Author : Aditi Ratho

Published on Oct 27, 2020 Updated 0 Hours ago

अगर कंपनियां घर से काम करने के अपने फ़ॉर्मेट में बदलाव लाती हैं, तो उससे उनके ऊपर पड़ने वाला अतिरिक्त आर्थिक बोझ कम हो जाएगा. और उनके कर्मचारियों को भी शहर के दूर-दराज़ के इलाक़ों से आने जाने और कम किराए वाली जगहों पर जा बसने की मुश्किल से निजात मिल जाएगी.

‘आपकी ज़ुबान बंद है’: कोविड-19, तकनीक, निर्भरता और कामकाजी लोगों का तनाव

ज़रा उस एहसास की कल्पना कीजिए कि जब आपका वेबिनार शुरू होने वाला हो, ठीक उसी समय आपका इंटरनेट काम करना बंद कर दे. या आप ठीक उस वक़्त वेबिनार से आउट हो जाएं, जब इसकी शुरुआत हो और आपका ऐप काम करना बंद कर दे. आप अपनी वर्चुअल मीटिंग के लिए लेट हो जाते हैं, क्योंकि आपको अपना पासवर्ड ही नहीं याद आ रहा है. और वो पासवर्ड कहीं ई-मेल में दबा रखा है. आपने अक्सर वेबिनार या ज़ूम मीटिंग में ये जुमला सुना होगा कि ‘क्या आपको मेरी आवाज़ सुनाई दे रही है’. या फिर आपको म्यूट कर दिया गया है. ऐसे हालात में कई बार ऐसा लगता है कि तकनीक पर बहुत अधिक निर्भरता से आपके बुनियादी जज़्बात ही ख़त्म हो गए हैं. क्या ये तनाव, दबाव और क़यामत आने का एहसास तब और नहीं बढ़ जाता जब आपकी जानी पहचानी तकनीकी ख़ामियां अचानक खड़ी हो जाती हैं. यहां तक कि जब पहली औद्योगिक क्रांति के बाद खेती पर बसर करने वाले समुदायों ने आधुनिक ऑटोमोबाइल को अपनाना शुरू किया था, तब भी टायर की हवा निकलने और इंजन का ईंधन ख़त्म होने के कारण तनाव बढ़ जाता होगा. यही कारण है कि जब भी हम पुरानी पीढ़ी की तकनीक से नई तकनीक की ओर बढ़ते हैं, तो हमारा तनाव और फिक्र बढ़ जाते हैं. इससे ये पता चलता है कि तकनीक की पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी की ओर स्थानांतरण को बेहतर योजना बनाकर किया जाना चाहिए. ना कि तकनीक की प्रगति की राह में रोड़े अटका कर इसके लाभ से वंचित करके. कोविड-19 के संकट के कारण शुरू हुए घर से काम करने के चलन को लागू करने से पहले इस बात का पर्याप्त समय था कि नई तकनीक की ख़ामियों को दुरुस्त कर लिया जाता. तकनीक पर इस बढ़ी हुई निर्भरता का नतीजा ये हुआ है कि काम निपटाने पर लोगों का नियंत्रण नहीं रह गया. इससे कर्मचारियों के तनाव का स्तर काफ़ी बढ़ गया है. जबकि होना ये चाहिए था कि घर से काम करने का सीधा लाभ उन्हें तनाव कम होने के तौर पर मिलना चाहिए था. इसकी वजह शायद यही रही कि नई परिस्थियों के लिए तैयारी करने और तालमेल बिठाए बग़ैर ही हमने नई तकनीक के साथ काम करने की दिशा में छलांग लगा दी.

कोविड-19 के संकट के कारण शुरू हुए घर से काम करने के चलन को लागू करने से पहले इस बात का पर्याप्त समय था कि नई तकनीक की ख़ामियों को दुरुस्त कर लिया जाता. तकनीक पर इस बढ़ी हुई निर्भरता का नतीजा ये हुआ है कि काम निपटाने पर लोगों का नियंत्रण नहीं रह गया. इससे कर्मचारियों के तनाव का स्तर काफ़ी बढ़ गया है.

