Author : Shoba Suri

Published on Jul 09, 2021 Updated 0 Hours ago

ब्रिक्स और अन्य विकासशील देशों के बीच भारत ही है, जो स्वास्थ्य पर सबसे कम ख़र्च करता है. इससे स्वास्थ्य सेवाओं और इससे जुड़े पेशेवर लोगों यानी डॉक्टरों, नर्सों, लैब टेक्निशियन्स की भारी कमी है.

‘अगर हमें भारत की मानवीय पूंजी (ह्यूमन रिसोर्स) को बेहतर करना है, तो बच्चों के शुरुआती दौर के विकास में निवेश बढ़ाना होगा’
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‘बच्चों का शुरुआती विकास एक चतुराई भरा निवेश है. आप जितनी जल्दी निवेश करेंगे, उतना ही अधिक लाभ होगा.’

—जेम्स हेकमैन

भारत के विकास के सफर का स्वास्थ्य और शिक्षा में निवेश से बहुत गहरा संबंध है. स्थायी विकास के लक्ष्य प्राप्त करने के लिए मानवीय पूंजी और समावेशी विकास में निवेश करना ज़रूरी है. भारत की बड़ी आबादी का लाभ उठाने के लिए सरकार शिक्षा और कौशल विकास में सुधार लाने के अलावा जनता को सस्ती स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने के लिए सरकार प्रतिबद्ध है. ये बात पता है कि ग़रीबी उन्मूलन का संबंधन ऐसी रणनीति बनाने से है, जिसमें स्वास्थ्य और शिक्षा मे सुधार हो और असमानता कम हो. बाल विकास, जीवन की प्रक्रिया का हिस्सा है. इसमें गर्भधारण से पहले की सेहत और किशोर उम्र बच्चों की अच्छी स्थिति और उनके युवाओं की नई पीढ़ी के तौर पर विकसित होने व ख़ुद मां-बाप बनने की पूरी प्रक्रिया शामिल है. इस महामारी ने युवाओं की सेहत, उनकी शिक्षा और अर्थव्यवस्था में ख़लल डाला है और अभी भी इसके मनोवैज्ञानिक और शैक्षणिक प्रभाव देखने को मिल रहे हैं.

1776 में एडम स्मिथ ने कहा था कि किसी देश की आर्थिक प्रगति का स्रोत उसके नागरिकों की व्यक्तिगत क्षमताएं होती हैं. एडम स्मिथ ने इसे ‘मानव पूंजी’ का नाम दिया था. इसके क़रीब डेढ़ सौ साल बाद एल्फ्रेड मार्शल ने 1920 के दशक में ‘मानव पूंजी पर ध्यान देने और उसमें परिवार की भूमिका को लंबी अवधि का निवेश’ कहा था.

1776 में एडम स्मिथ ने कहा था कि किसी देश की आर्थिक प्रगति का स्रोत उसके नागरिकों की व्यक्तिगत क्षमताएं होती हैं. एडम स्मिथ ने इसे ‘मानव पूंजी’ का नाम दिया था. इसके क़रीब डेढ़ सौ साल बाद एल्फ्रेड मार्शल ने 1920 के दशक में ‘मानव पूंजी पर ध्यान देने और उसमें परिवार की भूमिका को लंबी अवधि का निवेश’ कहा था.

पूरे जीवन चक्र के दौरान अच्छी सेहत और बेहतरी के लिए कई क्षेत्रों की सेवाओं और कार्यक्रमों के ज़रिए दख़ल देने की ज़रूरत होती है. इसमें स्वास्थ्य और पोषण, शिक्षा और बच्चों के सामाजिक संरक्षण की ज़रूरत होती है. इन्हें नीतियों के सहयोगी माहौल, अलग-अलग क्षेत्रों के आपसी सहयोग और पूंजी लगाकर सुनिश्चित किया जाता है. द लैंसेट ने जीवन चक्र के दृष्टिकोण का एक मॉडल बनाया है (फिगर 1). इसमें गर्भ धारण से पहले से बच्चों के किशोर उम्र तक पहुंचने तक उन्हें दिए जाने वाले संरक्षण और उनकी कमज़ोरियों से जुड़े कारकों को बयान किया गया है.

