Author : Rakesh Sood

Published on Aug 25, 2020 Updated 0 Hours ago

दोनों ही देशों के विशेष प्रतिनिधियों के बीच अब तक, बीस दौर की वार्ताएं हो चुकी हैं. लेकिन, भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा का ‘स्पष्टीकरण और पुष्टि’ और सीमा विवाद का स्थायी समाधान अब तक नहीं निकल सका है.

‘चीन की दीवार पर लिखी वो इबारतें जिसकी भारत लगातार अनदेखी करता रहा’ — भाग 1

एक बहुत पुरानी कहावत है-आगे होने वाली घटनाओं का साया पहले ही मंडराने लगता है. भारत और चीन के संबंधों में ये कहावत बिल्कुल सटीक बैठती है. 1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध से ठीक पहले इस बात के स्पष्ट संकेत मिलने लगे थे कि दोनों देशों के बीच सीमा को लेकर मतभेद लगातार गहरे होते जा रहे हैं. लेकिन, तब के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, ये मानने को तैयार ही नहीं थे कि चीन इस विवाद को लेकर युद्ध भी छेड़ सकता है.

और एक बार फिर, हाल के वर्षों में भारत ने चीन की दीवार पर साफ़-साफ़ लिखे संकेतों की लगातार अनदेखी की. भारत के शासक ये मानते रहे कि 1990 के दशक की शुरुआत से उन्होंने चीन के साथ जो एक के बाद एक कई समझौते किए हैं, उससे चीन के साथ भारत की सीमा पर शांति क़ायम रहेगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ वर्ष 2014 के बाद से अब तक 18 बार शिखर वार्ताएं की हैं. मोदी तो शायद अपनी निजी चार्मिंग कूटनीति को लेकर इतने आश्वस्त थे कि, उन्होंने सीमा पर चीन की ओर से लगातार बढ़ती जा रही घुसपैठों और अतिक्रमण के सबूतों और इनसे मिलने वाले संकेतों को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया. अब जबकि पिछले चार महीनों से दोनों देशों की सेनाएं लद्दाख मे आमने सामने हैं और दोनों ही देश शांतिपूर्ण तरीक़े से अपने अपने सैनिकों को पीछे हटाने को लेकर बातचीत कर रहे हैं. लेकिन, इससे पहले सीमा पर चीन और भारत का संघर्ष इतना हिंसक हो गया कि 15-16 जून की रात को गलवान घाटी में घुसपैठ करने वाले चीनी सैनिकों से लड़ते हुए, बीस भारतीय सैनिक शहीद हो गए. अपुष्ट सूत्र ये दावा करते हैं कि भारत के साथ इस संघर्ष में चीन के 40 से ज़्यादा सैनिक मारे गए. हालांकि, चीन ने इसकी तस्दीक नहीं की.

पिछले 45 वर्षों में चीन की सीमा पर संघर्ष में भारतीय सैनिकों के मारे जाने की ये पहली घटना है. इससे पहले, अक्टूबर 1975 में असम रायफ़ल्स के चार भारतीय जवानों को चीन ने अरुणाचल प्रदेश के तुलुंग में धोखे से मार दिया था. पिछले तीस वर्षों की परंपरा को क़ायम रखते हुए न तो भारत की ओर से एक भी गोली चली और न ही चीन ने एक भी गोली चलायी. मगर, भारतीय सैनिकों और चीन के सैनिकों के बीच इस बार मुक़ाबला लाठी-डंडों, कंटीले तारों, पत्थरों और सीधी टक्कर से हुआ था. इस वजह से ये संघर्ष और भी ख़ूनी हो गया. भारत और चीन ने पिछले तीन दशकों में सीमा पर शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए कई समझौते किए हैं. और आपसी विश्वास बढ़ाने के लिए कई क़दम उठाए हैं. फिर भी हालात इतने हिंसक मोड़ पर कैसे पहुंच गए, ये बड़ा सवाल है.

पिछले एक दशक से लगातार बढ़ते सबूत ये इशारा कर रहे हैं कि भारत ने जिन बुनियादों पर अपनी चीन की नीति की आधारशिला रखी थी, उनकी नए सिरे से विश्लेषण की ज़रूरत है. तब ऐसी कई बातें सामने आएंगी, जिनका वक़्त और उपयोगिता समाप्त हो चुके हैं.

