Published on Dec 20, 2020 Updated 0 Hours ago

हाल में बने कृषि क़ानूनों के संदर्भ में भारत की कृषि नीति के इतिहास का व्यापक मार्गदर्शन

भारत के नए कृषि क़ानूनों की ‘इंटेलेक्चुअल बायोग्राफी’

नए कृषि क़ानूनों के अर्थशास्त्र एवं प्रशासन पर होने वाली परिचर्चा को राजनीति ने रोक रखा है. इसीलिए, अब समय इस बात का है कि राजनेता, प्रशासक, अर्थशास्त्री, नीति-निर्माता और दूसरे फ़िक्रमंद नागरिक इन क़ानूनों के विकास की प्रक्रिया का निरीक्षण करें. ये तीन कृषि क़ानून संसद से इसलिए पारित किए गए हैं, जिससे कि किसानों को आर्थिक लाभ हासिल करने में मदद की जा सके; अब तक किसानों को आर्थिक फ़ायदे मिलने की राह में पुराने क़ानूनों, बाज़ार के जोड़-तोड़ और निहित स्वार्थ पर आधारित भ्रष्टाचार ने रोड़े अटकाए हुए थे. ये वो तत्व हैं जो कृषि क़ानूनों के पीछे के बड़े कारणों जैसे कि भारत अब खाद्य पदार्थों की किल्लत के दौर से बाहुल्य के युग में आ चुका है, से इतर हैं.

अब जबकि कल इन्हीं क़ानूनों की पुरज़ोर वक़ालत करने वाले आज नए कृषि क़ानूनों के विरोध में आ खड़े हुए हैं, तो परिचर्चा का बिंदु सार्थक तर्कों के बजाय शोर में तब्दील हो चुका है. गफ़लत के चलते कृषि क़ानूनों का अर्थशास्त्र पटरी से उतर चुका है. इस पर ग़लत जानकारी वाली राजनीति हो रही है और बंद व घेरेबंदी को संवाद का नया माध्यम बना लिया गया है. इससे भी बुरी बात ये है कि अलग अलग मंचों पर झूठी बातों का प्रचार हो रहा है. जो संगठन इस परिचर्चा का हिस्सा नहीं थे -और न ही हैं- पोस्ट ट्रुथ के इस दौर में आज उन्हें भी कृषि क़ानूनों से जुड़े संवाद में झाड़-पोंछकर उतार दिया गया है. कोई भी रिसर्चर, विश्लेषक या पत्रकार जो विषय की बेहतर समझ के लिए इन क़ानूनों और कृषि क्षेत्र का अध्ययन करेगा, उसे ग़लत जानकारी के इस जाल से बचकर चलना होगा. ये तीन क़ानून जो कृषि क्षेत्र में सुधार की प्रक्रिया का हिस्सा हैं, उन्हें संसद से पास होने में दो दशक से अधिक का समय लगा है. इससे भी बुरी बात यह है कि इस शोर में वो किसान गुम है, जिसके नाम पर ये सुधार लागू किए गए और जिसके नाम पर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं.

ये लेख उन लोगों के लिए है, जो कृषि क़ानूनों पर हो रहे मौजूदा वाद-विवाद का हिस्सा बनना चाहते हैं. इसका मक़सद उन परिचर्चाओं पर रौशनी डालना है, जो भारत के कृषि क्षेत्र में उच्चतम स्तर- राजनेताओं, प्रशासकों, अर्थशास्त्रियों, कार्यकर्ताओं, लेखकों और विशेषज्ञों के बीच हुए हैं. 

ये लेख उन लोगों के लिए है, जो कृषि क़ानूनों पर हो रहे मौजूदा वाद-विवाद का हिस्सा बनना चाहते हैं. इसका मक़सद उन परिचर्चाओं पर रौशनी डालना है, जो भारत के कृषि क्षेत्र में उच्चतम स्तर- राजनेताओं, प्रशासकों, अर्थशास्त्रियों, कार्यकर्ताओं, लेखकों और विशेषज्ञों के बीच हुए हैं. ये संवाद उन लोगों के लिए है, जो इस विषय पर स्पष्ट तस्वीर का इंतज़ार कर रहे हैं. इससे लेखकों और विचारकों को अपने वैचारिक दृष्टिकोण को एक नया नज़रिया देने में मदद मिलेगी. उन्हें अलग अलग सरकारों के दौरान भारत की नीति निर्माण प्रक्रिया के सबसे उच्च स्तर का चहुंमुखी विश्लेषण करने का अवसर मिलेगा. ये व्याख्या राजनीति और विचारधाराओं से परे जाकर राजनेताओं और वैचारिक नेताओं को अपने अपने विचारों और रवैये को एक संदर्भ में देखने का मौक़ा देगी. इससे उन्हें नीति के आईने में झांकने का अवसर भी प्राप्त होगा. दूसरे शब्दों में कहें तो हाल में लागू किए गए कृषि क़ानूनों पर हो रहे विवाद के संदर्भ में ये लेख खेती की राजनीति और कृषि के अर्थशास्त्र का संक्षिप्त इतिहास है.

संसद की स्थायी समितियों, विशेषज्ञ समितियों और टास्क फ़ोर्स की रिपोर्ट का अध्ययन, उनके संक्षेपीकरण और तुलना करने के दौरान, इस लेख को हम ख़ास तौर से तीन नए कृषि क़ानूनों और भारत के कृषि क्षेत्र की व्यापक समस्या की बौद्धिक जीवनी कह सकते हैं. नीचे उल्लिखित रिपोर्ट्स को तारीख़ों के क्रम में पेश किया गया है और उनके अंत में एक लिंक भी दिया गया है, जिससे वो लोग जो तीनों क़ानूनों की अहमियत और कमी-बेशी को गहराई से समझना चाहते हैं, उन्हें इसका मौक़ा मिल सके. सभी विचारों और रिपोर्ट्स को एक दूसरे से जोड़ा गया है, लेकिन हर बिंदु की अपनी अलग अहमियत है, जो परिचर्चा को आगे बढ़ाती है. यहां तक कि जब मौजूदा विवाद ख़त्म हो जाता है, तो भी ये बौद्धिक तत्व विद्वानों को भारत के कृषि क्षेत्र को गहराई से समझने और उसकी चुनौतियों का समाधान करने में मदद करेंगे.

इन क़ानूनों के तारीख़ी इतिहास और स्पष्टता की शुरुआत यहां से होती है.

19 दिसंबर 2000: भारत के कृषि मंत्रालय, कृषि और सहयोग विभाग द्वारा शंकरलाल गुरू की अध्यक्षता में, ‘कृषि क्षेत्र के बाज़ार को विकसित करने और मज़बूत बनाने’ के लिए विशेषज्ञ कमेटी का गठन

ये कमेटी बनाने के पीछे का विचार ये था कि, कृषि के विकास और निर्यात से लाभ कैसे उठाया जाए और ये कैसे सुनिश्चित किया जाए कि कृषि उत्पादों के मूल्य का बड़ा हिस्सा किसानों को मिल सके. इसके लिए विचारों का संकलन हो. इस विचार के दायरे में कृषि उत्पादों का विपणन (मार्केटिंग) एक महत्वपूर्ण तत्व बन गया. इसमें कृषि उत्पादों की बिक्री के लिए बुनियादी ढांचे का विकास, उत्पादन एवं मार्केटिंग के बीच मज़बूत संपर्क, किसानों और ग्राहकों के फ़ायदे के लिए बाज़ार संबंधी जानकारी का विकास, सीधे बिक्री को बढ़ावा देना, कृषि उत्पादों की बिक्री में इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी का उपयोग, निजी और सहकारी क्षेत्र को कृषि उत्पादों के बाज़ार के विकास में निवेश करने के लिए राज़ी करने जैसे लक्ष्य शामिल थे.

29 जून 2001: शंकरलाल गुरू समिति ने अपनी रिपोर्ट दाख़िल की

कुछ निष्कर्ष:

* शंकरलाल गुरू कमेटी ने कई सुझाव दिए, जिसमें से एक ये भी था कि कृषि उपज मंडी समितियां (APMC) का नए सिरे से गठन किया जाए.

* चूंकि एपीएमसी की स्थापना राज्यों के क़ानूनों के तहत एक कॉरपोरेट संस्था के तौर पर होती है, इसलिए ये मंडी समितियां या तो चुनी जाती हैं या राज्य सरकारों द्वारा नामांकित की जाती हैं.

  • हालांकि तकनीकी रूप से तो किसान अपने उत्पाद को किसी भी मंडी में बेचने के लिए स्वतंत्र होता है. पर, सच्चाई ये है कि उसे अपने उत्पाद को अपने गांव या किसी रिटेल चेन, प्रॉसेसर या थोक ख़रीदार को बेचने का अधिकार नहीं होता.
  • किसान को अपनी उपज को मंडियों में ले जाना होता है, जहां उपज की ख़रीद और डिलीवरी होती है. इस कारण से ख़ुदरा आपूर्ति श्रृंखलाओं के विकास की राह में अड़चनें आती हैं और प्रॉसेसिंग, इस्तेमाल करने वाले कारखानों और अन्य थोक विक्रेताओं को उपज ख़रीदने में परेशानी होती है.
  • जहां तक भंडारगृहों की बात है, तो गोदामों को मान्यता प्राप्त भंडारगृह घोषित कर दिया जाना चाहिए, और किसी भी मंडी समिति को वहां जमा की गई वस्तुओं पर मार्केट फीस, सेल्स टैक्स, ख़रीद कर या चुंगी लगाने का अधिकार नहीं होना चाहिए. इसी तरह, आवश्यक वस्तु अधिनियम, श्रम क़ानून, दुकान संस्थापना क़ानून या औद्योगिक विवाद क़ानून भी इन भंडारगृहों पर नहीं लागू होने चाहिए. 

रिपोर्ट यहां पढ़ें.

1 जुलाई 2001: मोंटेक सिंह अहलूवालिया की अध्यक्षता में रोज़गार के अवसरों पर बनी टास्क फोर्स की रिपोर्ट 

कृषि क्षेत्र के दायरे में आने वाली इस टास्क फोर्स ने सात सुझाव दिए थे. इनमें से दो सुझाव कृषि उपज मंडी समितियों और आवश्यक वस्तु क़ानून से संबंधित थे:

  • आवश्यक वस्तु अधिनियम एक केंद्रीय क़ानून है, जिसके दायरे में राज्यों को कृषि उत्पादों के भंडारण, परिवहन और प्रॉसेसिंग पर हर तरह की पाबंदियां लगाने का अधिकार आता है. इन नियंत्रणों को पारंपरिक रूप से ये कहकर जायज़ ठहराया जाता रहा है कि वो जमाख़ोरी और अन्य तरीक़ों से दाम बढ़ाने की कोशिशों को रोकने का काम करते हैं. लेकिन, सच ये है कि जब भी किसी सामान की गुणवत्ता में कमी पाई जाती है, तो ये क़ानून असरदार साबित नहीं होते और सामान्य परिस्थितियों में तो ऐसे क़ानूनों की आवश्यकता ही नहीं है. इसके अलावा, निचले स्तर के प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा इन क़ानूनों का दुरुपयोग करके लोगों को परेशान किया जाता है और भ्रष्टाचार को बढ़ावा भी मिलता है. आज जब यूरोपीय देशों ने अपने राष्ट्रीय बाज़ारों को एकीकृत कर लिया है, जिससे विश्व स्तर पर उनकी स्थिति मज़बूत हुई है, तो ये अजब बात ही है कि हमारे यहां ऐसे क़ानून लागू हैं, जिनसे भारत में कृषि उत्पादों के एकीकृत बाज़ार का विकास बाधित होता है. इस विषय का विस्तार से विश्लेषण करने के बाद, हमारा विचार है कि आवश्यक वस्तु क़ानून को ख़त्म कर दिया जाना चाहिए.
  • कृषि मंत्रालय और केंद्रीय सरकार को योजना आयोग के सहयोग से राज्यों के ऐसे क़ानूनों की संस्थागत तरीक़े से न केवल समीक्षा करनी चाहिए, जो कृषि पर नुक़सानदेह प्रतिबंध लगाते हैं, बल्कि इन क़ानूनों को ख़त्म करने पर भी ज़ोर देना चाहिए. अक्रियता और निहित स्वार्थी तत्व इसका विरोध करेंगे, लेकिन हमारा मानना है कि आर्थिक सुधारों का लाभ कृषि क्षेत्र तक पहुंचाने के लिए, ये क़दम बेहद आवश्यक है.
  • कृषि उत्पादों, ख़ासतौर से फलों और सब्ज़ियों की मार्केटिंग पर ऐसे क़ानून लागू हैं, जो कृषि के विकास को हतोत्साहित करते हैं. मौजूदा क़ानूनों के तहत थोक ख़रीदारों को कृषि उत्पाद, उन सरकारी मंडियों से ही ख़रीदने को बाध्य होना पड़ता है, जो कृषि उत्पादन मंडी समितियों द्वारा नियंत्रित होती हैं. अब चूंकि देश के ज़्यादातर कृषक, छोटे किसान हैं तो वो अपनी सब्ज़ियां और फल सीधे मंडियों तक नहीं ला सकते. आम तौर पर वो अपनी उपज को गांव में कमीशन एजेंटों को बेच देते हैं, जो माक्रेटिंग कमीशन एजेंट के लिए उपज को इकट्ठा करते हैं और फिर मंडी में थोक ख़रीदारों को बेचते हैं. हालांकि, माना ये जाता है कि मंडियों में उपज को खुली नीलामी से बेचा जाता है, जिससे किसान को उसकी उपज का उचित मूल्य मिले. लेकिन, हक़ीक़त में वस्तुओं का मूल्य मार्केट कमीशन एजेंट और थोक ख़रीदारों के बीच बातचीत के ज़रिए, बिल्कुल अपारदर्शी तरीक़े से निर्धारित किया जाता है. पारदर्शिता की कमी का आलम ये है कि उपज को बेचने से पहले उसके अच्छी या ख़राब होने का वर्गीकरण नहीं होता. इस धांधली से उपज का जो मूल्य निर्धारित होता है, उसे मंडी का रेट घोषित किया जाता है. ऐसे में मार्केटिंग कमीशन एजेंट और गांव के एजेंट का कमीशन कटने के बाद, किसान को अपनी उपज के मूल्य के तौर पर बची-खुची क़ीमत ही मिलती है. न केवल उपज का मूल्य अपारदर्शी है, बल्कि मंडी में सक्रिय तमाम बिचौलिये जो अपना अपना अलग कमीशन लेते हैं, वो सब मिलकर किसान की उपज का मूल्य निचोड़ लेते हैं. यही वजह है कि किसान को मिलने वाले फ़सल के मूल्य और ग्राहक को ख़ुदरा रेट में बहुत फ़र्क़ होता है. हालांकि, मंडी समितियों की परिकल्पना शुरुआत में तो बाज़ारों के नियमितीकरण के ज़रिए किसानों के हितों की रक्षा करना था लेकिन, अब इसमें एकाधिकार की ऐसी व्यवस्था ने जड़ें जमा ली हैं, जहां व्यापारियों का छोटा सा समूह और एजेंट मिलकर भरपूर मुनाफ़ाख़ोरी करते हैं. इसीलिए मौजूदा क़ानूनों के उदारीकरण के ज़रिए प्रतिद्वंद्वी बाज़ारों के विकास को बढ़ावा देना बहुत ज़रूरी हो गया है

रिपोर्ट यहां पढ़ें.

