Author : Nisha Holla

Published on Aug 14, 2021 Updated 0 Hours ago

सार्वजनिक डिजिटल वस्तुओं को महामारी की स्थितियों के तेज़ी से मूल्यांकन और राहत संबंधी प्रतिक्रियाओं को विकसित करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. कोविड-19 के साथ भारत का अनुभव और भारत में इससे कैसे निपटा गया है, इसे दर्ज किया जाना चाहिए व इसका विश्लेषण किया जाना चाहिए. इस विश्लेषण के आधार पर विश्वभर में बेहतर व्यवस्था और प्रणालियां विकसित की जा सकती हैं.

नई पीढ़ी के छह अरब लोगों के लिए तक़नीक का ‘लोकतांत्रिकरण’

कोविड-19 की महामारी और दुनिया भर में इसके परिणाम स्वरूप लगाए गए लॉकडाउन ने ‘डिजिटलाइज़ेशन’ यानी डिजिटल तकनीक के प्रसार की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया है, और  मोबाइल व इंटरनेट की पैठ को बढ़ाते हुए, दुनियाभर में प्रौद्योगिकी को अपनाने के रुझानों को तेज़ किया है. साल 2000 में मुश्किल से 413 मिलियन लोग इंटरनेट का उपयोग करते थे;[1] आज, यह संख्या 4.5 बिलियन से अधिक है.[2] सदी के शुरुआत में सोशल मीडिया लगभग एक अनसुनी अवधारणा थी; आज, दुनियाभर के 7.7 बिलियन लोगों में, आधे से अधिक इसके सक्रिय उपयोगकर्ता हैं. आवश्यक सेवाओं के वितरण, शिक्षा, स्वास्थ्य, राहत पहुंचाने, सरकारी संचार और डिजिटल रूप से प्रसारित बिल भुगतान, विशेष रूप से महामारी के दौर में दुनिया के लगभग सभी देशों में एक हक़ीकत बन चुके हैं. कुलमिलाकर, तकनीकी-नागरिकता पूरी दुनिया के लिए अब भविष्य की एक अनिवार्य विशेषता है.

इंटरनेट, डिजिटल प्लेटफॉर्म और अत्याधुनिक तकनीक की सार्वभौमिक पहुंच स्थापित करना, हर अर्थव्यवस्था में एक आवश्यकता बन गई है. इसके अनुसार, डेटा गोपनीयता, व्यक्तिगत सुरक्षा, आत्मरक्षा और आत्मनिर्णय जैसे डिजिटल अधिकारों को और अधिक प्रतिबद्ध और अनुल्लंघनीय बनाने की आवश्यकता है.[3] व्यक्तिगत लाभ से परे,  तकनीकी-संप्रभुता, यह अपरिहार्य निष्कर्ष निकालती है कि डिजिटल माध्यमों और अत्याधुनिक तकनीकों का उपयोग और विकास, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए आवश्यक है. देशों को अपने नागरिकों के हितों को सुरक्षित करने के लिए एक तकनीकी नेटवर्क बनाने की ज़रूरत है.[4] साल 2020 ने, महामारी और उसके चलते होने वाली वैश्विक आर्थिक गिरावट, सीमा विवादों, प्रौद्योगिकी विवादों और इनोवेश की नई ऊंचाईयों के साथ, एक मौलिक और बुनियादी सवाल हमारे सामने रखा है कि- हम प्रौद्योगिकी के विकास का लोकतंत्रीकरण कैसे करेंगे. साथ ही सभी की सुरक्षा के लिए किस तरह, डिजिटल इक्विटी सुनिश्चित करेंगे?

इंटरनेट, डिजिटल प्लेटफॉर्म और अत्याधुनिक तकनीक की सार्वभौमिक पहुंच स्थापित करना, हर अर्थव्यवस्था में एक आवश्यकता बन गई है. इसके अनुसार, डेटा गोपनीयता, व्यक्तिगत सुरक्षा, आत्मरक्षा और आत्मनिर्णय जैसे डिजिटल अधिकारों को और अधिक प्रतिबद्ध और अनुल्लंघनीय बनाने की आवश्यकता है.

महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों तक पहुंच और उनके विकास की प्रक्रिया को लोकतांत्रिक बनाना ज़रूरी है. यह काम उसी टिकाऊ (sustainable) तरीके से किया जाना चाहिए, जिस तरह से समाज के लिए अन्य सार्वजनिक वस्तुओं का निर्माण किया जाता है. इसे गूगल या फेसबुक जैसी निजी कंपनियों के हाथों में छोड़ने से असंख्य ज्ञात और अज्ञात जोखिम हो सकते हैं, जिसमें डिजिटल एकाधिकार, निजी डेटा का व्यावसायीकरण या उससे मुनाफ़ा कमाना और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा मानकों के उल्लंघनों के कारण वित्तीय और गोपनीयता की हानि शामिल है. ध्यान रहे कि स्थानीय कानून इन मामलों में नाकाफ़ी साबित हो सकते हैं. प्रौद्योगिकी विकास के लिए चीन जैसे देशों पर निर्भरता, कई दूसरी तरह की चिंताओं को सामने ला सकती है. इसमें मुख्य रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े जोखिम शामिल हैं. इसके बजाय, डिजिटल कॉमन यानी “साझा (राष्ट्रीय) संसाधनों को विकसित और तैनात किया जाना चाहिए, जिसमें प्रत्येक हितधारक का समान हित शामिल हो[5].”

एक लोकतांत्रिक व साझा, डिजिटल संपदा (digital common) के लिए, पाँच निम्नलिखित विचारों या अवधारणाओं को परिकल्पित किया जा सकता है, जो इस दिशा में, मूलभूत विशेषताओं के रूप में काम करें:

