Author : Nilanjan Ghosh

Published on Jul 22, 2020 Updated 0 Hours ago

कोविड-19 की महामारी के कारण लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी गई सरकारों के पास एक अवसर ये आया है कि वो संसाधनों के वितरण की बेहतर व्यवस्था और इसके लिए ज़रूरी संस्थानों की संरचना करें.

लॉकडाउन के बाद के समाज को लेकर प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन के दावों की समीक्षा

नोबल पुरस्कार विजेता, प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन ने हाल ही में दुनिया के सामने एक बेहद दिलचस्प मगर अभी विचारशील परिकल्पना को रखा है. प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन ने इस परिकल्पना को अपनी भाषा की अद्वितीय सौगम्यता, इतिहास की गहरी समझ, सामान्य तार्किक विमर्श, और ईश्वर प्रदत्त भविष्य दृष्टि की मदद से तैयार किया है. इस परिकल्पना को आप केवल इसके शीर्षक से ही स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं. प्रोफ़ेसर सेन ने इसका शीर्षक रखा है- लॉकडाउन से एक बेहतर समाज का उदय हो सकता है. प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन की ये परिकल्पना 15 अप्रैल 2020 को मशहूर वाणिज्यिक अख़बार फ़ाइनेंशियल टाइम्स में छपा था. अपनी परिकल्पना को तार्किक रूप से सही ठहराने के लिए प्रोफ़ेसर सेन इसे एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य देते हुए लिखते हैं कि, ‘दूसरे विश्व युद्ध के कारण लोगों को अंतरराष्ट्रीय सहयोग की अहमियत समझने को मजबूर होना पड़ा. 1944-45 के दौरान ही आज के बड़े वैश्विक संगठनों जैसे कि संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का जन्म हुआ था. मशहूर ब्रितानी गायिका वेरा लिन ने इससे कुछ ही दिन पहले फिर से मिलने के युद्ध गीत गाए थे.’ प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन अपने लेख में दुनिया के तमाम लोगों के बीच समानता और संसाधनों के न्यायोचित वितरण पर आधारित विकास की बात करते हैं. इसके लिए वो दूसरे विश्व युद्ध के दौरान इंग्लैंड और वेल्श में जन्म के समय की औसत आयु में वृद्धि की मिसाल देते हैं. प्रोफ़ेसर सेन लिखते हैं कि, ‘समानता के लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयास और समाज के कमज़ोर तबक़े को अहमियत देने का सकारात्मक नतीजा ये निकलता है कि इससे जनता के हित के बारे में सोचने वाले कल्याणकारी शासन व्यवस्था का जन्म होता है.’

लेकिन, यहां पर प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन से मतभिन्नता की गुंजाईश दिखती है. बड़ी चिंता की बात ये है कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान और उसके बाद ब्रिटेन के जिस विकास का उदाहरण प्रोफ़ेसर सेन देते हैं, उसने दूसरे महायुद्ध के दौरान विकास के कई सूचकांकों में भले ही बढ़िया तरक़्क़ी की हो, लेकिन ब्रिटेन का ये विकास मूल रूप से उसके उपनिवेशों की बदहाली की क़ीमत पर हुआ था. भारत को भी ब्रिटेन के इस विकास का भारी मूल्य चुकाना पड़ा था. बल्कि ये भारत के नुक़सान की क़ीमत पर ब्रिटेन के फ़ायदे का सीधा सादा मामला था. वर्ष 1940 से 1947 के बीच भारत की अर्थव्यवस्था में लगातार नकारात्मक वृद्धि देखी गई थी. इस दौरान भारत की अर्थव्यवस्था -3.2 प्रतिशत की दर से घट रही थी. जबकि, ठीक इसी दौरान ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था में सकारात्मक वृद्धि दर्ज की गई थी. महंगाई के नाम पर कमोडिटी बाज़ार और उनसे जुड़े डेरिवेटिव बाज़ारों में कारोबार बंद कर दिया गया था. इसका वितरण व्यवस्था पर बहुत बुरा प्रभाव देखने को मिला था. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन में ज़रूरी सामानों के दाम में  केवल 15-20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी देखी गई थी. जबकि इसके उलट, इसी दौरान यानी 1940 के दशक में भारत में खाने पीने के सामान की क़ीमतों में 300 से 350 प्रतिशत का इज़ाफ़ा दर्ज किया गया था. इसकी वजह आपूर्ति में आने वाली बाधाएं थीं. भारत में ब्रिटिश राज के चलते, साम्राज्यवादी सरकार ने ब्रिटेन में उपभोक्ता वस्तुओं के व्यापार और उनकी उपलब्ध को सुगम बनाने के लिए भारत में खाद्यान्न की उपलब्धता की राह में बाधाएं खड़ी की थीं.

