Author : Sushant Sareen

Expert Speak Young Voices
Published on Oct 14, 2020 Updated 0 Hours ago
तालिबान के साथ अफ़ग़ान शांति समझौता: समझौता, संघर्ष या समर्पण

अफ़ग़ानिस्तान में हालात क़रीब-क़रीब पहले की तरह हो गए हैं. 19 साल पहले 9/11 को अमेरिका में एक चौंका देने वाला आतंकी हमला हुआ जिसकी वजह से अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की सत्ता ख़त्म हुई. 19 साल बाद क़रीब-क़रीब उसी दिन- 9/12 को- एक और घटना हुई- अफ़ग़ानिस्तान का भविष्य तय करने के लिए दोहा में अफ़ग़ानिस्तान के भीतर के गुटों के बीच शांति वार्ता- जो वहां तालिबान की सत्ता में वापसी की वजह बन सकती है. जहां 9/11 होने के दो महीने के भीतर तालिबान को सत्ता से बे-दख़ल कर दिया गया वहीं कुछ अफ़ग़ान अधिकारियों का मानना है कि उतनी ही समय सीमा में एक समझौते की कोशिश की जा रही है जो नवंबर में अमेरिकी चुनाव से पहले तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में वापस ले आएगी.

शांति समझौता कायम करने के लिए दो महीने की समय सीमा संभवत: उतनी ही अवास्तविक है जितना ये मान लेना कि वाकई ऐसा समझौता होगा जो शांति का युग ले आएगा, वो भी ऐसे देश में जिसने पिछले 40 साल से लगातार हिंसा और ख़ून-खराब देखा है. पिछले दो साल के दौरान जिस तरह की घटनाएं हुई हैं, जब तालिबान को ‘शांति वार्ता’ में शामिल करने के लिए अमेरिका को अपना रुख़ बदलना पड़ा, उससे पता लगता है कि इस बातचीत से तीन में से कोई एक नतीजा निकलने वाला है: पहला, सभी पक्ष अपने-अपने रुख़ से पीछे हटेंगे और किसी बीच की जगह पर पहुंचेंगे जो अफ़ग़ानिस्तान में स्थायी शांति लाएगा. दूसरा, सभी पक्ष ज़्यादा-से-ज़्यादा अपने रुख़ पर अड़े रहेंगे और इसकी वजह से या तो बातचीत टूट जाएगी या खिंचती रहेगी और इसके साथ-साथ उस वक़्त तक संघर्ष और ख़ून-खराबा बढ़ेगा जब तक कि कोई पक्ष हार न मान ले. तीसरा, एक पक्ष समर्पण कर दे और अपने रुख़ से पीछे हट जाए.

शांति समझौता कायम करने के लिए दो महीने की समय सीमा संभवत: उतनी ही अवास्तविक है जितना ये मान लेना कि वाकई ऐसा समझौता होगा जो शांति का युग ले आएगा, वो भी ऐसे देश में जिसने पिछले 40 साल से लगातार हिंसा और ख़ून-खराब देखा है. 

अगर किसी चमत्कार या छल-कपट से कोई समझौता हो भी जाए तो इस बात की गारंटी नहीं है कि ये टिकाऊ होगी. ये बात भी तय नहीं है कि इसे निश्चित तौर पर लागू कराया जा सकेगा. अफ़ग़ानिस्तान में अक्सर समझौते का पालन करने से ज़्यादा उसका उल्लंघन होता है. इसकी वजह ये है कि समझौते पर दस्तख़त कराना तो आसान है लेकिन उसका पालन कराना दूसरी बात है, ख़ासतौर पर तब जब किसी पक्ष को इसके लिए बड़ी क़ुर्बानी देनी पड़े. इसलिए इस बात की संभावना बेहद कम है कि ऐसा समझौता हो पाएगा जिसका सभी पक्ष पालन करें क्योंकि सभी पक्ष ऐसी सुलह तक पहुंचने के लिए बड़ी क़ुर्बानी देने को तैयार नहीं हैं.

ऐसे में इस बातचीत से दो और विकल्पों- संघर्ष और/या समर्पण- की संभावना ज़्यादा है. मौजूदा हालात को देखते हुए इस बात की संभावना बेहद कम है कि तालिबान समझौते के लिए क़ुर्बानी देगा. इसकी वजह भी है. बेकार के बयानों जैसे “युद्ध के मैदान में हल नहीं निकलेगा” के बावजूद सच्चाई ये है कि मौजूदा बातचीत युद्ध के मैदान में तालिबान के आगे बढ़ने का नतीजा है. संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका भले ही इस तथ्य को ठुकराए लेकिन तालिबान को ये पता है कि उसने दूसरे पक्ष को सैन्य, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर थकाकर शांति वार्ता के लिए मजबूर कर दिया है. पिछले दो वर्षों के दौरान जब से अमेरिका तालिबान के साथ शांति समझौते की कोशिश कर रहा है, तब से सिर्फ़ एक पक्ष अपने रुख़ से क़रीब-क़रीब थोड़ा भी पीछे नहीं हटा है और वो तालिबान है.

