Author : Tapakshi Magan

Published on Jan 27, 2022 Updated 0 Hours ago

लैंगिक समानता को लेकर अंतरराष्ट्रीय समझौतों को लेकर भारत की प्रतिबद्धता ये दिखाती है कि उसमें महत्वपूर्ण महिलावादी विदेश नीति की दिशा में बढ़ने की काफ़ी संभावनाएं हैं. 

भारत में महिलावादी विदेश नीति में बदलाव के ज़रिये, नई सुबह की दस्तक!

भारत के संदर्भ में महिलावादी विदेश नीति क्या है?

पिछले कुछ वर्षों के दौरान महिलावादी विदेश नीति (FFP) को लेकर परिचर्चाएं काफ़ी तेज़ हुई हैं. दुनिया भर में ऐसे कई देश हैं, जो ऐसी विदेश नीति की ख़ूबियों और उपयोगिता की वकालत करते हैं. महिलावादी विदेश नीति की परिकल्पनाओं पर अगर हम क़रीब से नज़र डालें, तो इसका एक दिलचस्प पहलू सामने आता है: इसकी परिभाषा और ऐसी नीति को लेकर हमारी समझ हमेशा उस संदर्भ से प्रभावित होती जिसके हवाले से इस पर चर्चा होती है. मिसाल के तौर पर, ईरान के साथ यूरोपीय संघ के रिश्तों में महिलावादी विदेश नीति की संभावनाओं पर चर्चा करने वाली एक रिपोर्ट में, इस परिकल्पना की बुनियाद, संयुक्त राष्ट्र संघ के महिला, शांति और सुरक्षा (WPS) वाले महत्वपूर्ण एजेंडे से जुड़ी हुई थी. ये एजेंडा संघर्ष के लैंगिक असर पर ज़ोर देता है. इस संदर्भ में विदेश नीति बहुत हद अलग अलग भागीदारों और उनके लैंगिक समानता व महिलाओं के मानव अधिकार सुनिश्चित करने पर आधारित है.

महिलावादी विदेश नीति की परिकल्पनाओं पर अगर हम क़रीब से नज़र डालें, तो इसका एक दिलचस्प पहलू सामने आता है: इसकी परिभाषा और ऐसी नीति को लेकर हमारी समझ हमेशा उस संदर्भ से प्रभावित होती जिसके हवाले से इस पर चर्चा होती है.

इस परिकल्पना की ख़ूबियों के बारे में किसी को कोई शक नहीं है. लेकिन सिर्फ़ इसी पहलू के आधार पर महिलावादी विदेश नीति की सब पर लागू होने वाली परिभाषा तैयार करने से इसे लागू करने की संभावनाएं सीमित हो जाती हैं. ऐसे में अगर विदेश नीतियों को महिलावादी बनाना है तो हर देश के सामाजिक राजनीतिक मंज़र और वहां की जनता के अपने तजुर्बे को आधार बनाया जाना चाहिए. आसान लफ़्ज़ों में कहें तो महिलावादी विदेश नीति के विचार को हर देश की अपनी विशिष्ट पृष्ठभूमि और ख़ास ज़रूरतों के हिसाब से ढाला जाना चाहिए. इसीलिए, भारत के लिए और भी ज़रूरी हो जाता है कि वो इस परिकल्पना की अपनी अलग परिभाषा तैयार करे. चूंकि, संयुक्त राष्ट्र से लेकर बाक़ी दुनिया तक में भारत की पहुंच और संपर्क बढ़ रहे हैं, ऐसे में भारत के बदलाव का अगुवा बनने की काफ़ी संभावनाएं हैं. इस लेख का मुख्य लक्ष्य इसी संभावना को तलाशना और उन कमियों को समझना है, जिन्हें दूर करके ही भारत अपने अंदर की इस संभावना का दोहन कर सकता है.

भारत के संदर्भ में एक महिलावादी विदेश नीति की परिभाषा में सबसे पहले तो ‘महिलावादी’ और ‘विदेश नीति’ का विश्लेषण करना होगा. फिर भारत के राजनीतिक नज़रिए और लोगों की राय में उनकी जगह को तलाशना होगा. सरल से सरल शब्दों में कहें तो अंतरराष्ट्रीय संबंधों में महिलावादी नज़रियों को शामिल करने का मतलब, सत्ता के उस मौजूदा ढांचे में बदलाव करना है, जो ऐसी नीतियां बनाता है, जिससे ख़ास तबक़े के लोगों को ही फ़ायदा पहुंचता है. महिलावादी नज़रिया, ‘ज़ुल्म, हाशिए पर धकेलने और अलग थलग करने की मौजूदा व्यवस्था को चुनौती’ देता है, जो असमानता को बनाए रखते हैं. वहीं दूसरी तरफ़, विदेश नीति को समझने का मतलब सिर्फ़ ये नहीं है कि दुनिया के देश एक दूसरे से कैसे संवादन करते हैं. बल्कि, इसका ये मतलब भी है कि किस तरह अलग-अलग तरह की राजनीतिक संस्कृतियां और विचारधाराएं साझा हित और समाज के व्यापक हितों के लिए आपस में मिल जाती हैं. हर देश की विदेश नीति उसके मूल्यों और जिस तरह ये मूल्य तय होते हैं, उसका प्रतीक होती है. इसी के आधार पर हम किसी नीतिगत मसले पर उस देश के रुख़ को समझ सकते हैं.

