Author : Kashish Parpiani

Published on Feb 26, 2019 Updated 0 Hours ago

पुलवामा हमले के बाद अमेरिका ने पाकिस्तान का नाम लिया है लेकिन इसके बावजूद चल रहे तीन घटनाक्रम इस बात के संकते देते हैं कि भारत के सम‍र्थन में अमेरिका की प्रतिक्रिया की तीव्रता में कमी आ सकती है। 

पुलवामा पर अमेरिका के बयानबाज़ी से आगे जाने की संभावना नहीं

पुलवामा में हाल ही में हुए आतंकी हमले की साजि़श पा‍कि‍स्‍तान में मौजूद जैश-ए-मोहम्‍मद ने रची। इस हमले में सीआरपीएफ़ के 40 जवान शहीद और 35 से ज़्यादा घायल हो गए। इसके साथ ही ये बात एक बार फि‍र सामने आ गई कि‍ पाकि‍स्‍तान आतंकी संगठनों की पनाहगाह है और उन्‍हें कवच प्रदान करता है। हमला बेहद क्रूर था ये इस बात से भी पता चलता है कि‍ कश्‍मीर में ये अपनी तरह का सबसे बड़ा हमला था। भारत लंबे समय से सीमा पार से फैलाए जा रहे आतंक के खिलाफ लड़ाई लड़ता रहा है, इस हादसे के बाद भारत को अंतरराष्‍ट्रीय समुदाय का समर्थन मिल रहा है।

ये बात सामने आई कि‍ अमेरिका के राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बॉल्‍टन ने नई दिल्‍ली में भारत के राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से दो बार बात की। बॉल्‍टन ने संवेदना जताई और सीमा पार से फैलाए जा रहे आतंक के ख़ि‍लाफ़ भारत के आत्‍मरक्षा के अधिकार का समर्थन भी कि‍या। इसके साथ बॉल्‍टन ने यूएन में जैश-ए-मोहम्‍मद के सरगना मसूद अज़हर को ग्‍लोबल टेररिस्‍ट यानी वैश्विक आतंकी घोषित कराने में आ रही बाधाओं को दूर करने में मदद का भी भरोसा जताया

निश्‍चित ही प्रतिक्रिया को सख्‍़त माना जाएगा क्‍यों कि अमेरिका ने पाकिस्‍तान का नाम लिया। इससे पहले अमेरिका तनाव कम करने की कोशिश के लिए उच्‍च स्‍तर के अधिकारी भेजता रहा है।

मिसाल के तौर पर भारतीय संसद पर हुए हमले के बाद अमेरि‍का के उप विदेश मंत्री रिचर्ड आर्मिटेज ने नई दिल्‍ली और इस्‍लामाबाद से बात कर तनाव को ठंडा करने की कोशिश की। वहीं इसके उलट बॉल्‍टन ने जो बात की उसे कुछ लोग ‘फ़्री हैंड’ देना मान रहे हैं, जो नई दिल्‍ली को पाकि‍स्‍तानी उकसावे का जवाब देने की छूट देता है।

बॉल्‍टन के नेतृत्‍व में अमेरिकी राष्‍ट्रीय सुरक्षा परिषद कुछ ज़्यादा ही केंद्रीकृत है ऐसे में इस मामले को इस बयानबाज़ी से कुछ ज़्यादा महत्‍व का बनाया जा सकता है।

क्लिंटन के दौरे के समय जिस तरह के कदम उठाए जाते थे वो आगे भी जारी रहे, जब-जब भारत पर सीमा पार से हमले होते तब अमेरिकी सुरक्षा तंत्र की कोशिश होती कि तनाव को कम किया जाए और युद्ध की स्थिति को टाला जाए। उदाहरण के लिए 2008 के मुंबई हमले जो थैंक्‍स गिविंग ब्रेक (अमेरिका में छुट्टियों के वक़्त) के साथ-साथ हुए, तब बुश सरकार के राष्‍ट्रीय सुरक्षा तंत्र ने दूर से ही बातचीत की और कुछ दिनों बाद ब्रेक छोटे कर वॉशिंगटन में बैठक की। बुश सरकार के दौरान नेशनल सिक्‍योरिटी काउंसिल सभी एजेंसियों को साथ लाती थीं ताकि किसी भी तरह की ग़लत जानकारी के आगे जाने की गुंजाइश न हो। एक ही जानकारी वॉशिंगटन, इस्‍लामाबाद और नई दिल्‍ली तीनों को दी जाती थी

