Issue BriefsPublished on Nov 25, 2024
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अगर हमें SDGs को दोबारा जीवन देना है, तो G20 डेवलपमेंट बैंक का निर्माण करना होगा!

  • Nilanjan Ghosh
  • Malancha Chakrabarty

    विश्वव्यापी विकास लक्ष्य तय करते हुए सभी देशों की आर्थिक प्रणाली में बदलाव लाने की वैश्विक स्तर पर सबसे पहली कोशिश सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को ही कहा जाएगा. SDGs को हासिल करने के लिए निर्धारित समयसीमा के आधी बीत जाने, COVID-19 महामारी और इसके बाद लगातार संकटों की श्रृंखला के कारण COVID-19 लगभग मरणासन्न अवस्था में पहुंच चुके हैं. इसके तहत तय किए गए वैश्विक लक्ष्यों को 2030 तक हासिल करने की राह में प्राथमिक बाधा वित्तपोषण की बड़ी कमी है. इस ब्रीफ में यह तर्क दिया गया है कि G20 के पास अंतरराष्ट्रीय वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने का मैंडेट यानी अधिकार है. इसके साथ ही G20 को जलवायु कार्यवाही तथा सतत विकास को प्रोत्साहित करने का भी अधिकार मौजूद है. इन्हीं वजहों से G20 ही SDGs पर होने वाले अमल को गति प्रदान करने का सबसे उपयुक्त मंच माना जा सकता है. इस ब्रीफ में एक G20 डेवलपमेंट बैंक के गठन की सिफारिश की गई है. यह बैंक विकासशील देशों में दीर्घावधि के लिए सतत विकास परियोजनाओं के लिए फंडिंग मुहैया करवाएगा.

Attribution:

नीलांजन घोष, मलांचा चक्रवर्ती और स्वाति प्रभु, “अगर हमें SDGs को दोबारा जीवन देना है, तो G20 डेवलपमेंट बैंक का निर्माण करना होगा!,” इश्यू ब्रीफ नं. 751, नवंबर 2024, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन.

प्रस्तावना

 

अंतरराष्ट्रीय विकास के इतिहास में 2015 को एक ऐतिहासिक वर्ष माना जाएगा. इसी वर्ष सतत विकास लक्ष्यों (SDGs)—[a] यानी विश्वव्यापी विकास लक्ष्य तय करते हुए सभी देशों की आर्थिक प्रणाली में बदलाव लाने की वैश्विक स्तर पर सबसे पहली कोशिश करने का निर्णय लिया गया था. SDGs’ के पूर्ववर्ती कार्यक्रम मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स (MDGs) में मुख्यत: विकसित तथा अविकसित दुनिया पर ध्यान केंद्रित किया गया था. विकासशील विश्व के अधिकांश हिस्सों में पर्यावरणीय गिरावट, जलवायु परिवर्तन, संसाधनों की कमी और बेहद गरीबी जैसे गंभीर मुद्दे मौजूद हैं. इन चुनौतियों से निपटने के लिए वैश्विक विकास पथ की राह को पुन: संगठित करना ही SDGs का आशय था. लेकिन 2020 में COVID-19 महामारी समेत अन्य संकटों की श्रृंखला ने SDG पर अमल की प्रगति को वैश्विक स्तर, जिसमें संपन्न देश भी शामिल हैं, पर धीमा किया है

 SDGs’ के पूर्ववर्ती कार्यक्रम मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स (MDGs) में मुख्यत: विकसित तथा अविकसित दुनिया पर ध्यान केंद्रित किया गया था. विकासशील विश्व के अधिकांश हिस्सों में पर्यावरणीय गिरावट, जलवायु परिवर्तन, संसाधनों की कमी और बेहद गरीबी जैसे गंभीर मुद्दे मौजूद हैं. इन चुनौतियों से निपटने के लिए वैश्विक विकास पथ की राह को पुन: संगठित करना ही SDGs का आशय था.

2019 में SDG इंडेक्स का वैश्विक औसत 0.01 प्वाइंट् प्रति वर्ष की दर से घटना शुरू हुआ था.[1] महामारी के कारण वर्षों से चल रहे गरीबी उन्मूलन में हुई प्रगति ख़त्म हो गई. इतना ही नहीं इस महामारी ने 93 मिलियन अतिरिक्त नागरिकों को बेहद गरीबी में धकेल दिया.[2] वर्तमान में वैश्विक स्तर पर 10 में से एक नागरिक भूख का शिकार है, जबकि तीन में से एक व्यक्ति की भोजन तक नियमित पहुंच नहीं है.[3] 1946 के बाद वर्तमान में दुनिया में सबसे ज़्यादा संघर्ष देखे जा रहे हैं. इस वजह से दुनिया की लगभग एक चौथाई आबादी संघर्ष क्षेत्रों में रह रही है.[4]

 

उच्च आय वाले देशों ने महामारी के दौरान अपनी अर्थव्यवस्थाओं को बड़े स्टीमुलस पैकेज यानी प्रोत्साहन पैकेजेस्देकर सहायता कर दी थी. लेकिन विकासशील देशों की अंतरराष्ट्रीय वित्तीय मार्केट् तक पहुंच नहीं होती. ऐसे में वे वित्तीय दबाव का सामना करते है. वे स्टीमुलस पैकेज देकर अपनी अर्थव्यवस्था की सहायता नहीं कर पाए. औसतन उच्च आय वाले देशों ने अपनी GDP के 20 प्रतिशत हिस्से तक आर्थिक प्रोत्साहन उपलब्ध करवाया था. इसके मुकाबले कम और मध्यम आय वाले देशों ने अपनी GDP का क्रमश: 2 तथा 5 प्रतिशत प्रोत्साहन ही जुटाने में सफ़लता हासिल की थी.[5] इतना ही नहीं IMF ने भी महामारी के दौरान काफ़ी देर से स्पेशल ड्राइंग राइट् [b] (SDRs) को मंजूरी दी थी. अब चूंकि ये SDRs विभिन्न देशों के कोटे से संबंधित थे, अत: अफ्रीकी देशों और जिन देशों को इनकी सबसे ज़्यादा आवश्यकता थी, उन्हें 650 बिलियन अमेरिकी डालर के SDR में से केवल 3 प्रतिशत ही मिल सके थे.[6] इसके परिणामस्वरूप 2020 से अनेक उच्च आय वाले देशों में बेरोज़गारी की दर गिर गई.[7] लेकिन अधिकांश विकासशील देशों में बेरोज़गारी की दर में तेजी से वृद्धि देखी गई.[8] 2023 में उच्च आय वाले देशों में बेरोज़गारी की दर 4.5 प्रतिशत थी, जबकि कम आय वाले देशों में यह 5.7 प्रतिशत थी.[9] इसी वर्ष उच्च आय वाले देशों में जॉब गैप [c]यानी रोज़गार में कमी 8.2 प्रतिशत थी, जबकि कम आय वाले देशों में यह 20.5 प्रतिशत की उच्च दर तक पहुंच गई थी.[10]

 

2022 तक कम और मध्यम आय वाले देशों में कर्ज़ का स्तर 50 वर्षों में सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गया था. लगभग 60 प्रतिशत उभरते और विकासशील देश उच्च जोख़िम वाले कर्ज़दार बन चुके थे.[11] जांबिया, श्री लंका, सुरीनाम और लेबनान जैसे देश डिफॉल्ट कर चुके हैं जबकि कुछ अन्य देशों की स्थिति भी डिफॉल्ट यानी कर्ज़ लौटने में सक्षम नहीं होना, जैसी हालत हो चुकी है.[12],[13],[14],[15] महामारी के कारण धन को लेकर असमानता भी बढ़ी है. अंतरराष्ट्रीय गरीबी और बिलिनेयर्स की संपत्ति में महामारी के बाद तेजी से वृद्धि हुई है.[16] विकासशील देशों में कमज़ोर रिकवरी के कारण इंटर कंट्री यानी देशों के बीच असमानता में और इज़ाफ़ा होगा.

