Published on Oct 27, 2020 Updated 0 Hours ago

इस बात की वास्तविक संभावना है कि पड़ोस के हिंद महासागर में अभी या बाद में रक्षा समझौतों की भरमार होगी और कई देशों की नौसेना के रास्ते आपस में टकराएंगे.

' संयुक्त राज्य अमेरिका-मालदीव रक्षा समझौते के बाद, भारत की प्राथमिकता हिंद महासागर क्षेत्र की सुरक्षा'

हाल के मालदीव-अमेरिका रक्षा समझौते के बाद, हालांकि, दोनों भारत के दोस्त हैं, भारत को पास के हिंद महासागर की सामरिक जगह में भीड़भाड़ की संभावना के मध्यमकालीन और दीर्घकालीन असर के बारे में विचार करना होगा. हालांकि, तुरंत के नज़रिए से देखें तो अमेरिकी समझौते को लेकर जेल में बंद पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के विपक्षी PPM-PNC गठजोड़ की चुप्पी ने उसके भारत विरोधी होने का पर्दाफ़ाश कर दिया है. या फिर वो अपनी सत्ता के समय के ‘चीन कार्ड’ को अभी भी खेल रहे हैं?

अमेरिकी विदेश विभाग-मालदीव के रक्षा मंत्रालय के लिए रूपरेखा शीर्षक वाला रक्षा और सुरक्षा संबंध “शांति और सुरक्षा बरकरार रखने के समर्थन में भागीदारी और सहयोग बढ़ाने के लिए दोनों देशों के इरादे को दिखाता है और रक्षा साझेदारी की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम है.” अमेरिका के रक्षा विभाग के बयान के मुताबिक़ मालदीव की रक्षा मंत्री मारिया दीदी ने निजी दौरे में 10 सितंबर को फिलाडेल्फ़िया में अमेरिकी रक्षा विभाग में दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी एशिया के लिए उप सहायक मंत्री रीड वेर्नर के साथ समझौते पर दस्तख़त किए.

अमेरिका के रक्षा विभाग के बयान के मुताबिक़ मालदीव की रक्षा मंत्री मारिया दीदी ने निजी दौरे में 10 सितंबर को फिलाडेल्फ़िया में अमेरिकी रक्षा विभाग में दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी एशिया के लिए उप सहायक मंत्री रीड वेर्नर के साथ समझौते पर दस्तख़त किए. 

कुछ दिनों के बाद विज्ञप्ति में कहा गया कि वेर्नर और दीदी “पहली रक्षा और सुरक्षा बातचीत की तारीख़ तय करने के लिए काम करने पर भी राज़ी हुए. दोनों पक्षों ने मुक्त और खुले हिंद-प्रशांत, जो इलाक़े के सभी देशों की सुरक्षा और समृद्धि को बढ़ावा दे, के लिए अपनी वचनबद्धता भी दोहराई.” बिना किसी विस्तार के बयान में ये भी जोड़ा गया कि “रूपरेखा कई द्विपक्षीय गतिविधियों का खाका खींचती है जिनमें समुद्री जागरुकता, प्राकृतिक आपदा और मानवीय राहत अभियान के क्षेत्र में वरिष्ठ स्तर की बातचीत, चर्चा, हिस्सेदारी और अवसर शामिल हैं.”

अमेरिकी बयान में मालदीव की रक्षा मंत्री दीदी के हवाले से कहा गया कि “रक्षा और सुरक्षा संबंध अमेरिका-मालदीव की साझेदारी को और आगे बढ़ाएगी. ये साझेदारी बढ़ते ख़तरों जैसे समुद्री डकैती और आतंकवाद के बीच हिंद-प्रशांत और हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) में शांति और सुरक्षा के साझा सिद्धांतों और हितों पर आधारित है.” उन्होंने ट्वीट किया कि समझौता “अमेरिका और मालदीव के बीच रक्षा और सुरक्षा सहयोग में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है.”

नामंज़ूर SOFA

इस समझौते से काफ़ी पहले अमेरिका ने 2012-13 में मालदीव के तत्कालीन राष्ट्रपति मोहम्मद वहीद हसन मानिक के सामने ‘स्टेटस ऑफ फोर्सेज़ एग्रीमेंट’ (SOFA) के मसौदे की पेशकश की थी. वहीद निर्वाचित राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद की जगह आए थे जिन्हें विपक्ष के साझा विरोध के आगे इस्तीफ़ा देना पड़ा था. नशीद फिलहाल संसद के स्पीकर हैं.

