Author : Naghma Sahar

Published on Aug 02, 2018 Updated 0 Hours ago

पाकिस्तान की सियासत के नए दर्शक इस बार के चुनावी नतीजों से बड़े जोश में नज़र आये। एक क्रिकेटर की 22 साल की सियासी जद्दोजहद रंग लायी। कप्तान आये भी और छाये भी।

इमरान हो या नवाज़, पाकिस्तान में क्या बदला

पाकिस्तान के चुनाव में इमरान खान की जीत के बाद सोशल मीडिया, व्हाट्स एप्प पर एक जोके वायरल हुआ कि इमरान खान ने 22 सालों से वजीर ए आज़म की जो शेरवानी सिल्वा रखी थी, उसे पहनने का अब वक़्त आ ही गया। 22 सालों से इमरान खान पाकिस्तान की सियासत में अपनी जगह बनाने में जुटे थे। कुछ साल पहले तक वो कहते रहे कि पाकिस्तान को मिलिट्री से निजात चाहिए, नया पाकिस्तान की बात करते रहे, लेकिन उनकी नाकामी सियासी कामयाबी में तब ही बदली जब वो इमरान खान से तालिबान खान बनते गए। इमरान खान जो सियासत में अपना मुकाम हासिल करने के लिए कट्टरपंथियों की जुबां बोलने लगे, कुफ्र के कानून के हक में आवाज़ उठाने लगे, उम्र भर एक लोकप्रिय, पूरी दुनिया घूमने वाले क्रिकेट स्टार होने के बावजूद मज़हबी कट्टरपंथियों के साथ खड़े हुए, वो प्रधानमंत्री बनने के बाद जिहाद या कट्टरपंथियों के खिलाफ आवाज़ उठाएंगे ऐसी उम्मीद रखना ग़लत होगा।  अगर वो ऐसा करते हैं तो फिर जल्द ही ये कुर्सी भी ख़ाली होगी। ये अफसोसनाक है लेकिन है सच।

बहरहाल इस दफः पाकिस्तान में चुनाव के नतीजे आने से पहले ही ये बात तय थी कि जीतेंगे कप्तान ही क्यूंकि फ़ौज ने ये तय कर लिया था कि पाकिस्तान की दो पुरानी पार्टियों PPP और PML(N ) को उखाड़ फेंकना है। और इमरान खान को इस बात का श्री ज़रूर मिलना चाहिए कि पुराणी जमी जमाई पार्टियों के बीच उन्हों ने अपनी जगह बना ली बिलकुल उसी अंदाज़ में जैसे यहाँ आम आदमी पार्टी की एंट्री हुई थी। लेकिन इमरान खान और आम आदमी पार्टी के बीच एक बड़ा फर्क है, वो X फैक्टर रही पाकिस्तानी फ़ौज, जिसे नवाज़ शरीफ अक्वामी मखलूक के नाम से बुलाते रहे। इसलिए तमाम जानकारों से जब भी मैं ने ये सवाल किया कि पाकिस्तान में किसकी बनेगी सरकार तो जवाब एक ही था, फ़ौज ने तय कर लिया है और फ़ौज अपने फैसले अक्सर बदलती नहीं। वैसे सवाल ये भी उठा कि फ़ौज की मेहरबानी थी तो फिर इमरान खान की जीत आधी अधूरी क्यूँ।

बहरहाल इस दफः पाकिस्तान में चुनाव के नतीजे आने से पहले ही ये बात तय थी कि जीतेंगे कप्तान ही क्यूंकि फ़ौज ने ये तय कर लिया था कि पाकिस्तान की दो पुरानी पार्टियों PPP और PML(N ) को उखाड़ फेंकना है। और इमरान खान को इस बात का श्री ज़रूर मिलना चाहिए कि पुराणी जमी जमाई पार्टियों के बीच उन्हों ने अपनी जगह बना ली बिलकुल उसी अंदाज़ में जैसे यहाँ आम आदमी पार्टी की एंट्री हुई थी।

जवाब के लिए एक अंग्रेजी का लफ्ज़ इस्तेमाल कर रही हूँ।। Moderated democracy यानी एक नियंत्रित लोकतंत्र। फ़ौज को एक ऐसा लोकतंत्र पसंद है जिसके ज़रिये वो सत्ता चला सकें लेकिन बग़ैर ज़िम्मेदारी के, एक चुनी हुई सरकार कि शक्ल में लेकिन जो इतनी मज़बूत भी न हो कि फ़ौज के खिलाफ जा सके। अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसा करने से विश्वसनीयता बनी रहती है।

