Published on Jan 06, 2021 Updated 0 Hours ago

भारतीय शहरों को महिलाओं की ज़रुरतों पर विशेष ध्यान देने की ज़रुरत है जिससे शहरों के विकास में उनकी आर्थिक उत्पादकता शामिल हो सके और अर्थव्यवस्था में महिलाओं के योगदान को पहचान मिल सके.

‘शहरीकरण की प्रक्रिया में महिलाएं नज़रअंदाज़ न हो: शहरी प्रशासन अपनाएं नए तौर-तरीके’

कहते हैं कि किसी संस्कृति को अगर समझना है तो इसका सबसे आसान तरीका है कि उस संस्कृति में महिलाओं की हालात को समझने की कोशिश की जाए. किसी भी देश के विकास संबंधी सूचकांक को निर्धारित करने के लिए उद्योग, व्यापार, कृषि, शिक्षा के स्तर के साथ ही वहां की महिलाओं की स्थिति का भी अध्ययन किया जाता है. महिलाओं की सुदृढ़ और सम्मानजनक स्थिति एक उन्नत, समृद्ध और मज़बूत समाज की ओर इशारा करती है. यही वजह है कि शहरों के विकास की योजनाओं में महिलाओं की भागीदारी को लेकर जो अवधारणाएं प्रचलित हैं उन्हें गति पकड़ने में अभी वक्त लगेगा लेकिन भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में इसने अपनी पहली छाप छोड़ दी है.

यह सिद्धांत दरअसल इस बात की समालोचना करता है कि आख़िर शहरीकरण की प्रक्रिया को पुरुष या महिला कैसे प्रभावित करते हैं और इसका सीधा प्रभाव शहरीकरण पर क्या पड़ता है.

नारीवादी शहरीकरण — एक ऐसा सिद्धांत और सामाजिक आंदोलन जो पहले से निर्मित परिवेश के महिलाओं पर पड़ने वाले असर से संबंधित हैं – इस दिशा में एक प्रभावी कदम है. यह सिद्धांत दरअसल इस बात की समालोचना करता है कि आख़िर शहरीकरण की प्रक्रिया को पुरुष या महिला कैसे प्रभावित करते हैं और इसका सीधा प्रभाव शहरीकरण पर क्या पड़ता है. इतना ही नहीं इस सिद्धांत के तहत शहरी प्रक्रियाओं और परियोजनाओं की शुरुआत करने के दौरान लोगों के अनुभवों और उनकी ज़रुरतों का भी ध्यान रखा जाता है. मुंबई की बात की जाए तो शहर की कामकाजी महिलाओं की शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक ज़रुरतों के हिसाब से शहर के क़रीब 23 वार्ड में 90 भूमि पार्सल आरक्षित किए गए हैं.

फेमिनिस्ट अर्बनिज़्म को लेकर जितनी भी मिसालें दी जाती हैं उनमें कैटलन नेबरहुड लॉ सबसे अहम है जिसे वर्ष 2004 में पारित किया गया था. इस कानून में शहर के डिजाइन, योजना, बजट और शहर की हर सेवा में लैंगिक दृष्टिकोण को शामिल किया गया था. प्राथमिकता के मुद्दों को निर्धारित करने के लिए इसके तहत वैसे मुद्दों के आंकड़ों को एकत्रित किया गया जो लैंगिक रूप से संवेदनशील थे और इसके साथ ही समूह में इसे लेकर चर्चा किया जाने लगा. पड़ोस के लोग सुरक्षा संबंधी आंकड़े जुटाने लगे और महिलाओं ने अपने इलाक़े में काम करने और रहने संबंधी अपनी ज़रुरतों को चिह्नित करना शुरू कर दिया. मुंबई के लिए भी कैटलेन लॉ एक तरीके से मार्गदर्शक सिद्धान्तों में से एक हो सकता है.

ये इलाक़े किस तरह महिला कार्यबल के बेहतर इस्तेमाल के लिए ठीक होंगे, ख़ास कर उनके मुकाबले जो महिलाएं झुग्गियों में चलने वाले लघु स्तर के कारोबार से जुड़ी हैं या फिर वो जो औद्योगिक क्षेत्रों में दफ्तरों में काम करतीं हैं. 

