Author : Shubhangi Pandey

Published on Dec 11, 2020 Updated 0 Hours ago

ऐसा लगता है कि तालिबान इस वार्ता में बदनीयती के साथ शामिल हुआ है. क्योंकि तालिबान के वार्ताकार बार-बार अपनी मांगें बदल देते हैं. ऐसा लगता है कि वो अमेरिका में नए राष्ट्रपति के पद ग्रहण करने तक वार्ता को ऐसे ही भटकाते रहना चाहते हैं.

अफ़ग़ानिस्तान: प्रक्रिया संबंधी मुद्दों के कारण शांति वार्ता पर मंडराया ख़तरा

क़तर की राजधानी दोहा में अफ़ग़ानिस्तान के अंदरूनी पक्षों के बीच ऐतिहासिक वार्ता शुरु हुए लगभग तीन महीने हो रहे हैं. ये बातचीत 12 सितंबर को शुरू हुई थी. शुरुआत में अंतर-अफ़ग़ान वार्ता को सही दिशा में उठाया गया क़दम कहकर इसकी ख़ूब तारीफ़ की गई थी. लेकिन, जैसे-जैसे ये बातचीत आगे बढ़ी वैसे -वैसे अफ़ग़ानिस्तान में बढ़ती हिंसा को देखते हुए पूरी दुनिया के पर्यवेक्षक चिंतित हैं. शांति वार्ता के बीच हिंसा में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा इस बात का सबूत है कि तालिबान ने शांति वार्ता में अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए हिंसा को अपना हथियार बनाया है. इससे वो जंग के मैदान में भी बढ़त बनाए हुए है. इस तथ्य के बावजूद कि ये शांति वार्ता अमेरिका, तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान की सरकार के बीच हुए समझौतों का नतीजा है, लेकिन बातचीत में अब बेहद कम प्रगति होने के कारण इस शांति वार्ता के भविष्य और अफ़ग़ानिस्तान की स्थिरता को लेकर सवाल उठने लगे हैं.

शांति वार्ता के बीच हिंसा में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा इस बात का सबूत है कि तालिबान ने शांति वार्ता में अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए हिंसा को अपना हथियार बनाया है. 

ये शांति वार्ता, युद्धरत पक्षों के बीच, छह महीने तक कभी हां और कभी ना के बाद शुरू हुई थी. सबसे अधिक विवाद क़ैदियों की रिहाई पर था. मगर अफ़ग़ानिस्तान सरकार के तालिबान के बंदी बनाए गए लड़ाकों को रिहा करने के बावजूद अब तक इस वार्ता में कोई ख़ास प्रगति नहीं हो सकी है. ऐसा लगता है कि तालिबान इस वार्ता में बदनीयती के साथ शामिल है, और इसीलिए वो बार-बार अपनी मांग में बदलाव कर रहा है जिससे कि वार्ता की प्रगति को कम से कम तब तक टरकाया जा सके, जब तक अमेरिका में नया राष्ट्रपति पद नहीं ग्रहण कर लेता.

तालिबान ने सरकार की गिरफ़्त में बचे हुए अपने लड़ाकों की रिहाई की मांग की थी. ये बात तालिबान ने अफ़ग़ान शांति वार्ता के लिए अमेरिका के विशेष दूत ज़लमे ख़लीलज़ाद को तब बता दी थी, जब वो 28 अक्टूबर को दोहा में तालिबान के वरिष्ठ नेताओं से मिले थे. हालांकि, इस शांति वार्ता की प्रगति में सबसे बड़ा रोड़ा ये हक़ीक़त है कि तालिबान और अफ़ग़ान सरकार के प्रतिनिधि अब तक एक साझा एजेंडे पर भी सहमति नहीं बना सके हैं और सबसे बुनियादी प्रक्रिया संबंधी मुद्दों तक को नहीं सुलझा सके हैं. ये एक ऐसा रोड़ा है जिसके कारण बातचीत अब तक बुनियादी मसलों से आगे बढ़कर अर्थपूर्ण विषयों पर परिचर्चा की ओर नहीं बढ़ सकी है.

मज़हबी क़ानूनों का विवाद

तालिबान और अफ़ग़ान सरकार के बीच अब तक इसी बात पर टकराव जारी है कि आख़िर कौन सा शरई क़ानून देश में लागू होगा. तालिबान की मांग है कि अफ़ग़ानिस्तान में भविष्य में हनफ़ी विचारधारा वाले इस्लामिक धार्मिक क़ानून ही लागू किए जाएं, और आगे चल कर देश के भविष्य से जुड़े सभी फ़ैसले और ख़ास तौर से शरीयत संबंधी विवादों का हल इन्हीं के आधार पर हो. अफ़ग़ानिस्तान की सरकार अब तक तालिबान की इस मांग को मानने से इनकार करती आयी है. अफ़ग़ान सरकार का तर्क ये है कि हनफ़ी विचारधारा पर आधारित शरीयत मानने से देश के अल्पसंख्यक समुदायों जैसे कि हज़ारा समुदाय के अधिकारों का हनन हो सकता है. अफग़ानिस्तान में हज़ारा जैसे कई समुदाय हैं, जो शिया मुसलमान हैं और जाफरी विचारधारा वाली शरीयत पर चलते है. अफ़ग़ानिस्तान सरकार को लगता है कि अगर वो हनफ़ी विचारधारा वाली शरीयत की तालिबान की मांग को स्वीकार कर लेती है, तो फिर इस वार्ता में उसके पास मोल-भाव के लिए कुछ ख़ास गुंजाइश बचेगी नहीं. इसके बाद वो महिलाओं के अधिकारों, समाज की भूमिका जैसे मसलों पर तालिबान की शर्तें मानने को मजबूर हो जाएगी.