बात चाहे युद्धविराम को मानने की हो या अल क़ायदा और दूसरे अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय इस्लामिक आतंकी गुटों से संबंधों की हो या इस्लाम के सख़्त यहां तक कि मध्यकालीन व्याख्या से पीछे हटने की हो या अफ़ग़ानिस्तान के संविधान और गणराज्य को स्वीकार करने की हो, तालिबान अपने रुख़ पर कायम रहा है. दूसरे शब्दों में, विवादित मुद्दों को लेकर तालिबान अपने कट्टरपंथी रवैये से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है. इसके बावजूद अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अफ़गानिस्तान पर बातचीत शुरू होने से थोड़ा उत्साह में है. लेकिन ये उत्साह युद्ध की थकान और अफ़ग़ानिस्तान से जल्दी से निकलने के चक्कर में ख़ुद को धोखा देने की तरह है. सिर्फ़ एक मामले में तालिबान ने लचीलापन दिखाया है और वो है बातचीत के दौरान अस्पष्ट भाषा का इस्तेमाल जिससे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के वार्ताकार अपनी सुविधा के मुताबिक़ उसका इस्तेमाल करते हैं.

संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका भले ही इस तथ्य को ठुकराए लेकिन तालिबान को ये पता है कि उसने दूसरे पक्ष को सैन्य, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर थकाकर शांति वार्ता के लिए मजबूर कर दिया है. 

शांति वार्ता के नतीजे के रूप में समान रूप से सत्ता का बंटवारा होगा, इसको लेकर भी काफ़ी संशय है क्योंकि बातचीत की शर्तें तालिबान के पक्ष में झुकी हुई हैं. एक तरफ़ जहां तालिबान है वहीं दूसरी तरफ़ सभी अफ़ग़ान समूह- सरकार, विपक्ष, सिविल सोसायटी समूह आदि- हैं. बातचीत में अफ़ग़ानिस्तान की सरकार प्रमुख पक्ष के बदले किसी सामान्य गुट की तरह सिमट गई है. सबसे ख़राब बात ये है कि उस पर दबाव डाला गया है कि वो तालिबान की तरफ़ से मांगी गई सभी रियायतों को मानकर बातचीत का रास्ता बनाए. हालांकि, बातचीत के दौरान अफ़ग़ानिस्तान की सरकार ने अपनी स्थिति को बेहतर बनाने की कोशिश की- उदाहरण के लिए, क़ैदियों की अदला-बदली के मामले में- लेकिन तालिबान की ज़िद और समझौता करके जल्दी से भागने की अमेरिकी कोशिश के कारण उसके पास कोई विकल्प नहीं रहा और उसे अपने मज़बूत पक्ष को छोड़कर कमज़ोर हालत में बातचीत के लिए आना पड़ा. ग़ैर-तालिबानी पक्षों की कमज़ोरी इस तथ्य में भी झलकती है कि सैन्य शक्ति तालिबान के पक्ष में है और उसे विजेता के तौर पर माना जा रहा है और इससे भी बढ़कर अमेरिका और उसके सहयोगी देश अफ़ग़ानिस्तान की बातचीत में ग़ैर-तालिबानी पक्ष के पीछे मज़बूती से खड़े नहीं हैं.

अफ़ग़ान बातचीत के उद्घाटन समारोह में तालिबान ने वाज़िब बातें रखीं. तालिबान के उप प्रमुख मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर ने अपने भाषण में इस बात पर ज़ोर दिया कि “दूसरा पक्ष” पिछले फरवरी में अमेरिका और तालिबान के बीच हुए दोहा समझौते के तहत अपने वादों को निभाए. उन्होंने माना कि बातचीत मुश्किल होगी लेकिन भरोसा दिया कि तालिबान ईमानदारी से आगे बढ़ेगा और “अफ़ग़ान बातचीत के सफल नतीजे के लिए अपनी पूरी क्षमता से कोशिश करेगा.” बरादर के मुताबिक़ तालिबान का मक़सद है “ऐसा अफ़ग़ानिस्तान जो स्वतंत्र, संप्रभु, एकजुट, विकसित और आज़ाद है- एक अफ़ग़ानिस्तान जहां ऐसी इस्लामिक प्रणाली हो जिसमें देश के सभी लोग बिना किसी भेदभाव के भागीदार हों और भाईचारे के माहौल में एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर रहें”.

अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को बहलाने के लिए तालिबान कुछ भी कह सकता है लेकिन एक बार सत्ता में आने के बाद वो अफ़ग़ानिस्तान को अंधकार युग नहीं तो मध्यकालीन युग में धकेलने की पूरी कोशिश करेगा.