4 जुलाई 2001: कृषि मंत्रालय के कृषि एवं सहयोग विभाग के अतिरिक्त सचिव आरसीए जैन के तहत अंतर-मंत्रालय टास्क फ़ोर्स का गठन

आरसीए जैन टास्क फ़ोर्स का गठन शंकरलाल गुरू कमेटी के सुझावों का अध्ययन करने के लिए किया गया था. इसमें वैधानिक सुधारों, संस्थागत एवं नीतिगत सहयोग के उपायों के ज़रिए क़र्ज़ के दायरे के विस्तार और मार्केटिंग के मूलभूत ढांचे के विकास संबंधी सुझावों की समीक्षा भी शामिल थी. इस टास्क फ़ोर्स का दायरा केवल कृषि मंत्रालय तक ही सीमित नहीं था. ये सात मंत्रालयों को मिलाकर बनी थी.

आरसीए जैन टास्क फोर्स के कुछ सुझाव:

  • सभी राज्य सरकारों को अपने संबंधित एपीएमसी क़ानूनों में संशोधन करना चाहिए, जिससे कि वो निम्नांकित लक्ष्य प्राप्त कर सकें:

-निजी और सहकारी क्षेत्र को कृषि उपज की बिक्री के मूलभत ढांचे और सहयोगी सेवाओं की स्थापना एवं संचालन करने में सहयोग (जिसमें सेवा कर लगाना शामिल हो) मिले.

-उत्पादक क्षेत्रों और किसानों के खेतों से कृषि उत्पादों की सीधे मार्केटिंग. इसके लिए लाइसेंसशुदा व्यापारियों और नियामक बाज़ारों में जाना आवश्यक न हो.

-प्रॉसेसिंग या मार्केटिंग कंपनियों द्वारा ‘ठेके पर खेती’ करने की इजाज़त देना. ये कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग जिस मंडी समिति के अधिकार क्षेत्र में आए, वो किसानों और कंपनियों के बीच होने वाले समझौते के तहत खेती की शर्तों को दर्ज करे और अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले उचित क़ानूनी संरक्षण के ज़रिए उत्पादकों और प्रॉसेसर्स के हितों की रक्षा करे. कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कार्यक्रम के तहत कृषि या हॉर्टीकल्चर के उत्पादों पर जो भी बाज़ार कर, चुंगी, टैक्स वग़ैरह लगते हों, उन्हें या तो माफ़ किया जाए या कम से कम टैक्स लगाया जाए.

-कृषि उत्पादों के फॉरवर्ड और फ्यूचर मार्केट को प्रोत्साहन दिया जाए.

-फ़सलों की ख़रीद से न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की व्यवस्था को अलग किया जाना आवश्यक है. ख़ास तौर से तब और जब कृषि क्षेत्र के उत्पादों की बिक्री में निजी क्षेत्र को वाजिब भूमिका निभाने का मौक़ा मिले. वैकल्पिक नीति ऐसी होनी चाहिए जो बाज़ार की ताक़तों को उपज का मूल्य निर्धारित करने दे और बाज़ार मूल्य के चलते अगर किसानों की आमदनी में गिरावट आए, तो उससे संरक्षण मिल सके.

ये रिपोर्ट यहां पढ़ें. 

9 सितंबर 2003. मॉडल एपीएमसी एक्ट की स्थापना

पूरे देश में कृषि उपज मंडी समितियों में सुधार के लिए केंद्र सरकार ने 2003 का मॉडल एपीएमसी एक्ट तैयार किया.

इसकी संक्षिप्त बातें:

  • राज्य सरकारों द्वारा नियंत्रित थोक बाज़ारों के एकाधिकार ने देश में एक प्रतिद्वंदी बाज़ार व्यवस्था के विकास को रोक कर रखा है. इससे किसानों को अपनी उपज सीधे बेचने में भी मदद नहीं मिलती और न ही इससे खुदरा बिक्री, कृषि उत्पादों की प्रॉसेसिंग करने वाले उद्योग को कच्चे माल की सुगम आपूर्ति और नई बिक्री व्यवस्था और तकनीक के अंगीकरण में भी मुश्किलें आ रही हैं.
  • अगर कृषि उपज के बाजारों का निजी और सहकारी क्षेत्रों में विकास करना है और उन्हें सरकार द्वारा नियंत्रित बाज़ारों से मुक़ाबले के लिए बराबरी का माहौल देना है, तो राज्यों के कृषि उपज मंडी समितियों के मौजूदा ढांचे को बदलना होगा.
  • सेक्शन 14: उत्पादकों को अपनी उपज एपीएमसी द्वारा संचालित सरकारी मंडियों में बेचने की बाध्यता नहीं होगी. हालांकि जो किसान अपनी उपज मंडियों में नहीं ले जाते हैं, वो एपीएमसी के चुनाव में हिस्सा लेने के पात्र नहीं होंगे.
  • सेक्शन 26 और 27: कृषि उत्पादन मंडी समितियों को इन बातों के लिए ख़ासतौर से ज़िम्मेदारी दी गई:

-मंडियों में होने वाली ख़रीद फ़रोख़्त के दौरान फ़सलों के मूल्य तय करने में पूरी तरह से पारदर्शिता लाना;

-किसानों को उसकी बेची गई फ़सल का मूल्य उसी दिन दिलाना सुनिश्चित करना;

-किसानों को बाज़ार के नेतृत्व में अन्य सहयोगी सेवाएं देना;

-कृषि उत्पादों की प्रॉसेसिंग को बढ़ावा देना, जिससे कि किसानों की उपज का मूल्य वर्धन हो सके.

-कृषि मंडियों के प्रबंधन में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी की स्थापना और प्रोत्साहन देना;

-अध्याय 7: क़ानून में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का एक नया अध्याय जोड़ा गया जिससे:

-ठेके पर खेती के सभी प्रायोजकों का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य बनाया गया.

-खेती के सभी समझौतों को दर्ज किया जा सके

-ऐसे समझौतों से उत्पन्न किसी भी विवाद का समाधान हो सके

-ठेके पर खेती के समझौतों के तहत उपज पर किसी भी तरह के बाज़ार कर को लगाने से छूट दी जाए

-किसी समझौते से अगर किसान की ज़मीन पर क़ब्ज़े की स्थिति उत्पन्न हो तो उसके बदले में किसान को हर्ज़ाना मिल सके

  • अध्याय 7: कृषि उपज को किसान के खेत से बिना मंडी में ले जाए, सीधे ठेके पर खेती के प्रायोजक को बेचने की व्यवस्था करना.
  • सेक्शन 42: अधिसूचित कृषि उत्पादों को किसी भी मंडी में बेचने पर एक बार चुंगी या बाज़ार कर लगाने की व्यवस्था. ये टैक्स राज्य सरकार अलग अलग तरह की फ़रोख़्त पर मार्केट फीस या चुंगी के तौर पर लगा सकती है.
  • सेक्शन 50: निजी बाज़ार या ग्राहकों के बाज़ार या बाज़ार समितियों के बीच किसी भी तरह के विवाद के निपटारे का प्रावधान करना

 मॉडल एपीएमसी क़ानून यहां पढ़ें.

 

29 दिसंबर 2004: एम. एस. स्वामीनाथ की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय आयोग ने ‘किसानों की सेवा और उनका संरक्षण’ के नाम से अपनी पहली रिपोर्ट सरकार को सौंपी.

हॉर्टीकल्चर क्रांति को मज़बूत करने और उसके विस्तार के लिए नीतिगत ज़ोर उपज के उत्पादन के बाद के प्रबंधन यानी उसकी प्रॉसेसिंग और मार्केटिंग पर होना चाहिए. इसके अलावा उत्पादन एवं मुनाफ़े के बीच के फ़ासले को भरने के लिए नीतिगत उपाय करने चाहिए:

  • इस रणनीति को अपनाने से हर राज्य को तुरंत अपने एपीएमसी एक्ट में संशोधन करना होगा जिससे कि व्यवस्था का विकेंद्रीकरण हो सके और अन्य लोगों द्वारा कृषि उपज के विपणन को बढ़ावा मिल सके. इससे उत्पादकों को अपनी उपज का बेहतर मूल्य और ग्राहकों को उचित व अच्छी गुणवत्ता वाले उत्पादों की उपलब्धता सुनिश्चित करने का अंतिम लक्ष्य प्राप्त किया जा सकेगा.

ये रिपोर्ट यहां पढ़ें. 

11 अगस्त 2005: एम. एस. स्वामीनाथ की अध्यक्षता वाले किसानों पर राष्ट्रीय आयोग ने किसानों की सेवा और उनका संरक्षण: संकट से आत्मविश्वास तक’ नाम से दूसरी रिपोर्ट सरकार को सौंपी. 

  • वो राज्य/केंद्र शासित प्रदेश जहां एपीएमसी एक्ट नहीं है और जिन्हें ऐसे सुधारों की ज़रूरत नहीं है: केरल, मणिपुर, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, दादरा और नगर हवेली, दमण और दियु और लक्षद्वीप
  • वो राज्य/केंद्र शासित प्रदेश जिन्होंने एपीएमसी एक्ट में बदलाव करके सुधारों का रास्ता साफ़ किया है:तमिलनाडु
  • वो राज्य/केंद्र शासित प्रदेश जिन्होंने एपीएमसी एक्ट में सुझाव के अनुरूप बदलाव कर लिए हैं: मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और नगालैंड (जिनका गजट नोटिफ़िकेशन अभी जारी होना है), आंध्र प्रदेश (जिसके अध्यादेश को लागू करने की प्रक्रिया चल रही है)
  • वो राज्य/केंद्र शासित प्रदेश जहां एपीएमसी एक्ट में आंशिक सुधार किए गए हैं: महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, कर्नाटक, गुजरात और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली
  • वो राज्य/केंद्र शासित प्रदेश जहां सुधारों के लिए प्रशासनिक प्रक्रिया की शुरुआत हो गई है: ओडिशा, असम, मिज़ोरम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, छत्तीसगढ़, मेघालय, जम्मू और कश्मीर, उत्तराखंड, गोवा, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, पॉन्डिचेरी और चंडीगढ़
  • वो राज्य/केंद्र शासित प्रदेश जहां कोई प्रगति नहीं हुई है:बिहार एवं झारखंड
  • ऐसा महसूस किया गया है कि एपीएमसी एक्ट में सुधार इसलिए ज़रूरी है, जिससे कि कृषि उत्पादों के राष्ट्रव्यापी बाज़ार का एकीकरण हो सके, कृषि उपज के निजी और सहकारी क्षेत्र के बाज़ारों के विकास का संवर्धन हो सके और ऐसा उचित माहौल तैयार हो सके, जिससे कि बाज़ार के मूलभूत ढांचे के विकास के लिए निजी क्षेत्र से निवेश को बढ़ावा दिया जा सके.
  • कृषि उपज मंडी समितियों और राज्य कृषि विपणन बोर्ड (SAMBs) की भूमिका को नियामक संस्थाओं से बदलकर विकासोन्मुखी बनाने की ज़रूरत है, क्योंकि आज उत्पादन एवं मांग का माहौल बदल चुका है. कृषि उत्पादन मंडी समितियों और राज्य कृषि विपणन बोर्ड को मुख्य तौर पर घरेलू और यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों के हिसाब से कृषि उत्पादों की मंडियों की ग्रेडिंग, ब्रांडिंग, पैकेजिंग और निर्माण पर ज़ोर देने की ज़रूरत है.
  • राज्यों के कृषि उत्पाद विपणन क़ानूनों को संशोधित करने की ज़रूरत है, जिससे कि वो निजी और सहकारी क्षेत्र के बाज़ारों की स्थापना करने, बाज़ार के मूलभूत ढांचे और सहयोगी सेवाओं का विकास करने, शुल्क वसूलने और एपीएमसी /लाइसेंसशुदा व्यापारियों के बिना ही, उपज की मार्केटिंग करने को बढ़ावा मिल सके. इसके अलावा उपज पर बाज़ार कर और दूसरे टैक्स को भी तार्किक बनाया जाना चाहिए.
  • अलग अलग राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के एपीएमसी एक्ट में भारत सरकार द्वारा जारी एपीएमसी एक्ट के अनुरूप संशोधित करना चाहिए. इससे कृषि बाज़ारों के विकास में निजी क्षेत्र के निवेश को बढ़ावा मिलेगा.
  • कृषि उत्पादों के भंडारण, मार्केटिंग और प्रॉसेसिंग से संबंधित आवश्यक वस्तु क़ानून और अन्य क़ानूनों/अध्यादेशों की समीक्षा की ज़रूरत है.
  • आवश्यक वस्तु अधिनियम और कृषि उत्पादों के भंडारण और प्रॉसेसिंग से जुड़े अन्य वैधानिक प्रावधानों की समीक्षा करने की सख़्त ज़रूरत है; इनमें से कुछ आदेश और क़ानून अपनी उपयोगिता गंवा चुके हैं.

ये रिपोर्ट यहां पढ़ें.

दिसंबर 2005: संयुक्त राष्ट्र के कृषि एवं खाद्य संगठन (FAO) ने किसानों के राष्ट्रीय आयोग को ‘एक साझा भारतीय बाज़ार: कृषि उत्पादों के अंदरूनी व्यापक की बाधाओं को दूर करना’ नाम की रिपोर्ट सौंपी.

खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) ने ये अध्ययन, राष्ट्रीय किसान आयोग द्वारा केंद्रीय कृषि मंत्रालय के माध्यम से की गई गुज़ारिश पर किया था. जिसके तहत किसान केंद्रित राष्ट्रीय एकीकृत बाज़ार के विकास की संभावनाएं तलाशने की कोशिश की गई थी. इस बाज़ार के विकास का मक़सद भारत के अपने एक अरब उपभोक्ताओं और विदेशों के ग्राहकों की मांग की आपूर्ति करना था. इस तकनीकी प्रोजेक्ट की शुरुआत भारत में कृषि उत्पादों के अंतरराज्यीय परिवहन की राह में आने वाली ग़ैरज़रूरी बाधाओं को समाप्त करने की संभावना के अध्ययन से हुई थी. इसके ज़रिए उन उपायों को तलाशा जाना था जिससे की भारत में कृषि उपज के बाज़ारों का राष्ट्रव्यापी एकीकरण हो सके.

इस अध्ययन के कुछ निष्कर्ष: 

  • आवश्यक वस्तु क़ानून उस दौर में बना था, जब भारत कई कृषि उत्पादों के मामले में आत्मनिर्भर नहीं था. ऐसे में उपज के भंडारण और आवागमन पर ऐसे कुशल प्रतिबंधों की ज़रूरत थी, जिससे जमाखोरी और मुनाफाखोरी को रोका जा सके. लेकिन, अब जबकि भारत ने अपने यहां भारतीय खाद्य निगम के ज़रिए, खाद्यान्न का सम्मानजनक बफ़र स्टॉक बना लिया है, जिससे किसी तबाही की सूरत में अनाज की कमी न हो, तो अब इस क़ानून की वास्तविक उपयोगिता की नए सिरे से समीक्षा करने की ज़रूरत है.
  • ये विश्वास करने के पर्याप्त कारण हैं कि आवश्यक वस्तु अधिनियम की उपयोगिता समाप्त हो चुकी है और ये अब केवल लेन-देन की लागत को बढ़ाने का ही काम कर रहा है. हालांकि पिछले कुछ वर्षों में राज्यों और केंद्र की सरकारों ने कुछ ऐसे क़दम उठाए हैं, जिससे कि ECA (Essential Commodities Act) के प्रावधानों से रियायत मिल सके और इसके दायरे में आने वाली वस्तुओं की संख्या में भी भारी पैमाने पर कमी की गई है. लेकिन, अभी भी सरकार के पास इस बात के पर्याप्त अधिकार हैं कि वो ज़रूरत पड़ने पर किसी भी वस्तु को इस क़ानून के दायरे में ला सकती है.
    • इस क़ानून की सूची में रखी गई 15 वस्तुओं में से 11 कृषि उत्पाद हैं. केवल सरकार की ओर से कार्रवाई की आशंका के ख़तरे के चलते ही निजी क्षेत्र, निचले स्तर पर इन वस्तुओं के भंडारण, परिवहन और प्रॉसेसिंग में भागीदार नहीं बनता. इस क़ानून के तहत अंतरराज्यीय सीमाओं के आर-पार वस्तुओं की आवाजाही के प्रमाणन पर भी असर पड़ता है.
    • आवश्यक वस्तु क़ानून के तहत राज्यों को ये अधिकार है कि वो सूची में उल्लिखित कृषि उत्पादों के आवागमन को प्रतिबंधित कर सकें. ये बात एकीकृत बाज़ार के सिद्धांत के विरुद्ध है. एक ज़माने में इस क़ानून के प्रावधानों से स्थानीय स्तर पर खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सका था. लेकिन, इससे पूरे भारत की खाद्य सुरक्षा को नुक़सान पहुंचता है. इन्हीं कारणों से इस क़ानून के इन प्रावधानों को धीरे-धीरे समाप्त किया जाना चाहिए.
    • जहां तक एपीएमसी एक्ट के तहत वसूले जाने वाली मार्केटिंग फीस की बात है, तो ये अभी भी राज्यों के बीच प्राथमिक कृषि उत्पादों के स्वतंत्र आवागमन की राह में ही बाधक नहीं है, बल्कि इससे किसी एक ही राज्य के एक बाज़ार से दूसरे बाज़ार में उपज ले जाने में भी अड़चनें आती हैं. जैसा कि पहले भी बताया गया है, इससे कई बार कुछ उत्पादों पर दोहरे कराधान की स्थिति उत्पन्न होती है. इसके अलावा, इस क़ानून को लागू करने से, थोक बाज़ार के क्षेत्र में राज्यों के मार्केटिंग बोर्ड/मंडी समितियों के एकाधिकार की स्थापना होती है, क्योंकि इससे किसान अपनी उपज सीधे नहीं बेच पाता. नतीजा ये होता है कि कुछ आढ़तियों या दलालों का गिरोह सक्रिय हो जाता है और कृषि उपज के मूल्य निर्धारण में अपारदर्शिता आती है, जो किसानों के लिए अहितकर साबित होती है.
    • मंडी समितियों द्वारा एकाधिकार से कृषि उपज के बाज़ार के संचालन के कारण उपज के मूल्य संवर्धन के लिए प्रॉसेसिंग इकाइयों की स्थापना के इच्छुक निजी क्षेत्र के लोग हतोत्साहित होते हैं, क्योंकि उनका सीधे किसानों से संपर्क नहीं होता. अगर वो किसानों से सीधे संपर्क में हों तो उन्हें अच्छी क्वालिटी का कच्चा माल पर्याप्त मात्रा में मिलना सुनिश्चित हो सकता है. इसके लिए ऐसी नीतियां बनाने की ज़रूरत है जिससे किसानों को अपनी उपज कहीं भी बेचने का अधिकार हो. इसमें सीधे प्रॉसेसिंग करने वालों या अन्य ख़रीदारों को बिना मार्केटिंग फीस के फ़सल बेचने की सुविधा शामिल हो. हालांकि अगर किसान किसी बाज़ार में बेचने की सुविधा चाहते हैं, तो उन्हें इसके लिए सेवा कर देना चाहिए, जिससे कि किसी मंडी समिति के लिए अपने संचालन का ख़र्च निकालना आसान हो.
    • इसलिए बेहतर होगा कि किसानों, प्रॉसेसिंग कंपनियों और अन्य निजी कारोबारियों को अपने थोक बाज़ार के संचालन की इजाज़त मिलनी चाहिए और उन्हें इसके लिए उचित सेवा शुल्क लगाने का अधिकार भी होना चाहिए. इससे कम लागत में अच्छी सेवाएं देने के लिए उचित माहौल बनेगा और उपज की मार्केटिंग के बुनियादी ढांचे के विकास में निवेश बढ़ेगा.
    • एपीएमसी एक्ट में सुधार से अलग अलग राज्यों और एक मंडी समिति से दूसरी मंडी समिति के बीच कृषि उत्पादों का स्वतंत्र रूप से आवागमन को बढ़ावा मिलेगा. पर चूंकि कई राज्यों के लिए मंडी से होने वाली आमदनी उनके राजस्व का प्रमुख स्रोत है, तो इससे उनकी आमदनी को कुछ नुक़सान हो सकता है. ऐसा महसूस किया जा रहा है कि पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश जैसे बड़े अनाज उत्पादक राज्यों, जहां की अधिकतर उपज को भारतीय खाद्य निगम केंद्र सरकार के कोटे के लिए ख़रीदता है, वहां पर मार्केटिंग शुल्क का नुक़सान बहुत अधिक नहीं होगा क्योंकि भारतीय खाद्य निगम और राज्य सरकार की एजेंसियों से ये अपेक्षा की जाती है कि वो मौजूदा मंडियों से ख़रीद करती रहेंगी.

      ये रिपोर्ट यहां पढ़ें.

       

      29 दिसंबर 2005: एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग ने अपनी तीसरी रिपोर्ट किसानों की सेवा और खेती का संरक्षण, 2006: कृषि संबंधी नवीनीकरण का वर्ष” के नाम से, सरकार को सौंपी.

      * आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 (The Essential Commodities Act) और ‘निंयत्रण आदेश’ (Control Orders) उचित थे और ये तभी जारी किए जाते थे जब आपूर्ति की तुलना में मांग बढ़ जाए. हाल के वर्षों में मांग और आपूर्ति का संतुलन और आर्थिक परिदृश्य बदल गए हैं, लेकिन प्रतिबंध और नियंत्रण पहले की ही तरह जारी हैं. ये मार्केटिंग सिस्टम या विपणन के प्रभावी तंत्र को स्थापित करने और इनके बेहतर ढंग से काम करने को लेकर देश के कृषि क्षेत्र के विकास में आड़े आ रहे हैं.

      * आवश्यक वस्तुओं की संख्या 1989 में 70 थी, जो काफ़ी अधिक थी इसे घटकर अब 15 कर दिया गया है. अगर इस सूची से अन्य बचे हुए कृषि उत्पादों को भी निकाल दिया जाए तो भी यह काफ़ी उपयोगी होगा. विकल्प के तौर पर अभी के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 को स्थगित किया जा सकता है, और अगर कोई आपात स्थिति पैदा होती है तो उसे एक निश्चित समय के लिए, एक खास उपज के संदर्भ में और एक विशेष क्षेत्र में सरकारी अधिसूचना के जरिए फिर से बहाल किया जा सकता है.

      * सरकार को सबसे पहले कृषि वस्तुओं पर से मंडी में लगाए जाने वाले शुल्क और एपीएमसी के दायरे में लगने वाले लोडिंग, अनलोडिंग, तौल जैसी सेवाओं से संबंधित शुल्क को हटाकर इसकी जगह बाज़ार के बुनियादी ढांचे यानी इंफ्रास्ट्रक्चर के इस्तेमाल पर एकमुश्त सेवा शुल्क लगाने की ज़रूरत है.

      * राज्य ने पहले ही एपीएमसी अधिनियम में संशोधन कर दिया है, ताकि किसानों के अनुकूल संचालन सुनिश्चित करने वाले बाज़ारों को बढ़ावा दिया जा सके. अढ़तिया (Arhtiyas) जैसे मौजूदा और पारंपरिक व्यापार के चैनलों से छुटकारे के लिए पूरी सावधानी और समय की गुंजाइश के साथ बदलाव लाना होगा, ताकि ये सुनिश्चित हो सके कि किसानों व ख़रीददारों को जोड़ने वाली यह नई प्रणाली फायदेमंद और टिकाऊ दोनों है. निश्चित और लाभकारी मार्केटिंग (Remunerative Marketing) के लिए संभावनाएं ही पंजाब के कृषि भविष्य की कुंजी हैं.

      * आमतौर पर एपीएमसी भी मंडियों में पर्याप्त बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने में विफल रहे हैं. एपीएमसी का पूरा ध्यान, नियमन यानी रेगुलेशन पर रहा है न कि स्थानीय उत्पादों के लिए बाज़ार विकसित करने को लेकर. वह उत्पादों की ग्रेडिंग यानी गुणवत्ता के आधार पर उन्हें आंकने की तकनीक शुरू नहीं कर सका है और न ही स्थानीय प्रसंस्करण (Processing) को बढ़ावा दे सका है. एपीएमसी किसानों तक बाज़ार से जुड़ी बेहतर सूचनाएं पहुंचाने को लेकर भी कोई अहम भूमिका नहीं निभा पाया है.

      * डायरेक्ट मार्केटिंग यानी सीधे तौर पर अपनी उपज बाज़ार में बेचने से किसान अपना उत्पाद कम ट्रांजेक्शन लागत पर सीधे प्रोसेसर यानी एक मुश्त ख़रीददार (bulk buyers) को बेच सकेगा और यह भी संभव है कि इस तरह उसे बिचौलियों या फिर थोक बाज़ार से मिलने वाले भाव से ज़्यादा भाव मिले. लेकिन, अधिकतर राज्यों में एपीएमसी अधिनियम प्रोसेसिंग उद्योगों, निर्यातकों या थोक विक्रेताओं को सीधे खरीददारी की अनुमित नहीं देता. हालांकि, उद्योगों के दबाव में कुछ राज्यों में मामलों के हिसाब से इस ज़रूरत में ढील दी गई है, लेकिन उन्हें अब भी एपीएमसी परिसर में उत्पाद के न पहुंचने के बावजूद मंडी शुल्क देना पड़ता है.

      * एपीएमसी के एकाधिकार का मतलब यह है कि निजी व सहकारी क्षेत्र, मंडियों को स्थापित करने और उन्हें विकसित करने में योगदान नहीं दे पा रहा है. विभिन्न राज्यों में एपीएमसी अधिनियम के प्रावधानों में बदलाव की ज़रूरत है, ताकि मार्केटिंग से संबंधित विकास (marketing development) में निजी क्षेत्र एक वैध भूमिका निभा सके.

      * कृषि उत्पादों की मार्केटिंग, भंडारण और प्रसंस्करण से संबंधित आवश्यक वस्तु अधिनियम और राज्य कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम, सहित अन्य क़ानूनी उपकरणों (legal instruments)  की समीक्षा की जानी चाहिए ताकि आधुनिक कृषि की ज़रूरतों को पूरा किया जा सके और इस क्षेत्र में निजी पूंजी को आकर्षित किया जा सके.

      * जहां तक एपीएमसी अधिनियम के जरिए बाज़ार शुल्क वसूलने की बात है तो यह अब भी न केवल राज्यों के बीच, बल्कि एक ही राज्य में यानी अंतरराज्यीय स्तर पर एक बाज़ार क्षेत्र से दूसरे बाज़ार क्षेत्र के भीतर भी प्राथमिक कृषि उपज के खुले आवागमन में एक बड़ी बाधा बनी हुई है. जैसा कि पहले ही कहा गया है कि इस प्रक्रिया में कभी-कभी एक ही उत्पाद पर दोहरा कर देना पड़ जाता है. इसके अलावा, यह प्रत्यक्ष विपणन (direct marketing) की अनुमति न देकर, थोक बाज़ार को विनियमित करने में राज्य विपणन बोर्ड /बाज़ार समितियों के एकाधिकार बहाल करने का काम भी करता है. इससे अक्सर कुछ दलालों या अढ़तियों के बीच सांठगांठ को बढ़ावा मिलता है, और मूल्य निर्धारण में अपारदर्शिता की वजह से किसानों का नुकसान होता है.

      * एपीएमसी में सुधार से विभिन्न राज्यों के बीच और एक बाज़ार समिति से दूसरी बाज़ार समिति के बीच कृषि उपज की बिना रोक-टोक आवाजाही की सुविधा होगी. हालांकि, कई राज्यों के लिए मंडी शुल्क आय का एक प्रमुख स्रोत है, ऐसे में कुछ राज्यों को इससे राजस्व की हानि हो सकती है.

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      13 अगस्त 2006: एम. एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग ने अपनी चौथी रिपोर्ट “किसानों की सेवा और खेती का संरक्षण: जय किसान: किसानों के लिए एक राष्ट्रीय नीति का मसौदा” नाम से सरकार को सौंपा.