अमेरिका के मौजूदा राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोल्टन , राष्‍ट्रीय सुरक्षा परिषद पर निगरानी रखते हैं और वो सभी कैबिनेट चीफ़ की प्रिंसिपल कमेटी को बैठक के लिए बुला सकते हैं ताकि किसी घटना के विश्‍लेषण, प्रतिक्रिया और विकल्‍पों के बारे में अमेरिकी राष्‍ट्रपति को सलाह दी जा सके।

पहले ऐसा लगा कि बॉल्‍टन कई एजेंसियों की मदद से पुलवामा का जवाब देंगे फि‍र ये ख़बर आई कि उन्‍होंने विदेश मंत्रालय के बयान को दोबारा लिखा जिसमें पाकिस्‍तान का सीधे-सीधे नाम नहीं लिया गया था। वैसे बॉल्‍टन के बारे में मशहूर है कि उन्‍होंने ऐसी बैठकें इतनी कम कर दी हैं, कैबिनेट प्रमुखों को लग रहा है कि वो “नीतिगत प्रक्रिया से बाहर कर दिए गए हैं” इसलिए कोई ताज्‍जुब नहीं है कि पुलवामा के बाद न तो आला अफ़सरों के साथ और न ही उनके मातहतों के साथ ऐसी कोई बैठक बुलाई गई।

बॉल्‍टन के इस वादे पर यकीन करना मुश्किल लगता है कि संयुक्‍त राष्‍ट्र सुरक्षा परिषद में जैश-ए-मोहम्‍मद के सरगना मसूद अज़हर के ख़ि‍लाफ़ कार्रवाई में वो सहायता करेंगे क्‍योंकि वो संयुक्‍त राष्‍ट्र की उपयोगिता पर लगातार सवाल उठाते रहे हैं। बॉल्‍टन कह चुके हैं कि न्‍यूयॉर्क के संयुक्‍त राष्‍ट्र सचिवालय में 38 मंज़ि‍लें हैं, अगर इसमें 10 मंज़ि‍लें न भी रहें तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। अहम बात ये भी है कि पिछले साल जब से संयुक्‍त राष्‍ट्र में अमेरिका की राजदूत निक्‍की हेली ने इस्‍तीफ़ा दिया है। उसके बाद से संयुक्‍त राष्‍ट्र में अमेरिकी नुमाइंदगी अटकी पड़ी है। पिछले हफ़्ते ख़बर आई कि निक्‍की हेली की जगह राष्‍ट्रपति ट्रम्‍प की पसंद हेदर नॉअर्ट ने अपना नामांकन वापस ले लिया है।

इसके अलावा तीन नई बातों से भी लगता है कि हाल में अमेरिका भारत के समर्थन में ज़्यादा कुछ नहीं करेगा।

अफ़ग़ान पेच

कई लोगों का मानना है कि पाकिस्‍तान, अफ़ग़ानिस्‍तान की शांति प्रक्रिया में शामिल है इसलिए अमेरिका पुलवामा के मसले पर खुलकर भारत के साथ नहीं आ सकता। इस बात में कुछ दम भी नज़र आता है, अमेरिका ने इस्‍लामाबाद को तालिबान और अमेरिकी अधिकारियों के बीच होने वाली बातचीत की मेजबानी करने का मौका दिया है। हांलाकि ये भी ख़बर आई कि तालिबान की बातचीत करने वाली टीम के ज़्यादातर सदस्यों ने पाकिस्‍तान जाने में असमर्थता जताई क्‍योंकि उनके नाम अमेरिका और संयुक्‍त राष्‍ट्र की ब्‍लैकलिस्‍ट में हैं और इस वजह से वो सफ़र नहीं कर सकते। अब बातचीत दोहा में होगी।

