Author : Kashish Parpiani

Published on Jan 09, 2021 Updated 0 Hours ago

एक स्पष्ट अंतरराष्ट्रीयतावादी के रूप में एंटनी ब्लिंकेन का रिकॉर्ड भारत को लेकर अमेरिका की ओर से एक व्यावहारिक विदेश नीति को बढ़ावा दे सकता है.

अमेरिका: एंटनी ब्लिंकेन के नामांकन के पीछे की कहानी और भारत के लिए उसके मायने

अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए जो बाइडेन ने अमेरिका की विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े कैबिनेट पदों के लिए नामांकित किए गए कई उम्मीदवारों की घोषणा कर चुके हैं. इस दौरान बाइडेन ने लगातार कई ऐसी नियुक्तियां की हैं जिन्हें अपनी तरह के पहले क़दम के रूप में देखा जा रहा है. जैसे, होमलैंड सिक्योरिटी के पूर्व उप निदेशक एलेजांद्रो मयोरकास जो इस विभाग का नेतृत्व करने वाले पहले लातीनी मूल के नागरिक होंगे और सीआईए की पूर्व उप निदेशक एवरिल हैन्स जिन्हें अब राष्ट्रीय ख़ुफ़िया विभाग सौंपा गय है और जो नेशनल इंटेलिजेंस संभालने वाली पहली महिला होंगी. इसके अलावा, जेक सुलिवन, जिन्होंने इस से पहले उप राष्ट्रपति बाइडेन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के रूप में काम किया है, अब कथित तौर पर “उसी पद पर काम करेंगे, लेकिन इस बार ‘राष्ट्रपति’ बाइडेन के लिए.” इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र के लिए अमेरिकी राजदूत की नियुक्ति को लेकर, बाइडेन ने अफ्रीकी अमेरिकी नागरिक लिंडा थॉमस-ग्रीनफील्ड को चुना है, जो राजनयिक रूप में काम कर चुकी हैं और वैश्विक स्तर पर वाशिंगटन का प्रतिनिधित्व करने वाली दूसरी अफ्रीकी अमेरिकी महिला होंगी.

इन सभी नियुक्तियों में, विदेश नीति के दृष्टिकोण से, अमेरिकी विदेश मंत्री के पद के लिए एंटनी ब्लिंकेन का नामांकन सबसे महत्वपूर्ण था. ब्लिंकेन साल 2009 से साल 2013 तक उप राष्ट्रपति बाइडेन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और साल 2013 से 2015 तक पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रह चुके हैं. 

हालांकि इन सभी नियुक्तियों में, विदेश नीति के दृष्टिकोण से, अमेरिकी विदेश मंत्री के पद के लिए एंटनी ब्लिंकेन का नामांकन सबसे महत्वपूर्ण था. ब्लिंकेन साल 2009 से साल 2013 तक उप राष्ट्रपति बाइडेन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और साल 2013 से 2015 तक पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रह चुके हैं. यहां तक कि साल 2015 से 2017 के बीच वह उप विदेश मंत्री भी रहे हैं. डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े हलकों में तीन दशक से अधिक का समय बिताने के साथ, ब्लिंकन को बाइडेन के इतने क़रीब माना जाता है, कि कुछ लोग उन्हें अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति की “आल्टर ईगो” यानी अपर स्वरूप के रूप में भी देखते हैं. हालांकि, बाइडेन के द्वारा अमेरिका के शीर्ष राजनयिक के रूप में अपने सबसे क़रीबी और विश्वासपात्र व्यक्ति को नियुक्त किए जाने के पीछे, सोची समझी रणनीति और गणित शामिल है.