 

महामारी और उसके बाद आए संघर्षों की वजह से सबसे बुरा प्रभाव सामाजिक आर्थिक विकासशील दुनिया ने झेला है. हालांकि डेनमार्क, स्वीडन और फिनलैंड जैसे संपन्न देश भी SDGs को हासिल करने के लिए ट्रैक पर नहीं हैं.[17] SDG हासिल करने के मामले में तुलना होने पर नॉर्डिक क्षेत्र अक्सर आगे रहता है. लेकिन यह क्षेत्र भी ग्रीन SDGs विशेषतः SDGs 12,[d] 13,[e] 14,[f] and 15 [g] को हासिल करने में फिसड्डी साबित हो रहा है. इस क्षेत्र की ओवर कंजंप्शन अर्थात ज़रूरत से ज़्यादा ख़पत भी वैश्विक सस्टेनेबिलिटी को मुश्किल बनाती है.[18]

निश्चित ही वर्तमान ट्रेंड ये दर्शाते हैं कि यदि वर्तमान ट्रेंड्स को पलटने के लिए पर्याप्त निवेश नहीं किया गया तो विश्व के सभी देश SDGs को हासिल करने में सफ़ल नहीं होने वाले हैं. इसी संदर्भ में इस ब्रीफ में यह तर्क दिया गया है कि SDG लागू करने की राह में वित्त ही सबसे बड़ा रोड़ा बना हुआ है. इस ब्रीफ में सिफ़ारिश की गई है कि वैश्विक स्तर पर एक अहम संगठन होने की वजह से G20 ही SDGs को पुनर्जीवित करने का सबसे आदर्श मंच है. G20 को एक नए वित्तीय संस्थान एक G20 डेवलपमेंट बैंक का गठन करना चाहिए जो SDGs को लागू करने के लिए, विशेष रूप से विकासशील देशों में, वित्त पोषण मुहैया कराने में मदद करें.

 

फाइनेंस या वित्त: SDGs पर अमल में महत्वपूर्ण रुकावट

 

महामारी के पूर्व यानी 2015 से 2019 के बीच भी SDG पर अमल की गति धीमी हो गई थी.[19] यह सच है कि वैश्विक लक्ष्य को हासिल करने के लिए व्यापक आधार पर समझौता हो गया था, लेकिन अमल के लिए अपनाए जाने वाले साधन को लेकर हमेशा से विवाद बना हुआ था. यह बात खासकर वित्त पर लागू होती है. एक और विकासशील देश अंतरराष्ट्रीय सहायता के महत्व को सामने रखने का काम कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर विकसित देशों ने वित्त पोषण के घरेलू संसाधनों में विस्तार की बात करते हुए इसमें निजी क्षेत्र की बड़ी भूमिका को महत्वपूर्ण बताया था.[20]

 

SDG फाइनैंसिंग गैप 

 

यूनाइटेड नेशंस कॉन्फ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवलपमेंट (UNCTAD) के अनुमान के अनुसार विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में SDG के वित्त पोषण को लेकर 4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की कमी वर्तमान में मौजूद है.[21]  टेबल 1 में लिस्ट डेवलप्ड कंट्रीज (LDCs) यानी सबसे कम विकसित देशों के लिए 2021-2030 की अवधि में SDGs हासिल करने की अनुमानित कीमत तथा आवश्यक विकास को दर्शाया गया है.

 

टेबल1: 2021 से 2030 के बीच LDCs में SDGs हासिल करने के लिए लागत और आवश्यक वृद्धि

 

2021-2030 के लिए SDG लक्ष्य

आवश्यक वार्षिक औसत निश्चित निवेश (US$)

निवेश के वित्तपोषण के लिए आवश्यक वार्षिक GDP  विकास दर

SDG लक्ष्य 8.1: 7% वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद विकास दर

462 बिलियन 

7 %

SDG लक्ष्य 1.1: अत्यधिक गरीबी उन्मूलन

485 बिलियन 

कम से कम 9%

SDG लक्ष्य 9.2: GDP में मैन्युफैक्चरिंग की हिस्सेदारी दोगुनी

1,051 बिलियन  

20 %

 

स्रोत: DI (2021)[22], जैसा कि डिसूजा और जैन द्वारा उद्धृत किया गया है[23]

 

विकासशील देशों में घरेलू संसाधनों की कमी

 

विकासशील देशों के सामने SDGs पर अमल करने में सबसे बड़ी रुकावट SDGs को गैर-कानूनी तौर पर बाध्य लक्ष्यों के रूप में अपनाने की अवधारणा है. इसमें संबंधित देश की सरकार को अपनी प्राथमिकताओं को तय करते हुए इसे लागू करने पर आने वाले अधिकांश ख़र्च को वहन करना है. अधिकांश देशों के पास संस्थागत व्यवस्थाओं का अभाव है. ऐसे देश SDGs को हासिल करने के लिए आवश्यक संसाधन जुटाने के लिए पैसा ख़र्च करने यानी निवेश करने की भी क्षमता नहीं रखते हैं. एक ओर जहां विकासशील देशों में लक्ष्य-निर्धारण और इसे हासिल करने में लचीलापन पाया जाता है. इसकी वजह से इन देशों को अपने विकास एजेंडे की प्राथमिकता तय करने के लिए नीति में जगह बनाने में आसानी होती है. लेकिन इसके चलते ही चुनिंदा SDGs, विशेषत: SDG 1 (नो पॉवर्टी/गरीबी का ख़ात्मा) तथा SDG 8 (इकोनॉमिक ग्रोथ/आर्थिक विकास) को लेकर ध्यान असंतुलित हो जाता है. यह सस्टेनेबल डेवपलमेंट के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है.[24] इसके अलावा सरकारों की घरेलू संसाधन जुटाने की क्षमता का सीधा संबंध आर्थिक विकास हासिल करने के साथ होता है. ऐसे में सरकारें गरीबी उन्मूलन और पुनर्वितरण की बजाय विकास पर ध्यान देने को प्राथमिकता देती हैं. अन्य शब्दों में SDGs के लिए घरेलू संसाधन जुटाने के लिए सरकारें पारंपरिक विकास आदर्शों को अपनाती हैं. ऐसे में विकास को लेकर पर्यावरणीय चिंताएं गौण हो जाती हैं. इसके साथ ही SDGs का उद्देश्य भी परास्त हो जाता है

 

