Author : Satish Misra

Published on Jun 26, 2019 Updated 0 Hours ago

सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी के मुताबिक विधानसभाओं के कार्यकाल के साथ छेड़छाड़ करना लोकतंत्र विरोधी है और ये पिछले दरवाज़े से देश में चुपचाप राष्ट्रपति शासन लागू करवाने का रास्ता होगा.

एक राष्ट्र-एक चुनाव का मुद्दा: क्या है पक्ष और विपक्ष के बिंदु?

विधानसभा और लोकसभा चुनावों को साथ-साथ कराने के बीजेपी के हृदय में लगभग दो दशक से पल रहे लक्ष्य को जिसे 2014 और 2019 के पार्टी घोषणापत्रों में, ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ कहकर दोहराया भी गया था उसे प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने बिना समय गंवाए और अमलीजामा पहनाने के मक़सद से 19 जून को सर्वदलीय बैठक बुलाई ताकि इस पर चर्चा की जा सके. बैठक के लिए आमंत्रित 40 में से 21 दलों के नेताओं ने इस विमर्श में भाग लिया. कांग्रेस पार्टी, एसपी, बीएसपी और डीएम समेत 19 दलों ने इस विचार के विरोध में सर्वदलीय बैठक में भाग नहीं लिया और अपनी कोई बात सामने नहीं रखी. प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में रखी गई इस बैठक में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के नेतृत्व में एक कमिटी गठित करने का निर्णय लिया गया ताकि इस मुद्दे पर आम सहमति बनाई जा सके जो इसके काम करने के तरीकों की व्यवहारिकता और संभावनाओं पर विचार कर एक रिपोर्ट पेश कर सके.

हालाँकि, बहुत से विशेषज्ञ लंबे वक़्त से इस पर अपनी राय व्यक्त करते रहे हैं लेकिन, इस विचार का ठोस रूप में उल्लेख विधि आयोग ने जून 1999 में अपनी 170वीं रिपोर्ट में किया था. राजनीतिक रूप से यह मुद्दा तब के गृहमंत्री और उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा उठाया गया था जो एक मजबूत केंद्र एवं शक्तिशाली नेतृत्व के दृढ़ समर्थक थे. प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने भी 2003 में इस प्रस्ताव का समर्थन किया था लेकिन तब एनडीए आम चुनाव हार गया और यह मुद्दा उन परिस्थियों में पीछे रह गया. लेकिन, मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव जीतने के तुरंत बाद पूर्व चुनाव आयुक्त एच एस ब्रह्मा को इस विषय पर विचार करने के लिए संदेश भेजकर इस मुद्दे को फिर से ज़िंदा करने की कोशिश कर दी है.

बाद में पूर्व चुनाव आयुक्त ओ पी रावत ने भी 4 अक्टूबर 2017 को घोषणा की कि चुनाव आयोग सितंबर 2018 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ- साथ कराने के लिए सभी तरह से तैयार है. लेकिन प्रधानमंत्री ने उस समय न तो कोई दिलचस्पी दिखाई और न ही इसका जवाब नहीं दिया और यहाँ तक कि महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड जैसे राज्य जहाँ लोकसभा चुनाव के कुछ महीनों बाद ही विधानसभा चुनाव होने वाले थे और वे चुनाव लोकसभा चुनावों के साथ-साथ आसानी से करवाए जा सकते थे उसे भी नज़रअंदाज़ कर दिया.

साल 2016 में एक मीडिया इंटरव्यू में मोदी ने कहा था कि, “भारतीय मतदाता आज बहुत परिपक्व है लोकसभा चुनावों में वह वह एक अंदाज में वोट करता है और विधानसभा चुनावों में अलग हिसाब से वोट करता है.” हम 2014 में इसे देख चुके हैं, जब आम चुनावों के साथ ओडिशा में भी विधानसभा चुनाव हुए. मोदी ने इस पर कहा कि उसी मतदाता ने ओडिशा के लिए एक निर्णय दिया और केंद्र के लिए दूसरा निर्णय दिया. हालांकि, ओडिशा में 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को सिर्फ़ 21 सीटों में से 1 ही सीट मिली थी. ओडिशा में जनता ने लोकसभा और विधानसभा दोनों ही चुनावों में बीजू जनता दल को भारी संख्या में जीत दिलवाई थी. इस मुद्दे पर समानांतर रूप से कार्मिक, लोक-शिकायत, विधि और न्याय संबंधी संसदीय स्थायी कमेटी ने समीक्षा की थी और दिसंबर 2015 में लोकसभा और विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराने की संभावनाओं विषय पर अपनी रिपोर्ट पेश की थी.

सरकार के प्रमुख थिंक टैंक या वैचारिक समूह, नीति आयोग ने भी 2024 से दो चरणों में एक साथ होने वाले लोकसभा और विधानसभा चुनावों को राष्ट्रीय हित वाला बताया है. देश के सभी चुनावों को निष्पक्ष, तनाव मुक्त और तालमेल के साथ आयोजित करवाना चाहिए जिससे सरकारी कामकाज में व्यवधान न हो और न्यूनतम चुनावी अभियान हो. संक्षेप में कहें तो एनडीए सरकार के पहले दौर में सभी प्रकार के प्रयास करके देख लिए गए थे लेकिन कुछ समस्याओं के कारण वे सफल नहीं हो सके इसके बावजूद पीएम मोदी अपनी सरकार के दूसरे काल में इसे दृढ़ता के साथ फिर आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहें हैं.

