Author : Shubhangi Pandey

Published on Aug 10, 2020 Updated 0 Hours ago

अभी ये देखना बाक़ी है कि शांति प्रक्रिया कैसे आगे बढ़ती है और ये पड़ोस के साझेदारों पर कैसे असर डालती है.

अफ़ग़ानिस्तान: संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में शांति के लिए अंधकारपूर्ण भविष्य

संयुक्त राष्ट्र विश्लेषणात्मक समर्थन और आर्थिक प्रतिबंध निगरानी दल की तरफ़ से 2 जून 2020 को जारी रिपोर्ट में अफ़ग़ानिस्तान के हालात को लेकर बेहद ख़राब तस्वीर पेश की गई है. रिपोर्ट में कहा गया है कि अल क़ायदा के साथ तालिबान के नज़दीकी वैचारिक और सामरिक संबंध लगातार बने हुए हैं. ऐसा कहकर UN रिपोर्ट ने वास्तव में अमेरिका-तालिबान समझौते पर दस्तख़त की बुनियाद का पर्दाफ़ाश करते हुए अफ़ग़ानिस्तान में शांति के भविष्य पर शक जताया है.

रिपोर्ट के मुताबिक़, तालिबान और ख़ासतौर पर उसका हक़्क़ानी नेटवर्क जो कि पाकिस्तान से काम करता है, अल क़ायदा के साथ दोस्ताना संबंध बनाए हुए है. इस दोस्ती की बुनियाद “संघर्ष का साझा इतिहास, वैचारिक सहानुभूति और आपस में शादी-ब्याह” है. रिपोर्ट में आगे दावे के साथ ना सिर्फ़ ये कहा गया है कि अल क़ायदा और तालिबान से जुड़े कई दूसरे आतंकी संगठन अफ़ग़ानिस्तान में बने हुए हैं बल्कि अमेरिका के साथ बातचीत के दौरान तालिबान ने नियमित तौर पर अल क़ायदा से मशवरा लिया. साथ ही तालिबान ने अल क़ायदा को इस बात की गारंटी दी कि समझौते पर दस्तख़त के बाद भी वो उसके साथ ऐतिहासिक संबंधों का सम्मान करेगा.

रिपोर्ट के मुताबिक़, तालिबान और ख़ासतौर पर उसका हक़्क़ानी नेटवर्क जो कि पाकिस्तान से काम करता है, अल क़ायदा के साथ दोस्ताना संबंध बनाए हुए है. इस दोस्ती की बुनियाद “संघर्ष का साझा इतिहास, वैचारिक सहानुभूति और आपस में शादी-ब्याह” है.

तालिबान ने संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट का खंडन किया है और दोहा समझौते को निभाने का वादा दोहराया है. लेकिन इसको लेकर तालिबान के नेतृत्व के भीतर दरार की ख़बरें सामने आई हैं और तालिबान से टूटकर ‘हिज़्ब-ए-वलायत-ए-इस्लामी’ नाम के कट्टरपंथी संगठन के उदय ने इस बात को बल दिया है कि अगर अफ़ग़ान वार्ता से तालिबान मुख्यधारा की राजनीति में आ भी जाता है तब भी हिंसा जारी रहेगी. ख़बरों के मुताबिक़, अलग हुआ गुट ईरान से काम कर रहा है और संभवत: तालिबान के भीतर उन कट्टरपंथियों के साथ जुड़ा हुआ है जो अब्दुल ग़नी बरादर के नेतृत्व में दोहा में तालिबान के राजनीतिक दफ़्तर से चल रही शांति की कोशिशों का विरोध करता है. राजनीतिक और धार्मिक आधार पर तालिबान में अंदरुनी बंटवारे और लड़ाकों की तरफ़ से युद्ध के मैदान में उतरने को लेकर कम उत्साह के बावजूद जानकारों का मानना है कि तालिबान नेतृत्व की तरफ़ से लिया गया कोई भी फ़ैसला व्यापक रूप से ज़मीन पर लागू किया जाएगा.