      पिछली तीन रिपोर्टों की सिफारिशों के अनुसार, राष्ट्रीय किसान आयोग (एनसीएफ) की चौथी रिपोर्ट किसानों के लिए राष्ट्रीय नीति का एक मसौदा बनाती है.

      कुछ सिफारिशें:

      * कृषि उपज को सही बाज़ार व सही ख़रीददार तक पहुंचाने, भंडारण और प्रसंस्करण से संबंधित आवश्यक वस्तु अधिनियम और राज्य कृषि उपज विपणन समिति अधिनियमों सहित अन्य क़ानूनों की समीक्षा की ज़रूरत है ताकि आधुनिक कृषि की ज़रूरतों को पूरा करने के साथ, इस क्षेत्र में निजी पूंजी को आकर्षित किया जा सके.

      * एपीएमसी /राज्य कृषि विपणन बोर्ड की भूमिका को विनियमन केंद्रित होने (regulatory focus) से बदलकर स्थानीय उत्पादों के लिए ग्रेडिंग, ब्रांडिंग, पैकेजिंग और दूरस्थ व अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों के विकास पर केंद्रित किए जाने की आवश्यकता है.

      * किसान अपनी उपज के विपणन (मार्केटिंग) के लिए अलग अलग तरह के विकल्प चाहता है. ऐसे में अन्य उपायों के अलावा राज्य एपीएमसी अधिनियमों में संशोधन की भी ज़रूरत है जिससे की निजी क्षेत्र या सहकारी समितियां बाज़ार को स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित हों, विपणन के लिए बुनियादी ढांचे (marketing infrastructure) और अन्य सहायक सेवाएं विकसित करें और सही व पारदर्शी रूप में शुल्क वसूलें. साथ ही यह काम एपीएमसी या लाइसेंस प्राप्त व्यापारियों की अनुमति के बग़ैर संभव हो.  

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      4 अक्टूबर 2006: एम. एस. स्वामीनाथान की अध्यक्षता में किसानों पर राष्ट्रीय आयोग ने दो खण्डों में अपनी पांचवी रिपोर्ट ”किसानों के कल्याण के लिए तेज़ और अधिक समावेशी विकास की ओर” के नाम से सरकार को सौंपी.

      यह किसानों पर राष्ट्रीय आयोग की पांचवीं और अंतिम रिपोर्ट है, जिसे दो खंडों में विभाजित व प्रस्तुत किया गया है. यह भारत में किसानों और खेती से जुड़े कुछ प्रमुख मुद्दों से संबंधित है, जैसे वैश्विक अर्थव्यवस्था में छोटी जोत वाले किसानों की आर्थिक उत्तरजीविता (Economic Survival), किसानों की आर्थिक नियति (Economic Destiny) को आकार देना, टिकाऊ कृषि (Sustainable Agriculture) के लिए आवश्यक पारिस्थितिक आधार (Ecological Foundations) को मजबूत बनाने, खेती करने के लिए युवाओं को आकर्षित करने और उन्हें, उससे जोड़े रखने, और भारतीय किसानों और खेती के गौरव को बहाल करने का लक्ष्य रखती है. यह भारत जैसे देश में भूख को इतिहास बनाने के लिए एक कार्य योजना प्रस्तुत करती है.

      खंड 1:

      * इस रिपोर्ट के मुताबिक, यदि हम दलहन (pulses) और तिलहन (oil seeds) के उत्दान के लिए ज़रूरी कार्रवाई किए बिना बड़ी मात्रा में इनका आयात करते रहेंगे तो शुष्क कृषि क्षेत्र (Dry Farming Areas) में ग़रीबी और कुपोषण की स्थिति बनी रहेगी. कृषि उत्पादकता में कमी होने का ग़रीबी और कुपोषण के साथ मज़बूत संबंध है. इसलिए, जितनी जल्दी हम दलहन और तिलहन के संबंध में अपनी आयात नीति को संशोधित कर अपना ध्यान, बारिश की अधिकता वाले क्षेत्रों में करोड़ों मेहनतकश किसानों को समर्थन मूल्य का आश्वासन देकर इन वस्तुओं के अधिक उत्पादन में मदद करने पर लगाएंगे, उतनी ही जल्दी देश में, बहुत हद तक भूख और ग़रीबी की समस्या को कम करने की संभावना बनेगी. जब भी दलहन और तिलहन की बेहतर फसल होती है, जैसा कि इस साल सरसों की फसल रही है, तो किसान तय रूप से उपलब्ध कराई जाने वाली और लाभकारी मार्केटिंग से संबंधित सेवाओं की कमी का सामना करने लगते हैं. उत्पादक-उपभोक्ता ज़रूरतों (producer-consumer needs) और उनके हितों को व्यापारी-आयातकों (trader-importers) के हितों की तुलना में अधिक सुरक्षा प्रदान किए जाने की आवश्यकता है.

      * एपीएमसी और राज्य कृषि विपणन बोर्डों को अपनी भूमिका नियामक से बदलकर प्रोत्साहक और विकास करने वाले (promotional and developmental) के रूप में स्थापित करने की आवश्यकता है. इन एजेंसियों के लिए ज़रूरी है कि वह स्थानीय उपज के लिए नए बाज़ार विकसित करने पर अधिक ध्यान केंद्रित करें. इसके पूरे कामकाज, प्रबंधन, संचालन और अतिरिक्त उपज के निपटान की समीक्षा करने की आवश्यकता है. इसके साथ ही किसान सहकारी समितियों (farmer’s cooperatives) और निजी क्षेत्रों के माध्यम से, थोक कृषि उपज मंडियों को संचालित करने में सहयोग और प्रोत्साहित किए जाने की ज़रूरत है, जिससे कि वे एपीएमसी को प्रतिस्पर्धा दे सकें.

      * किसानों की आय बढ़ाने और रोज़गार के नए अवसर पैदा करने के लिए कृषि प्रसंस्करण को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण है. हालांकि इसके लिए कृषि क्षेत्र में सुधार लाने की ज़रूरत है जिससे कि कृषि प्रसंस्करण के क्षेत्र में बड़े कारपोरेट क्षेत्र से निवेश हो. ये निवेश केवल नई इकाइयों में ही नहीं बल्कि स्थापित इकाइयों के आधुनिकीकरण को संभव बनाने की दिशा में भी हो सके. प्रसंस्करण उद्योग को प्रसंस्करण के लिए कच्चे माल की पर्याप्त और निरंतर उपलब्धता की आवश्यकता होती है. कई राज्यों में मौजूदा एपीएमसी अधिनियम के तहत उत्पादकों यानी किसानों से सीधे ख़रीद संभव नहीं है और इसलिए इसे या तो एपीएमसी के ज़रिए या संबंधित राज्य सरकार की विशेष अनुमति से करना पड़ता है.

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      खंड 2

      * पंजाब के किसान आवश्यक वस्तु अधिनियम की 9वीं अनुसूची के कड़े प्रावधानों के कारण अतिरिक्त गेहूं बाहर नहीं ले जा सकते. इस प्रावधान ने अतीत में, किसानों के हितों को नुकसान पहुंचाने का काम किया.

      * प्रधानमंत्री ने 15.08.2006 के अपने भाषण में उल्लेख किया कि किसान को बाज़ार से उचित लाभकारी मूल्य मिलना चाहिए. इस पर निश्चित तौर से अमल होना चाहिए.

      * किसानों को उनकी उपज के लिए लाभकारी कीमत मिले इस पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है. एपीएमसी और राज्य विपणन बोर्ड को अपनी नई विकासात्मक भूमिका (developmental role) को समझना चाहिए. एपीएमसी की मौजूदा कार्यशैली में सुधार की बहुत बड़ी गुंजाइश है.

      * हमाल और कुली किसानों के साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं करते हैं; बल्कि वे उनका अपमान करते हैं. एपीएमसी में अपनी उपज को बेचने वाले किसानों को लगता है कि व्यापारी और प्रबंधन मिले हुए होते हैं और वे उन्हें अक्सर धोखा देते हैं. एपीएमसी के प्रबंधन में किसानों की भागीदारी मज़बूत बनाने, खासकर नीलामी प्रणाली में, की आवश्यकता है. एपीएमसी के कामकाज में किसान का हित सबसे ऊपर होना चाहिए. बिना ग्रेड वाली उपज यानी गुणवत्ता के स्तर पर कम आंकी जाने वाली उपज को कम कीमत मिलती है. ऐसे में ज़रूरत है कि खेत में ही उपज की ग्रेडिंग की जाए.

      * गैर सरकारी संगठनों को भी एपीएमसी के ज़रिए उपज ख़रीदने के बजाय, किसानों से सीधे कृषि उपज ख़रीदने की अनुमति दी जानी चाहिए.

      * एपीएमसी का लाभ छोटे, सीमांत और मध्यम किसानों तक नहीं पहुंचता है

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      साल 2007 (कोई तारीख़ नहीं): मॉडल एपीएमसी नियम, 2007

      तेरहवें अध्याय और 115 खंडों के बीच, केंद्र सरकार ने मॉडल एपीएमसी नियम, 2007 का मसौदा तैयार किया है. ये नियम 26 फॉर्म में हैं. नियम विस्तार से बताते हैं कि मार्केट कमेटी कैसे काम करेगी (अध्याय V), अनुबंधित खेती (contract farming) कैसे होगी (अध्याय VI), और किस तरह शुल्क लगाया और वसूला जाएगा (अध्याय VIII).

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      फ़रवरी 2012: आर्थिक सर्वेक्षण 2011-12, अध्याय 8: कृषि और खाद्य

      कुछ अंश

      * मंडी संचालन (Mandi Governance) एक चिंता का विषय है. मंडियों में अधिक से अधिक व्यापारियों को बतौर एजेंट काम करने की अनुमति दी जानी चाहिए. किसी को भी अगर कृषि उपज मंडी समितियों  (एपीएमसी) के बाहर या खेत में ही उपज का बेहतर मूल्य बेहतर शर्तों के साथ प्राप्त होता है, तो उसे ऐसा करने की अनुमति दी जानी चाहिए. अंतरराज्यीय व्यापार को बढ़ावा देने के लिए एक वस्तु जिसके लिए बाज़ार शुल्क का भुगतान एक बार किया जा चुका है, उसे अन्य बाज़ारों में खरीदने-बेचने पर फिर से बाज़ार शुल्क के दायरे में नहीं लाया जाना चाहिए. यह बात अन्य राज्यों में खरीद-बिक्री पर भी लागू होनी चाहिए. बार बार के लेनदेन के लिए प्रदान की गई सेवाओं के लिए यूज़र शुल्क लगाया जा सकता है.

      * जल्दी खराब होने वाले वस्तुओं (Perishables) को एपीएमसी अधिनियम के दायरे से बाहर किया जा सकता है. हाल में सब्जियों और फलों की महंगाई की घटनाओं ने हमारी आपूर्ति चेन में खामियों को उजागर किया है. कई बार सरकार द्वारा विनियमित मंडियां खुदरा विक्रेताओं को उनके उद्यमों को किसानों के साथ एकीकृत करने से रोकती हैं. इसे देखते हुए जल्दी खराब होने वाले वस्तुओं (Perishables) को इस विनियमन से छूट दी जा सकती है.

      * कृषि बाज़ार की भूमिका किसान से उपभोक्ता तक कृषि उपज को सबसे प्रभावी तरीके से पहुंचाने की है. भारत में एपीएमसी अधिनियमों के जरिए कृषि बाज़ारों को विनियमित किया जाता है. राज्यों के एपीएमसी अधिनियमों के प्रावधानों के अनुसार, प्रत्येक एपीएमसी, कृषि उपज की बिक्री पर निर्धारित तरीके से ख़रीददारों/व्यापारियों से बाज़ार शुल्क लेने के लिए अधिकृत है.

      कृषि/बागवानी उत्पादों पर कमीशन वसूलने की घटनाएं अपेक्षाकृत रूप से अधिक सामने आने की वजह से उनकी मार्केटिंग लागत बढ़ जाती है, जो एक गैरज़रूरी क़दम है. इन सभी चीज़ों से पता चलता है कि उत्पादों यानी कृषि उपज की मुक्त आवाजाही की सुविधा, मूल्य स्थिरीकरण लाने यानी मूल्यों को स्थिर बनाने और उत्पादक व उपभोक्ता बाज़ार क्षेत्रों (Segments) के बीच मूल्य अंतर को कम करने के लिए, एक एकल बिंदु बाज़ार शुल्क प्रणाली (single point market fee system) की आवश्यकता है. इस बाबत, एक और बिंदु पर प्रकाश डालने की ज़रूरत है कि बिक्री से पहले किसानों द्वारा कृषि उपज की सफ़ाई, ग्रेडिंग और पैकेजिंग को इन बाज़ार समितियों ने पर्याप्त पैमाने पर लोकप्रिय नहीं बनाया है.

      * चूकि एपीएमसी किसानों के हितों की रक्षा के लिए बनाई गई थीं, इसलिए यह उचित होगा कि किसानों को कृषि उपज मंडी समितियों में जाने या न जाने का विकल्प दिया जाए. इसके अलावा, राज्य एपीएमसी अधिनियमों में और सुधार करने की आवश्यकता है.

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      22 जनवरी 2013: सुधार को बढ़ावा के संदर्भ में, कृषि मार्केटिंग का कार्यभार संभालने वाले राज्य मंत्रियों की समिति की फाइनल रिपोर्ट, हर्षवर्धन पाटिल की अध्यक्षता में.

      यह समिति 2 मार्च 2010 को बनाई गई. इसका मकसद विभिन्न राज्यों/ केंद्र शासित प्रदेशों को मॉडल एपीएमसी अधिनियम और मॉडल एपीएमसी नियमों को अपनाने के लिए राज़ी करना था. इसे किसानों और उपभोक्ताओं के लाभ के लिए एक बाधा मुक्त राष्ट्रीय एकीकृत बाज़ार बनाने के लिए आगे आने वाले समय में और सुधारों के बारे में बताना था. इसके साथ इसका काम बाज़ार की सूचनाओं को प्रभावी तरीके से प्रसारित करने के तरीकों को सुझाना और कृषि उपज की ग्रेडिंग, मानकीकरण, पैकेजिंग और गुणवत्ता प्रमाणन (quality certification) को बढ़ावा देने से संबंधित उपायों के बारे में सुझाव देना भी था.

      “आवश्यक वस्तु अधिनियम के प्रतिबंधनात्मक प्रावधानों के चलते….बड़े पैमाने पर भंडारण और मार्केटिंग क्षेत्र में बुनियादी ढांचे के विकास जिसमें, अनुबंध कृषि व सीधी मार्केटिंग शामिल है, बहुत हद तक उत्साहवर्द्धक नहीं रहा है.”

