Author : Natasha Agarwal

Published on Jun 16, 2021 Updated 0 Hours ago

चाहे ग्रामीण भारत की हो या शहरी क्षेत्रों की, समृद्ध भारतीय हों या ग़रीब, उत्तर भारत हो या दक्षिण हर जगह और हर प्रकार के लोगों में टेस्टिंग के प्रति एक झिझक देखने को मिलती है 

'कोविड-19 की टेस्टिंग को लेकर भारत में झिझक का माहौल: मानसिक पीड़ा और सदमा बना बड़ा कारण'

10 मई 2021 को भारत में कोरोना संक्रमण के नए मामलों का आंकड़ा बाक़ी दुनिया के कुल ताज़ा मामलों से भी आगे निकल गया. इसके बावजूद ये सवाल जस का तस बना हुआ है कि क्या भारत में पर्याप्त संख्या में टेस्टिंग हो रही है?  इस प्रश्न का कोई सीधा उत्तर नहीं हो सकता. इसकी वजह ये है कि ख़ासतौर से ग्रामीण इलाक़ों में एक तरफ़ तो कोरोना जांच से जुड़े बुनियादी ढांचे- जैसे टेस्टिंग किट्स, जांच के लिए ज़रूरी स्वास्थ्य कर्मियों और जांच केंद्रों का अभाव है. वहीं दूसरी ओर नौकरशाही द्वारा खड़े किए गए रुकावट  भी हैं. मसलन, स्वास्थ्य सेवा से जुड़े अधिकारी अक्सर लोगों को कोरोना जांच कराने से हतोत्साहित करते देखे गए हैं

हक़ीक़त ये है कि भारत में आप कहीं भी चले जाएं, किसी भी सामाजिक तबके की बात कर लें, कोरोना टेस्टिंग को लेकर लोगों में हिचकिचाहट देखने को मिलती है.

मान लेते हैं कि कोरोना संक्रमण की जांच से जुड़े ये तमाम रुकावटें अगर हट भी जाती हैं  स्वास्थ्य अधिकारी सक्रियतापूर्वक लोगों को घरों से निकलकर सुविधाजनक स्थानों पर जाकर मुफ़्त में कोरोना जांच कराने के लिए प्रोत्साहित करने लगते हैं. ऐसे में क्या पहले झिझक दिखा रहे लोग टेस्ट कराने वालों की कतार में शामिल होने लगेंगे? इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अगर इस तरह की सहूलियतें दी गईं तो कई लोग कोविड-19 टेस्ट कराने के लिए सामने आएंगे. हालांकि, हक़ीक़त ये है कि भारत में आप कहीं भी चले जाएं, किसी भी सामाजिक तबके की बात कर लें, कोरोना टेस्टिंग को लेकर लोगों में हिचकिचाहट देखने को मिलती है. हर ओर से ऐसे ही किस्से सुनने को मिल रहे हैं. बात चाहे ग्रामीण भारत की हो या शहरी क्षेत्रों की, समृद्ध भारतीय हों या ग़रीब, उत्तर भारत हो या दक्षिण या फिर पूरब या पश्चिम- हर जगह और हर प्रकार के लोगों में टेस्टिंग के प्रति एक झिझक देखने को मिलती है.

कोरोना की जांच कराने में आनाकानी की वजह 

ऐसा लगता है कि कोविड-19 टेस्ट कराने में लोगों की हिचकिचाहट की जड़ में कोरोना से संक्रमित होने से जुड़ा मनोवैज्ञानिक दुविधा है. इस पीड़ादायी मनोदशा के चलते डर, अवसाद, एकाकीपन, क्रोध, उदासी, लज्जा और शर्मिंदगी के नकारात्मक भाव पैदा होते हैं. ऐसे नकारात्मक मनोभाव मौजूदा समय में जारी सदमे के अनुभवों (चाहे व्यक्तिगत हों या सामूहिक, मनोवैज्ञानिक हों या मूर्त रूप में) को प्रकट करते हैं. इन मनोभावों में मनुष्य की एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक प्रसार की क्षमता या संभावना होती है. प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से असीम कष्ट के ये भाव अलग-अलग पीढ़ियों तक फैल सकते हैं. यहां इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि जो मानवीय मनोभाव बाहर निकलकर आ रहे हैं वो सिर्फ़ सदमे से ही जुड़े नहीं हैं, बल्कि इस तरह का कष्ट झेलने से जुड़े मनोभावों का नतीजा भी हैं. इस क्लेश के पीढ़ी दर पीढ़ी होने वाले प्रत्यक्ष प्रसार की कल्पना की जा सकती है. किसी व्यक्तिविशेष के वंशजों का अवचेतन मन इस तरह के कष्टों से जुड़ी सूचनाओं को आत्मसात कर लेता है. आगे चलकर वो अपने जीवन और जीवनयापन के तौर-तरीकों में इन्हें स्वाभाविक तौर पर जोड़ने लगता है. दूसरे शब्दों में वंशज ऐसा बर्ताव करने लगते हैं मानो वो स्वयं उन कष्टकारी परिस्थितियों के दौरान मौजूद थे. दूसरी ओर परोक्ष प्रसार को हम कष्टदायक सूचनाओं के अचेतन सम्मिलन के रूप में देख सकते हैं. इसके चलते जीवनयापन और जीवन जीने के तरीके रूपांतरित अवचेतन मन के रूप में उभरकर सामने आते हैं. इस प्रकार इनसे वंशजों के भी वंशज प्रभावित होते हैं.

इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि जो मानवीय मनोभाव बाहर निकलकर आ रहे हैं वो सिर्फ़ सदमे से ही जुड़े नहीं हैं, बल्कि इस तरह का कष्ट झेलने से जुड़े मनोभावों का नतीजा भी हैं.

भारत में कोविड-19 से जुड़े मौजूदा कष्टकारी अनुभवों पर पूर्व से जारी व्यवस्थागत सामाजिक विषमताओं का भी असर पड़ा है. इतना ही नहीं, इन असमानतों की वजह से ये तकलीफ़ और बढ़ गई है. ये पीढ़ी दर पीढ़ी अनुभव किए जाने वाले सदमे का सबब भी बनते हैं. इन भावों में आगे चलकर आघातों के सर्वथा नए अनुभवों (या दोबारा पुराने अनुभवों) में परिवर्तित होने की पूरी-पूरी संभावना रहती है.

मानवीय भावनाएं समय के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी जटिल रूप से सामाजिक सतहों को लांघती जाती हैं. इसी के चलते लक्षण होने के बावजूद भारत के लोग कोविड-19 का टेस्ट कराने को लेकर आनाकानी करते दिखाई देते हैं.

कोविड केंद्रों के हालात

इस बात को एक उदाहरण के ज़रिए समझते हैं. भारत में घरों में खुद को अलग-थलग कर लेना हमेशा संभव नहीं हो पाता. देश में अब भी कई लोग संयुक्त परिवारों में रहते हैं और उनकी रिहाइश की जगह तंग होती है. नतीजतन कई लोगों को कोविड-19 का संक्रमण होने के बाद अनिवार्य रूप से अलगाव में रहने के लिए अपने-अपने घरों के बाहर की जगह तलाशनी होती है. यहां पेच ये है कि कोविड-19 की चपेट में आए मरीज़ों के देखभाल से जुड़े केंद्रों में भर्ती होकर ख़ुद को परिवार से अलग करने के विचार को भारत में श्रेयस्कर नहीं माना जाता.

लोगों ने कोविड-19 के देखभाल केंद्रों के बारे में मुख्य धारा की मीडिया और समसामयिक माध्यमों में काफ़ी कुछ देखा-सुना होता है. लिहाजा वो नहीं चाहते कि उन्हें स्वयं या उनके प्रियजनों को इस तरह के अनुभवों से दो-चार होना पड़े. इनमें (क) अस्वास्थ्यकर हालातों में रहने; (ख) कोविड-19 के दूसरे मरीज़ों के साथ बिस्तर साझा करने, फ़र्श पर सोने और कई बार तो मृतकों के बगल में सोने के लिए कहे जाने; (ग) बिजली, शौचालय, बिस्तर, दरवाज़े, रोशनदान के लिए खिड़कियों और (गुणवत्तापूर्ण) खाने जैसी बुनियादी सुविधाओं से महरूम भीड़-भाड़ वाले अस्थायी कोविड सेंटरों में ठूंसे जाने के अनुभव शामिल हैं.

