Author : Sunjoy Joshi

Published on May 25, 2020 Updated 0 Hours ago

ज़रूरत है कि अपनी सोच बदले. आत्मनिर्भर भारत के लिए ज़रूरी है कि सोच पहले आत्मनिर्भर हो. हम पहले अपनी सोच-विचार के लिए आत्मनिर्भर हो, तब भारत आत्मनिर्भर ज़रुर हो जाएगा.

आत्मनिर्भर सोच से बनेगा, आत्मनिर्भर भारत

कोरोना की मार से भारत को निजात दिला अर्थव्यवस्था को फिर धुरी पर जमाने के उद्देश्य से प्रधान मंत्री मोदी ने गत सप्ताह बीस लाख करोड़ के स्टिमुलस पैकेज का ऐलान कर दिया. देखने में बीस लाख करोड़ का आंकड़ा भारत के लिए ऐतिहासिक तो है ही, यह अपने आप में तकरीबन डेढ़ सौ देशों के जीडीपी से ज्यादा है. राहत पैकेज की घोषणा के बाद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण सप्ताह भर प्रेस-कॉन्फ़्रेंस बुला आत्मनिर्भर भारत नाम के इस पैकेज का खुलासा करती देखी गईं. कृषि क्षेत्र, कोरोना पीड़ित छोटे और मँझले उद्योग, देश भर में आनन फानन में भागते श्रमिक — आखिर सब के लिए क्या राहत की पेश-कश की गयी?

जो लोग राहत पैकेज को अप्रत्याशित करार देते हैं उनको यह नहीं भूलना चाहिए कि वास्तव में यह घटना ही अप्रत्याशित है. ऐसे अकाल काल में राहत पैकेज के शून्य के अंकों की संख्या गिनने का कोई मतलब नहीं रह जाता है. आवश्यकता होती है में इसके परिणाम के आंकलन की. कई सारे लोग इस पैकेज से नाखुश नजर आए — खासकर वे जिनको उम्मीद थी की 20 लाख करोड़ की रकम सरकार अपने खज़ाने से वहन करेगी. वास्तव में ऐसा हुआ नहीं. पैकेज का बहुत सारा हिस्सा ऋण के रूप में देने की योजना है. सरकार बैंकों को ऋण वापसी की गारंटी देगी. कुछ क्षेत्रों में ब्याज दर में 2 प्रतिशत का भार स्वयं वहन करेगी. ऋण की रकम सरकार नहीं बैंक से जाएगी. सरकार पर ऋण वापस नहीं कर पाने की दशा में कम से कम एक साल के अंतराल के बाद बिगड़ गए ऋणों का बोझ आयेगा. हिसाब करने बैठे एक्स्पर्ट्स ने यह पाया कि इस 20 लाख करोड़ में से पहले ही दस लाख करोड़ का एलान हो चुका था. और कई घोषणाएँ तो मात्र टेक्स रिफ़ंड और सरकारी संस्थाओं के पास लंबित देनदारियों देर सबेर निपटाए जाने मात्र के बारे थीं. नितिन गडकरी जी का ख़ुद मानना है कि चार-साढ़े चार लाख करोड़ तो ख़ुद यही पैसा है जो कि उन्हीं का पैसा, उन्हें वापस मिलने वाला है. प्रश्न यह है कि यह पैसा अटका ही क्यों था?

जो लोग राहत पैकेज को अप्रत्याशित करार देते हैं उनको यह नहीं भूलना चाहिए कि वास्तव में यह घटना ही अप्रत्याशित है. ऐसे अकाल काल में राहत पैकेज के शून्य के अंकों की संख्या गिनने का कोई मतलब नहीं रह जाता है. आवश्यकता होती है में इसके परिणाम के आंकलन की.

पर जो बड़ी घोषणा थी वह थी देश में पुनः दूरगामी आर्थिक सुधारों को पुनर्जीवित कर उनमें नई जान फूंक भारत को आत्म निर्भर बनाने की.