  1. प्रौद्योगिकी तक सार्वभौमिक और न्यायसंगत पहुंच जो किसी भी समुदाय को पीछे नहीं छोड़े.
  2. लागत और घर्षण को कम करने के अंतर्निहित दर्शन के साथ बनाई गई एक ऐसी नीति, जो सक्रिय रूप से समावेश की भावना को आत्मसार करे.
  • निजी स्तर पर गोपनीयता (जैसे एन्क्रिप्शन के साथ निजी डिजिटल संचार का अधिकार), व्यक्तिगत सुरक्षा और रक्षा (लीक से हटकर और व्यक्तिगत डेटा के दुरुपयोग से सुरक्षा), आत्मनिर्णय (नियम व शर्तों से खुद को बाहर रखने की स्वतंत्रता और डेटा पर नियंत्रण व निजी सहमति के बिना उसके उपयोग पर रोक), स्वंय का डिजिटल प्रोफाइल नहीं बनाए जाने की छूट मिलना (स्वचालित प्रोफाइलिंग और बल्क सर्विलांस से खुद को बाहर रखने की छूट).
  1. कानून का सहारा लेना: यदि डिजिटल अधिकारों का दुरुपयोग किया गया है, तो कानून की ज़रूरत है. यह तभी संभव है, जब किसी नागरिक का डेटा उन्हीं सीमाओं के भीतर इस्तेमाल और एकत्रित किया जाए, जहां का वह नागरिक या निवासी हो. डेटा स्थानीयकरण और संप्रभुता डेटा, उल्लंघन के मामलों में, कानूनन हर नागरिक को उचित सहायता प्रदान करने का एकमात्र तरीका हैं.
  2. प्रौद्योगिकी के तीव्र विकास की प्रकृति निरंतर और अद्यतन जारी है, और आवश्यक भी है. डिजिटल कॉमन्स के लिए यह ज़रूरी है कि सभी माध्यमों की पारस्परिकता बनाए रखी जाए ताकि उनकी सहायता से उनके आधार पर बनाए जा रहे नए सिस्टम सही रूप में काम कर सकें.

क्यों अनोखा है सार्वजनिक डिजिटल वस्तुओं का मॉडल

निजी उद्योग ने परंपरागत रूप से प्रौद्योगिकी और डिजिटल माध्यमों के विकास का नेतृत्व किया है; बौद्धिक संपदा के क्षेत्र में विकास से जुड़ी अत्याधुनिक तकनीकें अभी भी मुख्य रूप से अमेरिका की लाभोन्मुख कंपनियों जैसे अल्फाबेट, एमेज़ॉन, आईबीएम, फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट और क्वालकॉम के पास हैं.[6] अमेरिकी सरकार, अपने प्रयासों के तहत, निजी क्षेत्र द्वारा उपयोग की जाने वाली, दोहरे-उपयोग की तकनीकों को विकसित करने के लिए, निजी क्षेत्र के साथ सक्रिय रूप से काम करती है, ताकि सरकार द्वारा अमेरिका के संप्रभु हितों की रक्षा की जा सके. उदाहरण के लिए, गूगल क्लाउड (Google Cloud), गूगल  मैप्स (google maps), एमेज़ॉन गवक्लाउड AWS सेवाओं (Amazon GovCloud AWS services), एज़्श्योर गर्वन्मेंट माइक्रोसॉफ्ट (Azure Government by Microsoft) द्वारा अमेरिकी सरकार को सहयोग प्रदान किया जाता है.

इस तकनीक की दिशा में सबसे पहले शुरुआत करने को लेकर अमेरिका को मिली, ‘फर्स्ट मूवर एडवांटेज’ के ज़रिए उसने निजी कंपनियों के वैश्वीकरण के माध्यम से अपनी डिजिटल प्रौद्योगिकियों और आर्किटेक्चर को दुनियाभर में सफलतापूर्वक निर्यात किया है. नतीजतन, अधिकांश वैश्विक नागरिक, हर दिन किसी न किसी रूप में अमेरिकी डिजिटल तकनीक का उपयोग करते हैं- या तो आईफोन या एंड्रॉइड स्मार्टफोन के ज़रिए या फिर फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया नेटवर्क के ज़रिए या फिर व्हाट्सएप और गूगल के ज़रिए, या ऐमेज़ॉन जैसी सेवाओं का लाभ उठाकर.

अमेरिकी प्रौद्योगिकी का प्रसार, अन्य देशों के नागरिकों के डेटा को अमेरिकी सुरक्षा तंत्र तक बिना किसी रोकटोक पहुंचाने से जुड़ा है. वैश्विक डिजिटल नागरिक का डेटा इन कंपनियों के डेटा केंद्रों के माध्यम से प्रसारित होता है, और इसे व्यवस्थित रूप से एकत्र किया जाता है, विश्लेषित किया जाता है और इससे व्यावसायिक लाभ कमाया जाता है.[7] [8] यह काम अक्सर इन उल्लंघनों को प्रोत्साहित करने वाले अस्पष्ट उपयोगकर्ता सेवा समझौतों द्वारा किया जाता है, जो उपयोगकर्ता के लिए सहज और सुलभ नहीं होते. अपने विशाल डेटा बैंकों के बल पर, ये कंपनियां एकाधिकारवादी डिजिटल और डेटा समूह के रूप में विकसित हुई हैं.[9]

यूरोपियन यूनियन के जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन (GDPR) के ज़रिए हाल ही में, व्यक्तिगत डेटा के संग्रह, भंडारण और उसके ज़रिए लाभ कमाने पर अंकुश लगाने की कार्रवाई की गई.[10] जीडीपीआर के अंतर्गत यह अनिवार्य है कि डेटा का संग्रह करने वाली ईकाई, किसी तीसरे पक्ष को व्यक्तिगत जानकारी जैसे नाम, नस्लीय और धार्मिक पहचान, संपर्क जानकारी और लोकेशन-टैग नहीं बेच सकती है. जीडीपीआर यह निर्देश देता है कि उपयोगकर्ताओं को सूचित किया जाना चाहिए कि उनके डेटा का उपयोग कैसे किया जाता है, साथ ही स्वचालित प्रोफाइलिंग को ऑप्ट-आउट करने यानी खुद को उससे बेदखल करने की अनुमति दी जानी चाहिए, जिससे कि दर्ज की गई उनकी जानकारी और उनके डेटा के प्रसंस्करण को मिटाया जा सके.

जीडीपीआर के नए निर्देश, डेटा संग्रहकर्ता को यह प्रदर्शित करने के लिए बाध्य करते हैं कि उनके पास डेटा एकत्र करने के लिए सत्यापन योग्य कारण हैं, और यह काम लक्षित विज्ञापन और संबंधित सेवाओं के लिए ही है, व कि किसी तीसरे पक्ष को समग्र रूप से उपलब्ध कराए जाने के लिए नहीं. 