स्पष्ट दृष्टिकोण वाले अंतर-राष्ट्रीयतावादी

राजनीतिक दृष्टिकोण से देखें तो जो बाइडेन द्वारा उप-राष्ट्रपति के रूप में कमला हैरिस का चुनाव किए जाने के निर्णय के बाद, ब्लिंकन के नामांकन ने नीतिगत रूप से बाइडेन की स्पष्टता और अपने एजेंडे पर उनकी पकड़ को साफ़ कर दिया है. अमेरिकी चुनावों के दौरान और उससे पहले भी इस बात के क़यास लगाए जा रहे थे कि चुनाव के नतीजे आने के बाद और बाइडेन की जीत की स्थिति में यह मुमकिन है कि बाइडेन का मंत्रिमंडल (और इस तरह उनका नीतिगत एजेंडा) संभावित रूप से डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रगतिशील घटकों द्वारा हथिया लिया जाए. यही वजह है कि पार्टी के भीतर अंदरूनी मतभेदों के अलावा ब्लिंकन को चुनने के पीछे की वजह, एक परिचित राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को चुनने से भी संबंधित है, जिसके लिए रिपब्लिकन पार्टी से सहयोग जुटाना आसान हो, क्योंकि बाइडेन को कई मुद्दों पर बेहद नाज़ुक ढंग से विभाजित सीनेट में कैबिनेट पदों के नामांकन के लिए संपूर्ण समर्थन की आवश्यकता होगी.

इसके अलावा, विदेश विभाग के दिग्गज माने जाने वाले ब्लिंकन के नामांकन से यह बात ज़ाहिर होती है कि विदेश नीति से संबंधित निर्णयों को लेकर बाइडेन ने अपने इस इरादे को पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया है कि वह विदेश नीति से जुड़े मामलों में निर्णय लिए जाने के लिए, अपने काम के ज़रिए साख बनाने वालों और पेशेवरों को ही प्रमुखता देंगे. यह एक तरह से राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के द्वारा चार साल तक अमेरिकी विदेश नीति को अपनी शैली से परिभाषित किए जाने और उसे राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के केंद्र में रखे जाने की रणनीति का ही अनुसरण है. यहां उन लोगों का उल्लेख भी ज़रूरी है जिन्होंने इस रणनीति के तहत राजनयिकों और विदेशी सेवा अधिकारियों के रूप में अपने प्रभावी करियर के बावजूद ट्रंप के शासनकाल में “अविश्वास और तिरस्कार” को झेला जिसमें ट्रंप के शासन काल में विदेश मंत्री रहे रेक्स टिलरसन शामिल हैं, जिन्होंने अपने काम काज के दौरान, फॉगी बॉटम इलाके से वरिष्ठ नेतृत्व का प्रस्थान देखा. जहां तक अमेरिका के सहयोगी देशों का संबंध है तो बाइडेन उन्हें यह संदेश देने के लिए उत्सुक हैं कि “हमारी [अमेरिका] की प्रतिबद्धताओं के आकलन पर ज़ोर दें, जो ब्लिंकन के स्वयं के शब्दों में, एक बार फिर विश्व के हर देश के लिए अमेरिका को “सबसे पसंदीदा सुरक्षा भागीदार” बनाने की ओर प्रेरित है. उदाहरण के लिए, अमेरिका के “शत्रु” के रूप में अपनी छवि स्थापित होने के चार साल बाद और नेटो में होने वाले खर्च को लेकर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की इस टिप्पणी के बाद कि, ‘अमेरिका नेटो का अधिकाधिक खर्च उठा रहा है, यूरोप अब एक ऐसे विदेश मंत्री के साथ बातचीत व व्यवहार करेगा, जो धारा प्रवाह फ्रांसीसी वक्ता हैं और यूरोपीय लोगों को अमेरिका के लिए “अंतिम उपाय नहीं, बल्कि पहले विकल्प और भागीदार” के रूप में देखते हैं.’

अमेरिकी अंतरराष्ट्रीयतावाद के प्रति आम लोगों का रुझान और इस अवधारणा की घटती लोकप्रियता व्यापक रूप से स्पष्ट हुई है, विशेष रूप से अमेरिकी सैन्य साहसिकता के बढ़ते विरोध के साथ जिसे लेकर रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दोनों ही पार्टियों ने अलग अलग रूप में अपना मत ज़ाहिर किया है

इसके अलावा, अमेरिकी अंतरराष्ट्रीयतावाद के प्रति आम लोगों का रुझान और इस अवधारणा की घटती लोकप्रियता व्यापक रूप से स्पष्ट हुई है, विशेष रूप से अमेरिकी सैन्य साहसिकता के बढ़ते विरोध के साथ जिसे लेकर रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दोनों ही पार्टियों ने अलग अलग रूप में अपना मत ज़ाहिर किया है, कभी इसे “अंतहीन युद्धों” के रूप में परिभाषित कर और कभी “हमेशा चलने वाले युद्धों” की शब्दावली में ढाल कर. इसे लेकर, ब्लिंकन का नामांकन एक मध्यमार्गी प्रस्ताव पेश करता है, जो अमेरिका द्वारा लोकतांत्रिक मूल्यों की वकालत किए जाने को प्राथमिकता देता है, लेकिन अमेरिका की ताक़त और इन मामलों में शामिल होने की सीमित क्षमताओं के साथ एक निश्चित सीमा में.

