Author : Shubhangi Pandey

Published on Sep 22, 2020 Updated 0 Hours ago

बातचीत को अफ़ग़ानिस्तान के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को बदलने के अवसर के तौर पर देखा जाना चाहिए. इसके लिए शांति प्रक्रिया में स्थानीय लोगों- ख़ासतौर पर महिलाओं और हाशिये पर मौजूद समूहों- की आवाज़ सुनी जानी चाहिए.

अफ़ग़ानिस्तान शांति वार्ता: मेल-जोल में सब हों शामिल और मिले तरजीह

3 सितंबर 2020 को अफ़ग़ानिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के दफ़्तर (ONSC) ने एलान किया कि तालिबान के साथ क़ैदियों की अदला-बदली पूरी हो गई है और इससे अफ़ग़ानिस्तान के भीतर बहुप्रतीक्षित बातचीत शुरू करने का रास्ता साफ़ हो गया है. क़ैदियों को छोड़ने की लंबी प्रक्रिया में पहले रुकावट आ गई थी क्योंकि राष्ट्रपति ग़नी ने बेहद ख़तरनाक 400 तालिबान क़ैदियों के जत्थे को रिहा करने से इनकार कर दिया था. इन क़ैदियों में से ज़्यादातर को ऐसे गुनाहों के लिए सज़ा मिली थी जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. यहां तक कि बाक़ी तालिबान क़ैदियों की क़िस्मत पर फ़ैसला लेने के लिए राष्ट्रपति ग़नी की अपील पर बुलाई गई लोया जिरगा की बैठक में शांति के लिए क़ैदियों की रिहाई को मंज़ूरी मिलने के बाद भी अफ़ग़ानिस्तान सरकार को इस पर आपत्ति थी. समाज के लिए बड़ा ख़तरा समझे जाने वाले बाक़ी क़ैदियों को रिहा करने को लेकर आशंका जताते हुए सरकार ने ये मांग भी की कि तालिबान अपने कब्ज़े में अभी भी मौजूद 20 सुरक्षाकर्मियों को भी रिहा करे.

तालिबान की 20 सदस्यों की वार्ता टीम को उसके प्रमुख मुल्ला अखुंदज़ादा ने ख़ुद चुना है और इसमें तालिबान की नेतृत्व परिषद के सदस्य भी शामिल हैं. मुख्य वार्ताकार के तौर पर टीम की अगुवाई शेर मोहम्मद अब्बास स्टैंकज़ाई ने किया.

हालांकि, ताज़ा जानकारी के मुताबिक़ दोनों तरफ़ से बंदियों की अदला-बदली पूरी हो गई है. अब सरकारी जेल में सिर्फ़ आधा दर्जन वो तालिबान क़ैदी बचे हैं जिन्होंने विदेशी सेना के ख़िलाफ़ हमलों को अंजाम दिया था. सात तालिबान क़ैदी, जिनकी रिहाई का ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस जैसे देश विरोध कर रहे हैं, उन्हें अब क़तर ले जाया जाएगा और दोहा में बातचीत शुरू होने के साथ उन्हें वहीं पर सरकार को सौंपा जाएगा. ख़बरों के मुताबिक़ अफ़ग़ानिस्तान के भीतर की बातचीत सितंबर के दूसरे हफ़्ते में शुरू हो गई है. इस बातचीत में दोनों पक्षों की तरफ़ से उच्च-स्तरीय प्रतिनिधिमंडल शामिल हुए जिनके पास बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए बड़े फ़ैसले लेने का अधिकार था और ज़रूरत पड़ी तो वो समझौतों पर दस्तख़त भी कर सकते हैं. तालिबान की 20 सदस्यों की वार्ता टीम को उसके प्रमुख मुल्ला अखुंदज़ादा ने ख़ुद चुना है और इसमें तालिबान की नेतृत्व परिषद के सदस्य भी शामिल हैं. मुख्य वार्ताकार के तौर पर टीम की अगुवाई शेर मोहम्मद अब्बास स्टैंकज़ाई ने किया.