अव्यवस्था के शिकार — आप्रवासी मजदूर

कोरोना संकट आया सो आया. उससे जूझने के लिए जो अप्रत्याशित लॉकडाउन का कहर पूरे देश में घोषित हुआ वह एक ऐसी कुल्हाड़ी थी जो अनायास ख़ुद ही हमने अपने पैरों पर मार ली. कुल्हाड़ी मार ही ली तो अर्थव्यवस्था अब काफी समय तक लंगड़ा-लंगड़ा कर पंगु हालत में चलने को मजबूर तो होगी ही. प्रवासी मज़दूर इस अर्थव्यवस्था का रीढ़ थे. वे कोरोना के साथ-साथ बेरोज़गारी के ख़ौफ़ से भयभीत हो अपनी जान और जहां बचाने अपने-अपने गांव की तरफ पलायन करने को मजबूर हो गए. सरकारी घोषणाओं और रोजाना बदलते दिशा-निर्देशों पर आखिर वे कब तक और कैसे भरोसा करें. राहत की आवश्यकता तो उस वक्त थी जब अकस्मात लॉकडाउन घोषित कर दिया गया, जब रातों-रात देश पूरे देश में विस्तृत-व्रहद तालाबंदी की बात सुन लोगों की भीड़ राशन दुकानों पर उमड़ रही थी. वह समय तो अब चला गया. ऐसे में आनन-फानन शहर छोड़ हजारों मील का सफर जैसे-तैसे तय करने को मजबूर आप्रवासी श्रमिक, जिनका न ठौर न ठिकाना, उनको राहत कब, कैसे और कहाँ दी जाए? आज तो जरूरी है की इन्हें कैसे भरोसा दिलाया जाए कि वे वास्तव में 29 देशों की बिखरी व्यवस्थाओं कि आपसी रस्सा-कशी के बीच अधर में झूलते बेघर विस्थापित न होकर एक समन्वययित सक्षम गणतन्त्र का हिस्सा हैं. आने वाले समय में न जाने कब यह भय जा पाएगा? आज हम अर्थ-व्यवस्था पुनर्जीवित कर पुनः चालू कने पर बल दे रहे हैं, पर क्या उन्हें आवाजाही कि पहले समान स्वतन्त्रता होगी? वे निश्चिंत हो अपने रोजगार के लिए एक राज्य से दूसरे राज्य में बेफिक्र पुनः कब जा सकेंगे? या उन्हें वापस आने के लिए फिर पंजीकरण और परमिट लेने के चक्कर में लंबी लंबी-लंबी कतारों में खड़े रह फिर मई जून कि तपती धूप सेकनी पड़ेगी?

आज तो जरूरी है की इन्हें कैसे भरोसा दिलाया जाए कि वे वास्तव में 29 देशों की बिखरी व्यवस्थाओं कि आपसी रस्सा-कशी के बीच अधर में झूलते बेघर विस्थापित न होकर एक समन्वययित सक्षम गणतन्त्र का हिस्सा हैं. आने वाले समय में न जाने कब यह भय जा पाएगा?

तत्काल आवश्यकता है कि अनायास लौट रहे लोगों का मार्ग सुगम बनाया जाए, उन्हें यह भरोसा दिलाया जाए कि केंद्र, राज्य व स्थानीय सरकारें उनके साथ हैं, और पूरी ज़िम्मेदारी से उनकी देखभाल करने में सक्षम हैं. इस संदर्भ में लॉकडाउन के 50 दिन बाद यह घोषणा स्वागतयोग्य है कि राज्य सरकारें एसडीआरएफ — स्टेट डिज़ास्टर् रिलीफ़ के पैसे का उपयोग उन मज़दूरों के रहने के लिए, खाने के लिए और उनका मार्ग सुगम कर उनका प्रबंधन करने के लिए भरपूर करें. आवश्यक है कि इस ओर अमल हो और सभी एहतियात बरतते हुए उनको अपने गंतव्य स्थान तक सकुशल पहुंचाया जाए.

पूंजी व्यवस्था

बाज़ार में liquidity बढ़ा पूंजी के प्रबंधन के लिए भी सरकार ने कई कदम उठाए हैं. हालांकि इनमें कई कदम तो ऐसे है जो लड़खड़ाते ऋण बाज़ार को ढाढ़स बनाने के लिए पिछले वर्ष भी उठाए तो गए थे पर बहुत कारगर नहीं साबित हुए. किसानों, छोटे ग्रह-मालिकों को रियायती ब्याज उपलब्ध कराने के लिए interest subvention स्कीम पहले से भी दी जा रही हैं. हाँ राहत पैकेज में नया कहने को MSME क्षेत्र के लिए घोषित क्रेडिट गारंटी योजना प्रमुख है. पर अभी इस 3.5 लाख करोड़ के पैकेज के दिशा निर्देश आने बाकी हैं.