फ़ौज ने बड़े लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव का रुख इमरान खान की तरफ किया है। सीधे तौर पर नहीं, अलग अलग तरीकों से। मीडिया पर काफी पाबन्दी रही, बावजूद इसके जियो और डौन जैसे मीडिया ग्रुप ने बेहतरीन काम किया। लेकिन कुछ और छोटे टीवी चैनल या क्षेत्रीय अख़बार इमरान खान के अलावा कुछ और दिखाते ही नहीं थे। चुनाव के दिन ARY ने बताया कि नवाज़ शरीफ पाकिस्तान छोड़ने को तैयार हैं अगर उन्हें आज़ाद कर दिया जाए। फ़ौज ने बड़े लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव का रुख इमरान खान की तरफ किया है। सीधे तौर पर नहीं, अलग अलग तरीकों से। जैसे मीडिया। मीडिया पर काफी पाबन्दी रही, बावजूद इसके जियो और डौन जैसे मीडिया ग्रुप ने बेहतरीन काम किया। लेकिन कुछ और छोटे टीवी चैनल या रीजनल अख़बार इमरान खान के अलावा कुछ और दिखाते ही नहीं थे। चुनाव के दिन ARY ने बताया कि नवाज़ शरीफ पाकिस्तान छोड़ने को तैयार हैं अगर उन्हें आज़ाद कर दिया जाए।इस झूठ की वजह से हार जीत का फैसला करने वाले पंजाब सूबे में भगदड़ मच गयी। नवाज़ शरीफ के गढ़ में भी बहुत से लोग उनका साथ छोड़ने लगे। एक और टीवी BOL टीवी ने तो नवाज़ शरीफ के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था।

तो लोकतांत्रिक तरीके से सरकार बन तो गयी लेकिन पाकिस्तान की भारत नीति, अफ़ग़ानिस्तान नीति, जिहादी आतंकवाद, चीन और पाकिस्तान के रिश्ते, इन सभी अहम् मुद्दों पर सरकार को फ़ौज का कहा ही मानना होगा। फ़ौज ये हरगिज़ नहीं चाहती कि वाकई में एक लोकप्रिय मज़बूत सरकार चुन कर आये जो पाकिस्तान की दिशा ही बदल दे। शायद इसलिए आर्मी के सहारे जीते इमरान खान को भी आर्मी ने इतना सहारा नहीं दिया कि वो उसके खिलाफ खड़े हो पाएं।

मीडिया पर काफी पाबन्दी रही, बावजूद इसके जियो और डौन जैसे मीडिया ग्रुप ने बेहतरीन काम किया। लेकिन कुछ और छोटे टीवी चैनल या क्षेत्रीय अख़बार इमरान खान के अलावा कुछ और दिखाते ही नहीं थे।

सवाल ये भी उठता है कि जब आधा पाकिस्तान ये मानता है कि ये नयी सरकार फ़ौज और अदालतों की सांठ गांठ की देन है तो क्या ऐसी सरकार ठीक से काम कर सकती है। अगर इन चुनावों पर मुल्क की सभी सियासी पार्टियाँ ऐतराज़ करते हुए सवाल न उठातीं तो भी, पाकिस्तान के चुनावी नतीजे पाकिस्तान की बुनियादी दिशा बदलने के काबिल नहीं होते। क्यूंकि उसके लिए जिहाद की फैक्ट्री बंद करने का फैसला लेना होगा, जो उसके बढ़ते आर्थिक संकट, क़र्ज़ के बोझ और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अलग थलग पड़ने की वजह रही है। लेकिन पाकिस्तान की प्राथमिकता ग़रीबी हटाना, आर्थिक विकास करना नहीं है। पाकिस्तान की नयी सरकार के सामने बड़ा आर्थिक संकट है। चीन का क़र्ज़ बढ़ता जा रहा है और अमेरिका ने इस क़र्ज़ से उबरने के लिए IMF की मदद से इनकार कर दिया है। पाकिस्तान १२ बिलियन डॉलर का अर्ज़ चीन को अदा करने के लिए IMF की मदद मांग रहा है। लेकिन इन सब संकटों के बीच जब होने वाले प्रधानमंत्री के तौर पर इमरान खान ने भाषण दिया तो भारत और कश्मीर का ज़िक्र करना उनके लिए लाज़मी था। इमरान खान बोले, भारत अगर एक क़दम बढ़ता है तो हम दो बढ़ाएंगे, लेकिन साथ ही कश्मीर राग दोहराया, कहा कश्मीर कोर मुद्दा है। यहाँ भारतीय सेना मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रही है।पाकिस्तान के वजीर ए आज़म के तौर पर ये सब कहना इमरान खान की मजबूरी है।