कम चर्चित ACSA (एक्विज़िशन एंड क्रॉस सर्विसेज़ एग्रीमेंट), जिसे नशीद ने सत्ता में रहते हुए (2008-12) मंज़ूरी दी थी, की तर्ज पर SOFA के लीक मसौदे से संकेत मिला कि इससे अमेरिकी सेना को व्यक्तिगत हथियार रखने की छूट मिल जाएगी और मालदीव में अमेरिकी सेना स्थानीय क़ानूनों और अदालतों के दायरे में नहीं आएगी. ‘राष्ट्रवादी’ दबाव में मालदीव ने SOFA को नामंज़ूर कर दिया. संयोग है कि रक्षा समझौते/SOFA के लिए मालदीव के पड़ोसी श्रीलंका के सामने अमेरिका की पेशकश पर अभी तक वहां की सरकार ने कोई फ़ैसला नहीं लिया है.

ये भी संयोग है कि 2013 की SOFA योजना की वजह से भारत-अमेरिकी संबंधों में कड़वाहट का ख़तरा पैदा हो गया था. इसकी वजह अमेरिका के सहायक विदेश मंत्री रॉबर्ट ओ ब्लेक का वो बयान था जिसमें उन्होंने दावा किया था कि इस मामले में भारत के साथ अमेरिका ‘पारदर्शी’ है और वो उसकी ‘सलाह’ ले रहा है. बाद में ये पता चला कि ‘सलाह’ उचित स्तर पर नहीं ली गई थी. चूंकि समझौता नहीं हो पाया इसलिए ना कुछ कहा गया, ना सुना गया.

ख़ुद को सही मानने वाला विरोध

अमेरिका के साथ रक्षा समझौते को लेकर अब यामीन खेमे की ख़ामोशी की वजह से मालदीव में सवाल उठने लगे हैं और राजनयिक समुदाय में जिज्ञासा है. लग रहा था कि समझौते को लेकर हंगामा होगा. इसकी वजह ये थी कि नशीद-वहीद की सरकार के दौरान भारत की कंपनी GMR ग्रुप को लेकर यामीन खेमे ने ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर ज़ोरदार प्रदर्शन हुए थे जिसकी वजह से GMR ग्रुप को मालदीव से बाहर जाना पड़ा. हाल के दिनों में यामीन खेमे ने ‘भारत बाहर जाओ’ अभियान शुरू किया. इसमें तिरंगे के साथ भारतीय सैनिकों की तस्वीर लगाकर भारतीय सेना के हेलीकॉप्टर और तकनीकी टीम को मालदीव छोड़ने के लिए कहा गया.

यामीन के राष्ट्रपति होने से समय से ये खेमा मांग करता रहा है कि भारत ने जो दो हेलीकॉप्टर तोहफ़े में दिए थे वो उसे वापस ले और अपनी नौसेना/कोस्ट गार्ड के जवानों को वापस बुलाए. इस पृष्ठभूमि में और 2013 के SOFA अनुभवों को देखते हुए उम्मीद लगाई जा रही थी कि यामीन खेमा अमेरिका के साथ समझौते का विरोध करेगा क्योंकि समझौते की वजह से किसी दिन मालदीव की मिट्टी पर अमेरिकी सैनिक नज़र आएंगे.

लेकिन विरोध नहीं होने की वजह से सवाल उठ रहे हैं कि क्या यामीन खेमे का विरोध उनके शासन के दौरान चीन के पैसे पर चल रही परियोजना की तुलना में पड़ोसी भारत की दीर्घकालीन प्रतिबद्धता और समुद्र से घिरे देश के चौतरफा विकास को लेकर लगातार योगदान के ख़िलाफ़ था. जितना पता चला है उसके मुताबिक़ भारतीय सहायता कार्यक्रम मौजूदा राष्ट्रपति इब्राहिम ‘इबू’ सोलिह की सरकार के तहत जितना सामाजिक ढांचे के निर्माण पर ध्यान दे रही है उतना ही देश के सबसे बड़े बुनियादी  ढांचे की परियोजना 400 मिलियन डॉलर के 6.7 किमी लंबे माले-थिल्लाफुशी समुद्री पुल पर भी.