पहले उपयोगकर्ता, स्वत: रूप से इन कंपनियों को अपने डेटा पर अधिकार देने संबंधी सहमति प्रदान किया करते थे, और इन कंपनियों के मानकों, नियमों, शर्तों और गोपनीयता समझौतों में नामांकित हो जाते थे. अब, जीडीपीआर ने यह अधिकार पूरी तरह से उपयोगकर्ता को दे दिया है. जीडीपीआर के नए निर्देश, डेटा संग्रहकर्ता को यह प्रदर्शित करने के लिए बाध्य करते हैं कि उनके पास डेटा एकत्र करने के लिए सत्यापन योग्य कारण हैं, और यह काम लक्षित विज्ञापन और संबंधित सेवाओं के लिए ही है, व कि किसी तीसरे पक्ष को समग्र रूप से उपलब्ध कराए जाने के लिए नहीं. यदि कोई डेटाबेस हैक होता है, तो जीडीपीआर उपयोगकर्ताओं को तीन दिनों के भीतर सूचित किया जाएगा. संक्षेप में, जीडीपीआर एक ऐसी रूपरेखा तैयार करता है, जो डिजिटल सिस्टम की पारदर्शिता को डिजिटल कॉमन्स की आवश्यक विशेषताओं के करीब ले जाता है. यह एक व्यापक रूपरेखा है जो अन्य देशों को तकनीकी-संप्रभुता को लागू करने के लिए सक्षम बनाती है, और उनका सहयोग करती है.

अमेरिकी कंपनियों के तकनीकी विस्तार का सबसे बड़ा कारण चीनी प्रौद्योगिकी की वैश्विक तैनाती है.[11] चीन ने न केवल डिजिटल माध्यम और आर्किटेक्चर विकसित किए हैं, बल्कि कई स्मार्टफ़ोन और अन्य उपकरणों में उपयोग किए जाने वाले अंतर्निहित हार्डवेयर सिस्टम भी विकसित किए हैं. कंप्यूटर, इलेक्ट्रॉनिक्स और ऑप्टिकल उत्पादों में वैश्विक निर्यात की चीनी हिस्सेदारी 2003-07 में 15 प्रतिशत से बढ़कर 2013-17 में 28 प्रतिशत हो गई, जो अब वैश्विक रूप से एक चौथाई से अधिक हिस्सेदारी तक पहुंच चुकी है.[12] अपने देश को एक निगरानी राज्य में विकसित करने के बाद, जहां गोपनीयता और आत्मनिर्णय का पूरी तरह दमन किया जाता है,[13] चीन अब अन्य देशों के नागरिकों के साथ भी ऐसा करने का प्रयास कर रहा है.[14] बाइट-डांस (ByteDance) नामक कंपनी के स्वामित्व वाले टिकटॉक जैसे चीनी ऐप; ई-कॉमर्स वेवसाइट जैसे अलीबाबा और वी-चैट (WeChat) जैसी चीनी कंपनियों ने अन्य देशों में विस्तार किया है, और एक बड़ा तंत्र स्थापित किया है. यह एंड्रॉइड फोन और उपकरणों पर चीन के डिज़ाइन संबंधी प्रभुत्व का भी नतीजा है. यही वजह है कि एंड्रॉइड फोन और उपकरण बनाने वाली कंपनी सैमसंग के पहले नंबर के आने के बाद, अगले चार सबसे बड़े एंड्रॉइड डिवाइस निर्माता भी चीनी ही हैं.[15] भारत और अमेरिका सहित कई देशों के खुफ़िया विभागों ने ‘स्पाईवेयर’ और ‘मालवेयर’ के लिए चीनी ऐप्स को ज़िम्मेदार माना है.[16] हाल ही में यानी इस साल जून महीने में, चीनी कंपनियों द्वारा, भारतीय डेटा के प्रसार के चलते, राष्ट्रीय सुरक्षा को ख़तरे और भारतीय हितों के ख़िलाफ़ इसके उपयोग के संदेह के बीच, भारत सरकार ने पहले 59 और फिर अतिरिक्त 118 चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध लगा दिया.[17] इसके बाद अमेरिकी सरकार ने भी इसी तरह सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए कई चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध लगा दिया.[18]

अमेरिकी मॉडल के विपरीत, चीनी सरकार अंतरिम रूप से अपनी कंपनियों के प्रौद्योगिकी विकास से पूरी जुड़ी हुई है और अपनी विस्तारवादी रणनीति के हिस्से के रूप में उन्हें देखती है, व नियुक्त करती है.[19] ऐप्स के अलावा, चीनी कंपनियां, अन्य देशों को अक्सर कम लागत वाले दूरसंचार और उससे जुड़े अन्य उपकरण भी प्रदान करती हैं. इसने भविष्य के 5जी नेटवर्क और तंत्र के अलावा कई महत्वपूर्ण संचार चैनलों पर चीन की पकड़ को मज़बूत कर दिया है.[20] यही वजह है कि अमेरिका ने पहले हुआवेई (Huawei) और फिर ज़ेडटीई को अमेरिका में 5जी दूरसंचार नेटवर्क के लिए बोली लगाने से प्रतिबंधित कर दिया था. इसके बाद, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और जापान ने भी हुआवेई को 5जी नेटवर्क घटकों की आपूर्ति करने से रोक दिया है.[21]

यह स्पष्ट है कि यह दोनों मॉडल, अपने स्वभाव के अनुरूप ही, लोकतांत्रिक ढांचे और प्रणाली के लिए ज़रूरी पांच विशेषताओं को आत्मसात नहीं कर सकते हैं. अगर तकनीकी कंपनियों को अनियंत्रित, खुद अपने नियमों के अधीन छोड़ दिया जाए, तो अमेरिकी मॉडल पूरी तरह से, लाभ और विज्ञापन राजस्व को प्राथमिकता देने वाला और निजी अधिकारों और गोपनीयता को दरकिनार करने वाली कंपनियों पर आधारित हो जाएगा. अन्य देशों के नागरिकों के लिए, नियमों के उल्लंघन की स्थिती में इक्विटी और कानून का सहयोग, स्थानीय स्तर पर अनुपलब्ध है. ऐसे में डेटा संप्रभुता और स्थानीयकरण मानदंडों से जुड़ी जीडीपीआर जैसी सख्त प्रणालियों को लागू करके ही, इनमें से कुछ चिंताओं को खत्म किया जा सकता है. लेकिन आर्थिक समावेशन, स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच और शिक्षा जैसी महत्वपूर्ण सेवाओं के लिए, कोई भी अपने देश से बाहर के प्रदाताओं पर निर्भर नहीं हो सकता है. यही वजह है कि चीनी तकनीकों और माध्यमों पर भरोसा करना किसी भी रूप में सही नहीं होगा.

यही वजह है कि भारत ने स्वत: एक अनोखा मॉडल तैयार किया है, जो डीपीजी की आवश्यकताओं के अनुकूल है. भारत में डीपीजी का विकास केवल निजी कंपनियों द्वारा लाभ के उद्देश्य से नहीं किया जाता है,  और न ही उन्हें निगरानी-उन्मुख तकनीकों पर सरकारी नियंत्रण की दृष्टि से विकसित किया गया है. इंडिया स्टैक, सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) के एक उदाहरण के रूप में उभरा है, जो स्वयंसेवकों द्वारा संचालित सॉफ्टवेयर प्लेटफॉर्म की एक श्रृंखला है, जो सरकार की डिजिटल इंडिया और वित्तीय समावेशन नीतियों की रीढ़ है.