सरल से सरल शब्दों में कहें तो अंतरराष्ट्रीय संबंधों में महिलावादी नज़रियों को शामिल करने का मतलब, सत्ता के उस मौजूदा ढांचे में बदलाव करना है, जो ऐसी नीतियां बनाता है, जिससे ख़ास तबक़े के लोगों को ही फ़ायदा पहुंचता है.

ऐसे में भारत के लिए ‘महिलावादी विदेश नीति’ का मतलब ये होगा कि सत्ता के ऐसे तमाम ढांचों में बदलाव किया जाए, जो हर तरह की असमानता से ताक़त हासिल करता है. ये नीति उन लोगों के तजुर्बों पर आधारित होगी, जो अपने बुनियादी इंसानी हक़ हासिल करने की राह में नियमित रूप से बाधाओं का सामना करते हैं. इस मामले में महिलाओं की भागीदारी लैंगिक समानता के मानकों को पूरा करने वाली नहीं दिखती है. महिलाओं की बराबर की नुमाइंदगी और उनको जो अधिकार हासिल हैं, उनसे ये मिथक टूटता है कि विदेश नीति मर्दों के दबदबे वाला क्षेत्र है. दूसरे शब्दों में कहें तो महिलाओं की भागीदारी और उन्हें बराबरी के अधिकार सुनिश्चित करने से पता चलता है कि इस समस्या की जड़ में अंतरराष्ट्रीय संबंधों की वर्गवादी व्यवस्था है. इसके अलावा भारत में एक महिलावादी विदेश नीति, मानव सुरक्षा की विचारधारा पर आधारित होगी, जिसमें शांति स्थापित करने, मूलभूत मानव अधिकारों तक पहुंच बढ़ाने को बढ़ावा देने और इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ख़ास तौर से संसाधन आवंटित करने को लेकर प्रतिबद्धता को भी शामिल किया जाना चाहिए.

भारत की विदेश नीति में लैंगिकता

काग़ज़ पर तो लैंगिक समानता के मामले में भारत की प्रतिबद्धता काफ़ी असरदार दिखती है. इस मामले में कुछ मिसालें इस तरह हैं- भारत ने महिलाओं से भेदभाव को ख़त्म करने की संधि (CEDAW) पर 1993 में मुहर लगा दी थी; भारत ने लैंगिक समानता के संयुक्त राष्ट्र के स्थायी विकास के लक्ष्य (UN SDG) 5 को लागू करने का वादा भी दोहराया है; भारत महिलाओं को सशक्त बनाने वाले कार्यक्रमों को वित्तीय मदद और सहयोग भी देता है; और सबसे ताज़ा क़दम 2020 में भारत द्वारा महिलाओं की स्थिति पर संयुक्त राष्ट्र आयोग का सदस्य बनना है. इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र के शांति स्थापना के प्रयासों में भारत के योगदान, ख़ास तौर से 2007 में लाइबेरिया (जहां भारत ने सभी महिला सैनिकों वाला शांति रक्षा दल भेजा था) की मिसाल अक्सर अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा दी जाती है, जिसके ज़रिए वो महिला, शांति और सुरक्षा (WPS) के एजेंडे द्वारा पेश किए गए विचारों का समर्थन करते हैं. हालांकि, भारत ने अभी इस एजेंडे पर औपचारिक रूप से मुहर नहीं लगाई है.

अगर हम लैंगिक समानता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता और महिलावादी विदेश नीति के आयामों को गहराई से देखें, तो पता चलता है कि इस मामले में भारत की कोशिशें, समस्या को सतही तौर पर ही हल करती मालूम देती हैं.

हालांकि, ऊपरी तौर पर इस ख़ूबसूरत दिखने वाली तस्वीर के पीछे भी एक सच छुपा है. अगर हम लैंगिक समानता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता और महिलावादी विदेश नीति के आयामों को गहराई से देखें, तो पता चलता है कि इस मामले में भारत की कोशिशें, समस्या को सतही तौर पर ही हल करती मालूम देती हैं. इस बात को और बेहतर ढंग से समझाने के लिए कई मिसालें दी जा सकती हैं. पहली बात तो ये है कि भारत अपनी पहली महिला विदेश मंत्री 2014 में जाकर बना पाया, जब सुषमा स्वराज ने अपने कार्यकाल के पूरे पांच साल ये ज़िम्मेदारी निभाई. दूसरी बात ये कि भले ही भारत ने महिलाओं से भेदभाव को ख़त्म करने की संधि (CEDAW) पर क़रीब तीस साल पहले मुहर लगा दी थी. लेकिन भारत ने अब तक इसके ‘वैकल्पिक प्रोटोकॉल’ को स्वीकार नहीं किया है. इसके तहत अगर लोगों को ये लगता है कि उनके देश की व्यवस्था समझौते के तहत तय सिद्धांतों की रक्षा में नाकाम रही है, तो वो सीधे CEDAW समिति के पास जा सकते हैं. तीसरी बात, लाइबेरिया में भारत के प्रदर्शन की भी ये कहकर आलोचना की गई थी कि भारत की सिर्फ़ महिलाओं वाली टुकड़ी शांति स्थापना के अभियान के उसी हिस्से तक सीमित थी, जिसमें लोगों को सहयोग और उनकी देख-भाल की जानी थी. आख़िर में, भारत की विदेश सेवा (IFS) में महिलाओं की अधिक संख्या का मतलब ये नहीं हुआ है कि उन्हें प्रशासन के ऊंचे पदं पर नियुक्त किया जाए.