एक लिंग सलाहकार समिति जो मुंबई में संबंधित योजनाओं के कार्यान्वयन का नेतृत्व कर रही है वह इस बात को भी ध्यान में ला रही है कि ये इलाक़े किस तरह महिला कार्यबल के बेहतर इस्तेमाल के लिए ठीक होंगे, ख़ास कर उनके मुकाबले जो महिलाएं झुग्गियों में चलने वाले लघु स्तर के कारोबार से जुड़ी हैं या फिर वो जो औद्योगिक क्षेत्रों में दफ्तरों में काम करतीं हैं. जो क्षेत्र आवंटित किए गए हैं उसका इस्तेमाल सार्वजनिक किराए के आवास, बच्चों की देखभाल के केंद्र, सामान्य कार्यस्थल बनाने और नागरिक सुविधा केंद्र को खोलने में किया जा सकेगा.
यह मुंबई जैसे महानगरों में महिलाओं के लिए काम करने की दिशा में नई सोच को प्रेरित कर सकती है. अब जबकि चौथी औद्योगिक क्रांति दस्तक देने लगी है और नवीनीकरण के साथ उद्यमशीलता पर ज़्यादा ज़ोर दिया जा रहा है उस स्थिति में ज़्यादातर स्थानों को उन सभी मकसद से अलग उद्देश्यों के लिए अलग रखा जा सकता है, जिनके लिए उन्हें आवंटित किया गया है. इनमें से कुछ को अलग तरह से सोचा जा सकता है – लिंग नवीनीकरण के तौर पर.

आंकड़े क्या बताते हैं?

औपचारिक श्रम बल के मुकाबले मौजूदा समय में महिला कार्यबल की भागीदारी महज 21 फीसदी के क़रीब है जो कि साल 2001 के 37 फीसदी की तुलना में 17 फीसदी कम है. मैकिन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट के एक अध्ययन में यह पाया गया है कि साल 2030 तक भारत में 12 मिलियन महिलाएं उद्योगों में ऑटोमेशन बढ़ने से अपनी नौकरी गवां देंगीं. इन बदलावों पर गौर करते हुए यह कहना कि ये सेंटर नेशनल अर्बन लाइवलीहुड मिशन के तहत शहर में लाइवलीहुड सेंटर की तरह इस्तेमाल में लाए जा सकते हैं. जहां स्थानीय मांग और उद्यमशीलता का अध्ययन किया जा सकता है और इसके मुताबिक कारोबारी विकास के लिए इन सेंटरों में और सुविधाएं विकसित की जा सकती हैं.

इस पहल में नीति आयोग के साथ सिडबी ने भी हाथ मिलाया है. जेंडर सेंटर को कारोबार शुरू करने और उसे विस्तार देने की प्रक्रिया में WEP ज़रुरी शिक्षा और वातावरण मुहैया करा सकता है.

ये इनोवेशन सेंटर इन्क्यूबेटरों के रूप में भी काम कर सकते हैं जहां व्यापारिक विचारों को चर्चा, वित्तीय योजना, विपणन के जरिए आकार दिया जाता है और आखिरकार इन्हें सरकार, शिक्षण संस्थानों और उद्योगों से जोड़ते हैं. इसके जरिए सॉफ्टवेयर डेवलप किया जा सकता है तो नए दौर के कारोबार को शुरू करने के लिए ज़रुरी स्किलिंग को भी बढ़ाया जा सकता है जिसमें डिजिटल मौजूदगी आवश्यक है. इसके अलावा अतिरिक्त सह-कार्यशील खाली स्थानों के लिए नए उद्यमियों को कम मूल्य पर वाईफाई, कंप्यूटर और मीटिंग रूम जैसी हार्डवेयर सुविधाएं मिल सकेंगी साथ ही लाइब्रेरी, लेक्चर रूम और एक्जीविशन एरिया भी इसमें शामिल हो सकता है. ऐसे प्रोजेक्ट जिन्हें नवीनीकरण केंद्रों के जरिए अस्तित्व में लाया जाता है उन्हें राशि एनयूएलएम के ज़रिए दो लाख रुपए का ऋण दिया जाता है जिससे की कोई भी व्यक्तिगत कारोबार शुरू कर सके. जबकि शहरों में गरीब कहलाने वाले समूह को 10 लाख तक ऋण दिए जाने का प्रावधान है.