सरकार की तरफ़ से बातचीत की टीम में राजनेता, पूर्व अधिकारी, सिविल सोसायटी के नुमाइंदे और यहां तक कि कुछ महिलाएं भी शामिल हैं और इसकी अगुवाई मोहम्मद मासूम स्टैंकज़ाई कर रहे हैं जो राष्ट्रीय सुरक्षा निदेशालय के पूर्व प्रमुख हैं. इस टीम के संविधान को राष्ट्रीय समन्वय के लिए उच्च परिषद के प्रमुख अब्दुल्ला अब्दुल्ला की मंज़ूरी भी मिल चुकी है जिन्होंने बातचीत के दौरान राष्ट्रीय हितों, महिलाओं के अधिकार, बोलने की आज़ादी की क़ीमत और संप्रभुता को बनाए रखने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है.

अलग-अलग मान्यताओं की प्रणाली

जहां अफ़ग़ानिस्तान के भीतर की बातचीत में अगले कुछ हफ़्तों में कामयाबी की संभावना की ख़बर शांतिपूर्ण भविष्य की उम्मीद जगाती है, वहीं इससे दोनों तरफ़ की परस्पर विरोधी मान्यताओं का समाधान करने की समस्या की ओर भी ध्यान जाता है. एक तरफ़ अफ़ग़ान सरकार है जो उदारवादी, लोकतांत्रिक इस्लामिक व्यवस्था के लिए दृढ़ है जिसका मक़सद नागरिक स्वतंत्रता और महिलाओं और अल्पसंख्यकों की आज़ादी को बनाए रखना है. दूसरी तरफ़ तालिबान है जो कट्टरपंथी मान्यता प्रणाली का समर्थन करता है और अफ़ग़ानिस्तान में मज़हब आधारित व्यवस्था की स्थापना करना चाहता है जो सख़्त शरिया या इस्लामिक क़ानून पर आधारित होगी. तालिबान के लिए कोई भी राजनीतिक व्यवस्था जो हुक़ूमत के लिए उसके कट्टरपंथी नज़रिए के मुताबिक़ नहीं हो, वो अमान्य है. ऐसे में तालिबान और अफ़ग़ान सरकार के बीच लड़ाई अंत में अफ़ग़ान हुक़ूमत के लिए अलग-अलग वैचारिक दृष्टिकोण पर जाकर ठहरती है.

तालिबान की कट्टरपंथी सोच और मान्यताएं ऐसी हैं जो उन्हें अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय दूसरे बाग़ी गुटों से अलग करती हैं और इसको लेकर जितने भी सवाल किए जाएं लेकिन ये उन्हें मौजूदा राजनीतिक संरचना के ताक़तवर विरोधी के तौर पर पेश करती हैं. तालिबान ख़ुद को हिकमतयार के हिज़्ब-ए-इस्लामी की तरह राजनीतिक महत्वहीनता की हालत में नहीं देखना चाहता. हिज़्ब-ए-इस्लामी ने राजनीतिक मुख्यधारा में आने के लिए 2016 में सरकार के साथ शांति समझौते पर दस्तख़त किया था लेकिन इस प्रक्रिया में वो अपना असली मक़सद भूल गया. पहले अमेरिका और अब अफ़ग़ान सरकार के साथ बातचीत में शामिल होने की तालिबान की इच्छा को निश्चिंत होकर उम्मीद के साथ देखने के बदले बेहद सावधानी से देखने की ज़रूरत है.

तालिबान की कट्टरपंथी सोच और मान्यताएं ऐसी हैं जो उन्हें अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय दूसरे बाग़ी गुटों से अलग करती हैं और इसको लेकर जितने भी सवाल किए जाएं लेकिन ये उन्हें मौजूदा राजनीतिक संरचना के ताक़तवर विरोधी के तौर पर पेश करती हैं.