घर से ही काम करने के बढ़ते मौक़े उन लोगों के लिए निश्चित रूप से फ़ायदेमंद हैं, जो व्हाइट कॉलर जॉब करते हैं. शहरों में रहते हैं. जिन्हें आसमान छूते मकान के दाम और लगातार बढ़ते किराए के साथ साथ रोज़ाना आते जाते समय काम करने की दिक़्क़त से जूझना पड़ता है. अगर, कंपनियां घर से काम करने के अपने फ़ॉर्मेट में बदलाव लाती हैं, तो उससे उनके ऊपर पड़ने वाला अतिरिक्त आर्थिक बोझ कम हो जाएगा. और उनके कर्मचारियों को भी शहर के दूर-दराज़ के इलाक़ों से आने जाने और कम किराए वाली जगहों पर जा बसने की मुश्किल से निजात मिल जाएगी. दफ़्तर से दूर बैठ कर काम करने का युग आने से संसाधनों की ज़रूरत तो कम हो गई है. लेकिन, इसके कारण हमारी तकनीक पर निर्भरता बढ़ी है. इससे कितना दिमाग़ी तनाव बढ़ गया है, इसका पता लगाने की ज़रूरत है. कोरोना वायरस की महामारी आने से पहले से ही डिजिटल युग में तनाव और फ़िक्र को लेकर अध्ययन हो रहा था. स्मार्टफ़ोन और इंटरनेट के बढ़ते इस्तेमाल से इसके संबंधों की पड़ताल की जा रही थी. डिजिटल युग में लोगों के ज्ञान संबंधी हुनर जैसे कि किसी बात पर ध्यान देना, याददाश्त का कमज़ोर होना और सीखने पर पड़ रहे बुरे प्रभाव का भी अध्ययन हो रहा था. कंप्यूटर, लैपटॉप और स्मार्टफ़ोन की नीली स्क्रीन से लोगों के शरीर में मेलाटोनिन नाम के केमिकल का स्राव कम हो जाता है. इससे हमारे शरीर की अंदरूनी घड़ी पर बुरा असर पड़ता है. काम के घंटों और ख़ुद के लिए जो समय होता है, उसके बीच का फ़र्क़ मिट जाता है. किसी भी सामाजिक या पेशेवर कार्यक्रम के छूट जाने का डर हमें लगातार डिजिटल रिमाइंडर लगाने को मजबूर कर देता है. इसके अलावा डिजिटल माध्यम से हमारे जीवन में ऐसी तुलनाओं की घुसपैठ हो गई है, जिनका पहले कोई सामाजिक स्थान नहीं था. मगर अब वो अहम हो गई हैं. क्योंकि आपको सोशल मीडिया पर लगातार सक्रिय रहना है.

चूंकि अब दफ़्तर और घर के बीच भौतिक दूरी मिट चुकी है. तो, इसका नतीजा ये हुआ है कि ज़हनी तौर पर भी लोग घर और दफ़्तर के काम से अलग नहीं हो पा रहे हैं. इससे लोगों के बीच ये आदत बढ़ रही है कि वो अपने स्मार्टफ़ोन या लैपटॉप पर लगातार काम के अपडेट लेते रहते हैं. इसका असर ये होता है कि दिन भर लोग ऑफ़िस की मेल देखते हैं. ऑफ़िस के सोशल मीडिया ग्रुप पर एक्टिव रहते हैं. और उन्हें कुछ बातों का जवाब देने का तनाव लगातार सताता रहता है. इस बात की चिंता बनी रहती है कि कहीं किसी ने मेल या मैसेज से कोई बात न पूछी हो. हारवर्ड बिज़नेस स्कूल की एक स्टडी में दुनिया के 16 बड़े शहरों में 31 लाख ई-मेल और मीटिंग का विश्लेषण किया. इस अध्ययन से ये निष्कर्ष निकला कि लोगों के काम के दिन औसतन 8.2 प्रतिशत बढ़ गए हैं. यानी महामारी के शुरुआती दिनों में लोग हर दिन 48.5 मिनट ज़्यादा दफ़्तर का काम कर रहे थे.