ख़ुद प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन और उनके अलावा पॉल ग्रीनलो, मार्क टौजर और मधुश्री मुखर्जी  (2011 में प्रकाशित चर्चिल का ख़ुफ़िया युद्ध किताब की लेखिका) जैसे विद्वानों ने अपने अध्ययन में इस बात को स्पष्ट तौर पर साबित किया है. भारत में उस समय की साम्राज्यवादी सरकार ने ब्रिटेन में खाद्यान्नों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए भारत में खाद्यान्न के उत्पादन और समुचित वितरण की राह में मुश्किलें खड़ी कीं. इसी कारण से आख़िरकार बंगाल में 1943 में भयंकर अकाल पड़ा था. उस दृष्टि से देखें तो बंगाल में पड़े इस अकाल को अंग्रेज़ों की साम्राज्यवादी सरकार ने कृत्रिम रूप से तैयार किया था. क्योंकि ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार ने योजनाबद्ध तरीक़े से उद्योगों को नष्ट कर दिया. जिससे यहां आर्थिक अस्थिरता पैदा हुई. और ये सारे क़दम केवल ब्रिटेन के फ़ायदे के लिए उठाए गए थे. दूसरे विश्व युद्ध के बाद, भारत की अर्थव्यवस्था बेहद विकराल स्थिति में थी. भारत की अर्थव्यवस्था को विश्व युद्ध के कारण इतनी अधिक क्षति पहुंची थी कि 1950 में स्वतंत्र भारत की हाल ही में बनी नई मगर कमज़ोर सरकार ने महज़ 33.4 करोड़ रुपए के राजस्व की कमाई होने की जानकारी दी थी. ये हैदराबाद के निज़ाम की कुल संपत्ति से आधी रक़म थी.

प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन में जिस आर्थिक समानता की बात करते हैं, वो महज़ इंग्लैंड तक सीमित थी. और ब्रिटेन के उपनिवेशों को इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ी थी. यहां बड़ा सवाल ये है कि प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन अपने लेख में जिस कमज़ोर तबक़े का ज़िक्र करते हैं, उससे उनकी मुराद क्या है?

तो, जब ब्रिटेन ने भारत को आज़ाद किया और अंग्रेज़ वापस जाने को मजबूर हुए, तो उन्होंने भारत को आर्थिक और सामाजिक अराजकता के दलदल में धकेल दिया था. इसीलिए, प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन में जिस आर्थिक समानता की बात करते हैं, वो महज़ इंग्लैंड तक सीमित थी. और ब्रिटेन के उपनिवेशों को इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ी थी. यहां बड़ा सवाल ये है कि प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन अपने लेख में जिस कमज़ोर तबक़े का ज़िक्र करते हैं, उससे उनकी मुराद क्या है? क्या वो साम्राज्यवादी शासकों को कमज़ोर तबक़ा कहना चाहते हैं? या फिर उनके कहने का मतलब ब्रिटेन के उपनिवेशों के निवासी हैं? जिन्हें दूसरे विश्व युद्ध का ख़र्च निकालने के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार ने भुखमरी, ग़रीबी, खाने के लिए दंगों और सामाजिक संघर्ष के दलदल में धकेल दिया था. और वो भी तब, जब ब्रिटेन के उपनिवेश, उसकी सेना की ओर से  दूसरे विश्व युद्ध में अपना ख़ून बहा रहे थे. अगर प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन के लेख में कमज़ोर तबक़े का अर्थ ब्रिटेन के लोग हैं, तो उनके इस विचार को मज़बूती से चुनौती दिए जाने की ज़रूरत है. मुश्किल दौर में हमेशा ही लोगों के बीच असमानता देखने को मिलती रही है.