      * आवश्यक वस्तु अधिनियम और विभिन्न नियंत्रण आदेशों (Control Orders) के तहत जारी प्रतिबंधात्मक प्रावधानों के कारण बड़े पैमाने पर भंडारण और विपणन संबंधी बुनियादी ढांचे (marketing infrastructure) और प्रत्यक्ष विपणन में निजी निवेश उत्साहजनक नहीं रहा है. इसमें अनुबंध खेती (Contract farming) वाले इलाके भी शामिल हैं. मौजूदा प्रणाली के तहत एक क्षेत्र की मार्केटिंग योग्य अतिरिक्त उपज (marketable surplus) बिचौलियों, व्यापारियों और संस्थागत एजेंसियों के एक नेटवर्क के ज़रिए उपभोग केंद्रों तक पहुंचती है. इस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर यह व्यवस्था भौतिक रूप से तो मौजूद है, लेकिन इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर कोई विनियमन यानी रेगुलेशन नहीं है और मौजूदा विनियमन देश में अवरोध मुक्त बाज़ार प्रदान नहीं करता है. व्यापार के लिए कई अहम अंतरराज्यीय बाधाएं हैं, जैसे (a) टैक्सेशन यानी कराधान संबंधित बाधाएं (दरों में भिन्नता, वैट लगेगा या नहीं, कई बिंदुओं पर बाज़ार शुल्क का लगना.. आदि); (b) भौतिक बाधाएं (आवश्यक वस्तु अधिनियम, चेक पोस्ट, एपीएमसी विनियम..आदि); और (c) व्यापारियों, कमीशन एजेंटों के लाइसेंस और पंजीकरण से संबंधित वैधानिक बाधाएं. इसलिए लाइसेंसिंग, आवाजाही और भंडारण से जुड़ी मौजूदा सभी बाधाओं को हटाकर कृषि वस्तुओं के लिए राष्ट्रीय स्तर के एकीकृत बाज़ार को विकसित करने की आवश्यकता है.

      *  कृषि अपज की अधिकता वाले क्षेत्रों से कृषि अपज की कमी वाले क्षेत्रों में खाद्यान्न की आपूर्ति और वितरण को विनियमित व नियंत्रित करने के लिए भारत सरकार, आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन, निर्माण और वितरण को नियंत्रित और विनियमित करने के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम को लागू करती है. इस अधिनियम में स्वयं कोई नियम और विनियम नहीं है, लेकिन यह राज्यों को जमाख़ोरी और कालाबाज़ारी जैसी गड़बड़ियों व विकृतियों की स्थिति में नियंत्रण आदेश जारी करने की अनुमति देता है, जैसे, “खाद्यान्न का कारोबार करने के लिए व्यापारियों/खुदरा विक्रेताओं को लाइसेंस देना”; “खाद्यान्नों की आवाहाजी पर प्रतिबंध”; और “भंडारण सीमा का विनियमन”. वर्ष 1993 के बाद से केंद्र सरकार ने पूरे देश को एक ही खाद्य ज़ोन मानने का फैसला किया, लेकिन राज्य अभी भी इस तरह के आदेश देते हैं और आवाजाही को रोकते हैं.

      * राज्य सरकारें अक्सर आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 के तहत नियंत्रण आदेश जारी करती हैं, जो खाद्यान्न, खाद्य तेलों, दालों और चीनी जैसी कृषि वस्तुओं के व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं. ये नियंत्रण आदेश मोटे तौर पर डीलरों के लाइसेंस, स्टॉक सीमा के नियमन, माल की आवाजाही पर प्रतिबंध और लेवी की प्रणाली के तहत अनिवार्य खरीद से संबंधित होते हैं. आवश्यक वस्तु अधिनियम और इसके तहत जारी विभिन्न नियंत्रण आदेशों के प्रतिबंधात्मक प्रावधानों के कारण बड़े पैमाने पर भंडारण और मार्केटिंग संबंधी बुनियादी ढांचे में निजी निवेश बहुत उत्साहजनक नहीं रहा है. इसमें अनुबंध खेती (contract farming) वाले इलाके भी शामिल हैं.

      *  कृषि उपज मार्केटिंग विनियमन अधिनियम और आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन किया जाना चाहिए ताकि राज्य भर में कृषि वस्तुओं के बाधा मुक्त भंडारण और आवाजाही को सुनिश्चित किया सके. क्योंकि भंडारण और आवाजाही देश के भीतर खाद्य उत्पादों की नियमित आपूर्ति और वितरण (उत्पादन के केंद्र से उपभोग तक) को बनाए रखने के लिए बहुत महत्वपूर्ण विपणन कार्य हैं. यह मूल्यों में असमान उतार-चढ़ाव को रोके रखने और आपूर्ति श्रृंखला के अधिकतम प्रबंधन को सुनिश्चित करने में मदद करेगा.

      *  हालांकि, बाज़ारों के रेगुलेशन ने देश में एक कुशल कृषि विपणन प्रणाली का लक्ष्य हासिल करने में सीमित सफलता ही प्राप्त की है, क्योंकि वर्षों से ये विकास उन्मुख संस्थानएं (जैसे राज्य कृषि विपणन बोर्ड, एपीएमसी आदि) किसानों और बाज़ार के अन्य सहभागियों को लाभ पहुंचाने के लिए मार्केटिंग के बेहतर तरीकों (efficient marketing practices) को अधिक सुविधाजनक बनाने की तुलना में अधिक से अधिक राजस्व उगाही के तंत्र बन गए हैं. बाज़ार रेगुलेशन कार्यक्रमों के अलावा, आवश्यक वस्तु अधिनियम और इसके तहत केंद्र और राज्यों द्वारा जारी अत्याधिक आदेशों ने भी देश में मुक्त और प्रतिस्पर्धी विपणन प्रणाली के विकास को रोक दिया.

      *  बाज़ार विनियमन कार्यक्रम के अलावा, आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 (ईसी अधिनियम) और केंद्र व राज्यों द्वारा इस अधिनियम के तहत जारी अत्याधिक नियंत्रण आदेशों ने देश में मुक्त और प्रतिस्पर्धी विपणन प्रणाली के विकास को रोक दिया. आवश्यक वस्तु अधिनियम और इस अधिनियम के तहत जारी विभिन्न नियंत्रण आदेशों के प्रतिबंधात्मक प्रावधानों के कारण, बड़े पैमाने पर भंडारण और मार्केटिंग में निजी निवेश लगभग नामौजूद है. इन नियंत्रण आदेशों से कृषि वस्तुओं की आवाजाही और भंडारण पर कृत्रिम अवरोध (artificial barriers) पैदा किया जाता है और सीमा चेक प्वाइंट्स पर कृषि उपज की ढुलाई में देरी की जाती है, जिससे आम बाज़ार के निर्माण पर भी असर पड़ता है.

      * इस मायने में विनियामक ढांचे को बदलने की ज़रूरत है, ताकि निजी क्षेत्र को पिछड़े और अगड़े संपर्कों (backward and forward linkages) के साथ बाज़ारों या वैकल्पिक विपरण व्यवस्था को बनाने, उसे संचालित करने और उसका प्रबंधन करने की खुली छूट मिले. सरकार को चाहिए कि वह  अधिक से अधिक इस प्रणाली को नियंत्रित करने के बजाय, बाज़ार के खिलाड़ियों के लिए खेल के बेहतर नियम बना सकती है. सरकार की भूमिका केवल सूत्रधार की होनी चाहिए.

      * मौजूदा अधिनियम किसानों को अपनी उपज को बाज़ार परिसर से बाहर प्रोसेसर/निर्माता/बल्क प्रोसेसर को बेचने से रोकता है क्योंकि एपीएमसी अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार उत्पादन को विनियमित बाज़ार के माध्यम से ही लाना होगा. बदले हुए परिदृश्य में, उत्पादक यानी किसान को संबंधित अधिनियम के प्रासंगिक प्रावधान के तहत बाज़ार परिसर के बाहर, बाज़ार में बिना किसी बिचौलिये के सीधे बिक्री करने की आज़ादी मिलनी चाहिए. ऐसा होने पर प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी जिससे उत्पादक-विक्रेता को मौद्रिक लाभ मिलने के साथ साथ उनके बीच प्रत्यक्ष विपणन की सुविधा भी विकसित होगी. इसके साथ उपभोक्ताओं को उचित कीमत पर चीजें भी मिलेंगी.

      *  मौजूदा एपीएमसी अधिनियम के तहत, केवल राज्य सरकारों को ही बाज़ारों को स्थापित करने की अनुमति है. राज्य-नियंत्रित बाज़ारों के एकाधिकार और तौर-तरीकों ने इस क्षेत्र में निजी निवेश को रोक दिया है. विनियमित बाज़ारों में व्यापारियों को लाइसेंस देने की प्रणाली के कारण लाइसेंस प्राप्त व्यापारियों का एकाधिकार है, और वे नए व्यापारियों के प्रवेश को रोकने की दिशा में प्रमुख अवरोधक बन कर उभरते हैं. व्यापारियों, कमीशन एजेंटों और अन्य पदाधिकारियों (functionaries) ने संघ बना लिए हैं, जो आमतौर पर नए व्यक्तियों के प्रवेश की अनुमति नहीं देते हैं. इसने पूरी तरह से प्रतिस्पर्धात्मक कामकाज और प्रतिस्पर्धा की भावना का गला घोंट दिया हैं.

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      फ़रवरी 2013: आर्थिक सर्वेक्षण 2012-13, अध्याय 8: कृषि और खाद्य प्रबंधन

      कुछ अंश

      * आपूर्ति और मांग के उचित नियमों के अनुकूल बाज़ार का वातावरण बनाकर, किसानों और उपभोक्ताओं को उचित लाभ सुनिश्चित करने के लिए विनियमित बाज़ारों के एक नेटवर्क के ज़रिए से देश में कृषि वस्तुओं के संगठित विपणन को बढ़ावा दिया गया है. इस क्षेत्र में सुधार लाने के लिए, 2003 में एक मॉडल कृषि उपज विपणन (विकास और विनियमन) (एपीएमसी) अधिनियम तैयार किया गया था. हालांकि मौजूदा एपीएमसी अधिनियम में संशोधन के जरिए विभिन्न राज्य सरकारों ने मॉडल अधिनियम की तर्ज पर बाज़ार सुधार की प्रक्रिया शुरू की है, लेकिन अब भी कई राज्यों को मॉडल अधिनियम को अपनाना है.

      * इसलिए यह आवश्यक है कि बाज़ार सुधार की प्रक्रिया को जल्द से जल्द पूरा किया जाए, जिससे कि किसानों को अपने कृषि उत्पादों के लाभकारी मूल्य पर लेनदेन के लिए एक वैकल्पिक प्रतिस्पर्धी विपणन चैनल प्रदान किया जा सके. देश में एक व्यापक और एकीकृत कृषि विपणन प्रणाली के विकास के लिए एक कृषि विपणन बुनियादी ढांचे (agricultural marketing infrastructure) का विकास सबसे अहम जरूरत है. इस उद्देश्य के लिए, कृषि मंत्रालय, बैक-एंड क्रेडिट-लिंक्ड सब्सिडी (back-ended credit-linked subsidy) यानी ग्रामीण भंडार योजना के ज़रिए उद्यमियों को सहायता प्रदान कर मांग-संचालित योजना (demand-driven Plan) को लागू कर रहा है. वह कृषि विपणन के बुनियादी ढांचे के विकास और उसकी मज़बूती, के अलावा ग्रेडिंग और मानकीकरण को भी बढ़ावा दे रहा है.

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      फरवरी 2014: आर्थिक सर्वेक्षण 2013-14, अध्याय 8: कृषि और खाद्य प्रबंधन

      कुछ अंश

      * 52: सूचनाओं के आदान-प्रदान और संबंधित हितधारकों तक सही सूचनाओं का समय पर न पहुंचना, बाज़ार की सही कार्य प्रणालियों में एक प्रमुख अवरोध है. कृषि आपूर्ति चेन में सभी हितधारकों को लाभान्वित करने, खासकर किसानों को फसल पैटर्न और विपणन रणनीतियों के बारे में तर्कसंगत रूप से और पूरी जानकारियों सहित निर्णय लेने में सक्षम बनाने के लिए एफएमसी (FMC), मूल्य प्रसार योजना (Price Dissemination Scheme) लागू कर रहा है. इसके तहत, राष्ट्रीय एक्सचेंजों के फ्यूचर व स्पॉट भाव और लगभग 1700 मंडियों से मिलकर बने कृषि विपणन सूचना नेटवर्क (Agricultural Marketing Information Network) यानी एगमार्कनेट (AGMARKNET) के स्पॉट भाव को 267 एपीएमसी, केवीके और किसानों से जुड़े अन्य स्थानों में स्थापित किए गए मूल्य टिकर/बोर्डों पर वास्तविक समय यानी रियल टाइम के आधार पर चलाया जाता है. किसानों और अन्य हितधारकों के बीच जागरूकता बढ़ाने और उनको मूल्य खोज तंत्र (price discovery mechanism) का लाभ दिलाने के लिए किसान मंडियों सहित सभी बाज़ारों में इसे स्थापित करने की आवश्यकता है.

      * 79: घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय विपणन मोर्चे पर विपणन सेटअप (marketing set up) तैयार करने के लिए किए जाने वाले अधिक से अधिक सरकारी हस्तक्षेप ने वास्तव में व्यापार के लिए बाधाएं पैदा करने का काम किया है. बाज़ार की गड़बड़ियों और विकृतियों को दूर करने से बाज़ारों में अधिक प्रतिस्पर्धा पैदा होगी, दक्षता और विकास को बढ़ावा मिलेगा और इस तरह एक राष्ट्रीय एकीकृत कृषि बाज़ार का निर्माण हो पाएगा. ऐसे में, जबकि कृषि बाज़ार स्वयं एक बेमेल व बेहतरीन प्रतिस्पर्धी संरचना बनाने में पूरी तरह से निपुण नहीं है, लेकिन वह वैकल्पिक रूप से इस दिशा में आगे बढ़ सकता है. चूंकि कृषि क्षेत्र, कृषि आधारित उद्योगों को पीछे की कड़ी में भी सुविधाएं उपलब्ध (backward linkage) कराता है, इसलिए इसे बिना किसी भी तरह की रुकावटों के एक ऐसे व्यापक तंत्र के रूप में देखा जाना ज़रूरी है, जिसमें किसी भी तरह के ग़ैर ज़रूरी अवरोधक न हों और जो फार्म टु फोर्क वैल्यू चेन (Farm-to-fork value chain) के रूप में सामने आए. यह एक ऐसी मूल्य श्रंखला होगी जिसमें खाद्यान्न को कृषि उपज के परूप में प्राप्त किए जाने से लेकर उसके उपभोग तक सभी चरण शामिल हों यानी इसके तहत कृषि, थोक बिक्री, भंडारण, रसद, प्रसंस्करण और निर्यात के साथ खुदरा बिक्री भी शामिल है. भारत में एक राष्ट्रीय एकीकृत बाज़ार की स्थापना के लिए कुछ सुधारों की आवश्यकता है:

      (i) एपीएमसी अधिनियम, ईसी अधिनियम, भूमि किरायेदारी अधिनियम, और ऐसी किसी भी कानूनी रूप से बनाई गई संरचना की जांच करें जिनके प्रावधान प्रतिबंधात्मक हैं, और मुक्त व्यापार के क्षेत्र में रुकावटें पैदा करते हैं.