समस्या यह कि काफी समय से मृत ऋण NPA का भूत बन बैंकों के सर तांडव किए हुए हैं. इनके चलते अपने खज़ानों में पर्याप्त पूंजी होने के बावजूद बैंक आगे ऋण देने से लगातार कतराते रहे हैं — भय कि फिर कोई फिर ऋण NPA बन उनकी नींद ना हराम कर दे. सवाल यह है कि बैंक अगर ऋण नहीं दे तो आखिर धंधा क्या करेगा? अब समस्या यह है कि अपने मूल धंधे के प्रति बैंको में पुनः आस्था कैसे जगाई जाए. इसलिए MSME क्षेत्र के लिए ऋण-गारंटी योजना पर कई आस टिकी हुई हैं.

समस्या यह कि काफी समय से मृत ऋण NPA का भूत बन बैंकों के सर तांडव किए हुए हैं. इनके चलते अपने खज़ानों में पर्याप्त पूंजी होने के बावजूद बैंक आगे ऋण देने से लगातार कतराते रहे हैं — भय कि फिर कोई फिर ऋण NPA बन उनकी नींद ना हराम कर दे.

कई लोगों ने टिप्पणी कि है कि इन सभी योजनाओं का स्वरूप ऋण पर आधारित होकर सरकार पर तात्कालिक दृष्टि से कोई वित्तीय बोझ नहीं डालता. ऋण-गारंटी माध्यम है दायित्व स्थगित करने का. सरकार पर वास्तविक दायित्व निभाने का बोझ तो तब आयेगा जब एक वर्ष कि अवधि के बाद किसी अभागे का ऋण वापस न आए. आशा करनी चाहिए कि ऐसे ऋणों कि संख्या न्यूनतम रहे.

वास्तव में सरकार पर अपनी बैलेन्स-शीट स्थिर रख वित्तीय घाटे को कम से कम रखने का दबाव स्पष्ट देखा जा सकता है. सरकार इस वर्ष 12 लाख करोड़ तक का ऋण बाजार से उठाने की पहले ही घोषणा कर चुकी है. यदि हमारा जीडीपी इस वर्ष घट कर 200 करोड़ के आसपास भी मँडराता है तो यह ऋण जीडीपी के साढ़े छः प्रतिशत हो जाता है. अंतर-राष्ट्रीय रेटिंग संस्थाओं के लिए यह रकम ख़तरे के संकेत से कम नहीं है. इसी कारण सरकार बहुत सहम-सहम कर क़दम रख रही है — तेते पाँव पसारिये, जेती लंबी सौर . यही कारण है की 20 लाख करोड़ रुपए के आंकड़े को छू पाने के लिए बड़े सारे जतन किए गए हैं. पर आखिरकार आंकड़ा तो आंकड़ा ही है. आंकड़ों से किसी का पेट कब भरा है? सीमित संसाधनों में कैसे हम सबसे प्रभावकारी कदम उठाकर कार्य कर सकते हैं यह ज्यादा जरूरी है न कि राहत पैकेज के आंकड़ों में शून्यों की संख्या गिनना.

आंकड़ा तो आंकड़ा ही है. आंकड़ों से किसी का पेट कब भरा है? सीमित संसाधनों में कैसे हम सबसे प्रभावकारी कदम उठाकर कार्य कर सकते हैं यह ज्यादा जरूरी है न कि राहत पैकेज के आंकड़ों में शून्यों की संख्या गिनना.

आत्मनिर्भर भारत — रिफ़ॉर्म 2.0

कई सारी घोषणाएँ राहत नहीं बल्कि आर्थिक सुधारों की बात करती हैं. एमएसएमई की परिभाषा बदली गई है, यह बहुत लंबे समय से अपेक्षित सुधार रहा है. आर्थिक सुधारों के परिणाम दूरगामी होते हैं. तत्काल राहत से उनका कोई लेना देना नहीं. वास्तव में भारतीय अर्थ-व्यवस्था के ढांचे में सुधारों की बात काफी लंबे समय से चली आ रही है. आज पुनः कोरोना संकट को आर्थिक सुधार लाने का मौका माना जा रहा है. कृषि, लेबर, बिजली, कोयला, यहाँ तक की अन्तरिक्ष – हर क्षेत्र को सुधार कि ज़रूरत है.

इस बार कि घोषणाओं में संकल्प है कि हम मूलभूत परिवर्तन करेंगे, रिफ़ॉर्म 2.0 लायेंगे. संकल्प कि इंक्रीमेंटल रिफॉर्म्स, किश्तों में सुधार, का समय चला गया, अब आया है समय हनुमान कूद का — और वह भी कोरोना संकट के चलते!

