Author : Sushant Sareen

Published on Dec 18, 2019 Updated 0 Hours ago

सवाल यह भी है कि क्या ये न्यायाधीश अपने तईं इस तरह के फैसले दे रहे हैं या फिर कोई और है, जो इनकी डोर खींच रहा है.

फौज के दबदबे को घटाने की कोशिश

पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को वहां की विशेष अदालत द्वारा सुनाई गई फांसी की सजा कई मामलों में अलहदा है. मुशर्रफ पाकिस्तान के पहले फौजी शासक हैं, जिनके खिलाफ यह फैसला आया है. उन्हें पाकिस्तान के संविधान के अनुच्छेद छह के तहत दोषी पाया गया है, और इस प्रावधान में तय अधिकतम सजा पाने वाले वह पहले फौजी शासक भी बन गए हैं. यह विशेष प्रावधान 1973 में इसलिए जोड़ा गया था, ताकि फौजी बगावतों से मुल्क को बचाया जा सके.

परवेज मुशर्रफ को इसलिए याद किया जाता है कि उन्होंने 1999 में नवाज शरीफ की हुकूमत गिरा दी थी. हालांकि उस तख्ता-पलट पर भी 2002 में संसद की मुहर लग गई; बेशक वह विवादास्पद चुनाव ही क्यों न रहा हो.

लेकिन जिस 2007 में आपातकाल लगाने की वजह से उनको यह सजा मिली है, वह भी एक तरह से तख्तापलट ही था. उस समय वह राष्ट्रपति थे और फौज के प्रमुख भी, मगर आपातकाल की घोषणा उन्होंने फौज के प्रमुख की हैसियत से की थी. उनके इस आदेश को 2013 में सत्ता में लौटे नवाज शरीफ ने संविधान की अवहेलना माना था और मुकदमा दायर किया था. हालांकि बाद की हुकूमतों ने परवेज मुशर्रफ को बचाने की पूरी कोशिश की, उन्हें मुल्क से बाहर भी भेज दिया, फिर भी फैसला उनके खिलाफ ही आया है.

पहले यही देखा गया है कि यदि कुछ जजों ने फौज़ पर हाथ डालने की कोशिश की, तो फौज़ ने उनका बुरा हश्र किया. ऐसे में, इमरान सरकार पर यह दबाव डाला जाएगा कि वह अदालत को काबू करने की गंभीर कोशिश करे.

कानूनी तौर पर इस फैसले का स्वागत किया जा सकता है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर इसका बहुत ज्यादा मतलब नहीं है. अव्वल तो इस फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील की जाएगी, जहां सुनवाई एक लंबी प्रक्रिया होती है. फिर, परवेज मुशर्रफ काफी ज्यादा बीमार भी रहने लगे हैं और माना जा रहा है कि वह अपने आखिरी दिनों को जी रहे हैं. वह मुल्क से बाहर दुबई में हैं, जहां से उन्हें वापस बुलाकर सजा पर अमल करना काफी मुश्किल काम है. मगर इस फैसले का सांकेतिक महत्व जरूर है.

यह पहला मौका है, जब फौजी बगावत के खिलाफ अदालत ने इतना सख्त फैसला सुनाया. अब तक अयूब खान, याह्या खान या जिया-उल-हक जैसे तमाम फौजी तानाशाहों के खिलाफ अदालती फैसले आ चुके हैं, लेकिन यह तब आया, जब वे सत्ता से बाहर हो गए थे. मगर अभी तो पाकिस्तान में इमरान खान की हुकूमत है, जिन्हें ‘फौज का पिट्ठू’ तक कहा जाता है. और सरकार में कई ऐसे मंत्री हैं, जो परवेज मुशर्रफ के करीबी माने जाते हैं. तो क्या अदालत फौज के पर कतरने में लगी है? इस सवाल का जवाब ढूढ़ना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि पिछले दिनों ही मौजूदा सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा के सेवा-विस्तार के मामले में अदालत ने फौज पर असरंदाज होने की कोशिश की थी. अदालत ने यह स्पष्ट कहा है कि या तो छह महीने के भीतर इमरान हुकूमत सेना प्रमुख के सेवा-विस्तार को लेकर कानून बनाए या फिर बाजवा की सेवा समाप्त करे.