इसके अलावा जो दूसरे आयाम उपलब्ध हैं वो जेंडर इनोवेशन सेंटर के साथ महिला उद्यमशीलता मंच(WEP) से जुड़े हुए हैं  और यह मंच भारत सरकार की कोशिशों को सफल बनाता है जिसमें भविष्य की महिला उद्यमियों को उनके अनुकूल वातावरण प्रदान किया जाता है. इस पहल में नीति आयोग के साथ सिडबी ने भी हाथ मिलाया है. जेंडर सेंटर को कारोबार शुरू करने और उसे विस्तार देने की प्रक्रिया में WEP ज़रुरी शिक्षा और वातावरण मुहैया करा सकता है. इसके बाद जो प्रोडक्ट बनते हैं उन्हें भारत सरकार के निजी प्लेटफॉर्म या फिर सरकार ई-मार्केटप्लेस के जरिए बेहतर और विपणन के लिए उपलब्ध कराया जा सकता है.

एक ओर जहां भारत के ज़्यादातर बजट शहरों में जेंडर समावेशी बजट ने अपनी जगह बना ली है तो इसके समर्थन में ऐसे ही मजबूत हस्तक्षेप की ज़रुरत होगी. महिलाएं जिस तरह रहती हैं, काम करती हैं, यात्रा करती हैं, और अपने परिवार की देखभाल करती हैं उन तरीकों में बदलाव लाने के लिए वित्तीय प्रावधानों को तैयार करना होगा और सही मायने में यही क्रांतिकारी परिवर्तन हो सकता है. साल 2013 में क़रीब 50 महिलाओं ने मुंबई में इसके ख़िलाफ लाफ 6 साल तक संघर्ष किया तब कहीं जाकर शहर की योजनाओं और बुनियादी ढांचे में लैंगिक अवधारणा शामिल हो सका और अब 2019 में यह विस्तार लेने की स्थिति में है लेकिन लैंगिक समावेशी अवधारणा को लेकर यह सिर्फ़ एक बड़ा बदलाव है जो कि भारतीय शहरों के लिए बेहद ज़रुरी है – और उस ओर बढ़ाया गया एक कदम भर है.

वास्तविक विकास कैसे मुमकिन हो?

पीआईएससीए 2020 (द प्रॉस्पेरिटी एंड इन्क्लूजन सिटी सील एंड अवार्ड) सूचकांक ने इस बात को रेखांकित किया कि समावेशी सूचकांक के मामले में मुंबई का स्थान 107 वां था. ज़ाहिर है महिलाओं की ज़रुरतों और अर्थव्यवस्था में उनके योगदान की पहचान के लिए ज़रुरी है कि शहरों को महिलाओं के प्रति ख़ास ध्यान देने की ज़रुरत है. इसमें वो महिलाएं भी शामिल हैं जो दफ्तरों में काम करती हैं और वो भी जो इससे कहीं ज़्यादा औपचारिक वातावरण में काम कर रही हैं.

साल 2030 के समाकेतिक या दीर्घकालिक विकास के एजेंडे में एसडीजी 11 – जो समाकेतिक समुदायों के वजूद का पहचान कराती है, और एसडीजी 5 –  जो लैंगिक संतुलन की बात करती है, इनमें बेहद करीबी संबंध स्थापित करता है. यही वजह है कि मौजूदा समय इस बात की ओर इशारा करता है कि मुंबई जैसे महानगर की तरह ही भारत के दूसरे शहरों में भी समावेशी विकास की अवधारणाओं को शामिल किया जाए क्योंकि महज शहरीकरण से वास्तविक विकास मुमकिन नहीं है.

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