अभी तो भारत की प्राथमिकता ये होगी कि चीन के साथ लगने वाली सीमा पर हालात सामान्य बनाए जाएं. और इसके लिए आपसी बातचीत और दोनों देशों के सैनिकों को पीछे हटाने पर सहमति बनाई जाए, ताकि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हालात वापस वैसी स्थिति में पहुंचें, जो इस संघर्ष की शुरुआत के वक़्त थे. लेकिन, भारत के लिए इससे भी महत्वपूर्ण चुनौती ये है कि वो चीन को लेकर पिछले कुछ दशकों की अपनी नीति की नए सिरे से और गहनता से पड़ताल करे. ये काम लंबे समय से टलता आ रहा है. पिछले एक दशक से लगातार बढ़ते सबूत ये इशारा कर रहे हैं कि भारत ने जिन बुनियादों पर अपनी चीन की नीति की आधारशिला रखी थी, उनकी नए सिरे से विश्लेषण की ज़रूरत है. तब ऐसी कई बातें सामने आएंगी, जिनका वक़्त और उपयोगिता समाप्त हो चुके हैं.

1988 में चीन के साथ संबंधों के नए दौर की शुरुआत

1962 के युद्ध के बाद चीन और भारत के बीच, संबंध दोबारा सामान्य बनाने की शुरुआत 1988 से हुई थी. जब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी चीन के दौरे पर गए थे. तब दोनों ही देशों ने सीमा विवाद को ठंडे बस्ते में डालने पर सहमति जताई थी. भारत औ और चीनइस बात पर रज़ामंद हुए थे कि दोनों देश आर्थिक, वाणिज्यिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर अधिक ध्यान देंगे. जिससे दोनों देश एक दूसरे के क़रीब आ सकें. भारत और चीन का ऐसा मानना था कि सीमा विवाद को परे हटाकर आगे बढ़ने से आगे चल कर अपने आप ऐसी परिस्थितियां बन जाएंगी कि वो आपसी सहमति से सीमा विवाद का भी निपटारा कर सकेंगे. सीमा विवाद की समीक्षा के लिए भारत और चीन ने मिल कर ज्वाइंट वर्किंग ग्रुप बनाया. जिससे इस विषय पर भी दोनों देशों के बीच संवाद चलता रहे.

1988 में भारत और चीन, दोनों का ही ये मानना था कि वो ऐसी स्थिति में नहीं हैं कि सीमा विवाद का ऐसा समाधान निकाल सकें, जो दोनों ही पक्षों को स्वीकार हो. और इसीलिए, फिलहाल इस विषय को भविष्य के लिए छोड़ दिया जाए. शायद भविष्य में दोनों देश इस विवाद का शांतिपूर्ण हल खोजने में सफल हो सकें. क्योंकि वक़्त बीतने के साथ साथ दोनों ही देश एक ऐसी सहमति बना सकें, जो भारत और चीन दोनों को स्वीकार होगा. उस समय भारत और चीन की ये सोच बिल्कुल उचित थी. दोनों ही देश रिश्तों के व्यवहारिक पक्षों को देख रहे थे. और इसी कारण से भारत और चीन के संबंधों में 1988 के बाद से एक नये अध्यया की शुरुआत हुई.

वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) की परिकल्पना, चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने 1959 में तब पेश की थी, जब उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को चिट्ठी लिखी थी. इसमें चाऊ एन लाई ने लिखा था कि, ‘ये वो रेखा होगी जहां तक दोनों देशो का वास्तविक नियंत्रण है.’

राजीव गांधी के चीन दौरे के बाद भारत और चीन के बीच पहला बड़ा समझौता 1993 में हुआ था. तब दोनों देशों ने भारत और चीन की सीमा के वास्तविक नियंत्रण रेखा वाले हिस्से पर शांति और स्थिरता बनाने के समझौते पर दस्तख़त किए थे. इस संधि का नाम ही ये ज़ाहिर करने के लिए पर्याप्त था कि दोनों देशों ने सीमा को लेकर अपने अपने दावों के साथ समझौता किया है. वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) की परिकल्पना, चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने 1959 में तब पेश की थी, जब उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को चिट्ठी लिखी थी. इसमें चाऊ एन लाई ने लिखा था कि, ‘ये वो रेखा होगी जहां तक दोनों देशो का वास्तविक नियंत्रण है.’ भारत और चीन की पश्चिमी सीमा के विवाद के निपटारे के लिए ये महत्वपूर्ण प्रस्ताव था. वहीं, पूर्वी सेक्टर में चीन के प्रधानमंत्री ने सुझाव दिया था कि वास्तविक नियंत्रण रेखा उनके हिसाब से मोटे तौर पर 1914 में खींची गई मैक्मोहन लाइन ही होगी. लेकिन, नेहरू ने चीन के प्रधानमंत्री के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था. क्योंकि, भारत का मानना था कि चीन के साथ उसकी पश्चिमी रेखा 1865 में खींची गई जॉनसन लाइन ही है. जबकि चीन इस रेखा को स्वीकार ही नहीं करता था.