जैसे कि ऊपर चर्चा की गई है, विकासशील देशों को इस समय कर्ज़ को लेकर बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. विकासशील देशों में 2020 से 2025 के बीच बाहरी कर्ज़ को चूकाने के लिए 375 बिलियन अमेरिकी डालर की ज़रूरत होने का अनुमान है. 2015 से 2019 के बीच लगे औसत 330 बिलियन अमेरिकी डालर के मुकाबले यह राशि ज़्यादा है. विकासशील देशों की तुलना में यहां 36 फीसदी देशों के बकाया बाहरी कर्ज़ 2024 में मैच्योर यानी परिपक्व हो जाएंगे, वहीं कम-आय वाले देशों (LICs) में यह आंकड़ा 45 प्रतिशत आता है.ऐसे में ये देश कर्ज़ को आगे बढ़ाने के खतरे का सामना कर रहे हैं.[25] कर्ज़ के बढ़ते बोझ, ऊंचे दर पर कर्ज़ की उपलब्धता और लो फिस्कल स्पेस यानी कम राजकोषीय अंतर की वजह से ये देश घरेलू संसाधनों से SDGs का वित्त पोषण नहीं कर पाते हैं. 2023 की फाइनांस फॉर सस्टेनेबल डेवपलमेंट रिपोर्ट के अनुसार तीन चौथाई LDCs तथा 60 प्रतिशत स्मॉल आइलैंड डेवलपिंग स्टेट् (SIDS) यानी छोटे द्वीपीय विकासशील देशों के टैक्स-टू- GDP रेश्यो यानी GDP के मुकाबले कर के अनुपात में 2020 में कमी देखी गई है.[26] इतना ही नहीं 2019-21 के बीच, जैसे कि विकसित देशों में सुधार हुआ , 40 प्रतिशत अफ्रीकी देशों में टैक्स-टू- GDP रेश्यो में सुधार नहीं हुआ. इसी प्रकार 36 प्रतिशत SIDS में भी इसकी दर महामारी पूर्व के स्तर से कम ही है.[27]

 

ODA ही पर्याप्त नहीं 

 

MDGs के वित्त पोषण का अहम तरीका ऑफिशियल डेवलपमेंट असिस्टेंस (ODA) था. लेकिन SDGs के लिए आवश्यक वित्त पोषण के स्तर को देखते हुए ODA को वित्त के प्रमुख स्रोतों में से एक स्रोत ही माना गया था. महामारी के बाद डेवलपमेंट असिस्टेंस कमेटी (DAC) के सदस्य देशों की ओर से ODA के माध्यम से कुल सहायता में काफ़ी इज़ाफ़ा हुआ था. 2019 में यह रियल टर्म्स यानी सही मानों में 2000 के मुकाबले सात प्रतिशत अधिक था. इस वृद्धि के बावजूद यह ग्रॉस नेशनल इनकम (GNI) अर्थात सकल राष्ट्रीय आय के 0.7 प्रतिशत के लक्ष्य से काफ़ी कम यानी 0.32 प्रतिशत ही था.[28] इसके अतिरिक्त 2000 के मुकाबले 2019 में LICs के लिए कुल द्विपक्षीय सहायता में भी 3.5 प्रतिशत की कमी देखी गई.[29]

 

सीमित निजी-क्षेत्र फाइनेंस

 

अंतरराष्ट्रीय सहायता के रूप में दिए जाने वाले अनुदान के माध्यम से निजी क्षेत्र के निवेश को भी SDGs के लिए वित्त पोषण/फाइनेंसिंग का प्रमुख स्रोत माना गया है. लेकिन निजी क्षेत्र में भी SDGs में निवेश बढ़ाने के आवाहनों को भी सही मायनों में किसी ने तवज्जो नहीं दी है

वैश्विक निजी संपत्तियों में हुए 410 ट्रिलियन अमेरिकी डालर के निवेश में से विकासशील देशों (जिसमें चीन शामिल है) की हिस्सेदारी केवल 4 प्रतिशत की है.[30] इसी प्रकार पब्लिक डेवलपमेंट बैंक्स की ओर से होने वाली 240 बिलियन अमेरिकी डालर की फाइनांसिंग में भी सालाना औसतन 44 बिलियन अमेरिकी डालर ही निजी निवेश जुटाया जाता है. यह विकासशील देशों की जलवायु तथा SDG आवश्यकताओं में से केवल 1 प्रतिशत की ही पूर्ति करता है.[31]

 

फाइनेंशियल इंस्टिट्यूशनल आर्किटेक्चर में सुधार करना ज़रूरी

 

वैश्विक आर्थिक एवं वित्तीय स्थिति में इन्स्टीट्यूशनल फाइनांशियल आर्किटेक्चर (IFA) यानी संस्थागत वित्तीय व्यवस्था की विफ़लता भी एक गहन चिंता का विषय है. IFA संयुक्त ढांचों, नीतियों, संस्थानों तथा पूंजी प्रवाह और वित्तीय सेवाओं को संचालित करने वाले प्रावधानों से अलग-थलग है. ये सारे मिलकर वैश्विक स्तर पर आर्थिक स्थिरता पर निगाह रखते हैं. पहले ही कार्रवाई करने में संस्थानात्मक विफ़लता, बड़े ब्यूरोक्रेटिक यानी नौकरशाही का ढांचा और संकट में तुरंत जवाब देने में देर लगाने वाली प्रक्रियाओं के साथ ही विकास को ग्लोबल नॉर्थ के चश्मे से देखने की आदतों के कारण ही वैश्विक वित्तीय व्यवस्था में सुधार की मांग तेज हो रही है. इसमें सबसे आगे IMF, वर्ल्ड बैंक समेत अन्य बहुराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान सबसे आगे हैं.

 

इन संस्थानों की ओर से SDG वित्त पोषण/फाइनेंसिंग में आने वाले अंतर को पाटने में विफ़ल रहने को लेकर होने वाली आलोचना में प्रमुख रूप से जलवायु कार्रवाई वित्त पोषण का मामला भी शामिल है.[32],[33] अन्य आलोचनाओं में इन संस्थानों की व्यवस्थात्मक जड़ता और वर्तमान संदर्भ में इनकी उपयोगिता लगभग बेकार होने को लेकर की जाती है. द्वितीय विश्व युद्ध पश्चात बने इन संस्थानों का उद्देश्य आर्थिक स्थिरता के लक्ष्य को प्रोत्साहित करना और आर्थिक संकट का सामना कर रहे विभिन्न देशों में विकास के लिए वित्तीय सहायता मुहैया करवाना था. लेकिन अब यह ध्यान इस लक्ष्य से हट चुका है. मतदान की व्यवस्था ग्लोबल नॉर्थ देशों के पक्ष में झुकी हुई है. इसमें ग्लोबल साउथ की उभरती अर्थव्यवस्थाओं को बेहद कम प्रतिनिधित्व मिला हुआ है. इस वजह से बहुध्रुवीय दुनिया में इन संस्थानों की घटती वैधता को लेकर सवालिया निशान लगते जा रहे हैं.[34],[35],[36] जोसेफ़ स्टिग्लिट्ज़ ने अपने कार्य में इन संगठनों की नौकरशाही में जड़ता और प्राचीन नीतियों पर प्रकाश डाला है. उनका मानना है कि इन बातों की वजह से प्राप्तकर्ता देशों की स्थिति पहले भी ख़राब हो गई है.[37]

