Author : Sunjoy Joshi

Published on Jul 27, 2020 Updated 0 Hours ago

चूंकि इस पूरे क्षेत्र में भारत के सुरक्षात्मक हित जुड़े हुए हैं. इसलिए अगर इसमें किसी भी तरह की हलचल होती है तो उससे भारत का स्ट्रैटेजिक कैलकुलेशन भी प्रभावित होगा.

‘चाबहार की आड़ में चीन और ईरान भारत की ऐशियाई प्रभुत्व को करना चाहते हैं कमज़ोर’

बीता सप्ताह कई तरह की सामरिक हलचल और गतिविधियों से भरा रहा. भारत के पड़ोस में भी हलचल बना रहा. सबसे पहले यदि हम ईरान की बात करें तो ईरान के चाबहार परियोजना को भारत का शाहकार (मास्टरपीस) समझा जाता था लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि भारत उससे बाहर हो गया है. इसे एक बड़े झटके के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि भारत के इससे सामरिक और आर्थिक हित जुड़े हुए थे. दूसरी तरफ नेपाल के प्रधानमंत्री भी भारत को लेकर तरह-तरह के बयान देते आ रहे हैं. वहां भी चीन की मौजूदगी काफी ज्य़ादा है. जब भारत ईरान के चाबहार प्रोजेक्ट से बाहर हुआ तो इसी दौरान ईरान और चीन के बीच इस बंदरगाह को लेकर एक बड़ा समझौता हुआ है. तो ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या अमेरिका और चीन के बीच जो प्रॉक्सी वार चल रहा है क्या यह उसका एक हिस्सा है?

चाबहार को लेकर भारत का आकलन करना 

यह अभी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो पाया है कि चाबहार परियोजना से भारत को ईरान ने अलग कर दिया है. चाबहार एक बड़ा प्रोजेक्ट है. भारत इसके कई हिस्सों में भागीदार था. चाबहार से जहदान तक की जो रेलवे लाइन है उसको लेकर के भारत की तरफ़ से इरक्वान से बातचीत की जा रही थी और इसके कई हिस्सों में भारत ने निवेश किया था. इरक्वान नहीं माना तो अंततः ईरान को थक हार कर चीन से इसके डेवलपमेंट की बात करनी पड़ी. चूंकि चाबहार प्रोजेक्ट ईरान के विकास से जुड़ा है. इसलिए वह शुरू से ही इसको लेकर भारत के साथ-साथ चीन से भी बात करता चला आ रहा है. ईरान इसको लेकर पाकिस्तान से भी बात करता चला रहा है. यदि पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट को देखें तो चाबहार पोर्ट महज 170 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. यदि तेहरान और इस्लामाबाद की चर्चा सुने तो इन दोनों को सिस्टर पोर्ट कहा जाता है. और यह अनुमान लगाया जाता है कि यह दोनों ही बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव का हिस्सा हैं. तो इसको लेकर बहुत ज्यादा आश्चर्यचकित होने की ज़रूरत नहीं है. ज़रूरी यह है कि यदि रेलवे लाइन बन जाती है तो इसपर किसका माल दौड़ेगा. चीन और ईरान के बीच यह जो करारनामा हुआ है इसको लेकर सबसे पहले बातचीत 2016 में शी जिनपिंग के तेहरान यात्रा के दौरान हुई थी. और अब इसपर समझौता हुआ है जिसके बारे में पूरी तरह से अभी मालूम नहीं है. इसके अलावा 25 जून को हसन रूहानी की तरफ से यह घोषणा किया गया कि ईरान होर्मुज जलडमरूमध्य (स्ट्रेट आफ हॉरमुज) को बंद कर देगा. जबसे अमेरिका द्वारा ईरान पर प्रतिबंध लगाए गए हैं तबसे हसन रूहानी होर्मुज जलडमरूमध्य- जो बहुत ही संकरा यानि की पतला समुद्री रास्ता है और सामरिक रूप से दुनिया के लिए बेहद महत्वपूर्ण है- को रोकने की बात करते आ रहे हैं. पहली बार ईरान ने यह बात कही है कि हम अपनी निर्भरता होर्मुज जलडमरूमध्य से कम करेंगे और इसके तटवर्ती इलाकों में अपने इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित करेंगे और दूसरे रास्ते तलाशेंगे. अगर ईरान ऐसा करने में सफल हो जाता है तो वह बार-बार जो धमकी देता आ रहा है कि होर्मुज जलडमरूमध्य को रोक देगा. क्योंकि जब से अमेरिकी प्रतिबंध लगे है वह इन धमकियों को पूरा करके भी दिखाया है. लेकिन होर्मुज को बंद करने का प्रभाव ईरान पर भी पड़ता है. इसलिए वह इसे अभी बंद नहीं करता. ऐसा लगता है कि ईरान का चीन के साथ हुए समझौते में यह भी एक हिस्सा है. चीन आज भी ईरान का सबसे बड़ा तेल आयातक देश है. हालांकि, प्रतिबंध लगने के बाद से चीन ने भी अपने तेल के आयात को कुछ कम किया हैं. इसीलिए चीन के साथ-साथ रूस ने ईरान पर अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों का विरोध करते हैं. जबसे अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंध लगाए हैं तभी से रूस चीन और ईरान के बीच नज़दीकियां बढ़ी है. और इस वजह से इस पूरे क्षेत्र के सामरिक संरचना में बदलाव आ जाने का ख़तरा बना हुआ हैं. यह एक बहुत बड़ी चुनौती है न सिर्फ़ उस देश की लिए जो प्रतिबंध लगाए है बल्कि भारत के लिए भी. चूंकि इस पूरे क्षेत्र में भारत के सुरक्षात्मक हित जुड़े हुए हैं. इसलिए अगर इसमें किसी भी तरह की हलचल होता है तो उससे भारत का स्ट्रैटेजिक कैलकुलेशन भी प्रभावित होगा. तो इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि यदि चाबहार प्रोजेक्ट को लेकर ईरान और चीन के बीच लंबे समय तक घनिष्ठ संबंध बने रहते हैं तो ज़रूर चीन ईरान पर जोर ज़बरदस्ती करके भारत के हितों को क्षति पहुंचा सकता है.