लेकिन तालिबान किस तरह की राजनीतिक व्यवस्था चाहता है? अमीर-उल-मोमिनीन की अगुवाई में इस्लामिक अमीरात निर्वाचित राष्ट्रपति और संसद की अगुवाई वाले इस्लामिक गणराज्य के साथ किस तरह वजूद में रहेगा? क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था होगी या किसी दूसरे तरह की राजनीतिक व्यवस्था आएगी? नये राज में महिलाओं, धार्मिक अल्पसंख्यकों और दूसरे गुटों की हालत कैसी होगी? अभी तक ये साफ़ नहीं है कि इन बड़े मुद्दों पर तालिबान की स्थिति क्या होगी. ज़मीनी हक़ीक़त गवाही देते हैं कि इनमें से ज़्यादातर मुद्दों पर तालिबान के रुख़ में कोई बदलाव नहीं आया है. अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को बहलाने के लिए तालिबान कुछ भी कह सकता है लेकिन एक बार सत्ता में आने के बाद वो अफ़ग़ानिस्तान को अंधकार युग नहीं तो मध्यकालीन युग में धकेलने की पूरी कोशिश करेगा. इसका मतलब ये है कि जब तक सभी ग़ैर-तालिबान गुट समर्पण के लिए तैयार नहीं होते हैं तब तक एक या दूसरे रूप में संघर्ष जारी रहेगा.

अमेरिका तो अफ़ग़ानिस्तान के मामलों से पूरी तरह अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश में है. अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो उम्मीद कर सकते हैं कि “महत्वपूर्ण अवसर” अफ़ग़ानिस्तान के लिए “नया रास्ता” तैयार करेगा लेकिन इस बात की उम्मीद कम है कि उनकी सरकार उस हालत में दख़ल देगी या एतराज़ करेगी अगर ये नया रास्ता पिछले दो दशकों में अफ़ग़ानिस्तान में जो भी अच्छा हुआ है, उसको पलट देता है. इस बात की तरफ़ उन्होंने इशारा भी किया है जब उन्होंने कहा कि राजनीतिक व्यवस्था का फ़ैसला अफ़ग़ानिस्तान के लोग लेंगे और अमेरिका लोकतंत्र को सर्वश्रेष्ठ तो मानता है लेकिन वो “अपनी व्यवस्था दूसरों पर नहीं थोपेगा”. एक वक़्त अमेरिका ने अफ़ग़ान संविधान को स्वीकार करने को बातचीत की पूर्व शर्त बताया था, बाद में इसे किसी भी सुलह का नतीजा बताया और अब वो अफ़ग़ानिस्तान में लोकतंत्र के लिए आवाज़ उठाना भी ज़रूरी नहीं समझता. इसी से आप समझ सकते हैं कि तालिबान ने अपनी मर्ज़ी को लागू करने में कितनी बढ़त हासिल की है.

एक वक़्त अमेरिका ने अफ़ग़ान संविधान को स्वीकार करने को बातचीत की पूर्व शर्त बताया था, बाद में इसे किसी भी सुलह का नतीजा बताया और अब वो अफ़ग़ानिस्तान में लोकतंत्र के लिए आवाज़ उठाना भी ज़रूरी नहीं समझता. इसी से आप समझ सकते हैं कि तालिबान ने अपनी मर्ज़ी को लागू करने में कितनी बढ़त हासिल की है. 

फिलहाल भारत, अफ़ग़ानिस्तान का इकलौता बड़ा साझेदार है जो अभी तक मध्यकालीन तालिबान के साथ खड़ा नहीं दिख रहा. बातचीत के उदघाटन समारोह में विदेश मंत्री डॉक्टर जयशंकर ने अपने बयान में भारत का रुख़ साफ़ करते हुए कहा, “शांति प्रक्रिया निश्चित रूप से अफ़ग़ानिस्तान के नेतृत्व और नियंत्रण में चले, अफ़ग़ानिस्तान की संप्रभुता और प्रादेशिक अखंडता का सम्मान करे और लोकतांत्रिक इस्लामिक गणराज्य अफ़ग़ानिस्तान की स्थापना में जो तरक़्क़ी दर्ज की गई है, उसको बनाए रखे. अल्पसंख्यकों, महिलाओं और समाज के कमज़ोर तबके के हितों की रक्षा की जानी चाहिए और पूरे देश और पड़ोस में हिंसा के मुद्दे का असरदार ढंग से समाधान करना चाहिए”. समस्या ये है कि मौजूदा हुक़ूमत को बनाए रखने के लिए भारत ज़्यादा कुछ नहीं कर सकता. भारत भले ही उभरती हुई शक्ति है लेकिन अफ़ग़ान हुक़ूमत को समर्थन देने की भारत की क्षमता पर सवाल हैं. भारत कुछ आर्थिक और सैन्य मदद दे सकता है लेकिन भारत इस मामले में अमेरिका की जगह नहीं ले सकता.

अगर अफ़ग़ान बातचीत का नतीजा तालिबान की सत्ता में वापसी के रूप में निकलता है तो भारत तालिबान के साथ मेल-मिलाप स्थापित कर सकता है. लेकिन ये भी तभी मुमकिन होगा जब तालिबान ख़ुद को पाकिस्तान की कठपुतली से अलग हटकर स्थापित करेगा. इस बीच भारत को अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के कब्ज़े के परिणामों से निपटने के लिए ख़ुद को तैयार करना होगा.

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