Author : Manoj Joshi

Originally Published भास्कर Published on Jul 14, 2023 Commentaries 0 Hours ago
क्या भारत चीन की जगह लेगा?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हाल ही की अमेरिका यात्रा ने भारत के इस सबसे महत्वपूर्ण विदेश-नीति संबंध पर नए परिप्रेक्ष्य से सोचने के लिए प्रेरित किया है. अनेक लोगों को लगता है कि भारत व अमेरिका के संबंध परस्पर सुरक्षा-हितों पर आधारित हैं.

वैश्विक अर्थव्यवस्था के समीकरणों में भारत की क्षमता 

यह बात सही नहीं है, क्योंकि अमेरिका प्रशांत व हिंद महासागर क्षेत्र में सबसे ताकतवर सैन्य-शक्ति है और कम से कम सुरक्षा के मामले में तो उसे भारत की जरूरत नहीं. दूसरी तरफ भारत भी परमाणु शक्तिसम्पन्न राष्ट्र है और अपनी रक्षा के लिए अमेरिका का मोहताज नहीं. हिन्द महासागर क्षेत्र में चीन की नौसैनिक गतिविधियों ने भी अभी तक भारत को अधिक चिंता में नहीं डाला है.

लेकिन अमेरिका का ध्यान भारत की तरफ खींचने वाला सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है वैश्विक अर्थव्यवस्था के समीकरणों में भारत में चीन की जगह लेने की क्षमताओं का होना. प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा के दौरान केंद्रीय थीम यही थी कि भारत का उभरता आर्थिक कद उसे नए अमेरिकी औद्योगिक कॉप्लेक्स का महत्वपूर्ण हिस्सा बना सकता है, साथ ही भारत अमेरिकी उत्पादों के लिए बड़ा बाजार भी साबित हो सकता है.

प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा के दौरान केंद्रीय थीम यही थी कि भारत का उभरता आर्थिक कद उसे नए अमेरिकी औद्योगिक कॉप्लेक्स का महत्वपूर्ण हिस्सा बना सकता है, साथ ही भारत अमेरिकी उत्पादों के लिए बड़ा बाजार भी साबित हो सकता है.

इसका सबूत हैं एप्पल, माइक्रोन, अमेजन, सिस्को, वॉलमार्ट और टेस्ला जैसी कंपनियों द्वारा भारत में निवेश के लिए बनाई जा रही योजनाएं, जबकि पहले ही भारत में बीसियों अमेरिकी कंपनियां मौजूद हैं. आज भारत से अमेरिका का व्यापार 200 अरब डॉलर का है और खबरें हैं कि अमेरिका इसे 2030 तक 500 अरब डॉलर तक ले जाना चाहता है.

हाल के दिनों में इस आशय की बातें बहुत कही गई हैं कि वैश्विक आर्थिक क्षितिज पर भारत एक चमकता हुआ सितारा है. भारत की मौजूदा 6.5 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर दुनिया के मानदंडों पर भले अच्छी हो, लेकिन आज हमारे सामने जैसी चुनौतियां हैं उनके मद्देनजर यह पर्याप्त नहीं है.

सबसे बड़ी चुनौती है 80 करोड़ लोगों को गरीबी के दायरे से बाहर लाने के लिए एक मैन्युफेक्चरिंग क्रांति करना. इसके लिए हमें दो दशकों तक 8 से 10 प्रतिशत की सालाना विकास दर की जरूरत होगी. अमेरिकी कनेक्शन इस लक्ष्य को पाने में हमारी मदद कर सकता है.

समस्या यह है कि नई तकनीक की रचना करने में भारत का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं है. सरकारों ने दावा किया है कि उनका लक्ष्य भारत की 2 प्रतिशत जीडीपी को रिसर्च एंड डेवलपमेंट में खर्च करने का है, जबकि आज यह मात्र 0.65 प्रतिशत ही है. इसकी तुलना में अमेरिका अपने जीडीपी का 2.9 प्रतिशत और चीन 2.1 प्रतिशत रिसर्च एंड डेवलपमेंट में खर्च करता है.

एक अन्य कमजोरी वर्कफोर्स से सम्बंधित है. 1950 में, भारत की 60 प्रतिशत कार्यक्षम आबादी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर थी. आज भी यह संख्या 45 प्रतिशत है. लेकिन आज हमारी जीडीपी का मात्र 20 प्रतिशत ही कृषि से आता है, 26 प्रतिशत उद्योगों से और 54 प्रतिशत सेवा क्षेत्र से आता है. साथ ही भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या दुनिया में सबसे कम में से एक है.

सरकारों ने दावा किया है कि उनका लक्ष्य भारत की 2 प्रतिशत जीडीपी को रिसर्च एंड डेवलपमेंट में खर्च करने का है, जबकि आज यह मात्र 0.65 प्रतिशत ही है. इसकी तुलना में अमेरिका अपने जीडीपी का 2.9 प्रतिशत और चीन 2.1 प्रतिशत रिसर्च एंड डेवलपमेंट में खर्च करता है.

यह केवल 19 प्रतिशत ही है और इसमें हम सऊदी अरब से भी पीछे है. वास्तव में पिछले 20 वर्षों में इस आंकड़े में गिरावट ही आई है. इसका यह मतलब है कि उन सेक्टरों में पर्याप्त जॉब्स नहीं निर्मित हो रहे हैं, जहां ग्रामीणों और स्त्रियों को काम मिल सके. साक्षरता भी चिंतनीय है.

मैन्युफैक्चरिंग क्रांति की जरूरत

देश के अधिकतर क्षेत्रों में उपस्थित विश्वविद्यालय अपने विद्यार्थियों को आधुनिक अर्थव्यवस्था में आजीविका कमाने योग्य कौशल नहीं सिखा पाते हैं. भारत की 74 प्रतिशत आबादी ही साक्षर है. 1950 में तो यह 12 प्रतिशत ही थी. लेकिन चीन की साक्षरता भी कभी 20 प्रतिशत थी और आज वह 96.6 प्रतिशत है. ऐसा नहीं है कि भारत के पास साइंस और इंजीनियरिंग ग्रैजुएट्स, लैब्स के बड़े नेटवर्क और उम्दा शोध संस्थान नहीं हैं, लेकिन आबादी के अनुपात में वे नाकाफी हैं.

आज भारत पीपीपी के मानदंडों पर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने को तैयार है और वह अपनी सूचना प्रौद्योगिकी, फार्मास्यूटिकल्स, केमिकल्स, पेट्रोकेमिकल्स और टेक्स्टाइल्स के लिए दुनिया में जाना जाता है. भारत सुई से लेकर रॉकेट तक सब बना रहा है, लेकिन मेक इन इंडिया के नारे के बावजूद मैन्युफैक्चरिंग के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अधिक तरक्की नहीं की जा सकी है. सरकार पीएलआई योजनाओं के माध्यम से मैन्युफेक्चरिंग को बढ़ावा दे रही है और हाल ही में उसने राष्ट्रीय शोध फाउंडेशन की भी स्थापना की है, लेकिन वे कितने सफल होंगे यह देखा जाना अभी शेष है.

80 करोड़ लोगों को गरीबी के दायरे से बाहर लाने के लिए मैन्युफेक्चरिंग क्रांति जरूरी है. इसके लिए हमें दो दशकों तक 8 से 10% की गति से विकास करना होगा. अमेरिकी कनेक्शन इस लक्ष्य को पाने में हमारी मदद कर सकता है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.