Author : Kashish Parpiani

Published on May 31, 2018 Updated 0 Hours ago

जब अमेरिका मनमाने ढंग से डील ख़त्म कर देता है तो ये भविष्य के लिए अच्छी मिसाल नहीं है। आगे ऐसे मसलों पर सहयोग करने में भी मुश्किल आएगी जिस में दो देशों का हित शामिल हो।

अमेरिका की विश्वसनीयता और ट्रम्प की शक्ति प्रदर्शन की दौड़

ईरान परमाणु डील से बाहर आने का राष्ट्रपति ट्रम्प का एकतरफा फैसला अमेरिका की विश्वसनीयता और ज़िम्मेदारी दोनों के लिए एक झटका है। आने वाले समय में इसका असर दुसरे देशों के अमेरिका पर भरोसे पर पड़ेगा। अमेरिका के इस फैसले पर चिंता जताई गयी है। इस फैसले का असर अमेरिका और अटलांटिक देशों के रिश्ते पर पड़ेगा क्यूंकि ये मुमकिन है कि अमेरिका उन यूरोपीय कंपनियों पर प्रतिबन्ध लगाए जो ईरान के साथ कारोबार कर रही हैं। इस संभावना भर से अमेरिका और लगभग एक सदी के उसके यूरोपीय सहयोगियों के रिश्तों में खटास आ रही है। साथ ही अमेरिका के एशियाई सहयोगी भी घबराये हुए हैं। ईरान परमाणु डील को ख़त्म करने का अमेरिकी फैसला एक ऐसे वक़्त पर आया है जब उत्तर कोरिया के साथ उसके अपरमानुकरण पर एक डील होनी है। ऐसे समय में एक ऐसी डील को ख़त्म करना जिस में सब ठीक चल रहा था , उत्तर कोरिया के साथ होने वाली परमाणु डील को और उलझाता है।

इस फैसले का असर अमेरिका और अटलांटिक देशों के रिश्ते पर पड़ेगा क्यूंकि ये मुमकिन है कि अमेरिका उन यूरोपीय कंपनियों पर प्रतिबन्ध लगाए जो ईरान के साथ कारोबार कर रही हैं।

अमेरिका के सहयोगी और पार्टनर देशों के साथ रिश्ते में इस तरह कि गतिविधियाँ हमेशा अमेरिका की विश्वसनीयता पर एक संवाद शुरू करती हैं। जानकार इसी सन्दर्भ में एक घटना याद करते हैं। १९६२ में क्यूबा मिसाइल क्राइसिस के हालात बन रहे थे। अमेरिका कि ख़ुफ़िया एजेंसी के पास क्यूबा में रूस कि गतिविधियों की तसवीरें थी। अमेरिका के अलावा दुसरे देशों से कूटनीतिक समर्थन हासिल करने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन ऍफ़ केनेडी ने पश्चिमी यूरोप में अमेरिकी सहयोगियों से संपर्क किया। केनेडी ने विदेश मंत्री डीन अचेसन को फ्रांस भेजा, जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में वीटो का अधिकार रखता है। अमेरिकी विदेश मंत्री जब फ्रेंच राष्ट्रपति चार्ल्स डे गॉल से मिले तो फ्रेंच राष्ट्रपति ने तस्वीरों का प्रमाण देखने से इंकार कर दिया। उन्हों ने कहा अमेरिका के राष्ट्रपति के शब्द ही मेरे लिए काफी हैं, किसी प्रमाण की ज़रूरत नहीं।

कहा जाता है कि पूरे शीत युद्ध काल में अमेरिका ने अपनी विश्वसनीयता बनाए रखी। अमेरिका कि कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं होता था। वो वही करता था जो उसकी विदेश नीति थी और इस तरह अमेरिका ने अपने सहयोगियों के साथ अपना गठबंधन बनाए रखा। इस गठबंधन की पश्चिमी यूरोप और पूर्वी एशिया में रूस की शक्ति के खिलाफ संतुलन बनाये रखने में बहुत अहमियत थी, अमेरिका के इस गठबंधन ने रूस की भूराजनैतिक महत्वाकांक्षा को एक दायरे में रखा।

शीत युद्ध काल के बाद रूस की शक्ति और उसका विस्तार कमज़ोर हुआ लेकिन अमेरिका की विश्वसनीयता इस द्विध्रुवीय शक्ति संतुलन के कमज़ोर होने के बाद भी बना रहा। अमेरिका का वर्चस्व उसके कई अहम गठबंधन कि वजह से बना रहा। अमेरिका का वादा था कि वो उदारवादी विश्व व्यवस्था को शक्ति संतुलन से बनाए रखेगा।