यामीन खेमे के ‘भारत बाहर जाओ’ अभियान की तरफ़ इशारा करते हुए मालदीव के विदेश मंत्री अब्दुल्ला शाहिद ने हाल में कहा कि यामीन को भारत की मदद से चलने वाली अनगिनत परियोजनाओं से ख़तरा महसूस होता है. शाहिद ने एक बार फिर दोहराया कि “आधुनिक समय के हिसाब से कहें तो वो इस तथ्य को ‘पचा’ नहीं पा रहे हैं.  हम चुपचाप बैठे नहीं रहेंगे (और उनके शब्दों को हमें प्रभावित नहीं करने देंगे)…मालदीव और भारत के बीच रिश्ते ख़ास हैं.”

यामीन सरकार ने चुनाव हारने से कुछ महीने पहले जुलाई 2018 में ‘रक्षा के लिए भारत-मालदीव एक्शन प्लान’ पर दस्तख़त किए थे. इस समझौते में द्विपक्षीय सहयोग जिनमें बंदरगाहों का विकास, लगातार ट्रेनिंग, क्षमता निर्माण, उपकरण सप्लाई और मालदीव की समुद्री निगरानी के लिए रक्षा सचिव स्तर की संस्थागत प्रक्रिया शामिल थी. 

इंडिया पैक्ट, 2018

यामीन सरकार ने चुनाव हारने से कुछ महीने पहले जुलाई 2018 में ‘रक्षा के लिए भारत-मालदीव एक्शन प्लान’ पर दस्तख़त किए थे. इस समझौते में द्विपक्षीय सहयोग जिनमें बंदरगाहों का विकास, लगातार ट्रेनिंग, क्षमता निर्माण, उपकरण सप्लाई और मालदीव की समुद्री निगरानी के लिए रक्षा सचिव स्तर की संस्थागत प्रक्रिया शामिल थी. उस वक़्त प्रधानमंत्री मोदी ने दोहराया कि “भारत इस क्षेत्र में सुरक्षा मुहैया कराने को लेकर अपनी भूमिका को समझता है.” इस संदर्भ में मालदीव-अमेरिका समझौते को लेकर भारत का दृष्टिकोण प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा व्यक्त राय से लेना होगा. ये अलग बात है कि प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह की बात को दोहराया था जो बताता है कि इस मामले में भारत में राष्ट्रीय सर्वसम्मति है.

2018 का इंडिया पैक्ट यामीन की लोकतंत्र-विरोधी पहल को लेकर भारत की तरफ़ से सार्वजनिक तौर पर आलोचना के कुछ महीनों के बाद हुआ था. उस वक़्त विदेश मंत्रालय ने कई बयानों के ज़रिए यामीन की आलोचना की थी. 1 फरवरी को मालदीव के सुप्रीम कोर्ट के द्वारा सभी ‘राजनीतिक क़ैदियों’  को रिहा करने के आदेश के बाद राष्ट्रपति यामीन के आपातकाल लगाने के फ़ैसले पर  भारत ने सवाल उठाए थे. इन ‘क़ैदियों’ में नशीद भी शामिल थे जो ख़ुद देश से बाहर चले गए थे. उसी वक़्त भारत से यामीन की उस मांग ने ज़ोर पकड़ा था कि वो तोहफ़े में दिए गए दो हेलीकॉप्टर वापस ले. दो साल के बाद MDP के नेतृत्व वाली सोलिह सरकार में भारतीय हेलीकॉप्टर अभी भी मालदीव की धरती पर हैं. वो मानवीय सहायता अभियानों जैसे दूरदराज़ के द्वीपों से गंभीर मरीज़ों को आबादी वाले केंद्रों के अस्पतालों तक पहुंचाने में लगे हैं.

चीन को मात?

