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विश्व की कुछ दिग्गज कंपनियों द्वारा स्थापित आपूर्ति शृंखला इससे चरमरा सकती है.
Image Source: Getty
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ नीति ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को और अस्थिर करने का काम किया है. चूंकि अमेरिका विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे बड़ा खरीदार है, इसलिए उसे वस्तुओं की बिक्री करने वाले सभी देशों पर इसका असर पड़ेगा. इसमें अमेरिका के निकट समझे जाने वाले यूरोपीय देशों तक को नहीं बख्शा गया तो प्रतिद्वंद्वी चीन पर भी टैरिफ की चाबुक चलाई गई है. ट्रंप के इस कदम को द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद वैश्विक आर्थिक परिदृश्य पर सबसे नाटकीय घटनाक्रम कहा जा रहा है. अमेरिका आधुनिक वैश्विक व्यापार व्यवस्था का सूत्रधार रहा है, लेकिन ताजा पहल के जरिये वह इस व्यवस्था का बंटाधार करने पर तुला है.
अमेरिका आधुनिक वैश्विक व्यापार व्यवस्था का सूत्रधार रहा है, लेकिन ताजा पहल के जरिये वह इस व्यवस्था का बंटाधार करने पर तुला है.
टैरिफ नीति देखने में भले ही आर्थिक मामलों से संबंधित लगे, लेकिन इसकी असल जड़ें राजनीति में समाई हुई हैं. राष्ट्रपति चुनाव अभियान के दौरान ही ट्रंप ने यह कहकर इसे मुद्दा बनाया हुआ था कि वैश्विक व्यापार व्यवस्था असंतुलित हो गई है, जिसमें पलड़ा अमेरिका को वस्तुएं बेचने वाले देशों के पक्ष में झुका हुआ है. उन्होंने बार-बार कहा कि मौजूदा व्यापारिक परिदृश्य पर अमेरिका और अमेरिकी नागरिकों का शोषण हो रहा है और वह सत्ता में आने के बाद इस व्यवस्था को बदल देंगे. टैरिफ नीति इसी एजेंडा का हिस्सा है.
करीब 60 व्यापारिक साझेदारों को इस मामले में व्हाइट हाउस की ओर से निशाने पर लिया गया है. इसमें यूरोपीय संघ और चीन जैसे कई व्यापारिक साझेदारों पर अनुचित नीतियां अपनाने का आरोप लगाया गया है. टैरिफ नीति को ‘आर्थिक स्वतंत्रता की उद्घोषणा’ करार देते हुए ट्रंप ने दावा किया कि विभिन्न देशों द्वारा ऊंचे टैरिफ एवं अन्य व्यापारिक बाधाओं के चलते ऐसी टैरिफ नीति अपरिहार्य हो गई थी. स्थिति को राष्ट्रीय आपातकाल घोषित करते हुए ट्रंप ने टैरिफ नीति को मेक अमेरिका ग्रेट अगेन-मागा अभियान का हिस्सा बताते हुए कहा कि बीते पांच दशकों से मित्र और बैरी, दोनों तरह के देशों द्वारा अमेरिका के साथ की गई ‘लूटपाट’ के चलते ऐसा किया जाना बहुत जरूरी था.'
टैरिफ ट्रंप का विशुद्ध राजनीतिक एजेंडा है. तमाम ऐसे द्वीपीय देश जिनका अमेरिका के साथ नगण्य व्यापार है, पर टैरिफ लगाया जाना इसी का संकेत है कि वह अपने मतदाताओं को संदेश देना चाहते हैं कि उनकी कथनी एवं करनी में कोई भेद नहीं. दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में ही ट्रंप ने तब इसके संकेत दे दिए थे, जब मेक्सिको और कनाडा जैसे पड़ोसी देशों पर टैरिफ का एलान किया. हालांकि हाल-फिलहाल उन्हें मामूली राहत दे दी गई, क्योंकि उन पर पहले से ही दबाव बना दिया था, लेकिन उन्हें छोड़कर ट्रंप ने किसी को रियायत नहीं दी.