पहले के दौर में लोगों के बीच ये सामाजिक तुलना होती थी कि किसी की सुख सुविधाओं की कितनी लंबी फेहरिस्त है. गाड़ी, बंगला, कार जैसी चीज़ों की तुलना की जाती थी. लेकिन, आज के दौर में इस बात का आकलन किया जाता है कि कौन मुश्किल को बेहतर ढंग से संभाल लेता है. जो लोग ऐसा नहीं कर पाते उन पर ख़ारिज होने और नाक़ाबिल होने की सोच हावी हो जाती है. लोग ये सोचते हैं कि अगर उन्होंने कोई नया हुनर नहीं सीखा, या लॉकडाउन के सात महीनों के दौरान किसी नए आइडिया पर काम नहीं किया, तो वो दूसरों की तुलना में कमतर हैं. इस दौरान तकनीक के असर से लोगों का ध्यान कम लगता है. वो किसी बात पर अच्छे से फ़ोकस नहीं कर पाते हैं. क्योंकि, पहले जहां ऑफ़िस में वो तरह तरह के लोगों से, अलग-अलग विभागों के कर्मचारियों से बात किया करते थे. वहीं अब वो बस तकनीक के ग़ुलाम बन गए हैं. स्मार्टफ़ोन से लैपटॉप, इस स्क्रीन से उस स्क्रीन पर नज़र दौड़ाना ही काम रह गया है. इससे एक इंसान से दूसरे इंसान के बीच का मानवीय संवाद बेहद सीमित हो गया है. आज नेटफ्लिक्स से ई-मेल, फिर ज़ूम मीटिंग और फिर व्हाट्सऐप या फ़ेसबुक इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बढ़ती सक्रियता को हम मल्टीटास्किंग की बेहतरीन मिसाल नहीं कह सकते हैं. बल्कि सच तो ये है कि इससे पता चलता है कि किसी एक चीज़ पर हम बहुत देर तक ध्यान नहीं लगा पाते. किसी और डिजिटल माध्यम से हमारे ध्यान लगाने पर ख़लल पड़ता है. डिजिटल संसाधनों और प्लेटफॉर्म का अधिक से अधिक उपयोग ये भी दर्शाता है कि इस महामारी के दौरान हमारा आत्मविश्वास भी कमज़ोर पड़ा है. हम महामारी के कारण उत्पन्न हुई अनिश्चितता का सामना करने के बजाय अपना ध्यान बंटाने की कोशिश कर रहे हैं. ख़ुद को जागरूक करने के बजाय, इन डिजिटल माध्यमों का उपयोग सीमित करने के बजाय हम इनका उपयोग बढ़ाते चले जा रहे हैं. जिससे हमें डिजिटल एक्टिविटी से होने वाले नुक़सान का सामना करना पड़ रहा है.

हाल के कुछ वर्षों के दौरान नए तकनीकी संसाधनों की बाढ़ सी आ गई है. वैसे तो इनका मक़सद रिमोट वर्किंग के तनाव को दूर करना और काम करने को आसान बनाना है. लेकिन, नई नई तकनीक से तालमेल बिठाना अपने आप में बेहद तनाव भरा काम है. 

अब बहुत से कर्मचारी इस बात की भी शिकायत करते रहते हैं कि वो थका हुआ महसूस करते हैं. उनका काम करने का मन नहीं होता. घर पर दिन भर कंप्यूटर के सामने बैठे रहने के बाद उनका किसी और बात में दिल ही नहीं लगता. वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिए बात करने के दौरान, लोगों को सामने वाले को अपनी बात समझाने के लिए अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है. क्योंकि जब हम रूबरू बात करते हैं, तो अक्सर अपने चेहरे के भाव, आवाज़ के उतार चढ़ाव और शाब्दिक संकेतों व बॉडी लैंग्वेज के ज़रिए सामने वाले को बहुत सी बातें बता देते हैं. लेकिन, वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिए ऐसा संवाद कर पाना संभव नहीं होता. इसके बजाय हमें सामने वाले की बात समझने के लिए ज़्यादा ध्यान लगाना पड़ता है. थकान की ये भी एक वजह है. कई बार वर्चुअल संवाद के बीच जब व्यवधान आ जाता है, तो उस दौरान तनाव और बढ़ जाता है. क्योंकि समझ में नहीं आता कि क्या किया जाए. केवल कंप्यूटर, लैपटॉप या स्मार्टफ़ोन की स्क्रीन के ज़रिए संवाद करने के कारण बिना कहे जो बातें हम सामने वाले को बता देते हैं, संवाद की वो ख़ूबी ख़त्म हो जाती है. जबकि किसी एक आइडिया पर काम करने के लिए इन इशारों और संकेतों की बहुत अहमियत होती है. दूर बैठ कर बात करने से कई बार एक दूसरे को समझने में ग़लतियां हो जाती हैं. हम ग़लत फ़ैसले कर बैठते हैं. दूर बैठ कर एक ही विषय पर काम करना और उससे जुड़ी किसी समस्या का मिल जुलकर समाधान करना मुश्किल हो जाता है.