पूरे जीवन चक्र के दौरान दख़ल और निवेश करने का न सिर्फ़ बच्चे के जीवन बल्कि आने वाली पीढ़ी पर भी असर पड़ता है और इससे तीन तरह से फ़ायदा होता है- तत्काल, भविष्य के वयस्क जीवन और बच्चों की अगली पीढ़ी के लिए. अर्थशास्त्री जेम्स हेकमन सुझाव देते हैं कि छोटे बच्चों में अधिक निवेश किया जाए, तो इससे शिक्षा, स्वास्थ्य और उत्पादकता में बेहतर रिटर्न मिलता है. ग़रीबी में जी रहे अफ्रीकी अमेरिकी प्री-स्कूल बच्चों में किए गए एक रिसर्च के नतीजे इशारा करते हैं कि अगर बच्चों के शुरुआती जीवन के कार्यक्रमों में निवेश करें, तो इस पर सालाना सात से दस प्रतिशत तक का रिटर्न मिलता है. बच्चे की पैदाइश से उसके पांच साल तक होने के दौरान किए गए निवेश से इससे भी अधिक यानी 13 प्रतिशत सालाना रिटर्न मिलता है और इसके अधिक सामाजिक लाभ भी होते हैं. हेकमैन कर्व (फिगर 2) दिखाता है कि अगर बच्चों के सीखने की शुरुआती उम्र में निवेश करें तो उससे ज़्यादा आर्थिक रिटर्न मिलता है

यूनीसेफ के मुताबिक़, ‘शुरुआती बचपन के विकास में निवेश सबसे सस्ती और ताक़तवर रणनीति है, जिसके ज़रिये उचित और स्थायी विकास हासिल किया जा सकता है.’ विश्व बैंक ने शिक्षा में किए गए निवेश के एक दशक की समीक्षा करके ये नतीजा निकाला कि अगर बच्चों को सिर्फ़ एक और साल स्कूल में पढ़ाया जाए तो इससे दुनिया की आर्थिक विकास दर 9 प्रतिशत बढ़ाई जा सकती है. पढ़ाई के लिए स्कूल लौटने से महिलाओं को बहुत फ़ायदा होता है. उनके औसत को देखते हुए महिलाओं की शिक्षा को प्राथमिकता देने की ज़रूरत है. अमेरिका के आंकड़े बताते हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं के ख़र्च और आमदनी, GDP और श्रमिकों की उत्पादकता के बीच मज़बूत संबंध होता है.

शिक्षा पर निवेश और रिटर्न

अगर हम भारत में शिक्षा पर निवेश के रिटर्न को देखें, तो एक हालिया रिपोर्ट कहती है कि यहां शिक्षा में निवेश का रिटर्न कम यानी 7.6 प्रतिशत ही है. भारत में पांच साल से कम उम्र के 43 प्रतिशत बच्चों के पूरी क्षमता से विकास न कर पाने का ख़तरा मंडरा रहा है. इसकी वजह ख़राब पोषण, ग़रीबी और शुरुआती प्रेरणा की कमी है. 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति शुरुआती बचपन की पढ़ाई को बदलने का इरादा रखती है. इसमें ‘शुरुआती बचपन के रख-रखाव और पढ़ाई’ पर ज़ोर दिया गया है. 2020 के मानव पूंजी के सूचकांक में शामिल 174 देशों में भारत का नंबर 116वां है. ये सूचकांक बच्चों के ज़िंदा रहने, स्वास्थ्य और पढ़ाई पर आधारित है. 2018 में भारत का स्कोर 0.44 था, जो दो साल में बढ़कर 0.49 हो सका है. महामारी ने मानवीय पूंजी के निर्माण में मिली इस मामूली सफलता को भी ख़तरे में डाल दिया है, क्योंकि इससे स्वास्थ्य सेवाओं में ख़लल पड़ा है और एक अरब से ज़्यादा बच्चों के स्कूल छूट गए हैं.