ये अंतर अभी भी क्यों बना हुआ है?

भारत द्वारा एक महिलावादी विदेश नीति अपनाने और अपनी विदेश सेवा के ढांचे में लैंगिक समानता लाने के काग़ज़ी वादों और हक़ीक़त में इस फ़र्क़ के मौजूद होने के दो कारण बताए जा सकते हैं. पहला तो ये कि भारत के क़दम अक्सर राजनीतिक नफ़ा-नुक़सान से तय होते हैं न कि किए गए वादे निभाने के लिए. भारत ने WPS एजेंडे पर मुहर न लगाने को इस तर्क से जायज़ ठहराया था कि ये, ‘हमारे देश के संदर्भ में लागू नहीं होता है’. जबकि भारत में कई ऐसे इलाक़े हैं, जहां अंदरूनी संघर्ष का ख़तरा बना हुआ है और वहां सैन्य बल तैनात हैं. इसके साथ साथ, भारत के फ़ैसले को अपने घरेलू मामलों में बाहरी दख़लंदाज़ी की आशंका से भी जोड़कर देखा जा रहा है. शायद यही वजह है कि भारत ने CEDAW के ऑप्शनल प्रोटोकॉल पर भी अब तक मुहर नहीं लगाई है.

 विदेश सेवा के अधिकारियों के कर्तव्य और ज़िम्मेदारियों से जुड़े नियमों वाले दस्तावेज़ में स्त्रीलिंग वाले सर्वनाम हैं ही नहीं. इसी तरह अवसरों तक महिलाओं की पहुंच और भारत द्वारा नीति निर्माण की मुख्यधारा में महिलाओं को शामिल करने की कोशिशें भी इसी लैंगिक सोच पर आधारित हैं.

दूसरा कारण, वो रूढ़िवादी मगर ग़लत सोच है कि महिलाएं सक्षम राजनयिक और विदेश सेवा की मज़बूत प्रतिनिधि नहीं बन सकती हैं. ये सोच मर्दवादी और महिला विरोधी विचारधारा से पैदा हुई है और इसके चलते भारत द्वारा लैंगिक समानता को लेकर किए गए वादे पूरे करने में बाधाएं आती हैं. दिलचस्प बात ये है कि भारतीय विदेश सेवा (IFS) की नौकरी के नियम इसी गहरे पैठ बनाकर बैठी सोच पर आधारित हैं. इनमें ये मान लिया जाता है कि अलग अलग पदों पर केवल मर्दों को ही नियुक्त किया जा सकता है. विदेश सेवा के अधिकारियों के कर्तव्य और ज़िम्मेदारियों से जुड़े नियमों वाले दस्तावेज़ में स्त्रीलिंग वाले सर्वनाम हैं ही नहीं. इसी तरह अवसरों तक महिलाओं की पहुंच और भारत द्वारा नीति निर्माण की मुख्यधारा में महिलाओं को शामिल करने की कोशिशें भी इसी लैंगिक सोच पर आधारित हैं. अभी भी ये कोशिशें महिलाओं की संख्या बढ़ाने वाली सोच पर आधारित हैं, जबकि इससे महिलाओं की स्थिति में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आ पाता है.

निष्कर्ष

मौजूदा महामारी ने ये साबित किया है कि भारत को अपनी विदेश नीति में मानव सुरक्षा का नज़रिया अपनाने की सख़्त ज़रूरत है. कोई ये तर्क दे सकता है कि आधा काम तो तभी पूरा हो जाता है, जब भारत अंतरराष्ट्रीय संबंधों में महिलावादी विदेश नीति को अपनाने के लिए अपनी इच्छाशक्ति जताता है. भारत तमाम मुद्दों से निपटने में कितना सक्षम है, ये दिखाने के साथ-साथ, अगर वो महिलावादी विदेश नीति भी अपनाता है, तो इससे भारत में नीति निर्माण और महिलाओं से होने वाले बर्ताव की घरेलू तस्वीर भी सुधर सकती है. इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत को इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए काफ़ी लंबा सफ़र तय करना है. लेकिन उससे भी ज़रूरी बात ये होगी कि भारत ये समझे कि उसके लिए ये सफ़र शुरू करने का बिल्कुल सही समय है.


लेखिका, ओआरएफ में रिसर्च इंटर्न है.

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