आवाज़ से निर्देश देने का विकल्प मुहैया कराया है. कई वित्तीय तकनीकी कंपनियां बैंकिग के साथ साथ दूसरी सुविधाएं भी मुहैया करा रही हैं. जैसे कि स्वास्थ्य बीमा और तकनीकी समझ न रखने वाले लोगों को बचत करने में मदद करना. बैंकों से हट कर वित्तीय सेवाएं देने वाली तकनीकी कंपनियां, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और फिनटेक की मदद से किसी भी यूज़र के लिए ख़ास तौर से इस्तेमाल में आसान तकनीक तैयार कर सकती हैं.
वित्तीय तकनीकों के ज़रिए महिलाओं के बीच माइक्रो-आंत्रेप्रेन्योरशिप को बढ़ावा देकर उन्हें अर्थव्यवस्था के चक्र की मुख्यधारा से जोड़ा जा सकता है. बांग्लादेश में वित्तीय समावेशन बढ़ाने और ग़रीबी मिटाने के लिए प्रोफ़ेसर मोहम्मद यूनुस ने 1983 में ग्रामीण बैंक के ज़रिए छोटे छोटे क़र्ज़ बांटने शुरू किए थे. ग्रामीण बैंक छोटे छोटे लोगों को बिना की ज़मानत के क़र्ज़ दिया करता था. वित्तीय सशक्तिकरण का ग्रामीण बैंक का ये मॉडल बहुत कामयाब रहा था. इस की मदद से बहुत सी ऐसी महिलाओं की मदद की गई, जिन के बारे में पहले ये माना जाता था कि उन्हें क़र्ज़ नहीं दिया जा सकता. वो अशिक्षित थीं, और बेरोज़गार भी थीं, इसलिए कोई बैंक उनकी मदद को तैयार नहीं था. लेकिन जैसे जैसे छोटे लेन देन मे ख़र्च बढ़ने लगा तो, ब्याज़ ज़्यादा होने की वजह से लोग क़र्ज़ के जाल में फंसने लगे. ऐसे मामले में अगर कोई वित्तीय तकनीक प्रदान करने वाली सेवा होती जो मोबाइल बैंकिंग से समाधान मुहैया कराती, उसे अगर सूक्ष्म वित्तीय संस्थानों से जोड़ दिय जाए, तो ये ग़रीबी की समस्या से निपटने में काफ़ी हद तक मददगार साबित हो सकती है. अपने व्यापक बुनियादी ढांचे की वजह से ग्रामीण बैंक जैसे सूक्ष्म वित्तीय सेवाएं देने वाले संस्थान मोबाइल बैंकि समाधान मुहैया कराने वालों के मददगार साबित हो सकते हैं. बांग्लादेश में आज 59 फ़ीसद व्यापारी एमएफएस यानी मोबाइल बैंकिंग सॉल्यूशन्स इस्तेमाल कर रहे हैं. ऐसे में एमएफएस की मदद से ग्राहकों और कर्मचारियों के बीच बेहतर संपर्क सूत्र स्थापित किए जा सकते हैं. कुच भारतीय कंपनियां हैं जो वित्तीय तकनीक के माध्यम से मध्य, लघु और सूक्ष्म उद्योगों को मदद दे रही हैं. ये संस्थान ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं के रोज़गारों जैसे हथकरघा, खाद्य और स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में सेवाएं दे रही हैं. वित्तीय तकनीक वाली स्टार्ट अप कंपनियां तकनीक की मदद से ग्रामीण महिलाओं के बीच उद्यमिता को बढ़ावा दे रही हैं. वो इन्हें अलग अलग वित्तीय समाधान के ज़रिए कम ब्याज़ वाले छोटे क़र्ज़ देकर अपना काम करने के लिए प्रोत्साहित कर रही हैं. ये स्टार्ट अप छोटे और मध्यम दर्जे के कारोबारियों को भी क़र्ज़ मुहैया करा रहे हैं. ये स्टार्ट अप कंपनियां अक्सर ग्राहकों से सीधे संपर्क के लिए मोबाइल ऐप का इस्तेमाल करते हैं. और स्मार्टफ़ोन पर आधारित वित्तीय समाधान मुहैया कराते हैं.
भारत आज ऐसी तकनीक से लैस प्लेटफ़ॉर्म अपना सकता है, जो लैंगिक भेदभाव को कम करे और उम्र के अलग-अलग दौर में महिलाओं की सहायता कर सके.
अफ्रीका में एक वित्तीय तकनीक कंपनी तकनीक का इस्तेमाल कर के ग्राहकों के व्यापक प्रोफ़ाइल तैयार करती है. फिर इन आंकड़ों की मदद से लड़कियों की शिक्षा में आर्थिक मदद दी जाती है. इस कंपनी द्वारा जुटाए जाने वाले आंकड़ों में परिवार की जानकारी, स्कूल की हाज़िरी का रिकॉर्ड जुटाया जाता है. इस से ये कंपनी उन लड़कियों की पहचान कर पाती है, जिन के पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने का डर होता है. फिर इन लड़कियों की मदद के लिए ख़ास तौर से फंड जारी किया जाता, ताकि इन लड़कियों को पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने से रोका जा सके. नाइजीरिया में बेटर मामा, बेटर पिकिन (BMBP) जैसे मोबाइल प्लेटफ़ॉर्म स्वास्थ्य और जीवन बीमा के साथ साथ छोटी बचत करने जैसी सेवाएं देते हैं. ख़ास तौर से गर्भवती महिलाओं को.
हालांकि, इस बात पर भी ख़ास तौर से ध्यान देना चाहिए कि लोगों और विशेषकर से महिलाओं के वित्तीय समावेशन का एकमात्र हल फिनटेक यानी वित्तीय तकनीक नहीं है. इस चुनौती से निपटने की राह में कई रोड़े हैं. दिक़्क़त ये आती है कि महिलाओं के पास अक्सर मोबाइल फ़ोन नहीं होते. उन्हें मोबाइल रखने से रोका भी जाता है. इसीलिए फिनटेक के साथ साथ व्यापक स्तर पर बुनियादी ढांचे के विकास पर भी ध्यान देना होगा. लोगों को वित्तीय रूप से साक्षर करना होगा. साथ ही सरकार को तमाम जागरूकता अभियानों और परंपरागत बैंकिंग सेवाओं के माध्यम से लोगों की सोच बदलने की भी कोशिश जारी रखनी होगी. भारत आज ऐसी तकनीक से लैस प्लेटफ़ॉर्म अपना सकता है, जो लैंगिक भेदभाव को कम करे और उम्र के अलग-अलग दौर में महिलाओं की सहायता कर सके. ये काम एक सहयोगात्मक मगर नियामक माहौल में किया जाना चाहिए. इसके साथ सुरक्षा के ऐसे उपाय होने चाहिए कि आंकड़ों का बेज़ा इस्तेमाल न हो सके. वित्तीय तकनीक के माध्यम से उपलब्ध कराए जाने वाले आर्थिक समावेशन से महिलाओं की मनोदशा सुधारने में काफ़ी सहयोग मिल सकता है. उन्हें अपना आत्मसम्मान अर्जित करने में मदद मिल सकेगी. साथ ही उन्हें वित्तीय आत्मनिर्भरता हासिल होगी. जिसके बाद वो अपने जीवन की डोर अपने हाथ में रख सकेंगी. न कि किसी पर निर्भर होंगी.
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Shruti Jain was Coordinator for the Think20 India Secretariat and Associate Fellow Geoeconomics Programme at ORF. She holds a Masters degree in Public Policy and ...
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