Published on Dec 05, 2020 Updated 0 Hours ago

अगर भारत RCEP पर दस्तख़त करता तो इसका सबसे अधिक असर चीन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के साथ उसके व्यापारिक संबंधों पर पड़ता.

‘आत्मनिर्भर’ अर्थतंत्र का विकल्प भारत के लिए नहीं है

पिछले कुछ हफ़्तों के दौरान भारत के तथाकथित आर्थिक आत्म-निर्भरता के दौर की ओर लौटने को लेकर, आलोचनात्मक टिप्पणियों की बाढ़ सी आ गई है. हालांकि, इन आलोचनाओं की मूल वजह, भारत सरकार द्वारा आत्मनिर्भर भारत अभियान की शुरुआत करना है. लेकिन, आत्मनिर्भरता पर ज़ोर देने को लेकर ताज़ा हमलों के पीछे भारत का रीजनल कॉंम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (RCEP) का स्वयं को अलग करने का फ़ैसला है. RCEP जिस पर पिछले महीने ही हस्ताक्षर किए गए थे, उसका मक़सद आसियान (ASEAN) के दस देशों और चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के बीच व्यापार की बाधाएं दूर करना है. भारत ने पहले ही आसियान के दस देशों, जापान और दक्षिण कोरिया के साथ प्राथमिकता के आधार पर व्यापार के समझौते किए हुए हैं. इसका मतलब ये है कि अगर भारत RCEP पर दस्तख़त करता तो इसका सबसे अधिक असर चीन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के साथ उसके व्यापारिक संबंधों पर पड़ता.

भारत के लिए दूसरा मुद्दा आयात बढ़ने की सूरत में उससे सुरक्षा के अपर्याप्त व्यवस्था का था, जिसका असर ये होता कि अगर कोई देश भारत में अपने उत्पादों को डंप करने लगता, तो इससे बचने का भारत के पास कोई उपाय न होता. 

जब RCEP के लिए समझौता वार्ता चल रही थी, तब उससे से जुड़ने के लिए भारत के सामने तीन स्पष्ट लक्ष्य थे. सबसे महत्वपूर्ण था किसी उत्पाद के उत्पत्ति संबंधी नियम – अर्थात वो पैमाना जिससे उत्पादों के स्रोत तय किए जाते हैं – जो कि RCEP के तहत बहुत निम्न स्तर पर था. इसका नतीजा ये होता कि, हो सकता है कि किसी ख़ास देश के साथ व्यापार के लिए भारत एक विशेष प्रावधान शामिल करा लेता, लेकिन वो देश इन प्रावधानों से ख़ुद को आसानी से बचा सकता था. भारत के लिए दूसरा मुद्दा आयात बढ़ने की सूरत में उससे सुरक्षा के अपर्याप्त व्यवस्था का था, जिसका असर ये होता कि अगर कोई देश भारत में अपने उत्पादों को डंप करने लगता, तो इससे बचने का भारत के पास कोई उपाय न होता. भारत का तीसरा ऐतराज़ व्यापार संबंधी कुछ विशिष्ट बाध्यताओं को लेकर था. इससे ये होता कि भारत RCEP से इतर अपने कुछ अन्य व्यापारिक साझीदारों को जो विशिष्ट सुविधाएं देता, उसका लाभ RCEP के सदस्यों को भी देना पड़ता. कुल मिलाकर RCEP के आख़िरी प्रस्ताव में भारत के लिए जो शर्तें थीं, उनसे चीन पर भारत की व्यापारिक निर्भरता बहुत अधिक बढ़ जाती. जबकि, चीन के साथ भारत को व्यापार में पहले ही ज़बरदस्त घाटा हो रहा है. दोनों देशों के बीच कई मुद्दों पर राजनीतिक मतभेद हैं, ख़ास तौर से विवादित सीमा को लेकर तनाव है.