अब हम, प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन के इस लेख की दूसरी परिकल्पना की ओर आते हैं. प्रोफ़ेसर सेन लिखते हैं कि दुनिया में फैली असमानता के इस अभिशाप से विश्व को मुक्ति दिलाने के लिए तमाम देशों के बीच सहयोग बढ़ाया जाना चाहिए. प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन बिल्कुल सही कहते हैं कि दूसरे विश्व युद्ध ने मानवता को ये एहसास कराया था कि शांति एवं स्थिरता के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग कितना महत्वपूर्ण है. इसी वजह से कई वैश्विक संगठनों का उदय भी हुआ था. बल्कि, सच तो ये है कि इस नई सदी के पहले दशक तक भू-मंडलीकरण की बयार बड़े ज़ोर शोर से बह रही थी. मुक्त व्यापार के पक्ष में क़सीदे पढ़े जा रहे थे. लेकिन, परिस्थितियों में बदलाव आना तब शुरू हुआ, जब दुनिया के कई देशों में मज़बूत एवं जनवादी नेताओं का उदय हुआ. राष्ट्रों की राजनीति में राष्ट्रवादी विचारधारा को ख़ूब लोकप्रियता मिली. और इसकी वजह क्या थी? दुनिया के कुछ प्रमुख राष्ट्रों की नस्लवादी राजनीति और बाक़ी दुनिया से किया जाने वाला भेदभाव इसका प्रमुख कारण था. कभी जो देश उदारवादी व्यापार व्यवस्था और प्रतिबंधों से मुक्त बाज़ार व्यवस्था के बड़े समर्थक थे, उन्हीं देशों ने अब दूसरे देशों के मुक्त व्यापार करने की राह में रोड़े अटकाने शुरू कर दिए. अपने अपने देश की अर्थव्यवस्थाओं के द्वार बाक़ी दुनिया के लिए बंद करने शुरू कर दिए. आप इसकी मिसाल देखना चाहें, तो अमेरिका और चीन के बीच लंबे समय से चल रहे व्यापार युद्ध को देख सकते हैं. किस तरह अमेरिका ने डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रांस पैसिफ़िक पार्टनरशिप (TTP) से अपना हाथ खींचा, वो किसी से छुपा नहीं है. इसी तरह ट्रंप ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बनी अंतरराष्ट्रीय सहमति को कचरे के डब्बे में डाल दिया. वहीं, ब्रिटेन ने अपनी स्वायत्तता बनाए रखने के लिए यूरोपीय संघ से अलग होने का फ़ैसला कर लिया. इन बातों का ज़िक्र करने के दौरान हमें याद रखना होगा कि विश्व के स्थायी विकास के लिए सस्टेनेबल डेवेलपमेंट गोल (SDG 17) के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकी है. क्योंकि शर्त ये है कि इससे पहले के स्थायी विकास के 16 लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए दुनिया के तमाम देशों के बीच साझेदारी होनी चाहिए. जो होती दिख नहीं रही है. इनमें से कई लक्ष्य जैसे कि ग़रीबी, भुखमरी, स्वास्थ्य, शिक्षा और असमानता में कमी का संबंध प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन के उन्हीं समानता के सिद्धांतों के दायरे में आता है, जिसका ज़िक्र उन्होंने अपने लेख में किया है. और जो वो पहले भी कहते आए हैं.

प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन इशारा करते हैं कि लॉकडाउन के बाद की दुनिया में तमाम देश फिर से उसी आपसी सहयोग के बारे में सोचेंगे, जैसा दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात और उपनिवेशों के आज़ाद होने के बाद हुआ था. जिसके बाद विश्व की आर्थिक संरचना का पुनर्निर्माण किया गया था. लेकिन, हमें ध्यान रखना होगा कि कोविड-19 की महामारी ने बिल्कुल अलग परिस्थिति को जन्म दिया है. इसकी शुरुआत के साथ ही तमाम देशों ने अपनी अपनी अर्थव्यवस्थाओं के द्वार बाक़ी दुनिया के लिए बंद कर लिए थे. तमाम देशों ने अपनी सीमाओं के आर-पार आवाजाही पर रोक लगा दी थी और अंतरराष्ट्रीय परिवहन भी सीमित हो गया है. कोविड-19 की महामारी के हमले से पूर्व ही राष्ट्रवादी राजनीति के चलते तमाम देश अपने खोल में बंद होने की प्रक्रिया से गुज़र रहे थे. इस महामारी ने हर देश को अलग-अलग करने की प्रक्रिया को और तेज़ कर दिया है. कोविड-19 के कारण आज तमाम देश एक दूसरे को शक की नज़र से देख रहे हैं. इसकी मिसाल आप इस रूप में देख सकते हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, नए कोरोना वायरस को चीनी वायरस कहते हैं. वहीं चीन की सरकार इस वायरस के प्रकोप के लिए अमेरिका को ज़िम्मेदार ठहरा रही है. ज़ाहिर है कि विभिन्न देशों के बीच के ये मतभेद स्थायी विकास के लक्ष्य 17 (SDG 17) की प्राप्ति की राह में रोड़े खड़े करेंगे. आज विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन भी शक की नज़र से देखे जा रहे हैं.