हालांकि, देश की वर्तमान चुनावी प्रणाली को आम चुनाव और विधानसभा को एक साथ कराने की प्रक्रिया में बदलाव लाने के कई फायदे भी हैं, लेकिन इसके लिए पूरे राजनीतिक परिदृश्य में आम सहमति की ज़रूरत है. इस प्रस्ताव के पक्ष में दिए गए अधिकांश तर्क आचार संहिता के बार-बार लागू होने के कारण प्रशासनिक कामकाज पर पड़ने वाले प्रभाव के इर्द गिर्द घूमते हैं, साथ ही सुरक्षा बालों की तैनाती और उनके मूवमेंट्स पर होने वाले खर्च भी इसके समर्थन में दिए तर्कों में शामिल है. एक साथ दोनों चुनाव कराने के पक्ष में यह भी एक कारण दिया जाता है कि बार-बार चुनाव होने से लोगों के सामान्य जीवन में बढ़ती समस्याएं, सांप्रदायिकता और जातीय तनाव बढ़ता है जिसका सरकारी काम-काज और नीति-निर्माण पर उल्टा असर पड़ता है.

यदि सचमुच इस पहल का उद्देश्य आम जनता की बेहतरी है तो सभी राजनीतिक दलों के बीच आदर्श आचार संहिता पर एक आम सहमति बनाया जाना चाहिए जिसका जो एक बेहतर विकल्प भी सिद्ध हो सकता है. हालांकि, इसके विरोधी ये कह सकते हैं कि एक साथ चुनाव कराना संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है क्योंकि यह लोकतंत्र को नकारता है और उसकी उपेक्षा करता है. वे देश की राज्य-व्यवस्था के संघीय ढांचे जैसी विशेषता का भी उल्लंघन करेंगे. पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने पद मुक्त होने के बाद अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि यदि दोनों चुनाव साथ करवाए गए तो राज्य या राज्यों के निवासी “अपनी चुनी हुई प्रतिनिधि सरकार से वंचित हो जायेंगे,” और एक साथ ही इसे लागू करने के नज़रिये से भी ये चुनाव काफी मुश्किल साबित होगा.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी ने इसका विरोध ये करते हुए कहा कि विधानसभाओं के कार्यकाल को लंबा या छोटा करना लोकतंत्र और देश के संघीय ढांचा विरोधी है. व्यावहारिक रूप से यह विचार पिछले दरवाज़े से देश में चुपचाप राष्ट्रपति शासन लागू करवाने का रास्ता होगा. इसके अलावा इससे विधानसभाओं के अधिकार कम होंगे और कार्यपालिका को अधिक अधिकार और नियंत्रण की ताक़त मिल जाएगी जो केंद्र और राज्य दोनों के बीच संविधान द्वारा स्थापित नाज़ुक संतुलन बिगड़ेगा. हमारी चुनावी प्रणाली में एक वोट से जीतने वाला व्यक्ति भी विजेता होता है जहां अक्सर 50 फीसदी से अधिक वोट जीते हुए प्रत्याशी के विरोध में गए होते हैं, उसमें अगर इस तरह का बदलाव लाया जाता है तो ये अपने आप में काफी विरोधाभासी होगा. इस विचार को अमली जामा पहनाने के लिए कई संवैधानिक बदलाव करने होंगे, ऐसे में अगर सरकार लोकप्रिय निर्वाचित सदन में विश्वास खो दे तो क्या होगा? सिर्फ़ एक साथ चुनाव करवाने के लिए अगर हमारे चुने गए प्रतिनिधियों का कार्यकाल लंबा या छोटा किया जाता है तो इसका मतलब ये होगा कि हम एक ऐसी सरकार को ज़बरदस्ती ज़िंदा रखे हुए हैं जो जनता का भरोसा खो चुकी है.

इस पूरी बहस का एक और पहलू है कि क्या देश को अधिक लोकतंत्र की ज़रूरत है या नहीं जो पारदर्शी हो और जनकेन्द्रित हो. जो लोग साथ चुनाव कराने के इस विचार के विरोधियों को ख़ारिज करते हैं और उन्हें विकास विरोधी या राष्ट्रहित के खिलाफ़ काम करने वालों का तमगा देते हैं, इस मुद्दे से जुड़े तथ्य और सवाल उनके इस दावे को संदिग्ध बनाता है कि वे लोगों की भलाई के लिए बेहतर लोकतांत्रिक प्रणाली लागू करने की कोशिश कर रहें हैं. इसके साथ ही ये पूरी बहस पूरी तरह से निरुद्देश्य और निरर्थक हो जाती है, फिर चाहे इसपर कितना भी खर्च क्यों न कर लिया गया हो सके बावजूद इस विचार को देश की जनता पर थोपा नहीं जाना चाहिए और सत्ता पक्ष इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाना चाहिए और इस संबंध में कोई भी फैसला लेने से पहले इसका बेबाक और निष्पक्ष मूल्याकंन होना चाहिए.

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