भारत की व्यापार संबंधी दुविधा

क्या भारत के ख़ुद को RCEP से अलग करने का अर्थ ये है कि, मुक्त व्यापार के प्रति उसकी प्रतिबद्धता समाप्त हो गई है? अगर आसान भाषा में बताएं, तो किन्हीं दो देशों के बीच व्यापार की वास्तविकता दो बुनियादी सिद्धांतों पर टिकी होती है. पहला है कि मुक्त व्यापार विशुद्ध लाभ होता है. दूसरे देश के बाज़ार तक अच्छी पहुंच और व्यापार संबंधी विवादत कम होने से कारोबारियों को फ़ायदा होता है और ग्राहकों की लागत कम होती है. ये व्यापार के उदारीकरण का वो सिद्धांत है, जिसके चलते शीत युद्ध के अंत के बाद से भूमंडलीकरण का विस्तार होता आया है. दूसरी सच्चाई है तुलनात्मक लाभ. मुक्त व्यापार के पक्षधर लोग इस दूसरे पहलू की लगातार अनदेखी करते आए हैं. सच्चाई ये है कि मुक्त व्यापार से, ऐसा करने वाले हर पक्ष को बराबर का फ़ायदा नहीं होता. जिन देशों के पास प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन होते हैं, जैसे कि तेल निर्यातक देश, वो मुक्त व्यापार से निश्चित रूप से तुलनात्मक रूप से अधिक लाभ प्राप्त करते हैं.

मुक्त व्यापार विशुद्ध लाभ होता है. दूसरे देश के बाज़ार तक अच्छी पहुंच और व्यापार संबंधी विवादत कम होने से कारोबारियों को फ़ायदा होता है और ग्राहकों की लागत कम होती है. ये व्यापार के उदारीकरण का वो सिद्धांत है, जिसके चलते शीत युद्ध के अंत के बाद से भूमंडलीकरण का विस्तार होता आया है. 

मुक्त व्यापार से लाभ उठाने वाले अन्य प्रमुख देश वो होते हैं, जो व्यापार के केंद्र होते हैं. जैसे कि, सिंगापुर, जिबूती, हॉन्ग-कॉन्ग और लक्ज़ेमबर्ग. ये देश अपने GDP के तीन गुना से अधिक व्यापार करते हैं. वहीं, नीदरलैंड, बहरीन और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) अपने GDP से 150 प्रतिशत अधिक विदेशी व्यापार करते हैं. और अंत में वो देश आते हैं, जिन्होंने विगत वर्षों में अपने निर्यात योग्य उत्पादों से अपना विशिष्ट स्थान बनाया है. जैसे कि, वियतनाम, दक्षिण कोरिया और सबसे उल्लेखनीय है चीन. बहुत से देशों ने (हालांकि सभी मामलों में नहीं) ऐसे लाभ को मुक्त व्यापार के आर्थिक सिद्धांत से नहीं, बल्कि अपने व्यापारिक हितों और बाज़ारों की सख़्ती से रक्षा करते हुए उठाए हैं. इसके लिए वो देश निवेशकों के सामने आकर्षक शर्तों का प्रस्ताव रखते हैं, उन्हें दिल खोलकर सब्सिडी देते हैं, जिससे कि वो बाक़ी दुनिया की ज़रूरतें पूरी करने वाले कारखाने बन जाएं. दूसरे शब्दों में कहें, तो ये चतुर औद्योगिक नीति है.

ज़ाहिर है कि मुक्त व्यापार सभी को एक बराबरी के स्तर पर आकर कारोबार करने का मौक़ा देता है. पर, सच्चाई ये भी है कि व्यापार के अवसर कभी भी वास्तविक रूप से समान नहीं होते. आप किसी भी देश के लिए व्यापार वार्ताएं करने वालों से बात कीजिए, तो वो रोज़मर्रा की व्यापार वार्ताओं का जो हवाला देते हैं, वैसी बातें आम तौर पर ख़ूनी मुक़ाबलों के बारे में कही जाती हैं.