 बदले बदले सरकार नज़र आते हैं

जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी की पोलिटिकल साइंटिस्ट क्रिस्टीन फेयर इसे इमरान खान का मेकओवर कहती हैं। ये वही इमरान खान हैं जो २०१३ तक कह रहे थे कि पाकिस्तान मिलिट्री से तंग आ चुका है, और सभी पार्टियाँ चाहती हैं कि अब वक़्त आ गया है कि भारत के साथ रिश्ते सुधारे जाएँ।

लेकिन अब खान के तेवर बदल गए हैं, वो 22 सालों से सियासत में अपनी जगह बनाने की कोशिश में रहे, उनकी कोशिशें नाकाम रही हैं। और तभी शायद उन्हें ये समझ आ गया कि वो सेना के समर्थन के बग़ैर खुद अपने बल बूते पर जीत नहीं पायेंगे। उन्होंने ने फ़ौज के कसीदे पढने शुरू कर दिए और फ़ौज ने इसका जवाब भी दिया।

इमरान खान की लोकप्रियता का वो दौर सब को याद है जब वो एक क्रिकेट स्तर के तौर पर दक्षिण एशिया के सेक्स सिंबल बन गए थे, जब हिंदुस्तान समेत सभी क्रिकेट प्रेमी देशों में उनके लिए दीवानगी थी, लेकिन जेमाइमा गोल्डस्मिथ से पिंकी पीरनी (इमरान की मौजूदा पत्नी) तक का सफ़र सियासी तौर पर इमरान के बदलने का सफ़र है, इमरान खान की सोंच बदलने का सफ़र है। जेमाइमा एक ब्रिटिश करोडपति और पिंकी पीरनी, जो खुद को एक सूफी पीर बताती हैं और इमरान खान की आध्यामिक गुरु बन गईं। इमरान खान अब एक नए अवतार में सामने हैं। एक धार्मिक अवतार में, जो तस्बीह के बग़ैर कम ही नज़र आते हैं। अब वो कट्टर इस्लामी लहजे में अमेरिका के खिलाफ, पश्चिमी सभ्यता के खिलाफ, आतंकवाद की लड़ाई के खिलाफ बोलते हैं।

इमरान खान की लोकप्रियता का वो दौर सब को याद है जब वो एक क्रिकेट स्तर के तौर पर दक्षिण एशिया के सेक्स सिंबल बन गए थे, जब हिंदुस्तान समेत सभी क्रिकेट प्रेमी देशों में उनके लिए दीवानगी थी, लेकिन जेमाइमा गोल्डस्मिथ से पिंकी पीरनी (इमरान की मौजूदा पत्नी) तक का सफ़र सियासी तौर पर इमरान के बदलने का सफ़र है, इमरान खान की सोंच बदलने का सफ़र है।

जब तक हालत ऐसे रहेंगे जहाँ प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचने के लिए किसी को भी इमरान खान से तालिबान खान बनना पड़ेगा तब तक कोई फर्क नहीं पड़ता कि उस कुर्सी पर है कौन, नवाज़ शरीफ या इमरान खान। नवाज़ शरीफ ने जब फ़ौज की रजा के बग़ैर हिंदुस्तान से दोस्ती का हाथ बढाया, प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण में आये, और फ़ौज के चंगुल से निकलने की कोशिश की तो वो अदिला जेल पहुँच गए। लेकिन हाँ ये फर्क तो है कि इमरान खान को अन्तराष्ट्रीय स्तर पर किसी तार्रुफ़ की ज़रूरत नहीं। वो पश्चिम के लिए नया नाम नहीं। जेमैमा गोल्डस्मिथ के पूर्व पति, प्रिंसेस डायना के दोस्त, वो ब्रिटेन के सत्ता के गलियारों से परिचित हैं, वो अपने करिश्मे को पाकिस्तान की सोंच को बदलने के लिए इस्तेमाल कर सकते थे, लेकिन वो ऐसा करने को आज़ाद नहीं हैं। इसके अलावा पुराने इमरान खान नए इमरान खान नहीं हैं।। लेडीज मैन और उदारवादी, मॉडर्न क्रिकेट स्टार से हटकर वो एक कट्टर नेता बन चुके हैं जो तालिबान के लिए हमदर्दी जताता है। क्रिस्टीन फेयर ने कहा है कि जो भी इमरान खान को जानता है वो ये जानता है कि वो कट्टरपंथियों को कितनी जगह देने को तैयार है।