इंडिया स्टैक का विकास

इंडिया स्टैक का विकास, नागरिकों की पहचान स्थापित करने से जुड़ी एक मौलिक समस्या को हल करने की शुरूआत के रूप में हुआ. यानी मकसद था इसके ज़रिए एक व्यापक पहचानकर्ता की कमी की भरपाई करना. साल 2009 में भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (UIDAI) के आरंभ के साथ, भारत सरकार ने दुनिया की सबसे बड़ी पहचान प्रणाली- ‘आधार’ को चालू किया, जिसके तहत प्रत्येक नागरिक की पहचान को जनसांख्यिकीय, आवासीय और बायोमेट्रिक आंकड़ों से जोड़ा गया और प्रत्येक भारतीय निवासी के लिए 12-अंकों की विशिष्ट पहचान के रूप में इस व्यवस्था को स्थापित किया गया.

‘आधार’ से पहले, भारत के पास अपनी तत्कालीन 1.2+ अरब लोगों की पहचान करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी और ऐसी कोई भी कार्रवाई उसके लिए एक व्यापक समस्या थी. पहचान स्थापित करने से जुड़े, विभिन्न उपलब्ध आईडी सिस्टम जैसे कि ड्राइविंग लाइसेंस, वोटर आईडी कार्ड, स्थायी खाता संख्या और राशन कार्ड, अलग-अलग रूप से खंडित थे, और यह एक साथ मिलकर इस्तेमाल नहीं किए जा सकते थे. ऐसे में देश को सामान्य भारतीय नागरिक की पहचान करने वाली, एक ऐसी व्यवस्थित राष्ट्रव्यापी आईडी प्रणाली की आवश्यकता थी, जिसके तहत वो लोग भी अपनी पहचान स्थापित कर सकें और सरकारी योजनाओं का लाभ उठा सकें, जिनके पास कोई बैंक खाता या वाहन नहीं था. फरवरी 2020 तक, 90 प्रतिशत लोगों को ‘आधार’ कार्ड जारी किया जा चुका था [22] भारत ने दुनिया की सबसे बड़ी और व्यापक बायोमेट्रिक आईडी प्रणाली का निर्माण किया और इसकी व्यापक कवरेज, सरलता और लचीलेपन के लिए दुनिया भर में इसे मान्यता प्राप्त हुई है. नोबेल पुरस्कार विजेता और विश्व बैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री पॉल रोमर ने कहा है कि, “भारत में मौजूद यह सिस्टम [आधार प्रणाली] मेरे संज्ञान में आई व्यवस्थाओं में सबसे परिष्कृत है.. यह सभी प्रकार के कनेक्शनों का आधार है, जिसमें वित्तीय लेनदेन जैसी चीजें शामिल हैं… और यदि इसे व्यापक रूप से अपनाया जाता है, तो दुनिया के लिए एक बेहतर प्रणाली साबित हो सकती है”.[23]

‘आधार’ से पहले, भारत के पास अपनी तत्कालीन 1.2+ अरब लोगों की पहचान करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी और ऐसी कोई भी कार्रवाई उसके लिए एक व्यापक समस्या थी. 

नंदन नीलेकणी जैसे अग्रणी टेकनॉलॉजिस्ट की भागीदारी के ज़रिए, यूआईडीएआई प्रणाली शुरू से ही, बहु-मंचीय और सार्वजनिक उपयोगिता के रूप में, ‘अनुप्रयोग प्रोग्रामिंग इंटरफेस’ (application programming interfaces यानी एपीआई) पर आधारित थी, जिसका उपयोग अन्य उत्पादों, सेवाओं और प्लेटफार्म विकसित करने के लिए किया जा सकता है. यह निर्णय, भारत स्टैक और डीपीजी मॉडल के विकास के लिए बेहद महत्वपूर्ण साबित हुआ. ‘आधार’ ने पहले, नए बैंकिंग और भुगतान के तरीकों का विकास किया. इसके बाद, नेशनल पेमेंट्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (NPCI) ने APBS (‘आधार’ पेमेंट ब्रिज सिस्टम) और AEPS (‘आधार’ इनेबल्ड पेमेंट्स सिस्टम) लॉन्च किया, जिसे आधार पर बैंक खाता और आधारकार्ड धारक इन सुविधाओं का इस्तेमाल कर सकते हैं.[24] APBS-AEPS नेटवर्क ने सीधे-लाभार्थी के लिए लाभप्रद लेनदेन प्रणाली को सक्षम बनाया, जिसने भारत के विशाल, direct-beneficiary-transfer (DBT) यानी सीधे लाभार्थी को हस्तांतरण वाली प्रणाली को साकार रूप दिया. अब तक, भारत सरकार द्वारा राहत और आय सहायता के रूप में, चुने गए लाभार्थियों को, सीधे डीबीटी के माध्यम से 12 ट्रिलियन भारतीय रुपयों का वितरण किया गया है. [25]

साल 2012 में, ‘आधार’ की तकनीक पर आधारित, ई-केवाईसी (e-KYC) ने आकार लिया, जिसके तहत ग्राहकों की पहचान सुनिश्चित करना और उसे सत्यापित करना आसान हुआ. इसके साथ ही बैंकिंग क्षेत्र में मौजूद पहचान से जुड़ी यह समस्या, जो पिछले कई दशकों से बनी हुई थी, एक झटके में हल कर दी गई, क्योंकि व्यवसाय और बैंक अब बायोमेट्रिक्स या मोबाइल टीटीपी से जुड़े डिजिटल रूप से, केवाईसी का सत्यापन कर सकते हैं.[26] भारत में मोबाइल की पैठ बढ़ने के साथ ही,  मोबाइल और ‘आधार’ को जोड़ने की प्रणाली एक और मास्टरस्ट्रोक था. जन-धन जो जेएएम (जन धन-आधार-मोबाइल) प्रणाली का आर्थिक और अंतिम घटक था, उसे साल 2014  में लागू किया गया और यह दुनिया में सबसे बड़ी वित्तीय समावेशन पहल में से एक रहा है. इसने 400  मिलियन से अधिक भारतीयों को डिजिटल रूप से सुलभ, बैंक खाता प्रदान किया है [27]