 

2023 में जारी G20 एमिनेंट पर्सन्स ग्रुप ऑन ग्लोबल फाइनांशियल गर्वनंस (EPG) की रिपोर्ट में वर्तमान IFA की विफ़लताओं पर प्रकाश डालते हुए सुधारों की सिफ़ारिश की गई थी.[38] इस रिपोर्ट में ग्लोबल पब्लिक गुड् जैसे SDGs और जलवायु कार्रवाई के वित्तपोषण में मल्टीलैटरल डेवलपमेंट बैंक्स (MDBs) की बड़ी भूमिका पर जोर दिया गया है. रिपोर्ट में एक अधिक समावेशी और प्रतिनिधित्व वाले ग्लोबल फाइनांशियल गर्वनंस स्ट्रक्चर की वकालत की गई है. ऐसा होने पर ही इन संस्थानों की कुशलता और प्रभावकारीता में वृद्धि होगी. इसके अलावा रिपोर्ट में मतदान के अधिकारों का बंटवारा नए सिरे से करने और इसमें भारत, चीन तथा ब्राजील जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं को शामिल करने की बात भी की गई है.

 

वैश्विक वित्त प्रशासन के लिए एक नया आदर्श

 

वर्तमान वित्तीय संस्थानात्मक व्यवस्था अपर्याप्त है और इसमें सुधारों को लेकर व्यापक रूप से मांग हो रही है. किसी भी नई संस्थानात्मक व्यवस्था के ढांचे में वैश्विक दक्षिण की आवश्यकताओं को प्राथमिकता देनी होगी. इन आवश्यकताओं में SDGs तथा जलवायु कार्रवाई जैसे ग्लोबल पब्लिक गुड् का वित्त पोषण शामिल है. इसके साथ ही नए ढांचे को एक अधिक लोकतांत्रिक और प्रातिनिधिक प्रशासनिक खाका तैयार करना होगा. ग्लोबल फाइनांशियल गर्वनंस रिपोर्ट इस दिशा में सही कदम है. लेकिन इस पर अमल करना आसान नहीं होगा. इस पर अमल के लिए तीव्र राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ वैश्विक समुदाय की ओर से यथास्थिति में बदलाव लाने के लिए सहयोग आवश्यक होगा. ऐसी स्थिति में G20 जैसा संस्थानात्मक मंच वैश्विक वित्त व्यवस्था को उसके वर्तमान गतिरोध से निकालने में अहम साबित हो सकता है. वर्तमान वैश्विक व्यवस्था को इस समय एक गतिरोध में धकेल दिया गया है.

G20 एक समावेशी और प्रतिनिधि को प्राथमिकता देने वाली व्यवस्था है, जिसमें वैश्विक उत्तर तथा वैश्विक दक्षिण के देशों का समावेश है. वैश्विक दक्षिण को लगातार मिली G20 की अध्यक्षता ने उभरते हुए विश्व की आकांक्षाओं और आवश्यकताओं को उजागर कर दिया है.

G20 एक समावेशी और प्रतिनिधि को प्राथमिकता देने वाली व्यवस्था है, जिसमें वैश्विक उत्तर तथा वैश्विक दक्षिण के देशों का समावेश है. वैश्विक दक्षिण को लगातार मिली G20 की अध्यक्षता (विशेषत: इंडोनेशिया-भारत-ब्राजील तथा भारत-ब्राजील-दक्षिण अफ्रीका की दोहरी तिकड़ी) ने उभरते हुए विश्व की आकांक्षाओं और आवश्यकताओं को उजागर कर दिया है. ऐसे में जहां वर्तमान संस्थान में सुधार जारी रह सकते हैं. लेकिन समावेशी सोच के साथ वैश्विक आर्थिक चिंताओं जैसे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय स्थिरता, जलवायु परिवर्तन और सतत विकास को हल करने में सहयोग करने के अपने मूल सिद्धांतों के साथ G20 एक ऐसी आदर्श स्थिति है जिसमें वह G20 स्तर का डेवलपमेंट फाइनांशियल इन्स्टीट्यूशन गठित कर सकता है. यह इन्स्टीट्यूशन ग्लोबल डेवलपमेंट एजेंडा को हासिल करने में रही वित्त की कमी को दूर कर सकता है.

 

G20 और SDGs

 

2010 में G20 ने अपने एजेंडा का विस्तार करते हुए इसमें अंतरराष्ट्रीय विकास को शामिल किया. 2015 में उसने एजेंडा 2030 को अपनाया, जिसमें SDGs को हासिल करने की दिशा में काम करने का फ़ैसला किया गया.[39] एक ओर जहां G20 ने वैश्विक अर्थव्यवस्था का प्रबंधन करने वाले मंच के रूप में काम किया है, वहीं यह व्यापक तौर पर वैश्विक विकास का सबसे अग्रणी मंच बनने में विफ़ल ही रहा है. अब तक G20’s की सबसे बड़ी उपलब्धि 2008 के वित्तीय संकट का जवाब देना ही रही है. [h] हालांकि महामारी को लेकर उसकी ओर के किए गए कार्य की अक्सर आलोचना ही हुई है.[40] महामारी के बाद कर्ज़ के संकट का सामना करने वाले विकासशील देशों को  G20 ने अपने डेट सर्विस सस्पेंशन इनशिएटिव [i] (DSSI) के माध्यम से कर्ज़ राहत तथा कॉमन फ्रेमवर्क [j] के सहयोग से कर्ज़ के पुनर्गठन में सहायता देकर थोड़ी मात्रा में सहायता की थी. ड्राइस लेसाज का तर्क है कि G20 ने 2010 के सिओल डेवलपमेंट कंसेंसस का पुनर्गठन करते हुए इसे SDGs एजेंडा के साथ तालमेल साधा था, लेकिन उसने SDG फ्रेमवर्क को पूरी तरह नहीं अपनाया था, क्योंकि उसके ढांचे की प्राथमिकताएं G20 की प्राथमिकताओं जैसी ही रही.[41] वे आगे तर्क देते हैं कि G20 ने अक्सर SDGs का उल्लेख विकासशील देशों के संदर्भ में ही किया है. G20 ने SDGs को कभी भी परिवर्तन लाने वाले वैश्विक एजेंडा के रूप में नहीं देखा है.[42] G20 ने G20 के भीतर तथा व्यापक तौर पर वैश्विक स्तर पर SDGs को हासिल करने में न्यूनतम भूमिका अदा की है

 

2022 में G20 ने G20’s के इंडिपेंडेंट रिव्यू ऑफ मल्टीलैटरल डेवलपमेंट बैंक्स (MDBs’), कैपिटल एडिक्वेसी फ्रेमवर्क्स (CAF) को प्रकाशित किया था. इसके अलावा उसने 2023 में MDB गर्वनंस फ्रेमवर्क यानी प्रशासनिक ढांचे पर काम को गति देने के लिए G20 रोडमैप लांच किया था.[43]

 

2022 में इंडोनेशिया के बाली में हुए शिखर सम्मेलन में इस समूह में रूस की सदस्यता के मुद्दे को लेकर विभाजन ही छाया रहा था. इसके अलावा उस सम्मेलन में यूक्रेन युद्ध की वजह से पैदा हुए आर्थिक और मानवाधिकार संकट की चर्चा हुई थी. लेकिन भारत की अध्यक्षता में एक बार पुन: विकास के मुद्दों को लेकर चर्चा की गई. उस दौरान G20 के नेताओं ने G20 2023 एक्शन प्लान अपनाया. इसका उद्देश्य SDGs की गति को सामूहिक रूप से बढ़ावा देकर G20 कार्य प्रणाली के तहत सहयोग को बढ़ाना और विकासशील देशों, संयुक्त राष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान और अन्य संगठनों के साथ अंतरराष्ट्रीय साझेदारी को पुख़्ता करना था.[44]

 

SDGs को दोबारा ज़िंदा करने के लिए G20 ही सबसे अच्छा मंच क्यों है?