हो सकता है इस कारण से पूरी प्रक्रिया में पाकिस्‍तान का नियंत्रण कम हो जाए लेकिन फि‍र भी जंग के बाद अफ़ग़ानिस्‍तान में उसके प्रभाव में शायद ही कोई कमी आए।

इस महीने की शुरुआत में तालिबान से बातचीत के लिए नियुक्‍त किए गए अमेरिकी दूत ज़ालमे ख़लीलज़ाद ने तालिबान को बातचीत की मेज पर लाने का श्रेय दिया और उम्‍मीद जताई कि भविष्‍य में अमेरिका और पाकिस्‍तान के रिश्‍ते और बेहतर होंगे। आने वाले कुछ दिनों में अमेरिका और तालिबान ड्राफ़्ट फ़्रेमवर्क की बाधाओं को दूर कर लेंगे और अफ़ग़ानिस्‍तान से अमेरिका के 14 हज़ार सैनिकों की वापसी के मद्देनज़र पाकिस्‍तान, अमेरिका के लिए और अहम हो जाएगा। सबसे अहम बात है कि अमेरिका और तालिबान अगर ये समझौता कर लेते हैं कि अमेरिका बगराम और शोराबक एयरबेस अपने पास रखेगा तो अमेरिका और पाकिस्‍तान के बीच रिश्‍ते बेहतर होंगे, क्‍यों कि ये दोनों एयरबेस पश्चिमी पाकिस्‍तान के बॉर्डर से क़रीब हैं और ऐसे में दोनों को सुरक्षा और खुफ़ि‍या जानकारी आपस में बांटने की ज़रूरत होगी।

व्‍यापार को लेकर सौदेबाज़ी

अमेरिका और भारत के बीच व्‍यापार असंतुलन सिर्फ़ 30 अरब डॉलर है और अमेरिका का जिन देशों के साथ व्‍यापार घाटा है, उन देशों की लिस्‍ट में भारत का नंबर 10वां है। इसके बावजूद भारत, निष्‍पक्ष और दो तरफ़ा व्‍यापारिक संबंधों की बात करने वाले ट्रम्‍प की नाराज़गी से नहीं बच पाया है। पिछले साल अमेरिका ने भारत से स्‍टील और एल्‍युमीनियम खरीद पर टैरिफ़ (शुल्‍क) लगा दिया था, इसके जवाब में नई दिल्‍ली ने 24 करोड़ डॉलर के सामान पर टैरिफ़ लगा दिया। क़रीब दो साल हो गए हैं, दोनों देशों के बीच इस मुद्दे पर बात जारी है, लेकिन रिपोर्ट्स कहती हैं कि बातचीत में गतिरोध आ गया है और अमेरिका आगे की कार्रवाई पर विचार कर रहा है।

ट्रम्‍प प्रशासन कसने की तैयारी कर रहा है यानी सख़्त कदम उठाने की। वो भारत को जीएसपी यानी जनरलाइज़्ड सिस्‍टम प्रिफरेंस प्रोग्राम से हटाने की सोच रहा है। जीएसपी भारत को बिना अमेरिकी टैरिफ़ के 5.6 अरब डॉलर तक के ज्‍वेलरी, गाड़ि‍यों के पार्ट, इलेक्‍ट्रि‍क मोटरों को निर्यात करने देने की छूट देता है। राष्‍ट्रपति ट्रम्‍प का झुकाव अमेरिका की रक्षा प्रतिबद्धताओं, सहयोगी देशों की रक्षा निर्भरता को व्‍यापार असंतुलन और इमीग्रेशन के मुद्दे से जोड़कर देखने में है। ऐसे में भारत-अमेरिका की व्‍यापार को लेकर चल रही बात को पक्‍के तौर पर पुलवामा पर तरजीह दी जाएगी।