      (ii) प्रत्यक्ष विपणन और अनुबंध खेती की तरह वैकल्पिक विपणन पहलों की ओर सख्ती से बढ़ना.

      (iii) जीएसटी यानी गुड्स एंड सर्विस टैक्स (वस्तु एवं सेवा कर), जो एक तरह का अप्रत्यक्ष कर है, और व्यापक रूप से देशभर में काम कर रहे निर्माताओं, व्यापारियों, वस्तुओं और सेवाओं के उपभोगताओं पर लगाया जाता है, इसके तहत कृषि संबंधित करों को भी शामिल करना.

      (iv) स्थिर व्यापार नीति को ग़ैर-टैरिफ व्यापार संबंधी बाधाओं के बजाय टैरिफ इंटवेंशन (tariff interventions) के आधार पर स्थापित करें.

      (v) कृषि प्रसंस्करण क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा का विकास करना. निवेश बढ़ाने के लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करना.

      बॉक्स 8.3: कृषि बाज़ार में सुधार के लिए आवश्यक है

      * भारत में कुशल कृषि विपणन परिपाटी को स्थापित करने की दिशा में अब तक सीमित सफलता ही मिली है. सरकार और विनियमित थोक बाज़ारों के एकाधिकार ने देश में एक प्रतिस्पर्धी विपणन प्रणाली के विकास को रोक दिया है. कृषि वस्तुओं में व्यापार के उदारीकरण और घरेलू खेतीहर समुदाय की नए वैश्विक बाज़ार तक पहुंच सुनिश्चित करने व इस तरह के अवसरों का लाभ दिलाने के लिए आंतरिक कृषि विपणन प्रणाली को एकीकृत और मज़बूत बनाने की आवश्यकता है.

      * सरकार की विभिन्न समितियों और कार्य बलों ने सिफारिश की है कि राज्य द्वारा कृषि बाज़ारों पर नियंत्रण को कम किया जाना चाहिए, जिससे कि निजी क्षेत्र की अधिक से अधिक भागीदारी को बढ़ावा दिया जा सके. विशेष रूप से कृषि विपणन (agricultural marketing) के विकास के लिए ज़रूरी बड़े निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए. मॉडल कृषि उत्पाद विपणन (विकास और विनियमन) [एपीएम (डीआर)] 2003, अधिनियम को सभी राज्यों को भेजा गया है ताकि वह इसे अपनाएं. इन सुधारों का केंद्रबिंदु है, राज्य कृषि उत्पादन विपणन समितियों (एपीएमसी) के मौजूदा ढांचे के भीतर, जो चिंताएं लगातार सामने आई हैं उन्हें दूर करना. हालांकि वे कृषि उत्पादों के अंतरराज्यीय व्यापार में एकाधिकार और गैरप्रतिस्पर्धी परिपाटी (uncompetitive practices) को खत्म करने में विफल रहे हैं. कृषि सुधार संबंधी समिति (2013) ने इस बात को नोट किया कि कुल मिलाकर एपीएमसी, विपणन सेवाओं और सुविधाओं की आपूर्ति को लेकर, सरकार द्वारा प्रायोजित एकाधिकार के रूप में सामने आई हैं, जिनमें एकाधिकार के कारण सामने आने वाली सभी कमियां और दोष मौजूद हैं.

      * इस प्रकार, एपीएमसी अधिनियम ने भौतिक बाज़ारों का एक नेटवर्क स्थापित करने के अपने मूल उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया है. प्रत्यक्ष विपणन को सुनिश्चित करने की दिशा में कुछ सफल कोशिशें हुई हैं, जैसे कि पंजाब में खुद की अपनी मंडी, तमिलनाडु में उझावार संधाई (Uzhavar Sandhai), महाराष्ट्र में शेतकारी बाज़ार (Shetkari Bazaar), पुणे में हडासपुर सब्जी मंडी, आंध्र प्रदेश में रायतु बाज़ार (Rythu Bazar), ओडिशा में कृषक बाज़ार और राजस्थान में किसान मंडी.

      * कुछ उपाय जो बाधा मुक्त राष्ट्रीय बाज़ार के निर्माण की सुविधा प्रदान करेंगे:

      * (i) फल और सब्ज़ियों, दूध और मछली जैसी जल्द ख़राब होने वाली वस्तुओं की बिक्री और खरीद की अनुमति किसी भी बाज़ार में हो. इसे बाद में सभी कृषि उत्पादों तक बढ़ाया जा सकता है.

      * (ii) फलों और सब्जियों को बाज़ार शुल्क से छूट मिले और कृषि/बागवानी उत्पादों पर बार बार कमीशन लगाना बंद किया जाए.

      * (iii) राज्यों के प्रत्यक्ष विपणन प्रयासों की सफलता से सीख लेते हुए एपीएमसी और बाज़ारों में मौजूद दूसरी तरह के बुनियादी ढांचे का उपयोग किसान बाज़ार लगाने के लिए किया जा सकता है. एफपीओ और स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) को शहरी केंद्रों, मॉल आदि के पास किसान बाज़ार लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है, यानी ऐसे कोई भी संस्थान जहां बड़ा, खुला स्थान उपलब्ध हो. ये बाज़ार हर दिन या सप्ताहांत पर लगाए जा सकते हैं. इन बाज़ारों का संचालन, यहां आने वाले ग्राहकों की संख्या पर निर्भर कर सकता है.

      * (iv) कंपनी अधिनियम 2013 के तहत कॉरपोरेट सामाजिक ज़िम्मेदारी (CSR) से संबंधित गतिविधियों की सूची में ‘किसान बाज़ार लगाने’ को शामिल किया जाए, ताकि कृषि क्षेत्र से जुड़ी व खाद्य प्रसंस्करण आदि में लगी कंपनियों को, इन गतिविधियों के लिए सीएसआर राशि के तहत मदद मिल सके. इसके ज़रिए आपूर्ति श्रृंखलाओं का बुनियादी ढांचा खड़ा करने में कंपनियों के ज़रिए प्रोत्साहित किया जा सकेगा. यह आईटीसी लिमिटेड की ई-चौपाल पहल के समान होगा, लेकिन यह काम सीएसआर के तहत किया जाएगा.

      * (v) उपरोक्त सभी सुविधार्थी यानी फैसिलिटेटर्स, कमोडिटी एक्सचेंज माध्यम से भी अपना संपर्क जोड़ सकते हैं, ताकि कृषि वस्तुओं के फ्यूचर और स्पॉट भाव को विस्तारित किया जा सके.

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      फ़रवरी 2015: आर्थिक सर्वेक्षण 2014-15 खंड, अध्याय 8: कृषि संबंधी वस्तुओं के लिए राष्ट्रीय एकीकृत बाज़ार- कुछ मुद्दे और आगे का रास्ता

      8.2 एपीएमसी कई तरह के शुल्क लगाती है जिनका आकार यानी अनुपात बड़ा होता है, जिनमें पार्दरिशाता नहीं होती और इसलिए ये राजनीतिक ताक़त का इस्तेमाल किए जाने का एक ज़रिया बनते हैं.

      * तालिका 8.1-8.3 एपीएमसी के संचालन के तहत लागू की जाने वाली फीस की तादाद और उसके अलग अलग प्रकारों के बारे में जानकारी देती है. वह ख़रीददारों से बाजर शुल्क लेते हैं, और वे कमीशन लेने वाले उन एजेंट से लाइसेंस शुल्क लेते हैं जो खरीददारों और किसानों के बीच मध्यस्थता का काम करते हैं. वे अधिकारियों की एक पूरी श्रृंखला जिनमें वेयरहाउसिंग एजेंट, लोडिंग एजेंट आदि शामिल हैं उनसे भी तुलनात्मक रूप से कम मात्रा में लाइसेंसिंग शुल्क लेते हैं. इसके अलावा, कमीशन के आधार पर काम करने वाले एजेंट, ख़रीददारों व किसानों के बीच होने वाले भुगतान पर भी कमीशन शुल्क लेते हैं.

      * राज्यों के माध्यम से की जाने वाली वसूली व बाज़ार शुल्क व्यापक रूप से एक दूसरे से अलग होते हैं. वैधानिक रूप से लिए जाने वाले शुल्क/ मंडी कर, वैट इत्यादि, बाज़ार में होने वाली गड़बड़ियों और विकृतियों का एक प्रमुख स्रोत हैं. ट्रेडिंग के पहले स्तर पर इतनी अधिक मात्रा में कर लगाए जाने से उत्पादों की कीमतों पर हर हाल में प्रभाव पड़ता है, क्योंकि ज्यों-ज्यों कमॉडिटी यानी वस्तु, अलग अलग स्तरों पर स्पलाई चेन (आपूर्ती श्रंखलाओं) से होकर गुज़रती है, उसका दाम बढ़ता जाता है.

      * तालिका 8.1 में सूचीबद्ध चावल के लिए यह शुल्क आंध्र प्रदेश जैसे राज्य में 14.5 प्रतिशत से भी अधिक हो सकता है, (राज्य वैट को छोड़कर) और ओडिशा व पंजाब में लगभग 10 प्रतिशत तक हो सकता है. गेहूं के लिए भी, ये शुल्क काफ़ी ज़्यादा हो सकता है (तालिका 8.2)

      * यहां तक कि मॉडल एपीएमसी अधिनियम (जो नीचे वर्णित है) एपीएमसी को राज्य की एक कड़ी के रूप में देखता है, जिस पर राज्य के वित्तीय ढांचे और उसके फैसलों का असर पड़ता है, और बाज़ार शुल्क को राज्यों के माध्यम से लगाए गए कर के रूप में देखा जाता है, बजाय इसके कि उसे सेवाएं प्रदान करने के लिए लगाए गए शुल्क के रूप में देखा जाए. यह क़ानून के अंतर्गत एक ऐसा महत्वपूर्ण प्रावधान व नियम है, जो कृषि वस्तुओं के लिए राष्ट्रीय एकीकृत बाज़ार बनाए जाने की दिशा में प्रमुख बाधा के रूप में कार्य करता है. इस प्रावधान को हटाने से कृषि बाज़ार में प्रतिस्पर्धा का रास्ता खुलेगा और कृषि वस्तुओं के लिए एक साझा राष्ट्रीय बाज़ार बनाए जाने का मार्ग प्रशस्त होगा.

      * इसके अलावा, हालांकि बाज़ार शुल्क को एक कर के रूप में ही एकत्रित किया जाता है, लेकिन एपीएमसी से कमाया गया राजस्व, राज्य के सरकारी खजाने में नहीं जाता है और इसलिए इस धन को खर्च करने के लिए राज्य विधानमंडल की मंज़ूरी ज़रूरी नहीं है. इस तरह एपीएमसी का संचालन जांच व निगरानी से छिपा हुआ है.

      8.3: आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 (Essential Commodities Act) बनाम एपीएमसी अधिनियम

      आवश्यक वस्तु अधिनियम (ईसी अधिनियम) का दायरा एपीएमसी अधिनियम की तुलना में बहुत व्यापक है. यह केंद्र और राज्य सरकारों को समवर्ती रूप से मूल्य, स्टॉक-होल्डिंग और उस अवधि के लिए कुछ वस्तुओं के उत्पादन, आपूर्ति और वितरण को नियंत्रित करने का अधिकार देता है, जिनके लिए स्टॉक रखा जा सकता है और शुल्क लगाया जा सकता है. दूसरी ओर एपीएमसी एक्ट, केवल कृषि उपज की ‘पहली बिक्री’ को नियंत्रित करता है. एपीएमसी अधिनियम के तहत आने वाले खाद्य-वस्तुओं के अलावा, आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत आने वाले सामान आम तौर पर हैं: ड्रग्स (दवाएं), उर्वरक (फर्टीलाइज़र), कपड़ा व कोयला.

      8.4: मॉडल एपीएमसी अधिनियम 

      * चूंकि इन राज्य अधिनियमों ने कृषि वस्तुओं के लिए विखंडित बाज़ार (2477) तैयार किया और एपीएमसी द्वारा लाइसेंस प्राप्त कमीशन एजेंटों और अन्य पदाधिकारियों के माध्यम से अपनी उपज बेचने के लिए किसानों की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया, कृषि मंत्रालय ने एक मॉडल एपीएमसी अधिनियम, 2003 विकसित किया, और वह एक दशक से भी अधिक समय से राज्य सरकारों को लगातार अपने संबंधित अधिकारों में मॉडल एपीएमसी एक्ट की तर्ज पर बदलाव करने के लिए कह रही है. मॉडल एपीएमसी अधिनियम : –

      * a) अनुबंधित खेती के प्रायजकों को कृषि उत्पादों की सीधी बिक्री के लिए अनुमति प्रदान करता है.

      * b) “निर्दिष्ट कृषि वस्तुओं” के लिए “विशेष बाज़ार” स्थापित करने की अनुमति प्रदान करता है- यानी वो वस्तुएं जो ज़्यादातर जल्दी ख़राब (perishables) होती हैं.

      * c) किसी भी क्षेत्र में कृषि उपज के लिए निजी व्यक्तियों, किसानों और उपभोक्ताओं को नए बाज़ार स्थापित करने की अनुमति देता है.

      * d) किसी भी बाज़ार क्षेत्र में अधिसूचित कृषि वस्तुओं की बिक्री पर बाज़ार शुल्क को एक ही बार लगाए जाने की आवश्यकता पर बल देता है.

      * e) बाज़ार से संबंधित अधिकारियों को लाइसेंस दिए जाने के बजाय उनके पंजीकरण की बात कहता है, जिससे कि उन्हें एक या एक से अधिक, अलग अलग बाज़ार क्षेत्रों में काम करने की अनुमति मिल सके.