1962 के युद्ध के बाद चीन ने दावा किया कि उसकी सेनाएं वास्तविक नियंत्रण रेखा से क़रीब 20 किलोमीटर पीछे चली गई हैं. लेकिन, भारत ने चीन के इस दावे को कभी भी स्वीकार नहीं किया. भारत का कहना है कि चीन ने युद्ध के दौरान उसके अक्साई चिन इलाक़े पर अवैध रूप से क़ब्ज़ा कर लिया है. 1993 के समझौते की भाषा ये ज़ाहिर करती है कि भारत ने अपने इस रुख़ में बदलाव किया है. इसके पीछे तर्क ये दिया गया कि वास्तविक नियंत्रण रेखा का जो ज़िक्र इस संधि में किया गया है, उसका संबंध न तो 1959 की वास्तविक नियंत्रण रेखा से है. और न ही 1962 की LAC से. इससे भारत को ये फ़ायदा हुआ कि वो वास्तविक नियंत्रण रेखा को अपने हिसाब से परिभाषित कर सकता था.

1993 में चीन के साथ हुए सीमा समझौते का पहला पैराग्राफ कहता है कि दोनों ही देश सीमा के विवाद को, ‘शांतिपूर्ण और दोस्ताना बातचीत के साथ सुलझाने के लिए प्रतिबद्ध हैं. और अंतिम फैसला होने तक सीमा पर शांति बनाए रखेंगे. और एक दूसरे की वास्तविक नियंत्रण रेखाओं का सम्मान करेंगे.’ पर चूंकि, वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर चीन और भारत की समझ बिल्कुल अलग अलग है. इसलिए, 1993 के समझौते में ये बात भी जोड़ी गई कि, ‘अगर किसी एक देश का सैनिक दूसरे देश के इलाक़े में घुस जाता है. तो दूसरे पक्ष द्वारा चेतावनी देने पर उसे तुरंत अपनी वास्तविक नियंत्रण रेखा की ओर वापस जाना होगा. और जब भी ज़रूरत पड़ेगी, तो दोनों देश मिल कर सीमा के उन हिस्सों का निर्धारण करेंगे, जहां पर वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर दोनों देशों के अलग अलग दावे हैं.’ 1993 के समझौते में यही गफ़लत है, जिसने वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर बड़ी दुविधा की स्थिति पैदा कर दी है.

1993 के सीमा समझौते के बाद भारत और चीन ने 1996 में एक और संधि की. एग्रीमेंट ऑन कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेज़र्स इन द मिलिट्री फील्ड एलॉन्ग द लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल इन द इंडिया चाइना बॉर्डर एरियाज़. चूंकि वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर चीन और भारत की अवधारणाएं बिल्कुल अलग हैं. तो जब भी वास्तविक नियंत्रण रेखा का ज़िक्र होता है तो उसके साथ ‘भारत और चीन की सीमा के इलाक़े’ को भी जोड़ा जाता है. दोनों ही देश इस बात पर सहमत हुए कि वो सीमावर्ती चौकियों से सैनिकों की संख्या कम करेंगे. इसके साथ साथ समझौते में ये भी तय हुआ कि इन सीमावर्ती क्षेत्रों में सैनिक अभ्यास को भी सीमित और कम आक्रामक बनाया जाएगा. भारत और चीन के बीच इस समझौते में इस बात पर भी सहमति बनी कि दोनों ही देश वास्तविक नियंत्रण रेखा के दो किलोमीटर के दायरे में  गोली नहीं चलाएंगे. साफ़ है कि गलवान में हुए हिंसक संघर्ष के दौरान भी इस समझौते का पालन किया गया. भले ही, गोली चलाने से ज़्यादा बर्बर तरीक़ों का इस्तेमाल किया गया हो.

जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, चीन के दौरे पर गए, तो उन्हें इस बात का अंदाज़ा अच्छे से था कि भारत और चीन के सीमा विवाद पर बना साझा वर्किंग ग्रुप, राजनीतिक रूप से संवेदनशील इस मसले पर सहमति बनाने में सफल नहीं हो रहे हैं.

भारत और चीन के समझौते में धारा X के रूप में एक महत्वपूर्ण बात जोड़ी गई थी. इसमें कहा गया कि-‘हम इस समझौते में इस महत्वपूर्ण बात को दर्ज कर रहे हैं कि इस संधि की कुछ शर्तों का पूरी तरह से पालन इस बात पर निर्भर करेगा कि दोनों देश आपसी सहमति से भारत और चीन के सीमावर्ती इलाक़े में वास्तविक नियंत्रण रेखा की स्थिति एक राय रखें. इसलिए दोनों ही पक्ष इस बात पर सहमत हैं कि, वास्तविक नियंत्रण रेखा के स्पष्टीकरण और उसकी पुष्टि की प्रक्रिया को और तेज़ करेंगे.’ इस बात से साफ़ है कि दोनों ही देशों को ये बात अच्छी तरह से मालूम है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर अलग अलग अवधारणाओं से ग़लतफ़हमी पैदा हो सकती है. और इससे संघर्ष भी पैदा हो सकता है. इसीलिए दोनों देश इस बात पर राज़ी हुए कि नियमित रूप से नक़्शों के आदान-प्रदान से वास्तविक नियंत्रण रेखा पर आम सहमति बनाने की कोशिश की जाएगी. जैसा कि भारत और चीन की सीमा के मध्य क्षेत्र यानी उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश से लगने वाली सीमा पर किया गया. 2001 में दोनों देशों के बीच सीमा का यही इलाक़ा ऐसा था, जिस पर पूरी तरह सहमति बन गई क्योंकि यहां सबसे कम विवाद था. लेकिन, उसके बाद सीमा निर्धारण की प्रक्रिया रुक गई.

जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, चीन के दौरे पर गए, तो उन्हें इस बात का अंदाज़ा अच्छे से था कि भारत और चीन के सीमा विवाद पर बना साझा वर्किंग ग्रुप, राजनीतिक रूप से संवेदनशील इस मसले पर सहमति बनाने में सफल नहीं हो रहे हैं. इसीलिए, वाजपेयी के चीन दौरे में सीमा विवाद को सुलझाने के लिए एक और माध्यम जोड़ा गया. दोनों देश इस बात पर रज़ामंद हुए कि वो अपने अपने यहां से ‘विशेष प्रतिनिधि’ नियुक्त करेंगे. इन विशेष प्रतिनिधियों का काम होगा कि, ‘वो सीमा विवाद सुलझाने के लिए राजनीतिक संबंध के दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए इस मसले का हल निकालें.’ भारत की ओर से, चीन के साथ सीमा विवाद पर बातचीत के विशेष प्रतिनिधि, देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार होते हैं. जबकि, चीन की ओर से इस समय के स्टेट काउंसलर वैंग यी, सीमा विवाद पर वार्ता के विशेष प्रतिनिधि हैं. दोनों ही देशों के विशेष प्रतिनिधियों के बीच अब तक, बीस दौर की वार्ताएं हो चुकी हैं. लेकिन, भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा का ‘स्पष्टीकरण और पुष्टि’ और सीमा विवाद का स्थायी समाधान अब तक नहीं निकल सका है.