 

अंतरराष्ट्रीय सहयोग के मामले में 19 संप्रभु देशों के साथ यूरोपियन यूनियन (EU) तथा अब अफ्रीकन यूनियन (AU) के समावेश के साथ G20 ही सबसे प्रभावशाली मंच है. इस मंच में केवल व्यापार और GDP के मामले में दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं शामिल हैं, बल्कि अब भारत की अध्यक्षता में इसमें AU का स्थायी सदस्य के रूप में समावेश कर लिया गया है. इसी वजह से इस समूह की वैधता में काफ़ी इज़ाफ़ा हो गया है. अत: अब G20 में वैश्विक उत्तर तथा दक्षिण के पर्याप्त प्रतिनिधि शामिल हैं. ऐसे में वह 2030 एजेंडा को आगे बढ़ाने वाली सबसे उपयुक्त वैध संस्था है. वर्तमान में वैश्विक दक्षिण के देश (भारत, ब्राजील तथा दक्षिण अफ्रीका) G20 एजेंडा तय करने की भूमिका में है. भारत की अध्यक्षता से इसे मिली गति का उपयोग SDG पर अमल की गति को बढ़ाने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग को मजबूती देने में किया जा सकता है.

 

G20 को एक डेवलपमेंट बैंक की स्थापना करनी चाहिए. यह बैंक SDG को हासिल करने की गति बढ़ाते हुए इस दिशा में आगे बढ़ने की राह में आने वाली सबसे बड़ी बाधा, फाइनांस यानी वित्त, को हल करने का काम करेगी. हालांकि इस बात को लेकर काफ़ी आशंकाएं हैं कि G7 G20 के अधिकारों को तय करेगा. लेकिन ये आशंकाएं निमूर्ल हैं, क्योंकि वैश्विक दक्षिण को मिली G20 की अध्यक्षताओं में वैश्विक दक्षिण की चिंताओं को पर्याप्त रूप से मजबूती के साथ उठाया गया है. यह बात G20 नेताओं की ओर से नई दिल्ली में नेताओं के घोषणापत्र में दिखाई देती है.[45]

 

G20 डेवलपमेंट बैंक की आवश्यकता

 

SDGs के वित्त पोषण के लिए एक स्वतंत्र G20 डेवलपमेंट बैंक के गठन का विचार सबसे पहले 2023 में आगे आया था.[46],[47] थिंक इंडिया कम्युनिके ने G20 के तहत एक डेवलपमेंट फाइनांस इन्स्टीट्यूशन की आवश्यकता पर बल दिया था. इसकी ज़रूरत SDG के अमल पर होने वाले ख़र्च में रहे अंतर को दूर करने और संकट काल में विकास शक्तियों को बल देने के लिए प्रोत्साहन देने के दोहरे उद्देश्य को देखते हुए महसूस की गई थी.[48] G20 डेवलपमेंट बैंक की आवश्यकता के पीछे के मुख़्य कारणों पर नीचे के अनुच्छेदों में चर्चा की गई है.

 

·        वर्तमान वित्तीय व्यवस्था SDGs को लागू करने में सक्षम नहीं है.

 

वर्तमान वैश्विक वित्तीय व्यवस्था को सतत विकास एजेंडा को हासिल करने के हिसाब से तैयार नहीं किया गया था. दूसरे विश्व युद्ध के बाद बनाई गई वर्तमान वैश्विक वित्तीय व्यवस्था का नेतृत्व विकसित देश MDBs के माध्यम से करते हैं. यह व्यवस्था विकासशील देशों के हकीकतों का सही अर्थों में प्रतिनिधित्व नहीं करती.[49] आधुनिक विश्व में सस्टेनेबिलिटी यानी वहनीयता संबंधी तत्कालिक चुनौतियों का सामना करने में MDBs विफ़ल है और इस वजह से वादे के अनुसार परिणाम दे पाने में असफ़ल रहने के कारण लगातार आलोचना का सामना करती है.

 

SDGs के वित्त पोषण के लिए एक नए डेवलपमेंट बैंक की आवश्यकता है, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय वित्त व्यवस्था तथा MDBs में सुधार की कोशिशों को उम्मीद के मुताबिक सफ़लता मिलने की संभावनाएं बेहद कम हैं. उदाहरण के लिए वर्ल्ड बैंक का गरीबी उन्मूलन का मुख़्य उद्देश्य और उसका देश-केंद्रित काम करने के मॉडल का SDG वित्त पोषण/फाइनेंसिंग के साथ तालमेल नहीं बैठता. SDG फाइनेंसिंग में व्यापक रूप से देशों और क्षेत्रों पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत होती है. अनेक विद्वान भी MDBs में सुधार की वर्तमान कोशिशों को लेकर संतुष्ट नहीं हैं. [k],[50]

 

·        अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्थानों में विकासशील देशों की आवाज़ कमज़ोर है.

 

MDBs, वर्ल्ड बैंक तथा IMF की प्राथमिक आलोचना इनके प्रशासनिक ढांचे में शक्ति के असंतुलन को लेकर की जाती है. IMF में मतदान के अधिकार की हिस्सेदारी अर्थव्यवस्था के ख़ुलेपन तथा उसके साइज को देखकर आवंटित की जाती है. इसके फलस्वरूप गरीब विकासशील देश तथा कर्ज़ लेने वाले देशों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में ढांचागत रूप से ही कम प्रतिनिधित्व मिलता है.[51] वर्ल्ड बैंक में वोट का अधिकार वित्तीय अंशदान/सहयोग और आकार के बल पर तय होता है.[52] हालांकि वर्ल्ड बैंक में 2010 [l] में मतदान की शक्तियों की समीक्षा हुई थी, लेकिन G7 देशों तथा चीन को अब भी सबसे अधिक मताधिकार हासिल हैं.[53] वर्ल्ड बैंक के सबसे बड़े हिस्सेदार (लगभग 16 प्रतिशत) के रूप में US के पास वर्ल्ड बैंक के कुछ फ़ैसलों को वीटो करने का अधिकार है. जबकि सब सहारन अफ्रीकी देशों, जो बैंक के मुख्य हिस्सेदार हैं, के पास कुल मिलाकर 6 प्रतिशत वोट ही मौजूद हैं. ये देश बैंक के संचालन में ज़्यादा दख़ल भी नहीं रखते हैं.[54] US तथा यूरोपीय देशों के बीच कथितजेंटलमेंस एग्रीमेंट’[m] भी यह सुनिश्चित करता है कि बैंक तथा IMF का नेतृत्व सदैव ही क्रमश: US अथवा यूरोप का ही कोई व्यक्ति करें.