कोविड-19 की महामारी के हमले से पूर्व ही राष्ट्रवादी राजनीति के चलते तमाम देश अपने खोल में बंद होने की प्रक्रिया से गुज़र रहे थे. इस महामारी ने हर देश को अलग-अलग करने की प्रक्रिया को और तेज़ कर दिया है. कोविड-19 के कारण आज तमाम देश एक दूसरे को शक की नज़र से देख रहे हैं

यहां तक कि ज़मीनी अनुभव भी इस बात की ओर इशारा करते हैं कि हर देश ख़ुद को अपनी सीमाओं के दायरे में समेट लेने का प्रयास कर रहा है. किसी भी देश में नए कोरोना वायरस के प्रकोप के फैलने और उस देश के चीन के साथ आर्थिक रिश्तों में सीधा संबंध देखा जा रहा है. मानवीय पूंजी की आवाजाही, व्यापार एवं निवेश. इसकी कई मिसालें दुनिया के सामने हैं. जैसे कि इटली. चीन, इटली का न केवल सहकारी व्यापारिक साझेदार है, बल्कि चीन से भारी मात्रा में विदेशी निवेश भी इटली को जाता है. इसकी दूसरी मिसाल ईरान है. ये भी चीन के व्यापार और निवेश का पसंदीदा देश है. और, वायरस व किसी देश की अर्थव्यवस्था के चीन से संबंध की तीसरी बड़ी मिसाल दक्षिण कोरिया है. जिसके अधिकतर निर्यात, पहले आधे तैयार माल के तौर पर चीन जाते हैं और फिर वहां से तैयार हो कर दूसरे देशों को निर्यात किए जाते हैं. इन उदाहरणों से साफ़ है कि वायरस के संक्रमण के व्यापारिक मार्ग से संबंध पर शक की पूरी गुंजाईश बनती है. ज़ाहिर है कि कई देश, दूसरे राष्ट्रों में विदेशी निवेश के नाम पर वहां की आपूर्ति श्रृंखला को अपने नियंत्रण में करने का प्रयास करते हैं. यानी आगे चलकर ऐसे विदेशी निवेश पर भी बहुत से देश शक करेंगे. ऐसा लग रहा है कि आने वाले समय में हर देश स्वयं को अपने आर्थिक खोल में बंद कर लेगा. और इससे वैश्विक सहयोग की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं पर निश्चित रूप से तुषारापात होगा. अगले कुछ वर्षों में तो कम से कम दुनिया का यही माहौल रहने वाला है. यहां तक कि क्षेत्रीय संपर्क बढ़ाने और कई देशों के बीच आपसी समन्वय बढ़ाने वाले गलियारों का निर्माण कार्य भी ठंडे बस्ते में चला जाएगा.

प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन के विचारों से इन दो मुद्दों पर मतभेद के बावजूद ये समालोचना, कई मुद्दों पर प्रोफ़ेसर सेन के कुछ विचारों का समर्थन करती है. ख़ासतौर से अमर्त्य सेन का ये सुझाव कि महामारी के दौरान बेहतर वितरण प्रणाली का निर्माण करने की ज़रूरत है. कोविड-19 की महामारी के कारण लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी गई सरकारों के पास एक अवसर ये आया है कि वो संसाधनों के वितरण की बेहतर व्यवस्था और इसके लिए ज़रूरी संस्थानों की संरचना करें. और इस महामारी के दौर के ख़त्म हो जाने के बाद भी उन संस्थाओं और व्यवस्थाओं का उपयोग करते रहें. इसीलिए, प्रोफ़ेसर सेन का कहना है कि, ‘हां, सोशल डिस्टेंसिंग से वायरस का संक्रमण तो रुक जाता है. लेकिन, इससे होने वाले नुक़सान की भरपाई का भी इंतज़ाम होना चाहिए. ताकि लॉकडाउन से तबाह हुए लोगों की आमदनी, उनके खाने-पीने और स्वास्थ्य सुविधाओं की व्यवस्था हो सके. महामारी से प्रभावित अन्य देशों की तरह भारत में भी ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस जैसी स्वास्थ्य व्यवस्था की ज़रूरत है. पर, चूंकि भारत में बड़े पैमाने पर सामाजिक असमानताएं हैं. तो, इस बात की संभावना कम ही है कि इस महामारी से संघर्ष के सबक़ के तौर पर ऐसी किसी व्यवस्था का उदय होगा. अफ़सोस की बात है, मगर जब हम शायद चर्चा के लिए दोबारा मिलें, तो शायद हम तब भी उसी दुनिया में रह रहे होंगे, जहां आज की तरह ही बड़े पैमाने पर असमानता फैली हुई है.’ अगर मैं प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन की इन लाइनों का उल्लेख नहीं करता हूं, तो उनके विचारों से हमदर्दी रखने वाली मेरी ये समालोचना अतार्किक और अधूरी लगेगी.

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