यदि चाबहार प्रोजेक्ट को लेकर ईरान और चीन के बीच लंबे समय तक घनिष्ठ संबंध बने रहते हैं तो ज़रूर चीन ईरान पर जोर ज़बरदस्ती करके भारत के हितों को क्षति पहुंचा सकता है

भारत-ईरान संबंध में पाकिस्तान फैक्टर 

सिर्फ़ एक रेलवे लाइन से अलग होना अपने-आप में बहुत ज्य़ादा महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि उस रेलवे लाइन पर किसका सामान दौड़ता है. भारत न सिर्फ एशियाई भू-भाग बल्कि जो यूरेशियाई भू-भाग के हिंद महासागर की धुरी पर स्थित हैं, वहां पर उसने अपने आपको  एक उपमहाद्विपीय शक्ति के रूप में स्थापित किया हुआ है. भारत का इस क्षेत्र में अपना एक वर्चस्व हैं और एक सामरिक महत्ता हैं. भारत का मध्य एशिया और रूस तक जाने के लिए जो पश्चिमी पहुंच है वो पाकिस्तान की वजह से कट जाता है क्योंकि भारत के लिए जो पश्चिम एशिया तक जाने के लिए जो स्थलीय मार्ग बनते हैं वह पाकिस्तान की वजह से बाधित हो जाता है. इस प्रकार भारत जो एक उप महाद्वीपीय शक्ति के रूप में देखा जाता है वह कट ऑफ़ होकर एशिया का मात्र एक द्वीप बनकर रह जाता है. इस तरह से सामरिक महत्त्व भारत का निश्चित रूप से कम होता है.

क्वाड देशों को पश्चिम एशिया में भारत के साथ खड़े होने की ज़रूरत

ईरान, भारत की सामरिक कैलकुलेशन के लिहाज़ से हमेशा से ही- चाहे वो अफग़ानिस्तान की दृष्टि से, रूस की दृष्टि से, सेंट्रल एशिया की दृष्टि से और यूरोप के की दृष्टि से एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है. समस्या यह है कि भारत की यह जो गणनाएं हैं वो बड़ा ही वैध हैं. मगर इनके बारे में अमेरिका या बाक़ी क्वॉड के सदस्य देश बहुत ज्य़दा महत्व नहीं देते हैं. चूंकि भारत अब क्वॉड के नज़दीक आता जा रहा है. इसलिए भारत को अपने इन चिंताओं को क्वाड देशों के साथ बारगेनिंग करना बहुत ज़रूरी हो जाता है. अगर भारत और अमेरिका को लंबे समय तक एक सहयोगी साथी के रूप में मिलकर चलना है तो अमेरीका को न सिर्फ़ अपने हितों का बल्कि इस क्षेत्र में भारत की प्राथमिकताओं को भी ध्यान में रखना होगा. अमेरिका वास्तव में यदि भारत को अपना सहयोगी मानता है तो उसे इस क्षेत्र में प्रतिबंधों के ख़िलाफ छूट देनी ही होगी. अमेरिका को समझना चाहिए कि एकतरफ़ा प्रतिबंध बहुत ही कड़ी कार्यवाही होती है जिसके बाद कोई बीच का रास्ता नहीं बचता है. इस मामले में अमेरीका का बहुत ही गलत निर्णय रहा है जिससे इस क्षेत्र में उसके पद चिन्ह लगातार घटते जा रहे हैं. जहां तक हिंद-प्रशांत क्षेत्र की बात है तो यह एक बृहद क्षेत्र है. यह क्षेत्र भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है और कोई भी देश यदि यह कहता है कि हम भारत के सहयोगी हैं तो उन्हें हमारी सामरिक चिंताओं को समझना अत्यंत आवश्यक हो जाता है.