शीत युद्ध काल के बाद रूस की शक्ति और उसका विस्तार कमज़ोर हुआ लेकिन अमेरिका की विश्वसनीयता इस द्विध्रुवीय शक्ति संतुलन के कमज़ोर होने के बाद भी बना रहा।

इसलिए शीत युद्ध काल के बाद भी अमेरिका के सहयोगी देशों ने अमेरिका को अपने क्षेत्र में मिलिट्री बेस कि इजाज़त दी जहाँ से वो सैनिक ऑपरेशन कर सके और जब भी वाशिंगटन को कूटनीतिक दबदबे के लिए ज्यादा सहायता या सहयोग कि ज़रूरत रही तो अमेरिका के सहयोगी और पार्टनर देश पीछे नहीं हटे। हाल ही में इस्लामिक स्टेट के खिलाफ एक सैन्य गठबंधन बनाना या फिर यूक्रेन में रूस कि गतिविधियों कि वजह से उस पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाना इसकी अहम मिसाल हैं।

ये ज़ाहिर है कि यूके और इजराइल जैसे पार्टनर देशों के साथ अमेरिका का ख़ास रिश्ता बनाए रखना अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में है क्यूंकि अमेरिका कि एक पक्षीय नीतियां उसके वर्चस्व को कायम रखने के लिए काफी नहीं हैं। अमेरिका के पूर्व रक्षा मंत्री जेम्स मत्तिस ने कहा था ऐसा नहीं है कि जिस देश के पास सबसे ज्यादा एयरक्राफ्ट कार्रिएर हैं उसके पास ही सबसे बेहतर आईडिया हैं। ट्रम्प के सत्ता में आने के एक साल से कुछ ज्यादा ही हुए हैं और अमेरिका पर से देशों का भरोसा कम हुआ है। उसकी साख गिरी है। ख़ास कर के ट्रम्प प्रशासन का ट्रांस पसिफ़िक पार्टनरशिप, पेरिस पर्यावरण समझौता और अब ईरान परमाणु समझौता से बाहर आना अमेरिका की विश्वसनीयता को और कमज़ोर करता है। ये याद रखना ज़रूरी है कि ईरान डील जैसे समझौते कई देशों कि मदद से हुए थे जो सामान्य स्थिति में वाशिंगटन के मित्र देश नहीं है। मिसाल के तौर पर रूस और चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में ईरान के खिलाफ चार दौर के प्रतिबंधों का समर्थन किया जिसकी वजह से ईरान को बातचीत कि मेज़ पर आना पड़ा। अराक हेवी वाटर रिएक्टर पर गतिरोध को दूर करने में चीन ने अहम भूमिका निभाई। बीजिंग ने एक नए प्रस्ताव के साथ बातचीत को दुबारा शुरू किया जिसके मुताबिक रिएक्टर में कुछ इस तरह के बदलाव किये जाने थे जिस से रिएक्टर कि परमाणु हथियार बनाने की क्षमता ख़त्म हो जाए।

इसलिए जब अमेरिका मनमाने ढंग से डील ख़त्म कर देता है तो ये भविष्य के लिए अच्छी मिसाल नहीं है। आगे ऐसे मसलों पर सहयोग करने में भी मुश्किल आएगी जिस में दो देशों का हित शामिल हो। इसलिए ये कहा जा सकता है कि अमेरिकी विश्वसनीयता कमज़ोर होती है तो ये दोस्त और शत्रु देशों के साथ सहयोग पर असर डालेगा।

इसके अलावा अमेरिका राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में अब चीन और रूस को लेकर अमेरिका का रुख भी बदला है। बड़ी शक्तियों का का टकराव है। अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा का फोकस अब रूस और चाइना है और ट्रम्प प्रशासन ने मास्को और बीजिंग पर एक ऐसी विश्व व्यवस्था को बढ़ावा देने का आरोप लगाया है जो अमेरिकी हितों के विरोध में है। जब हालत ऐसे टकराव के हों तब रूस और चीन के साथ समझौता करने का कोई भी छोटा या बड़ा मौक़ा ज़रूरी लगता है ताकि सैनिक टकराव कि स्थति को कम किया जा सके और साथ ही देशों के बीच में अधिकारीयों के स्तर की बातचीत होती रहे, मंत्रियों के स्तर पर आर्थिक सहयोग की बातचीत के मौके बनते रहे। चीन और रूस दोनों के ही पास संयुक्त राष्ट्र में वीटो का अधिकार है इसके अलावा कई बड़ी समस्या को हल करने में दोनों देशों का काफी प्रभाव है जैसे कि उत्तर कोरिया कि परमाणु अस्थिरता और सीरिया में बशर अल असद के शासन की चुनौती। ये दोनों मसले दुनिया के सामने बड़ी समस्या है। इसलिए चीन और रूस की अमेरिकी हितों और मूल्यों से अलग विश्व व्यवस्था बनाने में भी कम नहीं और ज्यादा सहयोग चाहिए।