      * f) उपभोक्ताओं व किसानों के बीच कृषि उपज की सीधी बिक्री सुनिश्चित करने के लिए, उपभोक्ता व किसान बाज़ारों की स्थापना का प्रवाधान रखता है, तथा

      *  g) एपीएमसी के माध्यम से कमाए गए राजस्व से मार्केटिंग से संबंधित बुनियादी ढांचे के निर्माण का प्रावधान रखता है.

      * मॉडल एपीएमसी अधिनियम किसानों को सीधे अपनी उपज अनुबंध-प्रायोजकों (contract-sponsors) को या निजी व्यक्तियों, उपभोक्ताओं या उत्पादकों के माध्यम से स्थापित बाज़ार में बेचने की स्वतंत्रता देता है. मॉडल एपीएमसी अधिनियम बाज़ार के मध्यस्थों को आम पंजीकरण की अनुमति देकर, कृषि उपज के बाज़ार में प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ाता है. कई राज्यों ने आंशिक रूप से मॉडल एपीएमसी अधिनियमों के प्रावधानों को अपनाया है, और अपने एपीएमसी अधिनियमों में संशोधन किया है. कुछ राज्यों ने संशोधित प्रावधानों को लागू करने के लिए नियमों को तैयार नहीं किया है, जो यह दिखाता है कि राज्य सरकारें, एपीएमसी के माध्यम से अपनी उपज बेचने के लिए किसानों पर लागू की जाने वाली वैधानिक अनिवार्यता को उदार बनाने को लेकर हिचकिचा रही हैं. कुछ राज्यों – जैसे कर्नाटक- ने हालांकि राज्य के भीतर अधिक से अधिक प्रतिस्पर्धा बनाने के लिए बदलावों को अपनाया है.

      8.6: मॉडल एपीएमसी अधिनियम की कमियां 

      * मॉडल एपीएमसी अधिनियम के प्रावधान कृषि वस्तुओं के लिए एक राष्ट्रीय यहां तक कि राज्य स्तरीय एकीकृत बाज़ार बनाने की दिशा में भी बहुत दूर नहीं जाते हैं. कारण यह है कि मॉडल एपीएमसी अधिनियम, एपीएमसी क्षेत्र के बाहर उपज के सीधे बेचे जाने पर भी, ख़रीददारों द्वारा अनिवार्य रूप से दिए जाने वाले एपीएमसी शुल्क का भुगतान करने  की आवश्यकता को बरकरार रखता है. यानी अनुबंध प्रायोजकों को या निजी व्यक्तियों के माध्यम से स्थापित बाज़ार में, भले ही इस दौरान एपीएमसी द्वारा दी गई किसी भी सुविधा का उपयोग नहीं किया जाता है. मॉडल एपीएमसी अधिनियम में इस बाबत प्रासंगिक प्रावधान (No.42) के मुताबिक:

      • “बाज़ार शुल्क (एकल स्तर पर शुल्क यानीसिंगल पॉइंट लेवी) लगाने का अधिकार: प्रत्येक बाज़ार (i) अधिसूचित कृषि उपज की बिक्री या खरीद पर बाज़ार शुल्क लगाएगा, चाहे वह राज्य के भीतर या राज्य के बाहर से बाज़ार क्षेत्र में लाया जाए.”

      * हालांकि मॉडल एपीएमसी अधिनियम, एपीएमसी व कमीशन एजेंट द्वारा बाज़ार शुल्क लिए जाने या बेचने वाले से पैसे लिए जाने पर रोक लगाता है, फिर भी इस तरह की फीस/कमीशन लिए जाने की मार किसानों पर पड़ती है, क्योंकि वह ख़रीददार एपीएमसी और कमीशन एजेंट की फीस/कमीशन के अनुपात में अपनी बोली को कम कर के आंकते हैं.

      * हालांकि, मॉडल एपीएमसी अधिनियम निजी क्षेत्र के माध्यम से बाजारों की स्थापना के लिए प्रावधान रखता है, यह प्रावधान राज्य के भीतर भी एपीएमसी के लिए प्रतिस्पर्धा बनाने के लिए पर्याप्त नहीं है, क्योंकि निजी बाज़ार के मालिक को एपीएमसी के लिए और उसकी एवज़ में ख़रीददारों / विक्रेताओं से एपीएमसी शुल्क/कर इकट्ठा करना होगा, उस शुल्क के अलावा जो वह ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म और अन्य सेवाएं प्रदान करने के लिए चार्ज करना चाहता है, जैसे लोडिंग, अनलोडिंग, ग्रेडिंग, तोलना आदि.

      8.7 कृषि वस्तुओं के लिए राष्ट्रीय एकीकृत बाज़ार तैयार करने से जुड़े वैकल्पिक तरीके

      * साल 2014 के बजट में एक राष्ट्रीय एकीकृत बाज़ार स्थापित करने की आवश्यकता को मान्यता दी गई है, और कहा गया है कि केंद्र सरकार राज्य सरकारों के साथ मिलकर अपने संबंधित एपीएमसी अधिनियमों को पुनर्जीवित करने के लिए निजी बाज़ारों की स्थापना के लिए काम करेगी. बजट में यह भी कहा गया है कि राज्य सरकारों को छोटे शहरों/ कस्बों में बाज़ार बनाए जाने को लेकर प्रेरित किया जाएगा जिससे कि किसान आसानी से अपनी उपज सीधे बेच सकें.

      * हो सकता है कि कि इसके लिए राज्यों को तैयार करने और उन्हें इसमें भागीदार बनाने के लिए अधिक क़दम उठाने पड़ें और धीरे-धीरे इस दिशा में काम शुरु किया जाए जिससे कि राज्य साथ आ सकें. उदाहरण के लिए, हो सकता है कि सबसे पहले, सभी राज्यों को फल और सब्जियों को विनियमित वस्तुओं से संबंधित एपीएमसी की अनुसूची से हटाने के लिए तैयार किया जा सके. इसके बाद अनाज, दाल और तेल के बीजों, और फिर सभी शेष वस्तुओं को इस सूची में जोड़ा जाए.

      * राज्य सरकारों को विशेष रूप से निजी क्षेत्र में वैकल्पिक या विशेष बाजारों के लिए बुनियादी ढांचा स्थापित करने, भूमि उपलब्ध कराने आदि के लिए नीतिगत समर्थन प्रदान करने के लिए तैयार किया जाना चाहिए, क्योंकि निजी क्षेत्र के खिलाड़ी एपीएमसी के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते हैं, जिसमें प्रारंभिक निवेश सरकार के माध्यम से किया गया था, भूमि और अन्य बुनियादी ढांचे के रूप में. मार्केटिंग से संबंधित बुनियादी ढांचे की स्थापना के लिए घरेलू पूंजी को आकर्षित करने में मुश्किलों को देखते हुए, विशेष रूप से, वेयरहाउसिंग, कोल्ड स्टोरेज, रीफ़र वैन, प्रयोगशालाओं, ग्रेडिंग सुविधाओं आदि को लेकर, खुदरा क्षेत्र में एफडीआई से, बड़े पैमाने पर निवेश को संभव बनाया जा सकता है. इससे बुनियादी ढांचे को लेकर पैदा हो रही ज़रूरतों को भी पूरा किया जा सकेगा, जिसकी कमी के चलते आपूर्ति-श्रृंखला में घाटा होता है और कई तरह की मुश्किलें सामने आती हैं.  

      8.8 एक साझा बाज़ार बनाने के लिए संवैधानिक प्रावधान का उपयोग 

      • यदि अनुनय (persuasion) विफल रहता है (और साल 2003 से अब तक एक लंबे समय से इसे लेकर कोशिशें की जा रही हैं), तो यह देखना आवश्यक हो सकता है कि भारत के संविधान के तहत विषयों के आवंटन को ध्यान में रखते हुए केंद्र क्या कर सकता है. भारत का संविधान सातवीं अनुसूची (राज्य सूची) की कुछ प्रविष्टियों के तहत राज्यों को एपीएमसी अधिनियमों को लागू करने के लिए सशक्त बनाता है, जैसे  प्रविष्टि 14: ‘कृषि’, प्रविष्टि 26: ‘राज्य के भीतर व्यापार और वाणिज्य’ और  प्रविष्टि 28: ‘बाज़ार और पैंठ इत्यादि’.

      हालांकि, यह धारणा बनी हुई है कि अगर केंद्र को राष्ट्रीय एकीकृत बाज़ार बनाना है तो इस संबंध में एक निर्णायक भूमिका निभानी है, तो संविधान में संशोधन करना होगा. संविधान के सातवें शेड्यूल यानी समवर्ती सूची में प्रावधान /प्रविष्टियां हैं, जिनका उपयोग संघ द्वारा किया जा सकता है, एक राष्ट्रीय एकीकृत बाज़ार बनाने के लिए, कुछ निर्दिष्ट कृषि वस्तुओं के लिए, यानी प्रविष्टि 33 के तहत खाद्य और खाद्य पदार्थों की आपूर्ति, आपूर्ति और वितरण, जिसमें खाद्य तिलहन, तेल, कच्चा कपास, कच्चा जूट आदि शामिल हैं. संघ सूची में प्रविष्टि 42, ‘अंतर्राज्यीय व्यापार और वाणिज्य’ के संबंध में संघ की भूमिका की अनुमति देती है. यानी संसद में निर्दिष्ट कृषि वस्तुओं के व्यापार को विनियमित करने के लिए एक कानून पारित होने के बाद, राष्ट्रीय एकीकृत बाज़ार बनाने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा, क्योंकि यह राज्यों द्वारा अपनाए गए एपीएमसी कानून के ऊपर सम्मत कानून होगा. लेकिन इस दृष्टिकोण को केंद्र की ओर से अपनी अधिकार दिखाए जाने के रूप में लिया जाना चाहिए, जो परस्पर सहयोग पर आधारित, सहकारी संघवाद (cooperative federalism) की नई भावना के विपरीत होगा.

      सर्वे यहां पढ़ें.

      फ़रवरी 2015: आर्थिक सर्वेक्षण 2014-15 खंड II, अध्याय 5: मूल्य, कृषि और खाद्य प्रबंध

      कुछ अंश:  

      बॉक्स 5.3: कृषि विपणन (मार्केटिंग) में हाल ही में की गई कुछ पहल 

      (i) कृषि विभाग (Department of Agriculture-DAC) ने राज्यों को एक व्यापक एडवाइज़री जारी की है कि वे मॉडल एक्ट के प्रावधानों से इतर जाकर पूरे राज्य में एक लाइसेंस की प्रणाली लागू कर, एकल बाज़ार घोषित करें यानी अलग अलग बाज़ारों के बजाय एक ही बाज़ार और मूल्य प्रणाली लागू हो साथ ही राज्य के भीतर कृषि वस्तुओं की आवाहाजी पर लगे सभी प्रतिबंधों को हटाया जाए.

      (ii) ई-प्लेटफॉर्म के माध्यम से कृषि वस्तुओं के लिए राष्ट्रीय एकीकृत बाज़ार के विकास को बढ़ावा देने के लिए, विभाग ने एग्री-टेक इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड (AgriTech Infrastructure Funds-एटीआईएफ) के माध्यम से एक केंद्रीय-क्षेत्र की योजना को लागू करने के लिए के लिए 200 करोड़ रुपये की मंजूरी दी है, जो राष्ट्रीय कृषि बाज़ार को बढ़ावा देने का काम करेगी. साल 2014-15 से 2016-17 के दौरान इसे लागू किया जाएगा. इस योजना के तहत सभी राज्यों में कृषि-विपणन  (Agriculture Marketing) के लिए एक साझा ई-प्लेटफॉर्म के कार्यान्वयन के माध्यम से राष्ट्रीय एकीकृत बाज़ार प्रणाली को अपनाने के लिए  एग्री-टेक इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड  का उपयोग करने का प्रस्ताव है.

      (iii) केंद्र सरकार के अनुरोध पर, कई राज्य सरकारों ने फलों और सब्ज़ियों की मार्केटिंग को एपीएमसी अधिनियम के दायरे से बाहर रखा है. राष्ट्रीय राज्य क्षेत्र दिल्ली यानी एनसीटी ने 2 सितंबर 2014 को एक अधिसूचना जारी करके इस दिशा में पहल की है, जिसमें एपीएमसी, एमएनआई, आज़ादपुर, एपीएमसी, केशोपुर, और एपीएमसी शहादरा के पुनर्निर्धारित बाज़ार, यार्ड /उप-यार्ड क्षेत्र के बाहर, फलों और सब्ज़ियों के विनियमन को समाप्त किया गया है. छोटे किसानों के कृषि व्यापार से जुड़े सहायता संघ (Small Farmers Agribusiness Consortium-SFAC) यानी एसएफएसी ने दिल्ली में एक किसान मंडी को विकसित करने के लिए पहल की है, जिससे कि एफपीओ (FPOs) के पास भावी खरीदारों तक पहुंचने और अपनी उपज की सीधी बिक्री सुनिश्चित करने के लिए उन्हें एक मंच प्रदान किया जा सके. यह मंच प्रक्रिया जनित हस्तक्षेप को पूरी तरह के खत्म करने या इस प्रक्रिया में  मध्यस्थता को लेकर पैदा हुई अनावश्यक परतों को कम करने के लिए है. दिल्ली किसान मंडी के अनुभवों और इससे मिलने वाली सीख के आधार पर वह अन्य राज्यों में अपनी गतिविधियों को बढ़ाने की योजना बना रहे हैं.

      सर्वे यहां पढ़ें 

      अगस्त 2017: आर्थिक सर्वे 2016-17, खंड 2, अध्याय 7: कृषि और खाद्य प्रबंधन

      * 23: भारतीय किसान कई तरह की अनिश्चितताओं का सामना करते हैं. एक साल के दौरान अपनी फसल के मौसम में उपज के लिए और सालभर, आपूर्ति और मांग में उतार-चढ़ाव के चलते, व्यापारियों द्वारा सट्टे और जमाख़ोरी के लिए. एपीएमसी बाज़ार की कमियों और इसके नाकाफ़ी होने के चलते जो मूल्य जोखिम सामने आते हैं वह भारतीय किसानों के लिए बेहद गंभीर होते हैं क्योंकि उनके पास उपज जल्द खराब होने (perishable food products), खाद्यान्न रखने में असमर्थता, अधिक उपज के भंडारण या उपज में कमी जैसे कारकों के चलते नुकसान के ख़िलाफ़ खुद को सुरक्षित रखने के अधिक उपाय नहीं हैं. इसके अलावा बीमा से संबंधित सुविधाओं की दृष्टि से भी किसानों के पास सुरक्षित कवच नहीं है.