प्रधानमंत्री जन धन योजना  (PMJDY)   ने विशिष्ट पहचान प्रणाली के आधार पर, बैंकिंग तक सार्वभौमिक पहुंच के लिए एक मंच की शुरूआत की, जिसे ‘आधार’ ने पूरी तरह संभव बनाया. पीएमजेडीवाई की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताओं में,  हर घर के लिए एक बुनियादी, शून्य-शेष बैंकिंग खाते का प्रावधान, ऑनलाइन लेनदेन के लिए एक RuPay डेबिट कार्ड, क्रेडिट और बीमा तक पहुंच, प्रेषण और पेंशन सुविधाएं शामिल हैं.[28] मोबाइल बैंकिंग अब बुनियादी सुविधाओं की तरह, फोन पर उपलब्ध हो गई है. भारतीय जनसंख्या के एक बड़े तबके को पहले कभी इस तरह की सेवाओं का लाभ उठाने का अवसर नहीं मिला था. ध्यान रहे कि जन धन खाता धारकों में 50 प्रतिशत से अधिक महिलाएं हैं.[29] भारत स्टैक अब एक अरब भारतीयों के बीच सार्वभौमिक पहुंच और इक्विटी को बढ़ावा दे रहा है

जेएएम आर्किटेक्चर ने वित्तीय सेवाओं तक पहुंच का लोकतंत्रीकरण किया है और भारत ने ‘वित्तीय समावेश’ से परे, ‘वित्तीय एकीकरण’ की दिशा में  छलांग लगाई है. जेएमए ने विभिन्न सरकारी मंत्रालयों और विभागों को आवश्यक सेवाएं शुरू करने में सक्षम बनाया है,  ताकि आधारकार्ड  धारक, दस्तावेज़ों पर डिजिटल रूप से हस्ताक्षर करने में सक्षम हो सकें. [30] इसके तहत, डिजिलॉकर ने पंजीकृत मोबाइल फोन के ज़रिए, सत्यापित डिजिटल दस्तीवेज़ों के माध्यम से भौतिक दस्तावेजों को ले जाने की आवश्यकता को खत्म किया [31] MUDRA योजना ने लघु व्यवसाय ऋण को संभव बनाया [32] केंद्रीय-केवाईसी के ज़रिए, व्यापार के लिए केवाईसी रिकॉर्ड का एक केंद्रीकृत भंडार बनाने की शुरुआत हुई,[33] और ‘आधार’-पे की शुरुआत हुई, ताकि व्यापारी आधार बायोमेट्रिक सिस्टम के माध्यम से ग्राहकों से भुगतान प्राप्त कर सकें.[34]

एनपीसीआई द्वारा हासिल हुई एक अन्य मारक सफलता थी,  यूनाइटेड पेमेंट्स इंटरफेस (यूपीआई) की शुरूआत,  जो किसी भी समय,  देश के किसी भी भाग में,  बैंक में खाते संचालित करने के लिए, तत्काल भुगतान सेवा प्रोटोकॉल का उपयोग करने वाली एक नई तकनीक थी.[35] यूपीआई के साथ, दुनिया में पहली बार, मोबाइल फोन पर एक क्लिक के ज़रिए, एक बैंक खाते से दूसरे में, छह सेकंड के भीतर पैसे भेजे जा सकते हैं. यूपीआई ने अकाउंट-टू-अकाउंट से जुड़ी पैसे की वास्तविक आवाजाही का संचालन किया, जिसके चलते हाथ से लिखे खातों यानी लेजर की व्यवस्था का अंत हुआ. साथ ही वीज़ा और अन्य प्रोटोकॉल के तहत उपयोग की जाने वाली, लंबित सामंजस्य प्रणाली (delayed reconciliation system) का भी विकल्प पैदा हुआ. इसने भारत में विभिन्न बैंकिंग सुविधाओं का विलय करके, बैंकों के बीच फंड का हस्तांरण करने और एक ही प्लेटफॉर्म पर मर्चेंट भुगतान को सक्षम बना कर भारत में डिजिटल भुगतान के क्षेत्र में क्रांति ला दी. इस प्रणाली ने, न सिर्फ ग्राहकों, बैंकों और व्यापारियों की लागत में कमी की, बल्कि सरलीकृत ऑप्ट-इन प्रक्रियाओं और प्रोटोकॉल के मानकीकरण जैसे कई फायदे भी सामने आए. इसने भारत में बिल-पे-सिस्टम का मार्ग भी प्रशस्त किया. BHIM ऐप को एक उदाहरण के रूप में पेश किया गया, जिसके तहत, यूपीआई को बिल भुगतान प्रणाली से लैस किया गया. PayTM, PhonePe और MobiKwik जैसे ऐप्स ने डिजिटल वन-स्टॉप व्यवस्था बनाने के लिए रेलवे टिकटिंग सिस्टम और विभिन्न ई-कॉमर्स नेटवर्क के साथ यूपीआई और बिल-पे को एकीकृत करके BHIM ऐप पर काम किया. अब यूपीआई लेनदेन की मात्रा में लगातार वृद्धि हो रही है. अगस्त 2020  में 1.62 बिलियन की संख्या में हुई लेन-देन ट्रांज़ेक्शन के तहत, लगभग तीन ट्रिलियन भारतीय रुपए का लेन-देन हुआ है. यह अभी तक की उच्चतम सीमा रही है.[36]

‘आधार’ से हल हुई पहचान संबंधी समस्या ने जिस इंडिया स्टैक का विकास किया उसके चलते, लेन-देन, बैंकिंग, बिल भुगतान, DBT के माध्यम से राहत वितरण के लिए आधारभूत ढांचा तैयार हुआ. यह दिखाता कि डिजिटल माध्यमों तक पहुंच को बढ़ाने और इन तकनीकों के लोकतंत्रीकरण में इसका बढ़ता योगदान है. डेटा गोपनीयता और नियामक ढाँचों के लिए मॉड्यूल को भी इसी तरह आत्मसात किया जा सकता है. सरकार ने खाता एग्रीगेटर[37] और डेटा गोपनीयता विधेयक के साथ इस दिशा में पहल की है. यह डीपीजी, निजी खिलाड़ियों के स्वामित्व में नहीं हैं, और स्वतंत्र तकनीकी सलाहकारों के माध्यम से सरकार द्वारा नियंत्रित व प्रबंधित हैं. भारतीय न्यायालय व्यवस्था के तहत भी इस प्रणाली के सही काम करने और उसे जवाबदेह बनाने की दिशा में काम किया गया है. इसके तहत नागरिकों को इस प्रक्रिया में हितधारक माना गया है, और यदि उनके अधिकारों का हनन होता है, तो वह कानून का सहारा ले सकते हैं. यह उदाहरण दिखाते हैं कि किस प्रकार इन चरणों को लागू कर, डिजिटल कॉमन्स के लिए ज़रूरी सभी पांच आवश्यक विशेषताओं को लागू किया जा सकता है.