यह क्षेत्र भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है और कोई भी देश यदि यह कहता है कि हम भारत के सहयोगी हैं तो उन्हें हमारी सामरिक चिंताओं को समझना अत्यंत आवश्यक हो जाता है.

एशिया में शक्ति की प्रतिद्वंद्विता 

भारत-नेपाल और भारत-चीन के बीच जो घटनाएं चल रही हैं वह चीन और अमेरिका के बीच में जो बड़ी सामरिक लड़ाई चल रही है उसका यह धीरे-धीरे हिस्सा बनती जा रही हैं, और यही सबसे बड़ी परेशानी की बात बनती जा रही है. अमेरिका दक्षिण चीन सागर में चीन को नियंत्रित करना चाहता है. और इसके लिए उसने हाल ही में अपने बेड़े भी भेजें. ताइवान और हांगकांग को लेकर अमेरिका ने फिर वहां हस्तक्षेप किया. चीन ज़वाबी कार्रवाई में यह चाह रहा है कि अमेरिका के लिए जो जिन क्षेत्रों में चीन से सामना करना पड़े उनकी संख्या को बढ़ा दिया जाए. चीन इस समय एक ऐसे अमेरिका को चुनौती दे रहा है जो इस समय कोरोना वायरस से जूझ रहा है, अपनी आंतरिक समस्याओं से पीड़ित है, जहां पर चुनाव का माहौल है, इस असमंजस भरे माहौल में कोई निर्णय बनता दिखता नहीं है. और कई तरीके से पश्चिम एशिया से अपने पैर धीरे-धीरे वापस कर रहा है.

इस तरह से वह ईरान के साथ समझौता करके एक तरह से अमेरिका को पश्चिम एशिया में ललकारना चाहता है जिससे कि यदि अमेरिका इस क्षेत्र में मुठभेड़ करता भी है तो उससे सैन्य ख़र्चे बढ़ जाए. क्योंकि अमेरिका इस क्षेत्र के लिए एक सुदूर पूर्व देश है. तो कैसे जब अमेरिका की साझेदारी कमजोर हो रही है, यूरोप और अमेरिका के बीच में मतभेद गहरे होते जा रहे हैं, ईरान को लेकर भी मतभेद हैं, यहां तक कि जापान के साथ भी तू तू-मै मै चलती रहती है. तो ऐसे समय में जब अमेरिका के एलाइंसेज़ कमजोर हो रहे हैं तो कैसे उसे सामरिक रूप से एशिया के चारों छोरों पर बृहद रूप में चुनौती दी जाए. यह उसका और साथ ही साथ रूस का बराबर प्रयास चलता रहा है. और इसी घटना के चलते जो इरिटेंट पैदा हो रहा है- चाहे वह नेपाल में पैदा हो रहा है या फिर चाहे ईरान में. यह सब उसका एक हिस्सा होता जाता है. इस प्रकार हमें इस वृहद संरचना को समझने की ज़रूरत है. और यह जो खेल है इसे कौन-कौन लोग खेल रहे हैं और क्यों खेल रहे हैं? यह जानना अत्यंत आवश्यक हो जाता है.

आज वास्तव में अमेरिका और चीन के बीच प्रमुख मुद्दा ट्रेड वॉर नहीं है बल्कि टेक्नोलॉजी वॉर बनता जा रहा है. दुनिया में आगे जाकर टेक्नोलॉजी पर किसका वर्चस्व रहे, कौन टेक्नोलॉजी के माध्यम से दुनिया पर नियंत्रण कर सकता है इस बात को लेकर अमेरिका और चीन के बीच में ज्यादा झगड़ा है

आज वास्तव में अमेरिका और चीन के बीच प्रमुख मुद्दा ट्रेड वॉर नहीं है बल्कि टेक्नोलॉजी वॉर बनता जा रहा है. दुनिया में आगे जाकर टेक्नोलॉजी पर किसका वर्चस्व रहे, कौन टेक्नोलॉजी के माध्यम से दुनिया पर नियंत्रण कर सकता है इस बात को लेकर अमेरिका और चीन के बीच में ज्यादा झगड़ा है. और यह लड़ाई आसानी से हल नहीं होने वाली है. दोनों शक्तियों की अपनी-अपनी ताक़तें हैं, अपनी-अपनी कमजोरियां हैं. इस खेल को बड़े परिपेक्ष में खेला जा रहा है. जैसा की हम जानते हैं कि युद्ध लड़ने के कई तरीके होते हैं. सिर्फ़ सीमाओं पर नहीं लड़ जाते, तकनीकी रूप से भी लड़ा जाता है, आर्थिक क्षति पहुंचा कर भी लड़ा जा सकता है. यह सारी चीजें हम देख रहे हैं कि कैसे बड़ी ताक़तें भिन्न-भिन्न हथियारों का प्रयोग करके एक दूसरे पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं.

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