इन दो वास्तविकताओं को ध्यान में रखते हुए देखें तो, व्यापार वार्ताओं से भारत के लाभ उठाने की क्षमता कुछेक क्षेत्रों तक ही सीमित है. पहली बात तो ये कि भारत अपने विशाल बाज़ार तक पहुंच देने का वादा कर सकता है. 2008 के बाद से वैश्विक व्यापार की मात्रा लगभग स्थिर सी हो गई है. ऐसे में भारत के विशाल घरेलू बाज़ार की मांग बहुत बढ़ गई है. भारत के पास दूसरे देशों को देने के लिए जो दूसरी चीज़ है, वो शायद उसका दूसरा भरपूर संसाधन यानी जनसंख्य़ा है. लेकिन, पूंजी की तुलना में अंतररराष्ट्रीय स्तर पर लोगों की आवाजाही को लेकर अधिक राजनीतिक विवाद होते हैं.

सिंगापुर जैसे देश, जो भारत के किसानों और दुकानदारों को लेकर वाजिब लोकतांत्रिक चिंताओं को तुरंत ख़ारिज कर देते हैं, वही देश अपने यहां राजनीतिक आधार पर अप्रवास संबंधी पाबंदियों को जायज़ ठहराने में बिल्कुल भी देर नहीं लगाते. 

सिंगापुर जैसे देश, जो भारत के किसानों और दुकानदारों को लेकर वाजिब लोकतांत्रिक चिंताओं को तुरंत ख़ारिज कर देते हैं, वही देश अपने यहां राजनीतिक आधार पर अप्रवास संबंधी पाबंदियों को जायज़ ठहराने में बिल्कुल भी देर नहीं लगाते. तीसरी बात ये है कि ऐसे बहुत कम ही क्षेत्र हैं, जिनमें भारत से अपेक्षा की जाती है कि वो वैश्विक आम सहमति को पूरा करे, जैसे कि पर्यावरण संबंधी मानक. और आख़िर में, कुछ ऐसे महत्वपूर्ण विषय हैं, जहां भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने की स्थिति में है और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं से जुड़ा हुआ है और जिन क्षेत्रों में वो वैश्विक बाज़ार तक पहुंच के मामले में असली फ़ायदा उठा सकता है. इन क्षेत्रों में सूचना एवं संचार तकनीक की सेवाएं, जेनेरिक दवाओं का उत्पादन, गाड़ियों के कल-पुर्ज़े, रत्न व गहने और शोधित पेट्रोलियम उत्पाद शामिल हैं. लेकिन, विश्व स्तरीय प्रतिस्पर्धा के ऐसे उद्योग भारत के पास बहुत कम हैं.

इन बुनियादी हक़ीक़तों को ध्यान में रखते हुए, भारत ने जो हालिया व्यापारिक वार्ताएं की हैं, उनका मक़सद सहयोगात्मक अर्थव्यवस्थाओं के साथ व्यापार में नई जान फूंकने का है, न कि संभावित प्रतिद्वंदियों से व्यापार बढ़ाने का. डॉनल्ड ट्रंप के शासन काल में भारत के व्यापार वार्ताकार, सैद्धांतिक तौर पर अमेरिका के साथ ‘पहले चरण’ के समझौते पर सहमति बनाने में सफल रहे हैं. लेकिन, अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधियों द्वारा भारत से व्यापारिक रियायतों की भारी मांग के चलते ये समझौता संभव नहीं हो सका. अब अमेरिका में जो बाइडेन के नेतृत्व में बनने वाली नई सरकार के, भारत के साथ व्यापार समझौता करने के मुद्दे पर ध्यान देने में अभी कुछ महीने और लगेंगे. भारत ने व्यापार समझौते का एक और प्रयास यूरोपीय संघ की ओर केंद्रित किया है. लेकिन, वर्ष 2013 में भारत और यूरोपीय संघ के बीच व्यापार वार्ताएं ठप होने के बाद से, यूरोपीय संघ ने भारत को दी जाने वाली प्राथमिकता को कम करने का फ़ैसला करते हुए अधर में पड़ी अन्य व्यापार वार्ताओं को पूरा करने (जैसे कि मेक्सिको और जापान के साथ) पर ज़ोर दिया है. व्यापार समझौतों की दिशा में भारत का तीसरा प्रयास, ब्रेग्ज़िट के बाद ब्रिटेन से वार्ता का हो सकता है. लेकिन, अंत में तो भारत के इन रणनीतिक तौर महत्वपूर्ण इरादों को लेकर सकारात्मक संदेश तभी जाएगा, जब इनमें से कोई वार्ता सिरे चढ़ सके.