डीपीजी आर्किटेक्चर की सुविधा और इस्तेमाल

भारत जैसे बड़े और विविधता वाले देश में, सार्वजनिक स्वामित्व वाली, विनियमित प्रौद्योगिकी रूपरेखाओं का उपयोग करके वित्तीय एकीकरण संभव किया गया है, जो खुले एपीआई के ढांचे के साथ, एक संगठित तरीके से, निजी डेवलपर्स के लिए भी सुलभ है. इन रूपरेखाओं को आम तौर पर निजी क्षेत्र के परामर्श से विकसित किया जाता है, और सभी खिलाड़ियों के लिए सुलभ एक सार्वजनिक मंच के रूप में देखा जाता है. खुली पहुंच ने प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दिया है, और इनोवेशन व निवेश को बढ़ावा दिया है. इस प्रकार अंतत: इससे उपयोगकर्ताओं को अधिक मूल्य मिलता है, और उन्हें बेहतर सेवाएं व सुविधाएं प्राप्त होती हैं. खुले लाइसेंसिंग के प्रारूप  (open licensing format) से एकाधिकार बनाने की प्रवृत्ति पर रोक लगती है, और सभी के लिए एक समान-खेल-क्षेत्र विकसित होता है.

महामारी और राष्ट्रीय लॉकडाउन के दौरान,  इंडिया स्टैक को अत्यअधिक मान्यता प्राप्त हुई है. भारत सरकार ने किसानों, महिला जन धन खाता धारकों, ग्रामीण श्रमिकों, विकलांगों, विधवाओं और अन्य वंचित समूहों सहित डीबीटी [38] के माध्यम से तुरंत और सीधे 420+ मिलियन लाभार्थियों को राहत सहायता भेजी. बिल-पे ने नागरिकों को सेवाओं और उपयोगिताओं की निरंतरता बनाए रखने के लिए, डिजिटल रूप से भुगतान करने की छूट दी. यूपीआई प्रोटोकॉल ने पीयर-टू-पीयर ट्रांसफर की अनुमति एक ऐसे समय में दी जब लोग सामाजिक दूरी (social distancing) के चलते, व्यक्तिगत रूप  में लेन-देन नहीं कर सकते थे. ई-साइन, डिजिलॉकर और अन्य सुविधाओं ने बहुत से व्यवसायों को लॉकडाउन में संचालन जारी रखने में सक्षम बनाया.

.भारत से इतर, डीपीजी आर्किटेक्टर, उन समस्याओं को हल कर सकता है, जिनका सामना अन्य देश भी कर रहे हैं, और जो वैश्विक महामारी और आर्थिक गिरावट के चलते तेज़ी से प्रकट हो रही हैं. 

भविष्य को देखते हुए, पीपीपी मॉडल द्वारा प्रबंधित यह डीपीजी आर्किटेक्चर, अर्थव्यवस्था के लिए (विशेष रूप से कोविड-19 के बाद के परिदृश्य में) आर्थिक बहाली का ज़रिया बन सकता है. मैकिन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट,  ‘इंडियाज़ टर्निंग पॉइंट’ के मुताबिक, “वित्तीय क्षेत्र में सुधार और संसाधनों को सुव्यवस्थित करने के ज़रिए,  उद्यमों के लिए पूंजी की लागत को लगभग 3.5 प्रतिशत अंक कम करके उद्यमशीलता को बढ़ावा देते हुए, निवेश में 2.4 ट्रिलियन डॉलर का इजाफ़ा किया जा सकता है,”[39] देश में विकास को त्वरित करने के लिए, नेक्स्ट-जेन फाइनेंशियल सर्विसेज़ को भी विकास-इंजन के रूप में आंका गया है. इंडिया स्टैक ने पहले से ही वित्तीय क्षेत्र में बहुआयामी सुधार के ज़रिए, डीबीटी, रियल एस्टेट फ्लो प्रबंधन, डिजिटल भुगतान, बिल भुगतान के ज़रिए संसाधनों को सुव्यवस्थित किया है. इस मज़बूत ट्रैक रिकॉर्ड के साथ, यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उच्चतम तकनीका का यह ढांचा, 2.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश का मार्ग प्रशस्त करेगा. मैकिन्से की रिपोर्ट के मुताबिक यह पूंजी की लागत को कम करने के लिए भी महत्वपूर्ण साबित होगा.

भारत से इतर, डीपीजी आर्किटेक्टर, उन समस्याओं को हल कर सकता है, जिनका सामना अन्य देश भी कर रहे हैं, और जो वैश्विक महामारी और आर्थिक गिरावट के चलते तेज़ी से प्रकट हो रही हैं. अपनी हालिया रिपोर्ट, ‘द फ्यूचर ऑफ डिस्ट्रक्टिव एंड इनेबल्ड फाइनेंशियल टेक्नोलॉजी पोस्ट कोविड-19’, में फिंच कैपिटल ने कई क्षेत्रों पर महामारी के व्यापक आर्थिक प्रभाव का सर्वेक्षण किया और आर्थिक सुधारों के लिए वित्तीय प्रौद्योगिकी के समर्थकों का अनुमान लगाया.[40] इस आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि डिजिटल तकनीक ही दुनिया भर में बैंकिंग, बीमा, धन प्रबंधन और भुगतान जैसी वित्तीय सेवाओं के लिए एक नया मानदंड बनकर उभर रही है. पूरे देश की अवलंबी कागज़ों पर आधारित वित्तीय प्रणाली को डिजिटल करने के लिए, भारत स्टैक जैसे विशाल, अंतर-उपयोगी, व खुले आर्किटेक्चर वाले तकनीकी पटल की आवश्यकता है. फिंच कैपिटल ने ई-केवाईसी की पहचान एक महत्वपूर्ण प्रणाली के रूप में की है, “सुरक्षित डिजिटल आईडी के लिए बढ़ती आवश्यकता, बढ़ती डिजिटल व्यापार की मात्रा, लेन-देन और ग्राहक संपत्तियों की सुरक्षा के लिए यह एक आवश्यक व मज़बूत समाधान के रूप में उभर रहा है,” यह एक ऐसी समस्या है, जिसे भारत की ‘आधार प्रणाली’ पिछले एक दशक में पहले ही हल कर चुकी है.  इस रिपोर्ट में ग्राहक सहायता, खाता खोलने की प्रक्रिया, ऋण प्रसंस्करण और स्वचालन, डेवलपर सहयोग और महत्वपूर्ण घटकों के रूप में गोपनीयता की आवश्यकताओं के लिए तकनीकी-संचालित टूलकिट की पहचान की गई है; यह कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें, जेएएम (JAM) आर्किटेक्चर, पहले ही हल कर चुका है. फिंच कैपिटल इन उद्देश्यों को प्राप्त करने में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) की महत्वपूर्ण भूमिका को भी रेखांकित करता है; एआई और बिग डेटा एनालिटिक्स की तैनाती के लिए- समान पहचान संख्या यानी ‘आधार’ सरीखे सिस्टम के ज़रिए एकत्रित किए गए, डेटा के स्वच्छ सेट की आवश्यकता होती है. इस मायने में यह सभी तकनीकें एक के ऊपर एक सवार होकर सार्वभौमिक रूप से काम करती हैं.