ब्लिंकेन निश्चित रूप से एक उदारवादी हस्तक्षेपकर्ता हैं, यानी वह लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों के लिए अमेरिका की भूमिका के मुखर समर्थक रहे हैं. हाल ही में, बराक ओबामा के एक संस्मरण ने भी इस मूल्यांकन को विश्वसनीयता प्रदान की. मिस्र में लोकतांत्रिक विद्रोह का समर्थन करने के सवाल पर, ओबामा ने ब्लिंकेन और कुछ सलाहकारों को याद किया कि किस तरह वो इस बात से आश्वस्त थे कि होस्नी मुबारक ने “मिस्र के लोगों के बीच अपनी वैधता पूरी तरह से खो दी थी.” इस मामले में यह जानना दिलचस्प है कि ब्लिंकन के बॉस जो बाइडेन उस छोटे बहुमत का हिस्सा थे, जिसने इस मसले पर अमेरिका के लंबे समय के साथी का साथ छोड़ने के ख़िलाफ़ “सावधानी बरतने” की सलाह दी थी.

दूसरी ओर, साक्ष्य यह बताते हैं कि अमेरिकी निष्ठा की वकालत करने वाले ब्लिंकेन किसी भी रूप में अमेरिकी सेना को लेकर यह अंधविश्वास नहीं रखते हैं, कि वह दुनियाभर में कहीं भी सामने आने वाली किसी भी प्रकार की विदेश नीति संबंधित चुनौतियों से निपटने के लिए अग्रसर और सक्षम है. उदाहरण के लिए, पूर्व रक्षा मंत्री रॉबर्ट गेट्स का संस्मरण, अफगानिस्तान पर ओबामा प्रशासन की आंतरिक नीति के विचार-विमर्श को याद करता है. वह इस बात का उल्लेख करता है कि किस तरह बाइडेन और ब्लिंकेन के प्रतिनिधित्व में एक छोटे अल्पसंख्यक समूह ने बराक ओबामा को तत्कालीन आईएसएएफ कमांडर जनरल स्टेनली मैकक्रिस्ट्रिल द्वारा प्रस्तावित की जा रही विस्तारित सैन्य कार्रवाई को पूरी तरह से न मानने की सलाह दी थी.

यहां तक कि, ब्लिंकेन को अमेरिका और उसकी ताक़त की सीमाओं को खुले रूप में और बिना क्षमाप्रार्थी हुए स्वीकार करने के लिए भी जाना जाता है. रूस के ख़िलाफ़ यूक्रेनियन नागरिकों को अमेरीका द्वारा समर्थन दिए जाने और हथियार प्रदान करने से जुड़े प्रस्ताव पर ब्लिंकेन ने स्पष्ट रूप से संदेह व्यक्त किया था. उन्होंने कहा था कि “भले ही यह सहायता यूक्रेन के लिए की जाएगी, लेकिन इससे रूस का रुख बदलने या उसका आक्रमण रुकने की बहुत अधिक संभावना नहीं है.” दिलचस्प बात यह है कि, ब्लिंकेन का व्यावहारिक दृष्टिकोण दोनों तरीके से जाना जाता है, यानी कई मामलों में अमेरिका की निष्क्रियता के प्रभावों की लोकप्रियता का खंडन भी करना. यूक्रेन में बढ़ रही रूसी आक्रामकता को लेकर रिपब्लिकन पार्टी द्वारा ओबामा प्रशासन की आलोचना और उसे सीरिया में ओबामा की निष्क्रियता का परिणाम मानने को लेकर लगाए जा रहे आरोपों के जवाब में ब्लिंकेन ने लोकप्रिय रूप से कहा था कि ” सबसे पहली बात यह है कि यह इस बात को लेकर नहीं है कि अमेरिका क्या करता है, या क्या कहता है, यह रूस और उसके कथित निजी हितों की कार्रवाई के बारे में है.”