अमेरिका के साथ तालिबान ने अपेक्षाकृत मज़बूती की हालत में बातचीत की क्योंकि उसे पता था कि क़रीब दो दशक तक युद्ध लड़ने के बावजूद अपनी कोशिशों में नाकामी की वजह से अमेरिका अपनी सेना की वापसी के लिए बेचैन है. जहां तक अफ़गानिस्तान के भीतर की बातचीत में शामिल होने के लिए राज़ी होने की बात है तो तालिबान संभवत: अमेरिका के साथ समझौते की वजह से और ज़्यादा मज़बूत होने के बाद बातचीत को अपने पक्ष में करके अफ़ग़ानिस्तान में कम विदेशी मौजूदगी से फ़ायदा उठाने की फिराक में है. अभी तक तालिबान शांति प्रक्रिया की शर्तों और एजेंडे को अपने मनमुताबिक़ करने में कामयाब रहा है.

सबको शामिल करना ज़रूरी

आम तौर पर लोग सोचते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान के भीतर बातचीत सरकार और तालिबान के बीच सत्ता के बंटवारे के समझौते के लिए है लेकिन हाल में काबुल की एक बैठक के दौरान राष्ट्रपति ग़नी का बयान कुछ और इशारा करता है. अपने भाषण में राष्ट्रपति ने साफ़ किया कि बातचीत का मक़सद ख़ून-ख़राबे और हिंसा को ख़त्म करना है, अफ़ग़ान जनता की इच्छा को पूरा करना है. वास्तव में बातचीत को अफ़ग़ानिस्तान के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को बदलने के अवसर के तौर पर देखा जाना चाहिए. इसके लिए शांति प्रक्रिया में स्थानीय लोगों – ख़ासतौर पर महिलाओं और हाशिये पर मौजूद समूहों- की आवाज़ सुनी जानी चाहिए. निश्चित तौर पर तालिबान लोगों की इच्छाओं की नुमाइंदगी नहीं करता लेकिन अभी तक सरकार भी महत्वपूर्ण सवालों जैसे राजनीतिक संरचना, राजनीति में महिलाओं की भूमिका, सार्वजनिक जीवन के दूसरे कामों, आर्थिक पुनर्गठन की प्रक्रिया और देश के निर्माण पर आम लोगों को जोड़ने में नाकाम रही है. अफ़ग़ानिस्तान की बड़ी आबादी बेहद केंद्रीकृत सरकार के ख़िलाफ़ है जहां काबुल में बैठे राजनीतिज्ञों का दबदबा होता है और जो व्यवस्था भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है, एकतरफ़ा फ़ैसले लेती है और वैचारिक झुकाव के बदले व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर राजनीतिक संरक्षण देती है.

वास्तव में बातचीत को अफ़ग़ानिस्तान के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को बदलने के अवसर के तौर पर देखा जाना चाहिए. इसके लिए शांति प्रक्रिया में स्थानीय लोगों – ख़ासतौर पर महिलाओं और हाशिये पर मौजूद समूहों- की आवाज़ सुनी जानी चाहिए.

ऐसी राजनीतिक संस्कृति ने लगातार हुकूमतों को लोगों से दूर किया है ख़ासतौर पर परंपरागत जनजातीय समुदाय के लोगों से. साधारण अफ़ग़ानी नागरिकों की स्थानीय वास्तविकता से ख़ुद को अलग-थलग करने के बदले हुक़ूमत को चाहिए कि वो लोगों को ताक़त बनाए जो शांति प्रक्रिया की सोच को आगे बढ़ाने में सक्षम हो. अमेरिका-तालिबान समझौते को लागू करने से भी समन्वय के मोर्चे में महत्वपूर्ण प्रगति में मदद मिल सकती है. इस समझौते को सिर्फ़ तालिबान के पुनर्वास के बदले उसे राजनीति की मुख्यधारा में लाने का ज़रिया बनाना चाहिए क्योंकि एक बड़ी आबादी को अभी भी वोट देने का अधिकार नहीं है. इसलिए जहां अफ़ग़ानिस्तान में शांति के लिए हिंसा को ख़त्म करना ज़रूरी शर्त है लेकिन जब तक सभी लोगों को इसमें शामिल नहीं किया जाएगा तब तब किसी भी शांति समझौते का टिकाऊ होना नामुमकिन है. इसके अलावा बातचीत में दोनों पक्षों को अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य को लेकर किसी साझा सहमति के लिए मेल-जोल को स्वीकार करना होगा.

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