वस्तुओं पर खुलापन, सेवाओं के लिए दरवाज़े बंद

व्यापार समझौते का अर्थ, निश्चित रूप से व्यापार नहीं है. व्यापार समझौतों के बिना भी भारत का चीन, अमेरिका, यूरोप और खाड़ी देशों के साथ व्यापार लगातार बढ़ रहा है. वास्तविकता तो ये है कि जब बात भारत की तुलनात्मक रूप से मुक्त अर्थव्यवस्था की आती है, तो कई बार हक़ीक़त इसके आलोचकों और समर्थकों की कल्पना से कहीं अधिक मिली-जुली होती है. बहुत से लोग ये भूल जाते हैं कि भारत, विश्व व्यापार संगठन की पूर्ववर्ती संस्था, जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ़ ऐंड ट्रेड (GATT) का संस्थापक सदस्य था. 1990 के दशक की शुरुआत में उदारीकरण के बाद से वैश्विक व्यापार व्यवस्था से भारत का संपर्क लगातार बढ़ रहा है. वर्ष 2019 में भारत की कुल GDP में अंतरराष्ट्रीय व्यापार की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत थी. ये जापान (37%), बांग्लादेश (37%), चीन (36%), ब्राज़ील (29%) और अमेरिका (26%) से कहीं अधिक है. चालू खाते के घाटे के मामले में भारत अमेरिका और ब्रिटेन के बाद दुनिया में तीसरे नंबर पर आता है. आज देश के कंज़्यूमर सेक्टर के बेहद चर्चित ब्रांड्स ज़्यादा विदेशी निर्माताओं के हैं. 2018 में भारत के यात्री वाहन बाज़ार के 55 प्रतिशत हिस्से पर जापान की कंपनियों का क़ब्ज़ा था. वहीं, मोबाइल हैंडसेट बाज़र के दो तिहाई हिस्से पर चीन की कंपनियों का क़ब्ज़ा है. (कोरियाई कंपनियां भी पीछे नहीं हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था के पैसेंजर व्हीकल सेक्टर में दक्षिण कोरिया की हिस्सेदारी 18 प्रतिशत और मोबाइल हैंडसेट बाज़ार में कोरियाई कंपनियों का हिस्सा 24 प्रतिशत है).

व्यापारिक खुलेपन के कुछ पैमानों पर भारत दुनिया के कुछ अग्रणी विकासशील देशों में शुमार किया जाता है. नॉन ऑटोमैटिक लाइसेंसिंग के मामले में भारत का आयात कवरेज अनुपात (2.77%) है, विकासशील देशों में सबसे कम और फ्रांस व जर्मनी के बराबर है.

यानी, व्यापारिक खुलेपन के कुछ पैमानों पर भारत दुनिया के कुछ अग्रणी विकासशील देशों में शुमार किया जाता है. नॉन ऑटोमैटिक लाइसेंसिंग के मामले में भारत का आयात कवरेज अनुपात (2.77%) है, विकासशील देशों में सबसे कम और फ्रांस व जर्मनी के बराबर है. दक्षिण अफ्रीका को छोड़ दें तो विश्व बैंक के अनुसार विकाशील देशों के बीच, भारत में किसी विदेशी कंपनी के लिए कारोबार की शुरुआत करना सबसे आसान है. इस मामले में भारत का प्रदर्शन दक्षिण कोरिया और फ्रांस से बेहतर है. OECD के आकलन के अनुसार प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के मामलों में भारत के प्रतिबंध अधिक (0.21) हैं, लेकिन चीन से काफ़ी कम (0.33) हैं और तुलनात्मक रूप से कनाडा के अधिक क़रीब (0.17) हैं. वैश्विक वित्तीय संकट के बाद के दशक में लगाए गए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रतिबंधों की बात करें, तो भारत ने ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया की तुलना में कम ही प्रतिबंध लगाए थे.