इस तरह एक नए और मान्य डीपीजी आर्किटेक्चर के ज़रिए, भारत पूरी दुनिया के लिए ‘टेक बाई ऑल’ यानी सभी के प्रयासों द्वारा विकसित तकनीकी व्यवस्था और ‘टेक फॉर ऑल’ यानी सभी के लिए तकनीक की उपलब्धता के प्रतिमान स्थापित करने की ओर बढ़ रहा है. इंटरऑपरेबिलिटी यानी मिलाजुलाकर काम करने की सहूलियत और मॉड्यूलर आर्किटेक्चर इसके लिए प्रमुख घटक हैं. ये सेवाओं को स्थानीय भाषाओं में उपलब्ध कराने, प्रवाह-आधारित उधार, विभिन्न सहायता प्रतिमानों के साथ अधिक वित्तीय एकीकरण का मार्ग प्रशस्त करते हैं, जिनमें ‘वर्नाक्युलर वॉयस असिस्टेंट’, डीमैट खातों व बीमा योजनाएं, और व्यक्तिगत आधार पर ढाली गई, सुविधाओं जैसे सहूलियतें शामिल हैं.

डीपीजी आर्किटेक्चर में होने वाले इनोवेशन की पहली लहर आर्थिक समावेशन और एकीकरण पर आधारित थी. यह पूरी तरह से ठीक भी था कि इसके तहत, कई क्षेत्रों (स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रौद्योगिकी, और श्रम प्रबंधन) में सुधार और बेहतर उत्पादकता के लिए अंतर, मॉड्यूलर और मल्टीप्लायर सिस्टम बनाए गए. वहीं इस प्रणाली के दूसरे और तीसरे चरण में अब संभावनाएं असीम हैं, और उनके सामने केवल एक ही सीमा है, कुछ नया सोचने की क्षमता में कमी.

डीपीजी का अगला पड़ाव: स्वास्थ्य और महामारी से निपटना

महामारी ने भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था की खामियों को उजागर किया है. भारत में विश्व स्तरीय स्वास्थ्य सेवा केवल कुछ शहरी इलाकों में ही में उपलब्ध है, और आधारभूत संरचना में भी कई तरह की असमानताएं हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के अनुसार, देश में लगभग 600,000 डॉक्टरों और दो मिलियन नर्सों के साथ, प्रशिक्षित चिकित्सा कर्मियों की भारी कमी है.[41] महामारी ने वास्तविक समय में मिलने वाली सूचनाओं (real time) और सहयोग प्रणाली की आवश्यकता को सामने ला खड़ा किया है, जो संक्रमित रोगियों की संख्या पर अप-टू-डेट डेटा प्रदान कर सकती है, कि वे किस स्थिति में हैं (बिना किसी लक्षण के, हल्के लक्षण वाले या गंभीर). साथ ही अस्पतालों में खाली बिस्तरों की जानकारी भी वास्तविक समय में हासिल की जा सकती है जैसे, आईसोलेशन कमरे, वार्ड, आईसीयू, वेंटीलेटर से युक्त कमरे आदि. इस बात को इस तथ्य से भी बढ़ावा मिलता है कि कई भारतीय अस्पताल अभी भी हस्त लिखित कागज़ी कार्रवाई पर निर्भर हैं. यह स्थिति एक दशक पहले भारत के वित्तीय क्षेत्र की स्थिति की याद दिलाती है- यानी एक विश्वसनीय मल्टीप्लेटफॉर्म व्यवस्था के निर्माण के लिए एकीकृत तकनीकी प्रणाली की कमी, जिससे जुड़ कर सभी हितधारक उसका इस्तेमाल कर सकें और इस एकीकृत तकनीकी व्यवस्था के आधार पर अपनी प्रणाली का निर्माण कर सकें, साथ ही उसे अपनी आवश्यकताओं के मुताबिक अनुकूलित कर सकें.

इस बार जो बात अलग है वह यह है कि भारत ने स्वास्थ्य क्षेत्र में तैनाती के लिए डीपीजी आर्किटेक्चर को मान्य बनाने के लिए लगभग एक दशक का समय लगाया है. इंडिया-स्टैक, राष्ट्रीय स्वास्थ्य स्टैक (एनएचएस) के लिए आधार बनाता है [42] जिसके ज़रिए, राष्ट्रीय स्वास्थ्य इलेक्ट्रॉनिक रजिस्ट्रियों, दावों और कवरेज बीमा एक मंच पर आ सकते हैं और एक केंद्रीकृत व्यक्तिगत स्वास्थ्य रिकॉर्ड ढांचे का निर्माण किया जा सकता है. ‘आयुष्मान भारत’ की पहल के अंतर्गत, भारत जैसे जैसे, निर्बाध रूप से जुड़ने वाली विभिन्न परतों की परिकल्पना कर सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा की दिशा में बढ़ रहा है, इस तरह के तंत्र की ज़रूरत और लाभ, प्रमुखता से सामने आ रही है. एनएचएस के पास भी खुले एपीआई टूलकिट होंगे, जिनका उपयोग, विभिन्न सरकारें और स्वास्थ्य प्रदाता कर पाएंगे, ताकि उसके ज़रिए वह अपने हितों के अनुरूप व अनुकूल सार्वजनिक प्रणालियों का निर्माण कर पाएं. निजी-सार्वजनिक भागीदारी के आधार पर बनाया गया आर्किटेक्चर, खास परिस्थितियों जैसे, अस्पतालों में खाली बेड, वेंटिलेटर, संक्रमण भार, आपातकालीन प्रतिक्रिया व संसाधनों की उपलब्धता और क्षमता जैसे महत्वपूर्ण मापदंडों पर, दो-तरफा सूचना प्रवाह को सक्षम करेगा. इसके ज़रिए, जोखिम वाली स्थिति में अज्ञात रोगी की जानकारी, जोखिम की प्रोफाइलिंग और आवश्यक दवाओं और उपकरणों की उपलब्धता के बारे वास्तविक समय (real time) में जानकारी मिल सकेगी. ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बात यह है कि निजी और सार्वजनिक डेटा परतों के बीच फ़ायरवॉल स्थापित कर, निजी जानकारियों को सुरक्षित रखा जा सकता है, और अनाम जानकारी के प्रवाह की अनुमति के ज़रिए व्यापक हित में आंकड़ों का इस्तेमाल और संग्रहण किया जा सकता है.