कृषि क्षेत्र को एपीएमसी एक्ट के बंधनों से मुक्त कर अपने किसानों को खुला बाज़ार प्रदान करेंगे और न सिर्फ सम्पूर्ण देश बल्कि विदेशी बाज़ारों में भी उत्पाद बेचने कि स्वतन्त्रता देंगे. मंडी व्यवस्था से आज़ादी इस सुधार का प्रमुख हिस्सा है, दूसरा है आवश्यक वस्तु क़ानूनों के दायरे से अनेक कृषि उत्पादों को हटाना. कांट्रैक्ट फार्मिंग व्यवस्था लागू करने का भी विचार परलक्षित होता है. आशा है कि निकट भविष्य में किसान फसल बोते समय ही उसका सौदा करने में सक्षम होंगे ताकि फसल में निवेश करने के पहले ही उसका दाम तय हो सके. ये सब सुधार ऐसे हैं जिनके लिए कानून, नियम और दिशा-निर्देश आने में अभी समय लगेगा इसलिए तुरंत प्रभाव नहीं होने वाला. ऐसी कई चीजें हैं जो कई सालों से यह सरकार और पुरानी सरकारें भी करने की कोशिश करती आ रही है.

आत्मनिर्भर भारत कोई स्वदेशी बनाम विदेशी कि कुश्ती नहीं है. आत्मनिर्भर बनने के लिए आवश्यक है कि सबसे पहले हम अपनी सोच में आत्मनिर्भर बनें

श्रम क़ानूनों में सुधार की बात लंबे समय से चली आ रही है. और हो क्यों न — देश में 51 संघीय श्रमिक क़ानून हैं, और अनगिनत राजुया कानून. लेकिन आज उनमे से एक भी कानून बेचारे अप्रवासी मज़दूरों कि सुध लेने में असमर्थ रहा. कई राज्य अब श्रम क़ानूनों को निलंबित करने कि बात कर रहे है लेकिन ये इस समस्या का हल नहीं है. हमें ऐसे क़ानूनों की ज़रूरत है, जो वास्तविक तौर पर कामगारों के हितों का संरक्षण करते हों. कोरोना संकट से उत्पन्न स्थिति में हमें लेबर को प्रोटेक्ट करना ही पड़ेगा. वे इस अर्थव्यवस्था की रीढ़ है और आज यह रीढ़ सबसे कमजोर हो गयी है.

पर थोड़ा थम कर विचार करें. रिफ़ॉर्म कोई इंद्र देव का आवाहन नहीं है कि मंत्रोच्चारण करते जाइए प्रभु प्रकट हो वर्षा कर देंगे. सुधार तो ऐसी इमारत है जिसका निर्माण बड़े जतन से ईंट-ईंट जोड़, रोड़ा इकट्ठा कर करना पड़ता है. इसमें मेहनत लगती है, बड़ी कयावत करनी पड़ती है, कई लोगों को साथ लेना पड़ता है. वास्तव में सबसे कठिन सुधार है प्रक्रिया में सुधार, अपनी सोच में अपनी मानसिकता में सुधार लाएँ.

आत्मनिर्भर भारत कोई स्वदेशी बनाम विदेशी कि कुश्ती नहीं है. आत्मनिर्भर बनने के लिए आवश्यक है कि सबसे पहले हम अपनी सोच में आत्मनिर्भर बनें.

हमारा ट्रेड डिफिसिट चीन के साथ इतना ज्यादा है कि हम जितना सामान बेचते हैं उससे 4 गुना आयात करते हैं. हमारे उद्यमी, हमारे कारोबारी और कामगार वर्ल्ड-क्लास उत्पाद बनाने में पूरी तरह सक्षम है. और हमने कई क्षेत्रों में करके भी दिखाया है. सबसे बड़ी कमज़ोरी हमारी प्रक्रियाओं की है. हमारी जैसी प्रक्रियाओं से बिरले ही देश के उद्यमी उलझते होंगे. इतनी जटिल, हमारे टैक्स कानून इतने पेचीदा. ऐसे में कारोबार और व्यापार करना सुविधा नहीं सज़ा बन जाती है. आवश्यकता है एक कंपटेटिव टैक्स व्यवस्था की. कारोबारियों की इनपुट कॉस्ट इतनी हो जाती है की भारत में रहकर दुनिया के लिए निर्माण करना संभव नहीं होता. इसलिए हमें सबसे पहले अपने प्रक्रियाओं को आसान करना पड़ेगा. प्रोसेस रिफ़ॉर्म के चलते ही हमारी इंडस्ट्री प्रतिस्पर्धात्मक बन न सिर्फ हमारे लिए, बल्कि विश्व के लिए निर्माण करने में सक्षम होगी. यही होगा आत्म निर्भरता की ओर हमारा पहला क़दम.

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