हालांकि, व्यापारिक उदारीकरण के अन्य मामलों में भारत की तस्वीर उतनी अच्छी नहीं है. मोस्ट फेवर्ड नेशन स्टेट वाले देशों पर भारत द्वारा लगाया जाने वाला व्यापार कर 13.4 प्रतिशत है, जो काफ़ी ऊंचा है. हालांकि, ये अभी भी दक्षिण कोरिया के 13.8 प्रतिशत से कम ही है (दक्षिण कोरिया ने अधिक टैरिफ़ के इस नुक़सान की भरपाई कई देशों के साथ व्यापार समझौते करके कर ली है). बहुत से पर्यवेक्षकों को ये जानकर हैरानी होगी कि जहां तक बात सर्विसेज सेक्टर की आती है, तो भारत ने इस क्षेत्र में सबसे अधिक व्यापारिक प्रतिबंध लगाए हुए हैं, जबकि भारत को इस क्षेत्र में तुलनात्मक बढ़त हासिल है. OECD और विश्व बैंक, दोनों के अनुसार G20 देशों में भारत ही है, जिसने सर्विस सेक्टर में सबसे अधिक पाबंदियां लगा रखी हैं. बिज़नेस प्रॉसेसिंग या अनुसंधान और विकास की तुलना में उच्च शिक्षा और क़ानूनी काम-काज जैसे सेक्टर में भारत की सीमाओं को देखते हुए ये बात और भी अधिक स्पष्ट हो जाती है.

भविष्य के विकल्प

इस समय भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों को बंद करने के जो क़दम उठाए हैं, उसके पीछे दो कारण हैं. पहली बात तो निश्चित रूप से राष्ट्रवादी और आत्मनिर्भर सोच है. इस मामले में वामपंथी और दक्षिणपंथी विचारकों, छोटे कारोबारियों और राजनेताओं के बीच इस बात पर आम राय है कि भारत को अपने बाज़ार दुनिया के लिए खोलने ही नहीं चाहिए थे. विदेशी व्यापार ख़राब है और भारत को चाहिए कि वो आयात की मदद से और दूसरे प्रतिबंध लगाकर वापस आत्मनिर्भरता की राह पर लौट आए. लेकिन, भारत द्वारा लगाए गए हालिया व्यापार प्रतिबंधों की दूसरी वजह वो चिंताएं हैं, जिन पर भारत के साथ कई और देश भी सहमत हैं कि भारत, चीन पर कुछ अधिक ही निर्भर है. अभी तक तो ये दोनों ही पक्ष एकमत दिखते हैं. हाल में भारत ने जो क़दम उठाए हैं, जैसे कि कुछ व्यापार कर बढ़ाए, कुछ देशों से निवेश का बारीक़ी से परीक्षण, व्यापार वार्ताओं से क़दम पीछे खींचना और कुछ तकनीकी कंपनियों पर प्रतिबंध लगाना, इन सभी क़दमों का चीन पर शक करने वालों और मुक्त व्यापार के समर्थकों, दोनों ने स्वागत किया है.