कोविड केयर सेंटरों में इलाज की सुविधाओं को उन्नत किए जाने के बावजूद लोगों में यहां भर्ती होने को लेकर एक झिझक बरकरार है. इसकी वजह ये है कि आम लोगों के मन में एक भावना घर कर गई है कि इन केंद्रों में भर्ती होने का मतलब है मौत. इसके साथ ही मृत्यु का शिकार हुए लोगों के पार्थिव शरीर को लौटा कर घर ना ला पाने की कसक, असीम और अपार पीड़ा के साथ-साथ सूचना और पारदर्शिता का अभाव जैसी वजहें भी कम अहम नहीं हैं. इनके चलते लोगों के मन में एक बात समा गई है कि अस्पताल जाने पर उन्हें कोविड-19 का टेस्ट कराने के लिए बाध्य किया जाएगा, नतीजा आने से पहले ही दूसरों से अलग कर दिया जाएगा, और कुछ समय बाद उनकी मौत हो जाएगी. इस तरह की बातों से कोविड केयर केंद्रों के बारे में प्रचलित उन धारणाओं को बल मिलता है कि ये केंद्र तमाम तरह की अवैध गतिविधियों का अड्डा हैं. लोग इन केंद्रों के बारे में सोचते हैं कि वहां लोगों को कोरोना वायरस के इंजेक्शन देकर संक्रमित किया जाता है और मानव अंगों को शरीर से अवैध रूप से निकालने का कारोबार होता है!

कोविड केयर सेंटरों में इलाज की सुविधाओं को उन्नत किए जाने के बावजूद लोगों में यहां भर्ती होने को लेकर एक झिझक बरकरार है. इसकी वजह ये है कि आम लोगों के मन में एक भावना घर कर गई है कि इन केंद्रों में भर्ती होने का मतलब है मौत.

इतना ही नहीं, कई बार तो लोग ये समझने लगते हैं या फिर उन्हें ये विश्वास दिलाया जाता है कि उनके शरीर में दिख रहे लक्षण मौसमी सर्दी-ज़ुकाम या टाइफ़ाइड या फिर किसी अनिष्टकारी हालात से पैदा हुए दूसरे वायरस के चलते हुए संक्रमण की वजह से हैं. कई लोग तो अब भी यही मान रहे हैं कि ये वायरस सरकार की नाकामियों से ध्यान भटकाने के लिए रचे गए एक षड्यंत्र का हिस्सा है. उनकी धारणा को (1) कोविड-19 की जांच से जुड़ी प्रक्रिया में सामान्य सर्दी-ज़ुकाम या फ़्लू को भी ग़लत जांच कर कोरोना बता दिए जाने से जुड़े दावों, (2) आरटी-पीसीआर और रैपिड एंटीजेन टेस्ट (आरएटी), दोनों के संभावित ग़लत निगेटिव रिपोर्ट, और (3) कोविड-19 टेस्ट में निगेटिव आने के बावजूद होने वाली मौतों, के चलते और बल मिलता है.

महामारी के दौरान ग़लत सूचनाओं की झड़ी

महामारी के दौरान बिना सिरपैर की सूचनाओं का मानो अंबार सा लग गया है. भारत में तो ऐसा लग रहा है जैसे सरकारी एजेंसियां ही इन्हें बढ़ावा दे रही हैं. कोविड-19 के इलाज के लिए नियमित और अद्यतन होते रहने वाले समग्र व्यवस्थित दिशानिर्देशों का अभाव है. ऐसे में जब मौतों की संख्या बढ़ने लगी तो सरकारों पर कुछ “करने” का दबाव बढ़ा. इसके साथ ही “इसमें हर्ज़ ही क्या है” के भरोसे के चलते इलाज के लिए तरह-तरह के उपाय अपनाए जाने लगे. नतीजतन कोविड-19 के इलाज से या तो एंटीबायोटिक प्रतिरोध के या फिर जानलेवा परिणाम सामने आने लगे. मरीज़ों के परिवारवाले चिकित्सकों पर दवाइयों का पर्चा लिखने या कई तरह के इलाजों के घालमेल वाला नुस्खा बताने का दबाव बनाते हैं. चिकित्सक भी तरह-तरह की दवाइयों का प्रयोग करते दिखाई दे रहे हैं. कई बार तो उनके पास पहले से या आसानी से जो दवाइयां या इलाज उपलब्ध होता है, वो उन्हीं का प्रयोग आरंभ कर देते हैं. लोग भी ख़ुद से अपना इलाज करने लगे हैं. दोस्तों की सलाह या इधर-उधर से जुटाई गई जानकारियों के आधार पर वो ख़ुद से ही चिकित्सा शुरू कर देते हैं. लोग सोशल मीडिया पर उपलब्ध अपुष्ट या बिना सिर-पैर वाली जानकारियों को अमल में लाने लगते हैं.