पाकिस्तान की सियासत के नए दर्शक इस बार के चुनावी नतीजों से बड़े जोश में नज़र आये। एक क्रिकेटर की 22 साल की सियासी जद्दोजहद रंग लायी। कप्तान आये भी और छाये भी। ये बातें सुनने में बहुत अच्छी लगती हैं। Wall Street Journal ने कहा कि इमरान खान ने दो मज़बूत बड़ी पार्टियों को हिला दिया है। ये भी नोट किया गया कि कैसे औरतों की हिस्सेदारी, उम्मीदवार और वोटर के तौर पर बढ़ी है। लेकिन जो लोग पाकिस्तान के चुनाव पर और सियासत पर दशकों से नज़र रखे हुए हैं वो इतने उत्साहित नहीं। ये चुनाव पाकिस्तान के सबसे ज्यादा हिंसक चुनावों में रहा। वोटिंग के दिन क्वेटा में बम विस्फोट में ३१ लोग मारे गए। पहली बार बड़ी तादाद में ऐसे लोग चुनावी मैदान में थे जो या तो सीधे तौर पर आतंकी पार्टिओं से जुड़े थे या फिर कट्टरपंथी संगठनो से। खुद प्रतिबंधिद आतंकवादी मास्टरमाइंड हाफिज सईद का बेटी और दामाद चुनाव लड़ रहे थे। भारतीय इंटेलिजेंस एजेंसियों के मुताबिक ४०० से ज्यादा ऐसे उम्मीदवार थे जो या तो आत्नाकी संगठन से या फिर कट्टरपंथी संगठनो से जुड़े थे।

जहाँ तक हिंदुस्तान की बात है, इमरान खान हों या नवाज़ शरीफ कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ता। नवाज़ शरीफ कुर्सी पर काबिज़ थे तो कश्मीर की सीमा पर कौन सी गोलीबारी बंद थी जो इमरान खान के आने से शुरू हो जायेगी। फर्क बुनियादी पालिसी बदलने से ही पड़ेगा। बुनियादी पालिसी कहीं और से तय होती है।

आयेशा जलाल The State of Martial Rule: The Origins of Pakistan’s Political Economy of Defence (1990), के मुताबिक “संवैधानिक प्रावधान पाकिस्तान की फ़ौज को पहले भी कभी चुनाव में दखलंदाज़ी से नहीं रोक पाए है। फ़ौज सीधे सत्ता में हो या नहीं पाकिस्तान की किस्मत का फैसला करने वाली आखिरी जज अब तक फ़ौज ही है।” और सत्ता के बाहर रह कर सत्ता पर नियंत्रण रखने से बेहतर स्थति और क्या हो सकती है।

आज भी अगर कोई पाकिस्तानी प्रधानमंत्री पाकिस्तान के डीप स्टेट यानी ISI और फ़ौज की राह पर चलना बंद करने की कोशिश करता है तो पाकिस्तान में पूरी कायनात, यानी, फ़ौज, अदालतें और नौकरशाही मिल कर उसके खिलाफ हो जाती है, जैसा कि नवाज़ शरीफ के साथ हुआ। बेनजीर के खिलाफ नवाज़ शरीफ भी आर्मी की ही देन थे। अब इमरान खान की बारी है। कितने दिनों तक वो फ़ौज के दिल को भायेंगे ये देखना होगा, और ऐसे में जिस नए पाकिस्तान का ख्वाब नौजवानों को इमरान खान ने दिखाया है उसकी तामीर कैसे होगी ये देखना होगा।

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