लेकिन, कुछ ऐसे सवाल अभी भी हैं, जहां पर तर्कों के ऊपर जज़्बात की जीत होगी. ये बात आत्मनिर्भर भारत की अलग-अलग व्याख्य़ा पर स्पष्ट रूप से लागू होती है. प्रधानमंत्री मोदी से लेकर नीचे के तमाम राजनेताओं ने ज़ोर देकर ये कहा है कि आत्मनिर्भरता का अर्थ आर्थिक लचीलापन है, न कि अर्थव्यवस्था के दरवाज़े बंद करना. लेकिन प्रतिबंधों और अन्य नीतियों को लागू करने वाले शायद आत्मनिर्भरता की ऐसी व्याख्य़ा नहीं करते हैं. विदेशी निवेशकों को भारत से मिले-जुले संकेत मिल रहे हैं. इससे कोविड-19 की महामारी के बाद आर्थिक विकास को बढ़ावा देने की भारत की कोशिशों में मुश्किलें आनी तय हैं. हालांकि, हक़ीक़त ये है कि भारत के पास बाक़ी दुनिया से जुड़े रहने के अलावा कोई और विकल्प है नहीं है, फिर चाहे वो गिने चुने क्षेत्रों में ही क्यों न हो. ये बात भले ही न मानी जाए, लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था न केवल अधिक व्यापार आधारित है, बल्कि आने वाले दिनों में ऊर्जा आयातों, तकनीकी समझौतों और अंतरराष्ट्रीय शिक्षा और अनुसंधान के अवसरों में भारत की अन्य देशों पर निर्भरता बनी रहेगी.

विदेशी निवेशकों को भारत से मिले-जुले संकेत मिल रहे हैं. इससे कोविड-19 की महामारी के बाद आर्थिक विकास को बढ़ावा देने की भारत की कोशिशों में मुश्किलें आनी तय हैं. हालांकि, हक़ीक़त ये है कि भारत के पास बाक़ी दुनिया से जुड़े रहने के अलावा कोई और विकल्प है नहीं है

भारत की व्यापारिक सच्चाइयों का ये सर्वेक्षण अपने आप में कुछ निष्कर्षों पर पहुंचने के लिए पर्याप्त है. पहला तो ये है कि जहां तक मुक्त व्यापार की बात है, तो भारत को दूसरे देशों के तर्कों से प्रभावित होने की ज़रूरत नहीं है. भारत को चाहिए कि वो अपनी तुलनात्मक प्रतिस्पर्धी स्थिति का लाभ उठाता रहे. भारत की अर्थव्यवस्था के दरवाज़े दुनिया के लिए बंद हैं, इस तर्क को तथ्य सही साबित नहीं करते. ख़ासतौर से जब बात गैर-कृषि उत्पादों के व्यापार की आती है. हां, ये बात ज़रूर कही जा सकती है कि भारत के सर्विस सेक्टर में उदारीकरण लंबे समय से अपेक्षित है. दूसरी बात ये है कि भारत के लिए महामारी के बाद की विश्व-अर्थव्यवस्था में मज़बूत स्थान बनाने के लिए चतुर औद्योगिक नीति बनाने की ज़रूरत है. अब आत्मनिर्भर भारत और इससे जुड़ी अन्य नीतियों के अपेक्षित परिणाम निकलेंगे, ये देखना अभी बाक़ी है. लेकिन, अगर भारत मुक्त विश्व अर्थव्यवस्था में ख़ुद को मज़बूत प्रतिद्वंदी बनाना चाहता है, तो भारत को स्वयं का औद्योगीकरण करना होगा. तीसरी बात ये है कि भले ही भारत के हालिया व्यापारिक प्रतिबंध व्यापार और चीन से जुड़ी वास्तविक चिंताओं का नतीजा हैं, लेकिन भारत के लिए कई क्षेत्रों में विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़े रहने के सिवा कोई और विकल्प नहीं है, भले ही ये अपनी शर्तों पर क्यों न हो. होड़ वाली वैश्विक व्यवस्था में व्यापार को राष्ट्रीय प्रतिद्वंदिता की दृष्टि से देखना भारत के लिए ज़रूरी है. लेकिन, भारत को इस हक़ीक़त पर से भी ध्यान नहीं हटाना चाहिए कि, मुक्त और  निष्पक्ष अंतरराष्ट्रीय व्यापार-अगर सच में मुमकिन है तो ये उसके लिए आख़िर में फ़ायदे का ही सौदा होगा.

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