      * 37: कृषि व्यापार में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों ही स्तरों पर बाज़ार से संबंधित जो जोख़िम उत्पन्न होते हैं, वह मुख़्य रूप से कृषि व्यापार की नीतियों और बाज़ार की नीतियों में सरकार के माध्यम से समय-समय पर किए जाने वाले फेरबदल के कारण ही होते हैं. राज्य सरकारों के कृषि उपज मंडी समितियां  (एपीएमसी) अधिनियम के तहत आने वाले कृषि बाज़ार जिनमें 2,477 ऐसे बाज़ार शामिल हैं, जो भूगोल के आधार पर मुख्य रूप से विनियमित हैं और 4,843 सब-मार्केट यार्ड भी शामिल हैं जो एपीएमसी के माध्यम से विनियमित किए जाते हैं. मार्केट कमेटी और मार्केट बोर्ड में मौजूद पदों पर नियुक्त होने वाले व्यक्ति, जो मार्केट कमेटी की देखरेख करते हैं, राजनैतिक रूप से प्रभावशाली लोगों के रूप में काम करते हैं. इन पदों पर कब्ज़ा करने वाले लोग जो लाइसेंस प्राप्त एजेंटों के साथ नज़दीकी संबंध रखते हैं, और जिनके पास एकाधिकार का ताक़त रहती है, वह कई बार अलग अलग गुट बनाकर इन बाज़ारों में अपनी ताक़त और एकाधिकार का इस्तेमाल करते हैं. इन सब कारकों के चलते किसान, एपीएमसी बाज़ारों के कामकाज में नुकसान की स्थिति में रहते हैं.

      38: हर तरह की कृषि वस्तुओं से संबंधित आंतरिक व्यापार पर सभी प्रतिबंधों को हटाने और कृषि को नियंत्रित करने वाले खंडित विधानों को हटाए जाने की  ज़रूरत है. वर्तमान समय में, कृषि बाज़ारों को विनियमित करने के लिए चार विधान हैं जो या तो लागू किए जा चुके हैं या उन्हें तैयार किया जा रहा है.

      मॉडल एपीएमसी एक्ट, 2016 जो वर्तमान के राज्य विधानों के स्थान पर लागू किया जाएगा.

      कृषि उपज ट्रेडिंग (विकास और विनियमन)  Act, 2017,

      अनुबंध कृषि यानी कॉट्रेक्ट फार्मिंग को विनियमित करने वाला क़ानून

      एक नियम अथवा क़ानून जो इलेक्ट्रॉनिक राष्ट्रीय कृषि बाजार (eNAM) को विनियमित करेगा. ई-नैम एक अखिल भारतीय इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग पोर्टल है, जो राष्ट्रीय एकीकृत बाजार बनाने के लिए मौजूदा एपीएमसी मंडियों को नेटवर्क प्रदान करता है.

      * 39: राज्य और केंद्र के कई विधान यह सुनिश्चित करते हैं कि कृषि बाजार खंडित रहें और किसानों को मिलने वाला लाभ कम रहे. उपरोक्त विधानों को ई-नैम (e-NAM) की परिकल्पना के ज़रिए राष्ट्रीय एकीकृत कृषि बाज़ार की ओर ले जाने की आवश्यकता है.

      * 40: जल्द ख़राब होने वाली कृषि वस्तुओं को वर्तमान एपीएमसी, अधिनियम / प्रस्तावित मॉडल एपीएमसी अधिनियम 2016 के दायरे से बाहर रखा जाना ज़रूरी है. जैसा कि 2017-2018 के बजट भाषण में अनुच्छेद 29 में वित्त मंत्री ने कहा था कि, “बाज़ारों में सुधार किए जाएंगे और राज्यों से यह अनुरोध किया जाएगा कि वह जल्द ख़राब होने वाली कृषि वस्तुओं (perishables) को एपीएमसी से बाहर करें.” इससे सरकार के माध्यम से निर्मित इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग पोर्टल यानी ई-नैम के माध्यम से फलों व सब्ज़ियों को बेचने का अवसर मिलेगा और इसी के ज़रिए किसानों को पारदर्शी रूप से पारिश्रमिक मूल्य प्राप्त होगा.

      आवश्यक वस्तु अधिनियम (ECA), 1955 के अंतर्गत स्कॉट सीमा (stock limit) 

      * 41: आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के तहत लगाई गई स्टॉक सीमाएं कृषि उपज की मांग को कम करती हैं और साथ ही कीमतों को भी कम करती हैं. चुनिंदा राज्यों में स्टॉक सीमाओं के विश्लेषण से संकेत मिलता है कि एक थोक व्यापारी को खुदरा व्यापारी की तुलना में, शहरी क्षेत्रों में 16 से 50 गुना के बीच और अन्य इलाकों में 10 से 80 गुना के बीच स्टॉक सीमा की अनुमति है, जो पूरे साल एक समान रहती है. इस बड़े अंतर को तार्किक और युक्तिसंगत बनाए जाने की आवश्यकता है और यह काम अधिकतम सीमा की अनुमति, बुआई की अवधि की शुरूआत से कृषि वस्तुओं की ख़रीद किए जाने तक देकर किया जा सकता है, और धीरे-धीरे इस सीमा को आधा कर दिया जाएगा. बढ़ी हुई सीलिंग में किसान बढ़ती मांग के कारण लाभान्वित होंगे और कम सीलिंग में उपभोक्ताओं को ऑफलोडिंग के चलते फ़ायदा मिलेगा. इसके विपरीत, स्टॉक सीमा बढ़ाए जाने का अनुरोध तब किया जाता है ख़रीद प्रक्रिया शुरू हो चुकी है या पूरी हो गई है. हालांकि, आदर्श स्थिति में आवश्यक वस्तु अधिनियम के साथ स्टॉक होल्डिंग की सीमााओं को खत्म किया जाना चाहिए, जैसा कि ‘लाइसेंसिंग आवश्यकताओं को हटाने, स्टॉक सीमा को हटाने, कुछ खाद्य वस्तुओं की अंतरराज्यीय आवाजाही पर लगी रोक को हटाने से संबंधित 2016 में जारी किए गए नियमों में परिकल्पित है. इन नियमों के तहत स्टॉक सीमाओं और परिवहन पर नियंत्रण से संबंधित सभी तरह के परमिट /लाइसेंसिंग आवश्यकताओं, को हटाया जाना था.

      अध्याय यहां पढ़ें 

      3 जनवरी 2019:  कृषि मामलों पर स्थाई समिति (2018-2019), कृषि व किसान कल्याण मंत्रालय (डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकलचर, कोऑपरेशन एंड फार्मर वेल्फेयर) कृषि संबंधित मार्केटिंग और ग्रामीण हाट की भूमिका

      हुकुमदेव नारायण यादव की अध्यक्षता में, इस स्थाई समिति ने साप्ताहिक ग्रामीण हाटों के मुद्दे की जांच की और निम्नलिखित टिप्पणियों और सिफारिशों को सामने रखा:

      * आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत किसानों के बीच निवेश और बेहतर सेवाओं के वितरण को प्रोत्साहित करने के लिए, सही और भरोसेमंद सेवा प्रदाताओं और काला बाज़ारी में लिप्त ब्लैक मार्केटर्स / होर्डर्स (marketeers/hoarders) के बीच अंतर करने की आवश्यकता है. यह अनुशंसा (recommended) की जाती है कि अनुबंध कृषि प्रायोजकों  (Contract Farming Sponsors) और प्रत्यक्ष मार्केटिंग लाइसेंस धारकों (Direct Marketing licensees) को व्यापार के हित में और दीर्घकालिक निवेश की सुविधा के तौर पर उनकी आवश्यकता के छह महीने की समय सीमा में, स्टॉक सीमा ( stock limit) से छूट दी जाए.

      * राज्यों को मॉडल एक्ट की तर्ज पर अपने एपीएमसी अधिनियम में संशोधन करना चाहिए और इन संशोधनों को करने वाले राज्य नियमों को सूचित करना होगा जिसके बाद वह आगा की प्रक्रिया को पूरा कर सकें.

      * निजी बाज़ारों को मौजूदा एपीएमसी की तर्ज पर समान रूप से लिया जाना चाहिए.

      * स्थाई समिति ने यह महसूस किया कि कृषि उत्पादों के लिए मार्केटिंग प्लेटफॉर्म की कमी, कुप्रबंधन और एपीएमसी बाज़ारों में भ्रष्टाचार ने एक ऐसी स्थिति पैदा की है जहां किसान अपने कृषि उत्पादों को मिलने वाले कम दाम के चलते, अपनी मेहनत से उगाए गए उत्पादों का बेहतर दाम पाने से वंचित हैं.

      समिति ने यह इच्छा जताई कि सरकार डीएमआई (मार्केटिंग इंस्पेक्शन डायरेक्टोरेट) को पर्याप्त धनराशि और कार्यबल प्रदान करे जिससे कि वह सर्वेक्षण को कम से कम समय में पूरा कर सके. इसके अलावा, समिति चाहती है कि सरकार, ग्रामीण हाटों को एपीएमसी एक्ट के दायरे से बाहर रखने के लिए राज्य सरकारों से बातचीत करे.

      * समिति का मानना है कि अगर हम किसानों को न्याय प्रदान करना चाहते हैं तो देश में एपीएमसी अधिनियम में आमूल-चूल सुधार की तत्काल आवश्यकता है. किसानों के लिए पारिश्रमिक-आधारित व लाभकारी मूल्यांकन सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है, जब तक कि कृषि उपज के लिए ज़रूरी मार्केटिंग प्लेटफ़ॉर्म की संख़्या को नहीं बढ़ाया जाता है और एपीएमसी बाजारों के कामकाज को लोकतांत्रिक और पारदर्शी नहीं बनाया जाता है. समिति एपीएमसी बाज़ारों में सरकार के माध्यम से किए गए सुधारों से संबंधित प्रयासों की सराहना करती है. हालाँकि, समिति एपीएमसी बाज़ार में सुधारों के प्रति राज्य सरकारों की ढीली प्रतिक्रिया को देखकर हैरान है. समिति का मानना है कि एपीएमसी अधिनियम में सुधारों की प्रक्रिया में सभी हितधारकों और राज्य सरकारों को शामिल करने की आवश्यकता है. इसलिए, समिति ने देश में कृषि उत्पादों की मार्केंटिंग के लिए सरकार को सभी कृषि मंत्रियों के साथ मिलकर एक समिति बनाने का सुझाव दिया जिससे कि सर्वसम्मति के ज़रिए एक कानूनी ढांचा बनाया जा सके और एक आम निर्णय तक पहुंचने में सभी राज्यों के कृषि मंत्रियों की इस समिति की अहम भूमिका हो. समिति ने यह भी सिफारिश की कि कृषि उपज के लेन-देन पर लगाए गए प्रवेश शुल्क और अन्य शुल्क से संबंधित प्रावधानों को दूर किया जाना चाहिए, जिससे कि एपीएमसी बाज़ारों में व्याप्त भ्रष्टाचार और गलत तौर तरीकों को खत्म करने में मदद मिले. समिति ने कहा कि वह चाहेगी कि केंद्र सरकार राज्य सरकार के साथ चर्चा आयोजित करे ताकि एपीएमसी बाज़ारों में प्रवेश शुल्क और अन्य उपकर समाप्त किए जाने को लेकर बातचीत की जा सके और आम सहमति का रास्ता बनाया जा सके.

      * विभिन्न कारक जैसे निकटतम एपीएमसी बाज़ार से दूरी, बिचौलियों का एपीएमसी बाज़ारों पर प्रभुत्व, परिवहन सुविधाओं की कमी आदि प्रमुख कारक हैं, जो अधिकतर स्थानीय और सीमांत किसानों को उस मूल्य पर दुकानों और बिचौलियों की मदद से अपनी अतिरिक्त कृषि उपज (surplus agriculture produce) का निपटान करने के लिए मजबूर करता है, जो सरकार के माध्यम से घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से काफ़ी कम होता है.

      * समिति ने कहा कि कृषि उपज बाज़ार अधिनियम (एपीएमसी एक्ट), जो विभिन्न राज्य सरकारों में आपूर्ति और मांग को लेकर निष्पक्ष व्यवहार सुनिश्चित करने के उद्देश्य से लागू किए गए थे, जिससे कृषि उपज के लिए प्रभावी मूल्यों की खोज हुई, बाज़ारों के कामकाज को विनियमित किया जा सका और लेनदेन में पारदर्शिता आई, अब राजनीति, व्यापारियों और बिचौलियों के भ्रष्टाचार व उनके एकाधिकार का ज़रिया बन गया है.

      * समिति का मानना है कि देशभर के एपीएमसी बाज़ार विभिन्न किसानों की वजह से किसानों के हित में काम नहीं कर रहे हैं, जैसे कि एपीएमसी बाज़ारों में व्यापारियों की सीमित संख्या है, जिससे व्यापारियों की कमी, व्यापारियों के गुट बनने की समस्या, बाज़ार के नाम पर अनुचित कटौती, कमीशन शुल्क इत्यादि. समिति को यह भी बताया कि एपीएमसी अधिनियमों के प्रावधानों को उनके सही अर्थों में लागू नहीं किया गया है. व्यापारियों पर कानूनी रूप से बाज़ार शुल्क और कमीशन शुल्क लगाया जाना चाहिए, हालांकि, यह किसानों से वसूला जाता है, उनकी विशुद्ध आय से पैसे काटकर.

      रिपोर्ट यहां पढ़ें

      24 सितम्बर 2020: संसद द्वारा बनाए गए तीन क़ानून जो किसानों को अपनी उपज को बेचने, दाम संबंधी नियंत्रण हटाने और उद्योगों के साथ मोलभाव करने के दौरान सुरक्षा प्रदान करते हैं 

      क़ानूनों को यहां पढ़ें

      किसान उपज व्‍यापार एवं वाणिज्‍य (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम, 2020 (The Farmers’ Produce Trade and Commerce (Promotion and Facilitation))
      आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 (The Essential Commodities (Amendment) Act)

      मूल्य आश्वासन पर किसान (संरक्षण एवं सशक्तिकरण) समझौता और कृषि सेवा अध्यादेश (The Farmers (Empowerment and Protection) Agreement of Price Assurance and Farm Services Act)

      7 दिसंबर 2020: किसानों के विरोध प्रदर्शनों से संबंधित राजनीति में किसानों के हित की बात खो गई है.

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