जाहिर है, पहले बाजवा और अब परवेज मुशर्रफ के खिलाफ आए अदालती फैसले से पाकिस्तानी फौज नाराज होगी. इस पर उसकी क्या प्रतिक्रिया आएगी, यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा, लेकिन परवेज मुशर्रफ को बचाने का प्रयास फौज ने काफी किया था. वह नहीं चाहती कि उसके किसी मुखिया को अदालत में घसीटा जाए. इसकी वजह यह भी है कि पाकिस्तान की फौज अब भी एक किस्म का कबीला है. वह अपने हितों को सबसे ज्यादा तवज्जो देती है. ऐसे में, अगर उसके हितों में कहीं से सेंध लगती है, तो उसकी प्रतिक्रिया काफी तेज होती है. संभव है कि उसकी नाराजगी और ऐतराज जल्द ही सामने आए.

षड्यंत्र की यह ‘थ्योरी’ वाकई हकीकत है या महज कोरी अफ़वाह, इसका जवाब तो वक्त बताएगा, लेकिन यह तय है कि अब तक ख़ामोश रही अदालत यूं ही फौज़ पर हाथ नहीं डाल रही.

परवेज मुशर्रफ के खिलाफ आया फैसला एक तरह से फौज के दबदबे को भी चोट पहुंचाने की कोशिश जान पड़ती है. पहले यही देखा गया है कि यदि कुछ जजों ने फौज पर हाथ डालने की कोशिश की, तो फौज ने उनका बुरा हश्र किया. ऐसे में, इमरान सरकार पर यह दबाव डाला जाएगा कि वह अदालत को काबू करने की गंभीर कोशिश करे. परवेज मुशर्रफ का मामला तीन न्यायाधीशों की जिस विशेष अदालत में चला, उसका नेतृत्व न्यायाधीश वकार अहमद सेठ कर रहे थे. वकार सेठ पेशावर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश हैं. उन्होंने चंद हफ्ते पहले भी फौज के खिलाफ एक बड़ा फैसला सुनाया था, जिसमें उन्होंने फौज के उन तमाम केंद्रों को असांविधानिक बता दिया था, जो इसलिए बनाए गए थे, ताकि फौजी आदेश के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोगों को बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के प्रताड़ित किया जा सके. बेशक पाकिस्तान की सर्वोच्च अदालत न्यायाधीश सेठ के ऐसे फैसले को रद्द कर चुकी है, लेकिन सेठ की छवि फौज से सीधी टक्कर लेने वाले न्यायाधीश की है. तो संभव है कि इमरान खान की हुकूमत अगले ‘सत्ता-केंद्र’ के रूप में उभर रहे इन न्यायाधीशों पर दबाव बनाने की कोशिश करे.

सवाल यह भी है कि क्या ये न्यायाधीश अपने तईं इस तरह के फैसले दे रहे हैं या फिर कोई और है, जो इनकी डोर खींच रहा है? माना यही जाता है कि अदालत पर असरंदाज होने की कुव्वत फौज के अलावा किसी और के पास नहीं है. इसलिए मुमकिन है कि फौज के अंदर ही ऐसी कोई ताकत हो, जो इन सब चीजों को हवा दे रही है और कुछ खास फौजी अधिकारियों की ताकत को कम करने के लिए अदालतों का इस्तेमाल कर रही है. षड्यंत्र की यह ‘थ्योरी’ वाकई हकीकत है या महज कोरी अफवाह, इसका जवाब तो वक्त बताएगा, लेकिन यह तय है कि अब तक खामोश रही अदालत यूं ही फौज पर हाथ नहीं डाल रही. इससे आने वाले दिनों में फौज और अदालत का टकराव आक्रामक हो सकता है. हां, विपक्षी पार्टियां फिलहाल जरूर खुश हो रही होंगी, खासतौर से पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज), क्योंकि इस पूरे माहौल को तैयार करने का सेहरा वह अपने सिर बांध सकती है.


ये लेख मूल रूप से LIVE हिंदुस्तान में छपी थी.

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