अधिकारों से आगे जाने की कोशिश

ट्रम्‍प प्रशासन एक लड़ाई में है और ये लड़ाई अंतरराष्‍ट्रीय विरोधी से नहीं बल्कि घर में है। हाल ही में एक और शटडाउन टाल दिया गया लेकिन इसके साथ ही ट्रम्‍प प्रशासन ने एक और संवैधानिक संकट खड़ा कर दिया है। मेक्सिको सीमा पर दीवार बनाने के लिए फंड पर अड़ने के साथ-साथ राष्‍ट्रपति ट्रम्‍प ने नेशनल इमरजेंसी लगा दी है। जिसकी वजह से एक तरफ़ संसद में लड़ाई तेज़ होगी और दूसरी तरफ़ कोर्ट में उन्‍हें जूझना पड़ेगा, जहां पक्‍के तौर पर इमरजेंसी को चुनौती दी जाएगी।

अमेरिकी सीनेट में रिपब्किलन पार्टी बहुमत में है लेकिन उन पर भी दबाव है कि वो डेमोक्रेट्स के नियंत्रण वाले हाउस ऑफ़ रिप्रजेंटेटिव के साथ मिलकर एक संयुक्‍त प्रस्‍ताव लाएं जो ट्रम्‍प की नेशनल इमरजेंसी को ख़ारिज कर दे। कुछ लोग ये भी कह रहे हैं कि मौजूदा क़ानून का संशोधन किया जाए ताकि कांग्रेस की मंज़ूरी के बिना नेशनल इमरजेंसी लागू न की जा सके।

कार्यपालिका और विधायिका के इस टकराव से गंभीर समस्‍या पैदा हो सकती है। जब ट्रम्‍प प्रशासन इस तरह के घरेलू झगड़ों में उलझा हुआ है तो ऐसे में बाहर चल रहे किसी संकट के लिए गुंजाइश कम ही है।

भारत अमेरिका के लिए ईरान और नॉर्थ कोरिया की तरह प्रॉब्‍लम चाइल्‍ड यानी परेशान करने वाला देश भी नहीं है। अहम बात ये है कि अगर सीनेट ट्रम्‍प को आड़े हाथों लेती है तो ट्रम्‍प की साख सीनेट में भी गिर जाएगी। इससे भारत और अमेरिका के रिश्‍तों पर भी असर पड़ेगा क्‍योंकि दक्षिण और मध्‍य एशिया के मामलों को देखने वाले मंत्री भी बिना आधिकारिक मंज़ूरी के अपना कामकाज नहीं संभाल पाएंगे।

कुल मिलाकर पुलवामा आतंकी हमले के बाद अमेरिका ने पाकिस्‍तान का नाम लेकर और संयुक्‍त राष्‍ट्र में मसूद अज़हर पर बैन लगाने के प्रस्‍ताव में समर्थन देकर अमेरिका ने दिखाया है कि वो भारत के साथ मज़बूती से खड़ा है, लेकिन बॉल्‍टन की कुछ ज़्यादा ही केंद्रीकृत अमेरिकी राष्‍ट्रीय सुरक्षा परिषद और यूएन में फि‍लहाल कोई राजदूत न होने की वजह से अमेरिकी समर्थन गंभीरता पर सवाल उठते हैं। इसके अलावा अफ़ग़ानिस्‍तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के मद्देनज़र पाकिस्‍तान अमेरिका के लिए अहम है। वहीं ट्रम्‍प नेशनल इमरजेंसी को लेकर संसद और न्‍यायपालिका से लड़ाई लड़ रहे हैं।

अफ़ग़ानिस्‍तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद पाकिस्‍तान की भूमिका को ध्‍यान में रखते हुए निकट भविष्‍य में अमेरिकी प्रतिक्रिया के बहुत सख़्त होने के आसार कम ही हैं। व्‍यापार को लेकर भारत के साथ बातचीत भी महत्‍तवपूर्ण मोड़ पर है, वहीं ट्रम्‍प प्रशासन नेशनल इमरजेंसी का एलान करने के मामले में विधायिका और न्‍यायपालिका के मोर्चे पर भी लड़ाई लड़ रहे हैं।

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