सामाजिक शर्म

कोविड-19 के साथ एक सामाजिक शर्म भी जुड़ा हुआ है. इसके चलते मरीज़ों के साथ भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार होता है. इतना ही नहीं भेदभावपूर्ण समझी जाने वाली प्रशासनिक नीतियों ने भी समाज में कोविड-19 को लेकर अविश्वास का माहौल बनाया है. इस सिलसिले में महाराष्ट्र सरकार द्वारा सहकारी आवास सोसाइटियों (सीएच) को जारी किए गए आदेश की मिसाल लेते हैं. इस आदेश के ज़रिए इन सोसाइटियों को बिल्डिंग में आने वाले सभी आगंतुकों का तबतक नियमित तौर पर कोरोना जांच कराने की सलाह दी गई जबतक कि उन्हें कोरोना के टीके नहीं लग जाते. इस सलाह के मुताबिक इन सोसाइटियों ने विभिन्न सेवा प्रदाताओं, जैसे- घरेलू नौकरों, ड्राइवरों, सोसाइटी के स्टाफ़ आदि के लिए कोरोना की ताज़ा निगेटिव जांच रिपोर्ट साथ लाना अनिवार्य कर दिया. कोरोना जांच कराने का दायित्व केवल सेवा प्रदाताओं पर डाल दिए जाने से सोसाइटियों में रहने वालों और इन सेवा प्रदाताओं के बीच अविश्वास का माहौल पैदा हो गया. इन टेस्टों का खर्च कौन वहन करेगा और इन सेवा प्रदाताओं की नौकरियों की सुरक्षा का क्या होगा- ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके चलते आपसी अविश्वास के इस माहौल को और हवा मिली. इतना ही नहीं, कोरोना जांच में पॉजिटिव आने का इन लोगों के लिए सीधा मतलब ये निकलता है कि उनके काम की किसी को परवाह नहीं रह जाती. क्वॉरंटीन में उन्हें जितने दिन बिताने होते हैं उनके बदले उन्हें किसी तरह का हर्जाना नहीं दिया जाता. इतना ही नहीं ये ख़तरा भी होता है कि क्वॉरंटीन से बाहर आने के बाद शायद वो अपने लिए काम भी न ढूंढ पाएं. परिणामस्वरूप कई सेवा प्रदाता टेस्ट कराने की बजाए अपनी नौकरी छोड़़ देने में ही अपना भला समझते हैं. कई लोगो तो जाली टेस्ट रिपोर्ट भी तैयार करवा लेते हैं.

कोविड-19 के साथ एक सामाजिक शर्म भी जुड़ा हुआ है. इसके चलते मरीज़ों के साथ भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार होता है. इतना ही नहीं भेदभावपूर्ण समझी जाने वाली प्रशासनिक नीतियों ने भी समाज में कोविड-19 को लेकर अविश्वास का माहौल बनाया है

निष्कर्ष

मौजूदा समय में कोविड-19 से संक्रमित होने से जुड़ी पीड़ा और व्यवस्थाजन्य सामाजिक विषमताओं से जुड़े क्लेशपूर्ण अनुभवों को समझना ज़रूरी है. इनके जटिल घालमेल से उत्पन्न परिस्थितियों में भारत में कोरोना टेस्टिंग को लेकर जारी आनाकानियों की वजहों की पहचान करने में मदद मिल सकती है.

इन अनुभवों के मुताबिक इस तरह की झिझक से निपटने के सक्रिय प्रयास किए जा सकते हैं. उदाहरण के तौर पर गांवों में पिछड़ी जातियों के लोगों में कोरोना टेस्ट कराने को लेकर एक ख़ास प्रकार की झिझक देखने को मिल सकती है. इसकी वजह इन लोगों के सामाजिक-आर्थिक दर्जे में छिपी है. उन्हें लगता है कि अगर वो टेस्ट में पॉजिटिव पाए गए तो उनके प्रति पहले से ही बरते जाने वाले सामाजिक भेदभावों में और बढ़ोतरी हो सकती है. वहीं दूसरी ओर अगड़ी जातियों के लोग इस वजह से टेस्ट कराने को अनिच्छुक हो सकते हैं कि अगर वो कोरोना संक्रमित पाए गए तो उन्हें क्वॉरंटीन केंद्रों में पिछड़ी जातियों के लोगों के साथ रहना पड़ेगा.