हाल के कुछ वर्षों के दौरान नए तकनीकी संसाधनों की बाढ़ सी आ गई है. वैसे तो इनका मक़सद रिमोट वर्किंग के तनाव को दूर करना और काम करने को आसान बनाना है. लेकिन, नई नई तकनीक से तालमेल बिठाना अपने आप में बेहद तनाव भरा काम है. नई तकनीक को सीखने के चक्कर में कई नकारात्मक भाव हमारे ज़हन में बैठ जाते हैं. पेशेवर सेवाएं देने वाली ब्रिटेन की कंपनी सिग्मा ने हाल ही में एक अध्ययन में पाया है कि कामकाजी लोग तरह तरह के डिजिटल औज़ारों का इस्तेमाल करने के दौरान बेहद तनाव के दौर से गुज़रते हैं. वो अक्सर कन्फ्यूज़ हो जाते हैं. उनका ध्यान बंट जाता है. इस रिसर्च में पाया गया है कि जो डिजिटल औज़ार बिना पर्याप्त अध्ययन, उपयोगिता, कार्यकुशलता और यूज़र फ्रेंडली होने संबंधी रिसर्च के लॉन्च कर दिए गए हैं, उनसे लोगों की उत्पादकता घटी है. आपसी संवाद पर भी बुरा असर पड़ा है. सिग्मा के इस अध्ययन में पाया गया है कि घर से काम करने वाले 52 प्रतिशत से अधिक लोग दिन भर में चार या इससे ज़्यादा डिजिटल टूल इस्तेमाल करते हैं. वहीं, छह प्रतिशत लोग तो ऐसे हैं जो दिन भर में 9 डिजिटल टूल का प्रयोग करते हैं. इससे पैदा होने वाली असहज स्थिति किसी क्रिया पर हमारे नियंत्रण को कमज़ोर करते हैं. लोगों को अपने प्रभाव में कमी का एहसास होता है. उन्हें लगता है कि तकनीक ही सब कुछ संचालित कर रही है. इससे कामगारों का तनाव बढ़ता है और आत्मविश्वास घट जाता है.

कंपनियों के केवल 17 प्रतिशत लीडर्स ने ये राज़ खोला कि कि उन्होंने अपने कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने और उनकी कुशलता बढ़ाने के लिए काफ़ी कोशिश की है. हालांकि, वो जल्द से जल्द नई तकनीक का प्रयोग करके अपनी उत्पादकता बढ़ाना चाहते थे. 

उद्योग धंधों में ऑटोमेशन या तकनीक का इस्तेमाल बढ़ाकर उत्पादकता बढ़ाने और मानवीय भूलों की आशंका कम करने की प्रक्रिया तो इस महामारी से पहले से ही चली आ रही है. कोविड-19 के चलते सोशल डिस्टेंसिंग का जो दौर आया है, उसमें ये मशीनी कामकाज काफ़ी कारगर साबित हो रहा है. हालांकि, इस कारण से तकनीक को लेकर तनाव बढ़ा है. इस बात की चिंता भी बढ़ी है कि नई नई तकनीक के आने से लोगों की नौकरियां चली जाएंगी. हाल ही में अमेरिका में एक अध्ययन किया गया था. द ब्राइट ऐंड डार्क साइड्स ऑफ़ टेक्नोस्ट्रेस: ए मिक्स्ड मेथड्स स्टडी इन्वॉल्विंग हेल्थकेयर आईटी नाम के इस अध्ययन में 400 नर्सों से नई स्वास्थ्य सेवा संबंधी सूचना प्रौद्योगिकी तकनीक के बारे में उनकी राय जानी गई थी. इन तकनीकों का स्वास्थ्य सेवाओं में प्रयोग कोविड-19 की महामारी के दौरान शुरू किया गया था. इन नई तकनीकों को लेकर नर्सों की प्रतिक्रिया मिली जुली थी. डेटा प्रबंधन, डेटा कलेक्शन और आंकड़ों तक फौरी पहुंच में मिलने वाले तकनीकी सहयोग को वरदान माना गया था. इससे अच्छे रिकॉर्ड तैयार करना और ज़रूरत पड़ने पर उन तक पहुंचना काफ़ी आसान हो गया है. लेकिन, रिसर्च से ये बात भी सामने आई कि नर्सों को ये महसूस होता था कि इस तकनीकी सहयोग से उनके काम में बाधाएं भी आ रही थीं. क्योंकि तकनीकी शब्दों से उनका कोई वास्ता नहीं था. वो इन्हें संचालित करने के लिए प्रशिक्षित नहीं थीं.