भारत में पांच साल से कम उम्र के 43 प्रतिशत बच्चों के पूरी क्षमता से विकास न कर पाने का ख़तरा मंडरा रहा है. इसकी वजह ख़राब पोषण, ग़रीबी और शुरुआती प्रेरणा की कमी है. 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति शुरुआती बचपन की पढ़ाई को बदलने का इरादा रखती है.

2019-20 का राष्ट्रीय सर्वे कुपोषण और भुखमरी मिटाने का लक्ष्य पाने में हुए सुधार की दिशा बदलने का चिंतित करने वाला ट्रेंड दिखा रहा है. महामारी के चलते खाद्य सुरक्षा हासिल करने की कोशिशों की राह में और भी मुश्किलें खड़ी हो गई हैं. भारत में दुनिया के कुल मलेरिया पीड़ितों की तीन प्रतिशत संख्या रहती है. विश्व के एक चौथाई टीबी के मरीज़ भारत में हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य पर भारत का ख़र्च उसकी कुल GDP का महज़ तीन और 1.26 प्रतिशत है. आर्थिक सर्वे ये संकेत देता है कि स्वास्थ्य पर अपनी जेब से ज़्यादा ख़र्च (OOPE) भारत में ग़रीबी बढ़ाने में अहम रोल निभा रहा है. सर्वे के मुताबिक़, 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में तय 2.5 प्रतिशत का लक्ष्य पाने के लिए  सार्वजनिक स्वास्थ्य में ख़र्च को प्राथमिकता देनी होगी. तभी हम सेहत पर आउट ऑफ़ पॉकेट ख़र्च को घटाकर 30 प्रतिशत तक ला सकेंगे. अभी ये 65 प्रतिशत है.

ब्रिक्स और अन्य विकासशील देशों के बीच भारत ही है, जो स्वास्थ्य पर सबसे कम ख़र्च करता है. इससे स्वास्थ्य सेवाओं और इससे जुड़े पेशेवर लोगों यानी डॉक्टरों, नर्सों, लैब टेक्निशियन्स की भारी कमी है.

चीन में प्रति एक हज़ार आबादी पर 2 डॉक्टर हैं तो भारत में ये संख्या सबसे कम यानी 0.8 ही है. भारत में नवजात बच्चों की मृत्यु दर भी बहुत अधिक 28.7 प्रतिशत (हर 1000 जन्म पर) है, जो दक्षिण एशियाई देशों में पाकिस्तान के 56 से ही कम है. शिक्षा के क्षेत्र की बात करें, तो भारत की साक्षरता दर 78 प्रतिशत है, जबकि दुनिया का औसत 86 फ़ीसद है. दुनिया के कुल वयस्क अनपढ़ लोगों में से 37 प्रतिशत अकेले भारत में रहते हैं. इंडिया स्किल्स रिपोर्ट 2021 के मुताबिक़, भारत में लोगों के रोज़गार पाने की क्षमता में भी कमी आई है. ये 2020 में 46.21 थी, जो 2021 में घटकर 45.9 रह गई. इसकी वजह लोगों में हुनर की कमी है. महामारी से भी देश में बेरोज़गारी बढ़ी है. जून 2021 में 10.4 प्रतिशत की दर के साथ भारत की बेरोज़गारी दर पड़ोसी देशों बांग्लादेश (4.19 प्रतिशत, श्रीलंका (4.20 फ़ीसद) और पाकिस्तान  (4.45 प्रतिशत) की तुलना में सबसे ज़्यादा है. कौशल संबंधी प्रशिक्षण से बेरोज़गारी के हालत से निपटा जा सकता है. पर, बदक़िस्मती से हमारी कुल कामकाजी आबादी के केवल दो प्रतिशत लोगों को ही कौशल विकास की ट्रेनिंग मिल सकी है

भारत ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस क्षेत्र में काफ़ी तरक़्क़ी की है. लेकिन, आज भी भारत में 31.3 करोड़ लोग अनपढ़ हैं; इनमें से 59 प्रतिशत महिलाएं हैं. हाउसहोल्ड सोशल कंज़ंमशन- एजुकेशन के आंकड़ों के मुताबिक़, पढ़ाई के मामले में शहरों और गांवों के बीच गहरी खाई दिखती है.