अस्थिरता को लेकर मौजूदा डर को बढ़ावा दे रहा है ट्रंप प्रशासन का वो अटल फ़ैसला जिसके तहत अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी को जारी रखा गया है. माना जाता है कि इससे ग़नी हुक़ूमत के राजनीतिक और सैन्य रूप से तालिबान से घिरने का ख़तरा बढ़ जाएगा. अमेरिकी सैनिकों के अफ़ग़ानिस्तान में रहने से तालिबान अपने लड़ाकों तक ये संदेश पहुंचाने में कामयाब रहा कि वो संगठित होकर साझा दुश्मन को हराने की कोशिश में लगे रहें. उनके सामने एक समान मक़सद था कि वो विदेशी सेना को अपनी धरती से भगाने के लिए लड़ रहे हैं. अमेरिकी सैनिकों की गैर-मौजूदगी में ये एजेंडा ख़त्म हो जाएगा और इसकी जगह ज़्यादा-से-ज़्यादा ताक़त और नियंत्रण को लेकर कभी न ख़त्म होने वाली मारकाट शुरू हो जाएगी. इसका नतीजा ये होगा कि तालिबान के अलग-अलग गुटों में आपसी दुश्मनी के साथ-साथ अफ़ग़ान सरकार के सैनिकों के साथ भी लड़ाई बढ़ जाएगी.

‘हिज़्ब-ए-वलायत-ए-इस्लामी’ नाम के कट्टरपंथी संगठन के उदय ने इस बात को बल दिया है कि अगर अफ़ग़ान वार्ता से तालिबान मुख्यधारा की राजनीति में आ भी जाता है तब भी हिंसा जारी रहेगी.

इस पृष्ठभूमि को देखते हुए अफ़ग़ानिस्तान में विदेशी आतंकी संगठनों की मौजूदगी से निश्चित तौर पर मौजूदा हालात से भी ज़्यादा ख़राब नतीजे होंगे. आगे क्या होने वाला है इसका इशारा अल क़ायदा के उस बयान से मिलता है जिसमें उसने अमेरिका-तालिबान समझौते को लेकर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक़ अल क़ायदा कोई शांति का समर्थक नहीं है बल्कि उसने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उसे लगता है कि ये समझौता वैश्विक आतंकवाद की जीत का प्रतीक है.

ऐसे में निस्संदेह सबसे बड़ी चुनौती है कि अतीत में आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में हासिल बढ़त को बरकरार रखा जाए, अल क़ायदा से अपने संबंधों को ख़त्म कर तालिबान दोहा समझौते को लेकर अपने वादे को निभाए. हालांकि, मौजूदा सबूत कुछ अलग ही हालात बता रहे हैं. इसके अलावा अमेरिका पूरी तरह से अपने सैनिकों को भले ही हटा नहीं पाए लेकिन अमेरिकी सैनिकों की कम मौजूदगी से ये पता लगाना मुश्किल हो जाएगा कि तालिबान अल क़ायदा और दूसरे संगठनों को संरक्षण दे रहा है या नहीं.

अगर अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद अफ़ग़ान बातचीत टूट जाती है तो दक्षिण एशिया को इसका सीधा नुक़सान उठाना पड़ेगा क्योंकि भौगोलिक तौर पर अफ़ग़ानिस्तान बेहद नज़दीक है और इलाक़े में कई आतंकी संगठन पहले से सक्रिय हैं.

अमेरिका की गैर-मौजूदगी में अफ़ग़ानिस्तान के क्षेत्रीय साझेदार अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया को रास्ते पर लाने में अपनी बड़ी भूमिका समझेंगे. वो अपने-अपने आर्थिक और रणनीतिक हितों को सुरक्षित रखने के लिए शांति प्रक्रिया में शामिल सभी पक्षों से बातचीत बढ़ाकर समाधान की ओर क़दम बढ़ाएंगे. दूसरी तरफ़ अगर अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद अफ़ग़ान बातचीत टूट जाती है तो दक्षिण एशिया को इसका सीधा नुक़सान उठाना पड़ेगा क्योंकि भौगोलिक तौर पर अफ़ग़ानिस्तान बेहद नज़दीक है और इलाक़े में कई आतंकी संगठन पहले से सक्रिय हैं.

अभी ये देखना बाक़ी है कि शांति प्रक्रिया कैसे आगे बढ़ती है और ये पड़ोस के साझेदारों पर कैसे असर डालती है. ऐसे में साझेदारों के लिए ये अच्छा होगा कि वो हर हालात के लिए ख़ासतौर पर तालिबान के ख़िलाफ़ ख़ुद को तैयार रखें. अगर अभी तक उन्होंने ऐसा नहीं किया है तब भी. इसके अलावा अफ़ग़ानिस्तान क्षेत्रीय पक्षकारों के साथ अपने मतभेदों को ख़त्म करने की प्रक्रिया भी शुरू करे. ये ऐसी प्रक्रिया है जिसमें कूटनीतिक कुशलता और दूरदर्शी नीति निर्माण की ज़रूर पड़ेगी ताकि टिकाऊ स्थायित्व को सुनिश्चित किया जा सके.

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