तालिबान की मांग है कि अफ़ग़ानिस्तान में भविष्य में हनफ़ी विचारधारा वाले इस्लामिक धार्मिक क़ानून ही लागू किए जाएं, और आगे चल कर देश के भविष्य से जुड़े सभी फ़ैसले और ख़ास तौर से शरीयत संबंधी विवादों का हल इन्हीं के आधार पर हो. 

इस समय हनफ़ी विचारधारा वाली शरीयत को अफ़ग़ानिस्तान के संविधान की धारा 130 के तहत क़ानून का दर्जा मिला हुआ है. हालांकि, अभी इस विचारधारा वाली शरीयत, संविधान के दायरे में दर्ज प प्रावधानों और क़ानूनी प्रक्रियाओं की पूरक के तौर पर ही इस्तेमाल होती है. अगर हनफ़ी विचारधारा की शरीयत को अफ़ग़ानिस्तान की हर सामाजिक-राजनीतिक गतिविधि की बुनियाद बना दिया जाता है, तो इससे न केवल अफ़ग़ानिस्तान के वो नागरिक भड़क उठेंगे, जो अन्य इस्लामिक विचारधाराओं को मानते हैं, बल्कि इससे दूसरी विचारधाराओं के अनुयायी अपने ही देश में दोयम दर्जे के नागरिक बन जाएंगे. ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान की सरकार के लिए ये ज़रूरी हो जाता है कि वो तालिबान की केवल एक विचारधारा वाली शरीयत लागू करने की मांग को ठुकरा दे और ये सुनिश्चित करे कि देश के हर नागरिक को मिले संवैधानिक अधिकार की रक्षा हो सके.

समझौते की बुनियाद

जो एक अन्य बात इस वार्ता के अटकने की वजह बनी हुई है, वो ये है कि तालिबान अपनी इस मांग पर अड़ा हुआ है कि अंतर-अफ़ग़ान वार्ता का आधार 29 फ़रवरी 2020 में अमेरिका और उसके बीच समझौते को बनाया जाए. तालिबान के वरिष्ठ सदस्य अक्सर इस बात का हवाला देते हैं कि जब तक अमेरिका और तालिबान के बीच हुए समझौते को मौजूदा वार्ता का आधार नहीं बनाया जाएगा, तब तक अंतर-अफ़ग़ान वार्ता में प्रगति की गुंजाइश कम ही है. अफ़ग़ान सरकार इस मामले पर उतनी अडिग नहीं है, जितनी वो शरीयत की व्याख्या के मसले पर है.

हालांकि, अफ़ग़ानिस्तान की सरकार ने जब तालिबान के सामने ये प्रस्ताल रखा कि अमेरिका और तालिबान के बीच समझौते के साथ साथ अमेरिका और अफ़ग़ान सरकार के बीच जारी साझा बयान को वार्ता का आधार बनाया जाए, तो तालिबान ने इस मांग को मानने से इनकार कर दिया था. इसका नतीजा ये हुआ है कि अफ़ग़ान सरकार ने अपने रवैये में थोड़ा लचीलापन अख़्तियार किया है, और अब वो ये तर्क दे रही है कि चूंकि वो तालिबान और अमेरिका के बीच समझौते का हिस्सा नहीं थी, तो ऐसे में उस समझौते के प्रावधान अफ़ग़ान जनता पर नहीं थोपे जा सकते.

तालिबान के वरिष्ठ सदस्य अक्सर इस बात का हवाला देते हैं कि जब तक अमेरिका और तालिबान के बीच हुए समझौते को मौजूदा वार्ता का आधार नहीं बनाया जाएगा, तब तक अंतर-अफ़ग़ान वार्ता में प्रगति की गुंजाइश कम ही है. 

दिलचस्प बात ये है कि अमेरिका और तालिबान का समझौता भी अफ़ग़ान सरकार की भूमिका को सीमित करता है. क्योंकि इस समझौते में तालिबान के लिए बाध्यकारी ऐसी कोई शर्त नहीं रखी गई, जिनका संबंध अफ़ग़ानिस्तान सरकार के अहम मुद्दों से हो. तालिबान और अमेरिका के बीच समझौते में युद्ध विराम को इसका अटूट अंग बनाने के बजाय, इसे अंतर-अफग़ान वार्ता के तमाम बिंदुओं में से एक विषय बनाकर टाल दिया गया, जिन पर भविष्य में विचार करने की बात कही गई है.

इसका नतीजा ये हुआ है कि तालिबान इस समझौते के बाद बार-बार भयंकर हमलों की संख्या बढ़ाने में कामयाब हुआ है. तालिबान के हमलों से अफ़ग़ानी सेना और पुलिस के सदस्यों के साथ साथ आम नागरिक भी मारे जा रहे हैं. तालिबान को इस बात की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं है कि ऐसे हमले करने से वार्ताओं में उसकी मज़बूत स्थिति पर कोई फ़र्क़ पड़ेगा. ख़बरें तो ये इशारा भी करती हैं तालिबान ने अल क़ायदा से अपने ताल्लुक़ ख़त्म करने से इनकार कर दिया है. ऐसा करके तालिबान ने ये संकेत दे दिया है कि उसे अमेरिका के साथ हुए समझौते का ईमानदारी से पालन करने की कोई फ़िक्र नहीं है.


ये लेख मूलत: ORF South Asia Weekly में प्रकाशित हुआ था.

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