 

अनेक विद्वानों का तर्क है कि वर्ल्ड बैंक तथा IMF का ढांचा भले ही वित्तीय संस्थान के रूप में बनाया गया है, लेकिन उनकी प्रशासनिक व्यवस्था वास्तविक वित्तीय संस्थान जैसी नहीं है. उनके शेयरहोल्डर्स जो निजी देश हैं वे अपने ही भूराजनीतिक हितों को आगे बढ़ाने को लेकर प्रोत्साहित रहते हैं.[55] इसी प्रकार शक्तिशाली शेयरहोल्डर्स के प्रतिस्पर्धी हित अक्सर छोटे और विकासशील देशों के हितों की उपेक्षा का कारण बनते हैं.

 

·        अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था विकासशील देशों के प्रति अन्यायपूर्ण है.

 

अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था विकासशील देशों के लिए एक सुरक्षा जाल के रूप में काम करने में विफ़ल रही है. वह मूल रूप से अन्यायपूर्ण है. 2023 में पेरिस समिट फॉर न्यू ग्लोबल फाइनांसिंग पैक्ट [n] में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था कोअप्रचलिततथाबेकारकहते हुए उस पर गरीबी और असमानता को बढ़ाने का आरोप लगाया था.[56] SDRs का उच्च एवं कम आय वाले देशों में असमान बंटवारा हुआ था. इतना ही नहीं उच्च आय वाले देशों ने महामारी के बाद अपनी अर्थव्यवस्थाओं को पुनर्जीवित करने के लिए नोट छाप लिए थे, जबकि विकासशील देश ऊंची होती कर्ज़ की दरों (विकसित देशों के मुकाबले लगभग आठ गुना अधिक) के कारण संकट का सामना कर रहे थे.[57] ऊंची दरों पर कर्ज़ लेने वाले देश कर्ज़ चूकाने पर अधिक ख़र्च कर रहे थे, जबकि उन्हें अपनी आबादी के स्वास्थ्य और शिक्षा पर ख़र्च करना चाहिए था.

 

पर्यावरणीय और जलवायु संबंधी चिंताओं पर कम ध्यान दिया जा रहा है. इसी प्रकार जलवायु वित्त को लेकर भी रिकॉर्ड चिंताजनक है. अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों ने प्रातिनिधिक रूप से इकोनॉमिक रेट ऑफ रिटर्न [o] पर ध्यान देते हुए पर्यावरणीय और जलवायु संबंधी चिंताओं को दरकिनार किया था. ब्रेटन वुड् इन्स्टीट्यूशंस ने पर्यावरण की रक्षा करने और जलवायु परिवर्तन का हल निकालने के उपायों पर पूरी ताकत के साथ काम नहीं किया और इसमें वह पिछड़ गया है. विकास तथा गरीबी उन्मूलन[58],[59] के बीच संबंधों का मिश्रित सबूत होने के बावजूद वर्ल्ड बैंक तथा IMF ने गरीबी उन्मूलन के लिए विकास-आधारित दृष्टिकोण अपनाया और पर्यावरण पतन की अनदेखी करते हुए जलवायु संकट को और भी गहरा कर दिया. संस्थानों की ओर से जलवायु परिवर्तन तथा पर्यावरण पतन को हल करने की तमाम कोशिशें इन चिंताओं को विकास-आधारित मॉडल में समाहित करने तक सीमित रही हैं.[60] ऐसे में इन संस्थानों के मूल सिद्धांत एजेंडा 2030 से मेल नहीं खाते. एजेंडा 2030 में आर्थिक विकास का पीछा करने की बजाय वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रणालीगत संशोधन/बदलाव करने की बात की गई है

 

इसके अतिरिक्त वर्ल्ड बैंक तथा अन्य MFIs ने अपने लैंडिंग पोर्टफोलियो का पेरिस एग्रीमेंट के साथ तालमेल नहीं बिठाया था. वर्ल्ड बैंक नवीकरणीय ऊर्जा विकास के क्षेत्र में प्रोजेक्ट फाइनांस में अहम योगदान दे रही है, इसके बावजूद लो कार्बन डेवलपमेंट के ऊपर उसका प्रभाव सटीक नहीं दिखता. वह अब भी जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं को वित्त पोषित करते हुए तेल, गैस तथा कोल ऑपरेशंस के मुनाफ़े में ज़्यादा हिस्सेदारी दे रहा है.[61] वर्ल्ड बैंक ने अब तक अपने डेवलपमेंट पॉलिसी फाइनांस [p] (DPF) के जलवायु प्रभावों का आकलन करने के लिए एक फ्रेमवर्क विकसित नहीं किया है. इसके साथ ही COVID-19 महामारी के बाद DPF की ओर से आपात रिस्पांस के लिए मुहैया करवाई गई फंडिंग में भी जलवायु चिंताओं को प्रमुखता से शामिल नहीं किया गया था.[62]

 

जलवायु अनुकूलन वित्त को लेकर भी रिकॉर्ड निराशाजनक है. UNEP’s की 2023 की अडैप्टेशन गैप रिपोर्ट[63] से ख़ुलासा होता है कि जलवायु अनुकूलन वित्त की मांग और इसके लिए किए जाने वाले मूल राशि के प्रावधान के बीच अंतर केवल बढ़ता जा रहा है, बल्कि यह बेहद ज़्यादा यानी 10-18 गुना स्तर तक पहुंच गया है. 2020 तथा 2030 के बीच विकासशील देशों को जलवायु प्रभावों का मुकाबला करने के लिए अनुकूलन करने के लिए सालाना 215 बिलियन अमेरिकी डालर की आवश्यकता थी. घरेलू अनुकूलन ब्लूप्रिंट् को लागू करने के लिए भी प्रति वर्ष 387 बिलियन अमेरिकी डालर के वित्त पोषण की ज़रूरत है.[64] इस ज़रूरत को पूरा करने की बढ़ती मांग के बावजूद सार्वजनिक बहुराष्ट्रीय तथा द्विपक्षीय अनुकूलन वित्त के खजाने में 2021 में 15 प्रतिशत की कमी देखी गई और यह घटकर 21 बिलियन अमेरिकी डालर रह गया. फलस्वरूप अनुकूलन वित्त का अंतर और भी बढ़ा है. अब यह सालाना 194 बिलियन अमेरिकी डालर से 366 बिलियन अमेरिकी डालर के बीच हो गया है.[65] MFIs तथा DFIs की ओर से होने वाली फाइनेंसिंग मिटीगेशन प्रोजेक्ट् यानी शमन परियोजनाओं को तवज्ज़ो दी गई है. ऐसे में इन संस्थानों का पोर्टफोलियो पक्षपाती होने का ख़ुलासा होता है.[66] ऐसा ऊर्जा संक्रमण परियोजनाओं में होने वाले निवेश के रिटर्न ऑफ इंवेस्टमेंट (RoI) यानी प्रत्यक्ष रिटर्न के कारण होता है. क्योंकि ऊर्जा संक्रमण परियोजनाओं के मुकाबले अनुकूलन परियोजनाओं के RoIs अतिसूक्ष्म यानी दिखाई देने लायक होते है और ये आमतौर पर सार्वजनिक संपत्ति में परिवर्तित होता है.[67]