अमेरिका राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में अब चीन और रूस को लेकर अमेरिका का रुख भी बदला है।

साथ ही अमेरिकी दबदबे वाले देशों के साथ सहयोग कम करना उन देशों के इस डर को सही ठहराता कि अमेरिकी नेतृत्व की अति हो रही है , जो अमेरिकी व्यवस्था के विरोध में हैं। इन हालात में जो देश अमेरिका के मित्र देश नहीं हैं वहां पर कट्टरपंथी ताक़तें और मज़बूत होती हैं और वो अमेरिका के साथ किसी भी सहयोग को नकारते हैं। हाल ही में रूस में पूर्व अमेरिकी राजदूत रहे माइकल फौल ने ओबामा प्रशासन के रूस के साथ रिश्तों के दोबारा संतुलन बनाने कि कोशिश की नाकामी कि वजह बताई। बल्कि ये रिश्ते ओबामा प्रशासन के ख़त्म होते होते और बदतर हो गए। वो बताते है कि जब ओबामा और पुतिन कि पहली मुलाक़ात हुई तो पुतिन तब चौंक गए जब ओबामा ने पुतिन कि बुश प्रशासन कि इराक नीति कि आलोचना के बीच में ही टोकते हुए पुतिन की हाँ में हाँ मिलते हुए कहा कि मैं इराक युद्ध के पक्ष में कभी नहीं था। और मैं वैसा कभी नहीं करूँगा। हम शासन बदलने के कारोबार में नहीं हैं “ लेकिन मैक फौल ने २०११ में लीबिया में गद्दाफी शासन के खिलाफ हस्तक्षेप कि तरफ इशारा करते हुए कहा कि शायद यही अमेरिका और रूस के रिश्ते सही करने कि कोशिश का अंत था क्यूँकि पुतिन को इस बात का एहसास हो गया कि ओबामा जॉर्ज बुश से कोई ख़ास अलग नहीं हैं।

ईरान कि ८० मिलियन आबादी ने आज तक उस ईरान को देखा ही नहीं जो अपने पड़ोसियों के साथ सुख से रहा और दुनिया का दिल जीता। अगर ट्रम्प के भाषण का मतलब देखा जाए तो ये कहना ग़लत नहीं होगा कि डील से अमेरिका के बाहर आने का क़दम हो सकता है जल्दी ही ज़बानी तौर पर ही सही सत्ता परिवर्तन की बात में बदल जाए।

दिलचस्प ये है कि अमेरिका फर्स्ट कहने वाले अमेरिकी कमांडर-इन-चीफ ट्रम्प ने जब ईरान परमाणु डील से अमेरिका के हाथ खींचने का ऐलान किया तो अपना भाषण ये कह कर ख़त्म किया कि अमेरिकी जनता ईरान के लोगों के साथ खड़ी है, 1979 के इस्लामिक क्रांति कि तरफ इशारा करते हुए ट्रम्प ने कहा कि एक तानाशाही व्यवस्था ने सत्ता अपने हाथ में ले ली और एक आज़ाद देश जिसे अपने ऊपर गर्व था उसे बंधक बना लिया। ईरान कि ८० मिलियन आबादी ने आज तक उस ईरान को देखा ही नहीं जो अपने पड़ोसियों के साथ सुख से रहा और दुनिया का दिल जीता। अगर ट्रम्प के भाषण का मतलब देखा जाए तो ये कहना ग़लत नहीं होगा कि डील से अमेरिका के बाहर आने का क़दम हो सकता है जल्दी ही ज़बानी तौर पर ही सही सत्ता परिवर्तन की बात में बदल जाए। हो सकता है कि इसमें सैन्य दखलंदाज़ी न की जाए फिर भी इस में शक नहीं कि इसे ट्रम्प के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोल्टन का समर्थन मिलना एक वास्तविकता है। ऐसे में हो सकता है की बड़ी शक्तियों के टकराव का ये दौर और ज्यादा आक्रामक रूप ले और बीजिंग और मास्को को ये ब्रह्मज्ञान होगा कि राष्ट्रपति ट्रम्प भी कोई ख़ास अलग नहीं हैं।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.