इस बीच मीडिया रिपोर्ट के हवाले से दावा किया जा रहा है कि मालदीव पर चीन का काफ़ी दबाव है कि वो अपना एक द्वीप उसे सौंपे. ठीक उसी तरह जैसे पड़ोसी श्रीलंका ने बढ़ते कर्ज़ के बोझ तले दबकर हंबनटोटा बंदरगाह चीन को सौंपा. छिपे हुए कर्ज़ के जाल की वजह से चीन की परियोजना के मुखर विरोधी स्पीकर नशीद ने अपने पुराने रुख़ को दोहराया: “क्या इन परियोजनाओं से इतनी आमदनी होगी कि कर्ज़ चुकता हो पाएगा? इनमें से कोई भी परियोजना व्यावसायिक तौर पर इतनी सक्षम नहीं है कि कर्ज़ चुकाने के लायक हो.”

मालदीव में चीन के राजदूत झांग लिझोंग ने नशीद के आरोपों को खारिज कर दिया. BBC ने अपनी रिपोर्ट में लिझोंग के हवाले से लिखा, “चीन कभी भी मालदीव या किसी दूसरे विकासशील देश पर किसी ऐसी चीज़ को नहीं थोपता है जिसके लिए वो देश तैयार नहीं है या उसकी इच्छा के ख़िलाफ़ है”.  मालदीव की सरकार ने अभी तक इस पर जवाब नहीं दिया है.

हिंद महासागर क्षेत्र में चीन के बढ़ते असर को देखते हुए भारत के रणनीतिकारों का एक हिस्सा मालदीव-अमेरिका रक्षा समझौते के पीछे भारत का छिपा हुआ हाथ देखता है. कुछ रणनीतिकार तो इससे भी आगे बढ़ते हुए इसे दोनों एशियाई शक्ति के बीच मौजूदा सीमा विवाद और झड़प से जोड़ते हैं. सामान्य समझ ये है कि चीन को छोड़कर अमेरिका या किसी और क्षेत्रीय शक्ति की भारत के पड़ोस में मौजूदगी भारत के लिए स्वागत योग्य है. शीत युद्ध के बाद के दशकों में भारत ने कई देशों के साथ हिंद महासागर केंद्रित रक्षा सहयोग समझौते पर दस्तख़त किए हैं. इनमें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान (चार देशों के क्वाड के भीतर और बाहर) के अलावा फ्रांस भी शामिल है. आने वाले महीनों में UK और रूस के साथ भी ऐसा समझौता संभव है. हाल के दिनों में जर्मनी ने ख़ुद को चीन से दूर कर लिया है और हिंद-प्रशांत के संबंध में बात करने लगा है.

सामान्य समझ ये है कि चीन को छोड़कर अमेरिका या किसी और क्षेत्रीय शक्ति की भारत के पड़ोस में मौजूदगी भारत के लिए स्वागत योग्य है. शीत युद्ध के बाद के दशकों में भारत ने कई देशों के साथ हिंद महासागर केंद्रित रक्षा सहयोग समझौते पर दस्तख़त किए हैं.

भारत के चीन दृष्टिकोण से देखें तो इस बात की वास्तविक संभावना है कि पड़ोस के हिंद महासागर में अभी या बाद में रक्षा समझौतों की भरमार होगी और कई देशों की नौसेना के रास्ते आपस में टकराएंगे. भारत के सबसे नज़दीकी समुद्री पड़ोसी श्रीलंका ने हाल में ‘इंडिया फ़र्स्ट’ गुटनिरपेक्ष विदेश नीति को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है.

ग़ैर-क्षेत्रीय देशों से ज़्यादा भारत के सामने हंबनटोटा के समुद्र में चीन क़रीब अगले 100 वर्षों के लिए मौजूद है. हालांकि, चीन की मौजूदगी बिना सेना के है. लेकिन इसके बावजूद भारत को ग़ैर-क्षेत्रीय दोस्तों की स्वतंत्र ‘दोस्ताना घुसपैठ’ को रोकना होगा. ये भारत के लिए ‘परंपरागत प्रभाव के क्षेत्र’ को फिर से हासिल करने के लिये ज़रूरी है. चीन के साथ संबंधों में नरमी के वक़्त भी भारत के ग़ैर-क्षेत्रीय दोस्त अपने ‘सर्वोच्च राष्ट्रीय हित’ के लिए क़दम उठा सकते हैं जो हिंद महासागर के पानी में उथल-पुथल मचा सकते हैं.

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