भारत की ओर अमेरिका का व्यावहारिक रुख़ 

अधिकांश आकलन पहले से ही बाइडेन प्रशासन के द्वारा अमेरीका व भारत के बीच संबंधों के निरंतर रहने को लेकर काफ़ी हद तक भविष्यवाणी कर चुके हैं. हालांकि इसकी वजह, नई दिल्ली और नरेंद्र मोदी से बाइडेन के परिचित होने से कहीं अधिक व आगे है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जो बाइडेन ने अमेरिका और भारत के बीच साझेदारी और रणनीतिक मेल-मिलाप में केंद्रीय भूमिका निभाई थी. उदाहरण के लिए साल 2000 के दशक की शुरुआत में, बाइडेन ने साल 2005 के नेवल वेसल्स ट्रांसफर एक्ट (Naval Vessels Transfer Act of 2005) को सह-प्रायोजित किया था जिसके कारण भारत ने अमेरिका द्वारा निर्मित पहले युद्धपोत का अधिग्रहण किया, और यहां तक कि इसके बाद यूएस-इंडिया सिविल न्यूक्लियर एग्रीमेंट (US-India Civil Nuclear Agreement ) भी पारित किया गया. यह उस वक्त हुआ जब बाइडेन सीनेट की विदेश संबंधों की समिति (Senate Foreign Relations Committee) के अध्यक्ष थे. अमेरिकी विदेश मंत्री के रूप में ब्लिंकन, भारत और अमेरिका के बीच संबंधों के आधुनिक विकास में बाइडेन की संस्थापक भूमिका से अजनबी नहीं है. वास्तव में, ब्लिंकन के पास इस बात का प्राथमिक अनुभव मौजूद है क्योंकि उन्होंने सीनेट की विदेश संबंध समिति में बाइडेन के स्टाफ निदेशक के रूप में काम किया है. उस अनुभव के एक संकेत के रूप में, इस साल की शुरुआत में वॉशिंगटन डीसी में एक कार्यक्रम में भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय संबंधों के अपने मूल्यांकन के तौर पर ब्लिंकन ने बाइडेन की शुरुआती भूमिका को याद किया और यह माना कि बाइडेन की यह भूमिका भारत व अमेरिका के बीच संबंधों को “मज़बूत” बनाने में महत्वपूर्ण रही है.

इस दिशा में सकारात्मक हस्तक्षेप के चलते अपनी पहचान स्थापित कर चुके ब्लिंकेन ने पहले ही भारत को लेकर “वास्तविक चिंता” प्रकट की है, जो “कश्मीर में भारत सरकार द्वारा की गई नाकाबंदी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाए गए प्रतिबंधों के अलावा नागरिकता से जुड़े क़ानूनों से भी संबंधित है.” 

आगे आने वाले समय में, भारत के साथ अमेरिका के संबंधों को और विकसित करने के लिए ब्लिंकेन के पास गुंजाइश रहेगी, खास तौर पर इसलिए क्योंकि ट्रंप ने अमेरिका व भारत के पोर्टफोलियो पर बराक ओबामा के कार्यकाल के दौरान किए गए काम को निरंतर बनाते हुए, भारत के साथ सहयोग जारी रखा था. उदाहरण के लिए, जिस आयोजन का ज़िक्र पहले किया गया है उसमें ओबामा प्रशासन की दो उपलब्धियों को गिनाते हुए ब्लिंकेन ने भारत-अमेरिकी संबंधों का ज़िक्र किया और अमेरिका व भारत के बीच संबंधों को बेहतर बनाए रखने की बाइडेन की प्रतिबद्धता को रेखांकित किया. इन दो उपलब्धियों में भारत को अमेरिका के ‘प्रमुख डिफेंस पार्टनर’ का दर्जा दिए जाने और यूएस-इंडिया डिफेंस टेक्नोलॉजी एंड ट्रेड इनिशिएटिव (US-India Defence Technology and Trade Initiative-DTTI) शामिल हैं. ट्रंप प्रशासन ने केवल इन कोशिशों को आगे बढ़ाया, भारत को सामरिक व्यापार प्राधिकरण-1 श्रेणी (Strategic Trade Authorisation category) के तहत वर्गीकृत कर (भारत यह दर्जा पाने वाला केवल तीसरा एशियाई राष्ट्र है) और औद्योगिक सुरक्षा अनुबंध को अंतिम रूप दे कर , जो सामरिक तकनीक व व्यापार से जुड़ी पहल यानी डीटीटीआई (DTTI) की प्राप्ति के लिए एक महत्वपूर्ण बुनियाद था.