 

·        वित्तीय व्यवस्था में सुधार की कोशिशें विफ़ल रही हैं

 

वर्तमान MDBs का गठन 70 वर्ष पूर्व युद्ध-पश्चात दुनिया के समक्ष मौजूद चुनौतियों से निपटने के लिए किया गया था. लेकिन आज की चुनौतियों से तत्काल निपटने के लिए एक अधिक मजबूत और प्रभावी बहुराष्ट्रीय प्रयास की आवश्यकता है. मौजूदा संस्थानों में संशोधन करके वर्तमान वैश्विक चुनौतियों को इंक्रीमेंटल या बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वाले अंदाज में हल नहीं किया जा सकता. अब साहसिक और व्यवस्थागत संशोधन समय की आवश्यकता है. यह साफ़ हो गया है कि SDGs पर अमल केवल नए, स्थायी और वित्तपोषण के दीर्घावधि स्रोतों के माध्यम से ही किया जा सकता है. वर्तमान वित्त व्यवस्था की सीमाओं और SDG फंडिंग के अंतर को देखते हुए वित्त यानी राशि को जुटाने के लिए एक रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाकर ही आगे बढ़ा जा सकता है. SDG पर अमल के मामले में भले ही वित्त सबसे बड़ी रुकावट हो, लेकिन वैश्विक स्तर पर धन की कोई कमी नहीं है. लेकिन यह धन उन इलाकों और क्षेत्रों में नहीं जाता, जहां इनकी सबसे ज़्यादा आवश्यकता है.

 

एक नया डेवलपमेंट बैंक नॉर्थ-साउथ सहयोग को प्रोत्साहित करते हुए SDGs को हासिल करने की गति को तेज करेगा. एक नवाचार वित्तीय साधन के रूप में G20 डेवलपमेंट बैंक G20 के भीतर ही, विशेषत: वैश्विक दक्षिण के लिए, सतत वित्त पर सहयोग को बढ़ाने और समर्थन करने के लिए रणनीति तैयार करेगा. G20’s के अपने वित्तीय संस्थान में नॉर्थ-साउथ तथा साउथ-साउथ सहयोग मॉडल्स की श्रेष्ठ विशेषताओं का मिश्रण होना चाहिए.[68] एक ओर जहां नॉर्थ को उसके मानदंडों तथा मानकों के लिए पसंद किया जाता है, वहीं साउथ के पास विकासशील देशों के समक्ष मौजूद वित्तीय नुकसान को पहचानने की क्षमता मौजूद है.[69]

 

इसके अलावा पिछले दो दशकों के अनुभव ने यह सबक सिखा ही दिया है कि SDGs को वैश्विक झटकों से बचाने के लिए सुरक्षाकवच मुहैया करवाना ज़रूरी हो गया है. एक नया डेवलपमेंट फाइनांस इन्स्टीट्यूशन (DFI) साउथ-साउथ सहयोग तथा साउथ-नॉर्थ साझेदारी को मजबूती देने में अहम साबित होगा. इस काम में ग्लोबल नॉर्थ की विशेषताओं का उपयोग ग्लोबल साउथ के फाइनेंसिंग मेकैनिज्मस्यानी वित्तीय तंत्र को डिजाइन करने में किया जाएगा. एकमात्र आयोजन संस्था के कारण यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि कम विकसित देशों को सहायता मुहैया करवाने में भूराजनीतिक स्थितियां आड़े नहीं आएगी.[70]

 

G20 डेवलपमेंट बैंक: उद्देश्य, प्रकृति और ढांचा

 

G20 डेवलपमेंट बैंक की सिफ़ारिश करने का प्राथमिक उद्देश्य यह है कि यह SDGs पर अमल को, विशेषत: विकासशील देशों में, तेज गति से आगे बढ़ाएगा. 2023 एक्शन प्लान में G20 डेवलपमेंट बैंक की स्थापना एक अहम कदम होगा. इतना ही नहीं यह SDG पर अमल की दिशा में G20 का एक ठोस कदम भी होगा. सतत विकास एजेंडा पर अमल करने के लिए वित्त पोषण करने के लिए G20 डेवलपमेंट बैंक की स्थापना से एजेंडा 2030 में मौजूद वित्त की कमी से भी निपटा जा सकेगा. G20 डेवलपमेंट बैंक यह भी सुनिश्चित करेगा कि कम विकसित देशों को सतत विकास हासिल करने के लिए आवश्यकता वित्त उपलब्ध करवाने की प्रक्रिया भूराजनीतिक अथवा किसी अन्य व्यवधान के कारण प्रभावित नहीं होगी. इसके साथ ही G20 डेवलपमेंट बैंक वैश्विक स्तर पर लिक्विडिटी में सुधार करेगी और सस्टेनेबल प्रोजेक्ट् के लिए दीर्घावधि में राशि उपलब्ध करवाएगी. एशियन डेवलपमेंट बैंक तथा अफ्रीकन डेवलपमेंट बैंक जैसे क्षेत्रीय विकास बैंकों की तरह G20 डेवलपमेंट बैंक का दृष्टिकोण क्षेत्रीय नहीं होगा

 G20 डेवलपमेंट बैंक की प्राथमिकताएं मौजूदा MDBs की प्राथमिकताओं से अलग होनी चाहिए. क्योंकि मौजूदा MDBs की प्राथमिकताओं के कारण वैश्विक असमानताओं में इज़ाफ़ा हुआ है. अन्य MDBs के विपरीत G20 डेवलपमेंट बैंक को विकासशील देशों को निष्पक्ष शर्तों पर वित्त मुहैया करवना होगा. 

G20 डेवलपमेंट बैंक की प्राथमिकताएं मौजूदा MDBs की प्राथमिकताओं से अलग होनी चाहिए. क्योंकि मौजूदा MDBs की प्राथमिकताओं के कारण वैश्विक असमानताओं में इज़ाफ़ा हुआ है. अन्य MDBs के विपरीत G20 डेवलपमेंट बैंक को विकासशील देशों को निष्पक्ष शर्तों पर वित्त मुहैया करवना होगा. इसके अलावा G20 डेवलपमेंट बैंक को अपने ऑपरेशंस में जलवायु परिवर्तन समेत अन्य पर्यावरणीय चिंताओं जैसे जैव विविधता को होने वाले नुक़सान को शामिल करना होगा, ताकि वह प्रत्येक परियोजना के सच्चे लाभ और लागत को उजागर करते हुए इसके सोशल रेट ऑफ रिटर्न को अधिकतम कर सके. [q] दीर्घावधि के सोशल रेट ऑफ रिटर्न पर ध्यान केंद्रित करना विकासशील देशों में जलवायु-अनुकूलन परियोजनाओं के लिए विशेष रूप से लाभदायक साबित होंगे. इसका कारण यह है कि पारंपारिक वित्तीय संस्थान ऐसे मामलों में कमज़ोर लघु-अवधि के रिटर्न्स के कारण विकासशील देशों की अनदेखी करते हैं.