इसी तर्ज पर, तेज़ी से फैलती महामारी के मूल्यांकन और उसके निपटान से जुड़ी प्रतिक्रियाएं निश्चित करने के लिए, डीपीजी विकसित किए जा सकते हैं. कोविड-19 के साथ भारत के अनुभवों को दर्ज किया जाना चाहिए और इस जानकारी का विश्लेषण किया जाना चाहिए. इस विश्लेषण के आधार पर बेहतर व्यवस्था विकसित की जा सकती है. आरोग्य सेतु ऐप ने पहले ही इस प्रक्रिया को गति में डाल दिया है. संपर्क अनुरेखण (contact tracing) यानी एक दूसरे के ज़रिए संक्रमित हुए लोगों की क्रमवार जानकारी के ज़रिए, आरोग्य सेतु ने मई 2020 तक देश में 700 संभावित हॉटस्पॉट लक्षित किए और 140,000 ऐप उपयोगकर्ताओं को संक्रमित रोगियों से निकटता के बारे में सचेत किया. [43] विश्व बैंक ने ब्लूटूथ और लोकेशन डेटा का उपयोग करते हुए, आरोग्य सेतु ऐप के ज़रिए कॉंटेक्ट ट्रेसिंग से जुड़ी कोशिशों और भारत के संपर्क-सुधार के प्रयासों की प्रशंसा की है[44]. आरोग्य सेतु पर एकत्र किया गया डेटा कोविड-19 के बाद भी, किसी अन्य महामारी या आपातकालीन स्थिति के बाद की तैयारी की दृष्टि से अत्यंत मूल्यवान है.

आगे की राह

डीपीजी (DPG) आर्किटेक्चर से जुड़े भारतीय इनोवेशन को व्यावसायिक और विस्तारवादी हितों से परे, आगे आने वाले छह अरब लोगों के लिए, प्रौद्योगिकी के लोकतांत्रिकरण के मॉडल यानी एक केस स्टडी के रूप में देखा जा सकता है. भारतीय डीपीजी पहले से ही पीपीपी आधार पर लाभ की उम्मीद के बिना लागू किए जा चुके हैं. बल्कि, इन्हें जानबूझकर इनोवेशन पर आधारित, एक समावेशी, सुलभ और कम-घर्षण वाले मंच के रूप में तैयार किया गया है. कई देश, विशेष रूप से विकासशील देश, इस दृष्टिकोण से लाभ उठा सकते हैं. डीपीजी को ‘इंटरऑपरेबल’ और ‘मॉड्यूलर संरचनाओं’ के लिए डिज़ाइन किया जा सकता है, जिसके ऊपर ‘कस्टमाइज़्ड इंटरफेस’ और ‘डेटाबेस एपीआई’ का उपयोग करके काम किया जा सकता है, और प्रत्येक देश और इकाई अपनी आवश्यकताओं के अनुसार इस आर्किटेक्चर को अनुकूलित कर सकता है. अल्फाबेट नामक कंपनी ने भी इस बात की  सिफ़ारिश की है कि अमेरिकी फेडरल रिज़र्व, भारतीय स्टैक-यूपीआई प्रोटोकॉल का उपयोग कर पुरानी अमेरिकी बैंकिंग प्रणाली को अपग्रेड कर सकता है. [45] यह दर्शाता है कि भारत की इन उच्च तकनीकों से केवल उभरती हुई दुनिया के विकसनशील देश ही नहीं लाभान्वित हो सकते बल्कि विकसित देश भी इसका लाभ उठा सकते हैं. जैसे-जैसे भारत, 10 ट्रिलियन अमेरिका डॉलर वाली (वर्तमान में लगभग 3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर या भारतीय रुपए में 204 ट्रिलियन) वाला केवल तीसरा देश है, जिसने डिजिटल इक्विटी बनाए रखने के लिए दुनिया को एक नया मॉडल पेश किया है.

भारतीय डीपीजी पहले से ही पीपीपी आधार पर लाभ की उम्मीद के बिना लागू किए जा चुके हैं. बल्कि, इन्हें जानबूझकर इनोवेशन पर आधारित, एक समावेशी, सुलभ और कम-घर्षण वाले मंच के रूप में तैयार किया गया है. 

पाँच मूलभूत विशेषताओं के साथ, जिसमें तकनीक तक सभी की पहुंच (universal access), समावेशीकरण की ओर झुकाव (bias towards inclusion), नागरिकों के अधिकारों के प्रति प्रतिबद्धता (sacrosanct rights), कानून के प्रति प्रत्यक्ष जवाबदेही (direct recourse to the law) और तकनीकी-इनोवेशन को लगातार बनाए रखने की भावना (continuous innovation) के ज़रिए प्रौद्योगिकी का लोकतांत्रिकरण ज़रूरी है, ताकि तकनीकी-नागरिकता (techno-citizenship) बनाए रखी जा सके और डिजिटल द्वारा संचालित इस नई विश्व व्यवस्था में तकनीकी-संप्रभुता कायम हो. महामारी ने दुनिया को तकनीक के लोकतांत्रिकरण की इस अपरिहार्य ज़रूरत की ओर तेज़ी से धकेला है. प्रौद्योगिकी के लोकतांत्रिकरण और डिजिटल सार्वजनिक वस्तुओं के विकास को लेकर भारत के पास अग्रणी और प्रस्तावक होने का लाभ है. अब ज़रूरत है कि दुनिया, इन पांच विशेषताओं को लेकर, एक साथ आगे आए, ताकि, ‘तकनीक सब के लिए’ और ‘सबके द्वारा तकनीक’ के युग की शुरुआत की जा सके.


Endnotes

[1] Roser, et al, “Internet”, Our World in Data, July 14, 2015.

[2] We Are Social, “Digital 2020”, We Are Social, 2020.

[3] TV Mohandas Pai and Nisha Holla, “Universal Declaration of Digital Rights: For Life, Liberty and Security in the Digital Realm”, The Financial Express, The Financial Express, January 8, 2020.

[4] Nisha Holla, “Indigenous Technology as a Strategic Moat for India,” ORF Issue Brief No. 390, August 2020, Observer Research Foundation.

[5] C Hess. “Research on the Commons, Common-Pool Resources, and Common Property.” Digital Library Of The Commons, Indiana University, October 2006.

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