वर्ष 2005 में भारत और चीन के बीच, एग्रीमेंट ऑन द पॉलिटिकल पैरामीटर्स ऐंड गाइडिंग प्रिंसिपल्स फॉर द सेटेलमेंट ऑफ़ द इंडिया-चाइना बाउंडरी क्वेश्चन के नाम से एक अन्य समझौता हुआ. इस संधि के बाद ये उम्मीद जताई गई थी कि अब दोनों ही देश जल्द से जल्द अपने सीमा विवाद का निपटारा कर लेंगे. लेकिन, ये उम्मीद जल्द ही टूट गई. इस समझौते के लिए जिन सिद्धांतों पर दोनों देशों के बीच सहमति बनी थी, उसमें से एक था, ‘साझा और समान सुरक्षा का सिद्धांत.’ दोनों देशों ने तय किया था कि जिन इलाक़ों में सीमा को लेकर दोनों देशों के विचारों में मामूली मतभेद हैं और जहां पर प्राकृतिक बैरियर के माध्यम से सीमा का निर्धारण आसानी से हो सकता है, वहां पर एक दूसरे के हितों का ध्यान रखते हुए, और बसी हुई आबादी के हितों को ध्यान मे रखते हुए, सीमा का निर्धारण जल्द से जल्द कर लिया जाए. समझौते के इस भाग का अर्थ ये लगाया गया था कि अरुणाचल प्रदेश जहां पर लोगों की बड़ी तादाद आबाद है, वो भारत का हिस्सा बना रहेगा. वहीं, पश्चिमी क्षेत्र में भौगोलिक परिस्थितयों के अनुसार भारत को अपने दृष्टिकोण में कुछ समझौते करने होंगे. जिससे कि चीन के शिन्जियांग प्रांत से तिब्बत के बीच के संपर्क में कोई बाधा ना आए. लेकिन, सीमा विवाद पर विशेष प्रतिनिधियों के बीच वार्ता 2005 में इस दिशा में आई तेज़ी को बरकरार रखने में असफल रही थी. दोनों देशों के विशेष प्रतिनिधि इस समझौते से पैदा हुई उम्मीदों को हक़ीक़त में तब्दील करने में असफल रहे हैं.

दोनों ही देशों के सैनिकों को एक दूसरे का सभ्य तरीक़े से सम्मान करना होगा और उकसावे वाली कार्रवाई करने से बाज़ आना होगा. लेकिन, हाल के वर्षों में इस प्रोटोकॉल की लगातार अनदेखी की जाती रही है.

2005 तक वास्तविक नियंत्रण रेखा पर, दोनों ही देशों के गश्ती दलों के आमने सामने आने की घटनाएं बढ़ने लगी थीं. इसीलिए, भारत और चीन ने 1996 के समझौते के तहत आपसी विश्वास बढ़ाने की प्रक्रिया को सुनिश्चित करने के लिए, ‘मोडैलिटीज़ फॉर द इम्प्लिटमेंटेशन ऑफ कॉन्फिडेंज़ बिल्डिंग मेज़र्स इन द मिलिट्री फील्ड एलॉन्ग द लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल इन द इंडिया चाइना बॉर्डर एरियाज़’ पर दस्तख़त किए. इस प्रोटोकॉल की धारा चार स्पष्ट रूप से ये परिभाषित करती है कि टकराव के हालात में दोनों देशों के सैनिकों को किस तरह अपने ऊपर नियंत्रण स्थापित करना होगा. आमने सामने आने पर दोनों ही देशों के सैनिकों को आगे बढ़ने के बजाय रुक जाना होगा और अपनी चौकी की ओर वापस चले जाना होगा. जिसके बाद ये सैनिक अपने अपने मुख्यालयों को इस टकराव की जानकारी देंगे. जिससे कि दोनों ही पक्ष आपस में सलाह मशविरा करके तनाव को कम करें. इस दौरान दोनों ही पक्षों को ताक़त का इस्तेमाल करने या इसकी धमकी देने से बाज़ आना होगा. दोनों ही देशों के सैनिकों को एक दूसरे का सभ्य तरीक़े से सम्मान करना होगा और उकसावे वाली कार्रवाई करने से बाज़ आना होगा. लेकिन, हाल के वर्षों में इस प्रोटोकॉल की लगातार अनदेखी की जाती रही है. हम वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन के सैनिकों के बीच हाथा-पाई और एक दूसरे को धक्का देने की घटनाओं को बढ़ते हुए देखते आ रहे हैं. दोनों देशों के सैनिकों ने कई बार एक दूसरे पर पथराव भी किया है. जिससे दोनों ही पक्षों के सुरक्षाकर्मी घायल हुए हैं. हालांकि, इन संघर्षों में किसी की जान नहीं गई. गलवान में हुआ हिंसक संघर्ष, वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हो रहे छुट-पुट टकरावों की भयंकर परिणति है.


यह लेख दो भागों में लिखा गया है जिसका यह पहला भाग है. दूसरा भाग कल प्रकाशित होगा.

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