अमेरिका में चुनाव से पहले, ब्लिंकेन ने संभवतः भारत को लेकर ट्रंप की नीतियों की अपनी आलोचना को सीमित कर दिया था. उन्होंने इसे अनावश्यक रूप से “फोटो-ऑप्स” और व्यापार संबंधी लेनदेन और बातचीत पर केंद्रित कर लिया था. इसलिए, मौजूदा विकल्पों को देखते हुए जहां ब्लिंकन ट्रंप द्वारा बनाई गई राह पर चल सकते हैं, वहां भारत को लेकर उनकी प्राथमिकताएं पुनर्स्थापना के उस एजेंडे से थोड़ा अलग भी हो सकती हैं, जो वह अन्य अमेरिकी भागीदारों के लिए अपना सकते हैं.

एक पहलू जहां ब्लिंकन निश्चित रूप से ट्रंप की नीतियों से अलग हट कर काम करेंगे वह है, भारत की कुछ घरेलू नीतियों को लेकर अमेरिका की आशंकाओं को अधिक मुखर रूप से सामने रखना. लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों के पैरोकार के रूप में चर्चा में रहे और इस दिशा में सकारात्मक हस्तक्षेप के चलते अपनी पहचान स्थापित कर चुके ब्लिंकेन ने पहले ही भारत को लेकर “वास्तविक चिंता” प्रकट की है, जो “कश्मीर में भारत सरकार द्वारा की गई नाकाबंदी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाए गए प्रतिबंधों के अलावा नागरिकता से जुड़े क़ानूनों से भी संबंधित है.” हालांकि, व्यावहारिक रूप से वह इस बात की उम्मीद करते हैं कि इन “मतभेदों” पर काम किया जा सकेगा, इस बात के मद्देनज़र की दोनों राष्ट्र “अधिक से अधिक सहयोग बनाने और अपने बीच रिश्तों को मज़बूत करने के लिए” लगातार कोशिशें कर रहे हैं.

भारत के साथ उन “मतभेदों” को बड़ा कर, अमेरिकी हितों को प्रभावित नहीं करने का यह प्रयास, ब्लिंकेन की उस कथित ग्रहणशीलता के ज़रिए भी दिखाई देता है, जिस के तहत उन्होंने भारत अमेरिकी संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने के बजाय, अमेरिका और चीन के संबंधों को विचारधारा के नज़रिए से देखने और एक बार फिर से समझने की ओर क़दम बढ़ाया है. इसके तहत ब्लिंकन ने मानवाधिकारों को लेकर चीन के ख़राब होते रिकॉर्ड के बावजूद उसे मिल रहे “दंडमुक्ति के संकेतों” (signals of impunity) की पहचान की ज़रूरत को समझा है, जो ट्रंप के शासनकाल में अपनाई गई रणनीति है और जो आज के समय में इस बात का एक बड़ा कारण है कि अमेरिका खुद को “रणनीतिक घाटे” की स्थिति में पाता है. यही वजह है कि ब्लिंकेन ने अमेरिका को एक बार फिर वैश्विक मामलों के केंद्र में स्थापित करने की रणनीति और “मज़बूत फ़लक से चीन के साथ बातचीत करने के लिए” ट्रंप की ‘इंडो-पैसिफिक’ नीति का अनुसरण किया है. इसके तहत उन्होंने भारत को इस प्रयास में “एक प्रमुख भागीदार” बनने के लिए विशेष रूप से आमंत्रित किया है.

इसलिए, भले ही एक स्पष्टवादी अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण वाले व्यक्ति के रूप में ब्लिंकेन का रिकॉर्ड बाइडेन के उस लक्ष्य के लिए उपयुक्त है, जो एक बार फिर “अमेरिका को वैश्विक रूप से दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण व प्रभुत्वशाली देश के रूप में देखने से जुड़ा है”, लेकिन भारत के मामले में बाइडेन और ब्लिंकेन का दृष्टिकोण अधिक यथार्थवादी सिद्ध हो सकता है और भारत-अमेरिका के बीच व्यावहारिक रूप से बेहतर संबंध स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ सकता है.

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