अप्रैल 2020 में केपीएमजी (KPMG) की अमेरिकन वर्कर पल्स सर्वे रिपोर्ट में पाा गया कि अमेरिका के 44 प्रतिशत कामकाजी लोग इस बात को लेकर चिंतित थे कि नई नई तकनीक उनकी नौकरियां छीन लेगी. लेकिन, डेलॉय की वर्ष 2019 की ग्लोबल ह्यूमन कैपिटल ट्रेंड्स रिपोर्ट, जिसमें 119 देशों के 10 हज़ार से अधिक नेताओं से बात की गई थी, उसमें ये बात सामने आई थी कि अभी भी बहुत सी कंपनियां नई तकनीकों से घबरा रही थीं और उन्हें अपनाने के लिए तैयार नहीं थीं. उदाहरण के लिए, इस सर्वे में शामिल केवल 26 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उनकी कंपनियां नई तकनीक लागू करने के प्रभावों से निपटने को तैयार हैं. इसके अलावा ज़्यादातर कंपनियों ने अब तक अपनी कंपनियों को उस हुनर की ट्रेनिंग नहीं दी थी, जो इन नई तकनीकों के इस्तेमाल के लिए ज़रूरी थी. और जिन तकनीकों को महामारी के कारण अचानक उनके ऊपर लाद दिया गया था. कंपनियों के केवल 17 प्रतिशत लीडर्स ने ये राज़ खोला कि कि उन्होंने अपने कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने और उनकी कुशलता बढ़ाने के लिए काफ़ी कोशिश की है. हालांकि, वो जल्द से जल्द नई तकनीक का प्रयोग करके अपनी उत्पादकता बढ़ाना चाहते थे. ये रिपोर्ट और अध्ययन बताते हैं कि तकनीक की आमद से नौकरियां जाने का डर और अचानक किसी नई तकनीक का इस्तेमाल करने के लिए तैयार न होना, दोनों ही बातें एक दुधारी तलवार जैसी हैं, जो कर्मचारियों और कंपनियों के सिर पर लटक रही है.

हाल के कुछ वर्षों के दौरान नए तकनीकी संसाधनों की बाढ़ सी आ गई है. वैसे तो इनका मक़सद रिमोट वर्किंग के तनाव को दूर करना और काम करने को आसान बनाना है. लेकिन, नई नई तकनीक से तालमेल बिठाना अपने आप में बेहद तनाव भरा काम है. 

ऐसे लोग हमेशा ही मिल जाएंगे, जो किसी अहम मीटिंग से नदारद रहने या समय पर काम पूरा न कर पाने के लिए ख़राब इंटरनेट सेवा का बहाना बनाएंगे. लेकिन, तमाम संगठन डिजिटल युग में प्रवेश की प्रक्रिया को सहज और आसान बना सकते हैं. उन्हें कोशिश करनी चाहिए कि वो कर्मचारियों के लिए नई तकनीक का प्रयोग करना आसान बनाएं. इससे उत्पादकता बढ़ेगी और लागत कम होगी. कर्मचारियों को इसके लिए पेशेवर सहयोग प्रदान किया जाना चाहिए. पुरानी तकनीक छोड़ कर नई तकनीक अपनाने के बीच में कर्मचारियों की मदद की ठोस व्यवस्था होना चाहिए. ताकि भविष्य के कामकाज के तरीक़े को सुगम बनाया जा सके. इसके लिए ज़रूरत ऐसी तकनीक का आविष्कार करने की होगी, जो उसे इस्तेमाल करने वालों के आराम, ज़रूरतों और प्राथमिकताओं का ख़याल रख सके. कर्मचारियों को ज़रूरी हुनर से लैस कर सके, जिससे वो आसानी से, बिना किसी ख़लल के नए कामकाजी माहौल में ख़ुद को ढाल सकें. उन्हें ऐसे संसाधन उपलब्ध कराए जाने चाहिए, जिनसे कामकाजी लोग काम करने की राह में आने वाली तकनीकी ख़ामियों से आसानी से निपट सकें.

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