 

सदस्यता

 

G20 के सभी सदस्य (जिसमें EU तथा AU भी शामिल है) G20 डेवलपमेंट बैंक के सदस्य होंगे. बैंक के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स, जिसमें सदस्य देशों के वित्त मंत्री शामिल होंगे, शेयरहोल्डर्स का प्रतिनिधित्व करेगा.

 

बैंक की संस्थागत ज़िम्मेदारियां इस प्रकार होंगी

 

  • विकासशील देशों में SDGs पर अमल के लिए संसाधनों की जुटाना
  • SDGs पर अमल के लिए निजी-क्षेत्र के संसाधनों का उपयोग करना
  • SDGs के लिए फंडिंग और रिसर्च आयोजित करना
  • विकासशील देशों में अनुकूलन परियोजनाओं का समर्थन करना
  • विकासशील देशों के लिए विश्वसनीय परियोजनाओं का एक पुल तैयार करना
  • दीर्घावधि सस्टेनेबल प्रोजेक्ट् पर मंडराने वाले ख़तरों में कमी को सुनिश्चित करना
  • विभिन्न देशों के बीच सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करना

 

ढांचा

 

G20 डेवपलमेंट बैंक सचिवालय में चित्र 1 में दर्शाए गए विभिन्न डिवीजन और कार्यालयों का समावेश होगा.

 

चित्र1: G20 डेवपलमेंट बैंक का ढांचा

 


 

स्रोत: लेखक का अपना

 

ध्यान दिये जान वाले सेक्टर

 

बैंक की प्राथमिकता ऐसी सतत विकास परियोजनाओं का वित्त पोषण करना होगा जो समावेशी विकास को बढ़ावा देकर विकासशील देशों में रहने वाले नागरिकों के जीवन में सुधार के लिए काम करें. इसी प्रकार इसका उद्देश्य यह भी है कि यह सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की ऐसी परियोजनाओं को निवेश में हिस्सेदारी, कर्ज़ और अन्य उपयुक्त साधनों से सहायता मुहैया करवाएं. इसी प्रकार नागरिक समाज, परोपकार, स्थानीय समुदायों, अंतरराष्ट्रीय संस्थानों समेत अन्य उपयुक्त विकास साझेदारों के बीच सहयोग पर भी मजबूती से ध्यान देना होगा. इसके ऑपरेशंस के क्षेत्र ऐसे होंगे

 

·    

·         ऊर्जा कुशलता और न्यायोचित संक्रमण

·         कनेक्टिविटी

·         विकासशील देशों में जलवायु अनुकूलन

·         जल एवं स्वच्छता

·         इकोलॉजिकल प्रोटेक्शन यानी पारिस्थितिक संरक्षण

·         कर्ज़-फाइनेंसिंग समाधान

  

 

निष्कर्ष

 

SDGs को अपनाना एक ऐतिहासिक क्षण था. इसने विकसित तथा विकासशील देशों के बीच समान लक्ष्यों पर प्रकाश डाला था. लेकिन इस पर अमल के साधन, विशेष रूप से वित्त जुटाने, को एकत्रित करना बड़ी चुनौती साबित हुआ है. इसका कारण यह है कि वर्तमान वैश्विक वित्तीय व्यवस्था को इस तरह के महत्वाकांक्षी सतत विकास एजेंडा को डिलीवर करने यानी उसका परिणाम देने के लिए डिजाइन नहीं किया गया था. COVID-19 महामारी तथा उसके बाद के संकटों की श्रृंखला ने SDGs को हासिल करना और भी मुश्किल बना दिया है. MDBs आधुनिक दुनिया के सस्टेनेबिलिटी चैलेंजेस्को तत्कालिक रूप से हल करने में विफ़ल साबित हुए हैं. इस वजह से MDBs की ओर से किए गए वादों के अनुरूप काम नहीं होने को लेकर उनकी तीव्र आलोचना हो रही है. इसी संदर्भ में G20 ही SDG एजेंडा को पुनर्जीवित करने के लिए एक आदर्श मंच साबित हो सकता है, क्योंकि वही SDG वित्त पोषण में बढ़ रहे अंतर का हल निकाल सकता है.

  G20 DFI नॉर्थ-साउथ में समन्वय युक्त बातचीत की आवश्यकता पर ज़ोर देता है और वह नॉर्थ से फंड्‌स लेकर इसे साउथ को हस्तांरित करता है. नार्थ की विकास महत्वाकांक्षाओं के आघात को साउथ बर्दाश्त करता है. ऐसे में एक ऐसा संस्थान ज़रूरी है जो साउथ की विकास आवश्यकताओं संबंधी ज़रूरतों और महत्वकांक्षाओं को सुनिश्चित करते हुए ग्लोबल नॉर्थ-साउथ ट्रांसफर सुनिश्चित करेगा. 

कोई यह तर्क भी दे सकता है कि ग्लोबल साउथ के वित्तीय संस्थान जैसे एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इंवेस्टमेंट बैंक (AIIB) तथा न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB) को भी ग्लोबल साउथ की आवश्यकताओं और महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रखकर इसकी पूर्तता करने के लिए सुसज्जित किया जा सकता है. ऐसे में G20-स्तरीय डेवलपमेंट बैंक की ज़रूरत पर भी सवाल उठाया जा सकता है. G20 फाइनेंशियल इन्स्टीट्यूशन की ज़रूरत तीन कारणों की वजह से बेहद अहम है. पहला, AIIB चीन-संचालित संस्थान है, जो अपने ही बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के विस्तारवादी एजेंडा को आगे बढ़ा रहा है. इसके अतिरिक्त AIIB का पॉवर स्ट्रक्चर पक्षपातपूर्ण है, जिसे न्यायोचित, समावेशी और लोकतांत्रिक संस्थान के रूप में नहीं देखा जा सकता. दूसरा, NDB ने अभी तक अनुकूलन वित्त की आवश्यकता पर ध्यान नहीं दिया है. इसके साथ ही NDB की वैश्विक प्रकृति पर भी सवालिया निशान है. तीसरा, G20 DFI नॉर्थ-साउथ में समन्वय युक्त बातचीत की आवश्यकता पर ज़ोर देता है और वह नॉर्थ से फंड् लेकर इसे साउथ को हस्तांरित करता है. नार्थ की विकास महत्वाकांक्षाओं के आघात को साउथ बर्दाश्त करता है. ऐसे में एक ऐसा संस्थान ज़रूरी है जो साउथ की विकास आवश्यकताओं संबंधी ज़रूरतों और महत्वकांक्षाओं को सुनिश्चित करते हुए ग्लोबल नॉर्थ-साउथ ट्रांसफर सुनिश्चित करेगा. G20 डेवलपमेंट बैंक की यह व्यवस्था एक ऐसी कोशिश है जो समावेशी, न्यायोचित और गैर-पश्चिमी होते हुए यह सुनिश्चित करेगी कि साउथ की चिंताओं को नॉर्थ की ओर से हल किया जाएगा.

 

इस तरह के एक DFI का गठन इस तथ्य को ध्यान में रखकर करना भी आवश्यक है कि अंतरराष्ट्रीय वित्त व्यवस्था और