किसी भी देश की मानवीय पूंजी की गुणवत्ता का आकलन करने के लिए साक्षरता सबसे ज़रूरी पैमाना होता है. भारत ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस क्षेत्र में काफ़ी तरक़्क़ी की है. लेकिन, आज भी भारत में 31.3 करोड़ लोग अनपढ़ हैं; इनमें से 59 प्रतिशत महिलाएं हैं. हाउसहोल्ड सोशल कंज़ंमशन- एजुकेशन के आंकड़ों के मुताबिक़, पढ़ाई के मामले में शहरों और गांवों के बीच गहरी खाई दिखती है. शहरी क्षेत्रों में जहां 57.5 प्रतिशत लोगों ने अपनी माध्यमिक शिक्षा पूरी कर ली है, तो ग्रामीण क्षेत्रों में ये तादाद केवल 30.6 फ़ीसद ही है. शहरी क्षेत्रों में उच्च शिक्षा पूरी करने वाले 21.7 प्रतिशत हैं, तो ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी संख्या बस 5.7 फ़ीसद ही है. वैसे तो पढ़ाई के मामलें में पुरुषों और महिलाओं के बीच का अंतर कम हुआ है. लेकिन. अभी भी इस मामले में पुरुषों और महिलाओं के बीच 16.9 प्रतिशत का फ़ासला है.

महामारी के दौरान शिक्षा व्यवस्था के सामने नई चुनौतियां 

महामारी के दौरान स्कूल बंद होने और डिजिटल पढ़ाई से शिक्षा व्यवस्था के सामने नई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं. अलग अलग क्षेत्रों में स्मार्ट फ़ोन और इंटरनेट की उपलब्धता में अंतर से पढ़ाई में डिजिटल फ़ासला और बढ़ गया है. जहां शहरी क्षेत्रों में 42 प्रतिशत परिवारों के पास इंटरनेट की सुविधा है. वहीं, ग्रामीण क्षेत्रों में ये सुविधा 15 फ़ीसद से भी कम परिवारों के पास ही है. 2020 की शिक्षा की स्टेटस (ग्रामीण) रिपोर्ट के मुताबिक़, केवल 18 प्रतिशत ग्रामीण बच्चे ही ऑनलाइन क्लास में शामिल हो रहे हैं. भले ही आज 90 प्रतिशत घरों के में मोबाइल फ़ोन हों, लेकिन ऐसे घर केवल 62 प्रतिशत ही हैं, जहां स्मार्टफ़ोन हैं और वो भी परिवार के मुखिया के पास रहते हैं. नतीजा ये कि शिक्षा के लिए स्मार्टफ़ोन की उपलब्धता और कम हो जाती है.

सामाजिक विकास के इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे कि स्वास्थ्य और शिक्षा में व्यय की कमी साफ़ दिखती है. भारत सरकार मानवीय पूंजी को मज़बूत करने के लिए कई योजनाएं घोषित करती रही है. जैसे कि आयुष्मान भारत योजना, राष्ट्रीय शिक्षा नीति, आत्मनिर्भर भारत योजना, समग्र शिक्षा और अर्बन लर्निंग इंटरनशिप कार्यक्रम. सरकार की इन योजनाओं को ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंचाने की व्यवस्था बेहतर बनाने की ज़रूरत है, तभी पारदर्शिता और जवाबदेही तय की जा सकेगी. लोगों की सेहत, उनकी पढ़ाई और कौशल विकास में निवेश और उनका संरक्षण करना आमदनी में फ़र्क़ कम करने के लिए ज़रूरी है और तभी समावेशी टिकाऊ विकास हो सकेगा. एक मज़बूत सामाजिक इंफ्रास्ट्रक्चर स्थायी विकास के लक्ष्य पाने के लिए भी ज़रूरी है. इसलिए, भारत को अपनी बड़ी आबादी का फ़ायदा उठाने के लिए अगली पीढ़ी के नागरिकों की मानवीय पूंजी में निवेश करना होगा. यही इस समय की मांग है.

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