लिहाज़ा स्थानीय स्तर पर कोविड-19 के प्रबंधन से जुड़ी समितियों में समाज के हर तबके के लोगों को शामिल किया जाना चाहिए. इसके साथ ही इन प्रबंधन समितियों के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करने वाला तंत्र भी ज़रूरी है. इनके ग़लत कामों को उजागर करने या उनका पर्दाफ़ाश करने वालों की सुरक्षा का भी पर्याप्त बंदोबस्त होना चाहिए. ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि लोग बिना किसी भय और प्रताड़ित होने की आशंका से रहित होकर उनके कामों पर निगरानी रख सकें. अगर किसी गांव के लोग ये सोचकर टेस्ट कराने से आनाकानी बरतें कि ये तो बस एक मामूली सर्दी-ज़ुकाम है तो उनके लिए जागरूकता अभियान चलाना मददगार साबित हो सकता है. बहरहाल इस तरह का कोई जागरूकता कार्यक्रम तभी प्रभावी हो सकता है जब इसमें स्थानीय कार्यकर्ताओं के रूप में एएए (आशा, एएनएम और आंगनबाड़ी कार्यकर्ता) की नियुक्ति की जाए. इन लोगों को घऱ-घर जाकर बिना किसी सामाजिक या आर्थिक पूर्वाग्रह के लोगों तक सही सूचना का प्रसार करना चाहिए. ग्रामीणों को उनकी स्थानीय बोली में, स्थानीय स्तर पर प्रभाव रखने वाले- राजनीतिक, धार्मिक नेताओं या गांव की किसी ख़ास जाति या परिवार के सम्मानित सदस्यों की मौजूदगी में समझाया-बुझाया जाना चाहिए. इसके साथ ही इन प्रयासों में स्थानीय चिकित्सकों, शिक्षकों, सरपंचों या स्वयंसहायता समूहों के सदस्यों को जोड़कर उनकी भी मदद ली जा सकती है.

स्थानीय स्तर पर कोविड-19 के प्रबंधन से जुड़ी समितियों में समाज के हर तबके के लोगों को शामिल किया जाना चाहिए. इसके साथ ही इन प्रबंधन समितियों के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करने वाला तंत्र भी ज़रूरी है.

कोरोना टेस्टिंग को लेकर लोगों में जो झिझक देखने को मिल रही है अगर उनपर ठीक से ध्यान दिया गया तो संक्रमण रोकने के लक्ष्य की प्राप्ति में आवश्यक नीतियां बनाने में मदद मिलेगी. मिसाल के तौर पर कर्नाटक सरकार ने शहरी झुग्गी बस्तियों और ग्रामीण इलाक़ों के मरीज़ों को कोविड केयर सेंटर में दाखिल कराए जाने का फ़ैसला किया है. घर पर आइसोलेशन की नीति को ख़त्म करना बुद्धिमानी भरा फ़ैसला हो सकता है, लेकिन कुछ मरीज़ जो घर पर ही आइसोलेट होकर अपना इलाज जारी रखना चाहते हैं वो इस फ़ैसले का पुरज़ोर विरोध कर रहे हैं. कर्नाटक के ग्रामीण इलाक़ों से टेस्टिंग को लेकर झिझक की जो ख़बरें आ रही हैं उनके मद्देनज़र होम आइसोलेशन की व्यवस्था को समाप्त किए जाने से टेस्टिंग को लेकर लोगों का आनाकानी भरा रवैया और बढ़ने की आशंका है.

भारत में मौजूद इस तरह की विचित्र चुनौतियों के मद्देनज़र कोरोना जांच को लेकर लोगों की हिचक के पीछे की वजहों को समझने के लिए आवश्यक शोध कार्यों पर ज़ोर दिया जाना चाहिए. निश्चित तौर पर मुंबई में रहने वाले किसी व्यक्ति के कोरोना टेस्ट कराने से हिचकने की वजह महाराष्ट्र के बीड या कर्नाटक के बेंगलुरु के रहने वाले व्यक्ति से अलग हो सकती है. गगनचुंबी इमारत में रहने वाले किसी व्यक्ति के टेस्ट से आनाकनी करने की वजह झुग्गी बस्ती में रहने वाले व्यक्ति से भिन्न हो सकती है. किसी एक गांव के किसी जाति-विशेष से ताल्लुक रखने वाले व्यक्ति के कोरोना टेस्ट कराने से झिझकने की वजह उसी राज्य या किसी अन्य राज्य के किसी दूसरे गांव के उसी जाति-विशेष के व्यक्ति या किसी दूसरी जाति से संबंध रखने वाले इंसान से अलग हो सकती है.

कोरोना की जांच कराने को लेकर इस तरह के असमंजस से पैदा होने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए एक बहुआयामी रुख़ अपनाए जाने की ज़रूरत है. इसमें सरकार से लेकर स्थानीय अधिकारियों और तमाम संबंधित व्यक्तियों समेत विभिन्न किरदारों को शामिल किए जाने की आवश्यकता है.

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