ब्रिटेन जैसे पारंपरिक साझेदार पर 10 प्रतिशत, जापान पर 24 प्रतिशत और यूरोपीय संघ पर 20 प्रतिशत टैरिफ लगा है. चीन पर 34 प्रतिशत टैरिफ लगाया गया. बदले में चीन ने भी ऐसा ही किया तो ट्रंप अब धमकी दे रहे हैं कि यदि चीन ने यह टैरिफ नहीं हटाया तो वह उस पर 50 प्रतिशत से ऊपर टैरिफ लगा देंगे. यह किसी से छिपा नहीं कि अमेरिका में चीन को अब मुख्य प्रतिद्वंद्वी समझा जाने लगा है और पूर्व राष्ट्रपति बाइडन ने भी चीन पर अंकुश लगाने के कुछ कदम उठाए थे, लेकिन चीन ने अमेरिकी प्रतिबंधों का तोड़ निकालते हुए अपनी विनिर्माण इकाइयां वियतनाम और कंबोडिया जैसे देशों में स्थापित कर दीं. इसे देखते हुए ट्रंप ने टैरिफ को लेकर सर्वाधिक सख्ती इन्हीं देशों पर की है.
चीन ने अमेरिकी प्रतिबंधों का तोड़ निकालते हुए अपनी विनिर्माण इकाइयां वियतनाम और कंबोडिया जैसे देशों में स्थापित कर दीं. इसे देखते हुए ट्रंप ने टैरिफ को लेकर सर्वाधिक सख्ती इन्हीं देशों पर की है.
दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक देश होने के नाते टैरिफ नीति पर चीन की खीझ सहज ही समझी जा सकती है. ऐसी किसी नीति से आशंकित चीन ने उससे निपटने के प्रयास भी शुरू कर दिए हैं. इसी के तहत कुछ समय पहले उसने यह कहकर भारत पर भी डोरे डालने का प्रयास किया कि दोनों देश साझा कोशिश से बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं. सामान्य तौर पर वैश्विक स्थापित ढांचे और कानूनों का मखौल उड़ाने वाला चीन टैरिफ के मामले में वैश्विक व्यवस्था की दुहाई देते हुए अमेरिका से ऐसे एकतरफा फैसले को वापस लेने की अपील भी कर रहा है.
आर्थिक तार्किकता के दृष्टिकोण से देखें तो टैरिफ से किसी का भला नहीं होने वाला. शायद ट्रंप प्रशासन भी यह समझता है. इसीलिए उसने कहा है कि टैरिफ वापस तो नहीं लिए जाएंगे, मगर संबंधित देश अमेरिका से वार्ता कर समाधान का प्रयास कर सकते हैं. देर-सबेर खुद अमेरिका को इसकी तपिश झेलनी पड़ सकती है. इससे अमेरिका में महंगाई बढ़ने के साथ ही मंदी का खतरा मंडरा रहा है. यदि अमेरिकी अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ती है तो उसका असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा. शेयर बाजारों में भारी गिरावट से इसके संकेत भी मिलने लगे हैं. विश्व की कुछ दिग्गज कंपनियों द्वारा स्थापित आपूर्ति शृंखला इससे चरमरा सकती है. इसका परोक्ष रूप से प्रभाव चीन की ओर झुकाव के रूप में देखने को मिल सकता है.
नि:संदेह टैरिफ नीति का भारत से अमेरिका को होने वाले निर्यात पर असर पड़ेगा. अमेरिका उन देशों में से है जिसके साथ व्यापार में भारत को लाभ होता है. इसलिए टैरिफ नीति से इस लाभ में कुछ सेंध जरूर लगेगी. हालांकि इस आपदा में भी भारत के लिए अवसर विद्यमान है, क्योंकि चीन, वियतनाम, थाइलैंड और बांग्लादेश जैसे उसके प्रतिस्पर्धी निर्यातक देशों पर कहीं ज्यादा टैरिफ लगा है.
भारत पर अपेक्षाकृत कम 26 प्रतिशत टैरिफ लगाने के साथ ही फार्मा जैसे क्षेत्र को रियायत दी गई है. नई परिस्थितियों में भारत के लिए कपड़ा, इलेक्ट्रानिक्स और मशीनरी जैसे क्षेत्रों में निर्यात के नए अवसर सृजित हो रहे हैं. इन अवसरों को भुनाने के लिए भारत को इन्फ्रास्ट्रक्चर, लाजिस्टिक्स, शोध एवं विकास में निवेश बढ़ाकर अपनी क्षमताएं मजबूत करनी होंगी तो भूमि एवं श्रम जैसे लंबित सुधारों को भी गति देनी होगी.
टैरिफ पर भारत की संयत प्रतिक्रिया भी अमेरिका का मिजाज खराब करने वाली नहीं रही. बजट में ट्रंप प्रशासन के अनुरूप समायोजन के प्रयास और पीएम मोदी के अमेरिका दौरे पर आरंभ हुई व्यापार वार्ता भी परस्पर विश्वास का माहौल बनाएगी. इससे अमेरिकी बाजार में भारतीय उत्पादों की पैठ बढ़ाने में सहायता मिलेगी.
(लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष हैं)
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Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...
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