वैसे तो हाल के वर्षों में जलवायु संकट की चर्चा बहुत अधिक बढ़ गई है और इससे निपटने के लिए जलवायु संबंधी कई क़दम भी उठाए जा रहे हैं. लेकिन, इसके साथ साथ, बाहरी अंतरिक्ष के टिकाऊ इस्तेमाल को लेकर भी चर्चाएं ज़ोर पकड़ रही हैं. हालांकि अभी इनमें जलवायु संकट वाली शिद्दत देखने को नहीं मिल रही है. ‘अंतरिक्ष की निरंतरता’ से ये सुनिश्चित हो सकेगा कि मानवता निकट भविष्य के साथ साथ, आने वाले लंबे समय तक, बाहरी अंतरिक्ष का इस्तेमाल अपने सामाजिक आर्थिक विकास के लिए कर सकेगा. चूंकि ये ख़याल तेज़ी से लोकप्रिय हो रहा है और इसी का नतीजा है कि इस साल का ‘विश्व अंतरिक्ष सप्ताह’ अंतरिक्ष और टिकाऊपन’ की थीम के इर्द गिर्द केंद्रित है. तमाम अन्य बातों के साथ साथ 2022 की थीम का मक़सद ख़ास तौर से विश्व के सामने अंतरिक्ष को सुरक्षित और टिकाऊ बनाए रखने की चुनौतियों की तरफ़ ध्यान खींचना है.
दुनिया के सामने ऐसी चुनौतियों का अंतहीन सिलसिला है. फिर चाहे उनकी तादाद की बात हो या ख़ासियतों की. मिसाल के तौर पर अंतरिक्ष को टिकाऊ बनाए रखने की राह में आने वाली कई और भयंकर समस्याएं हैं. इनमें अंतरिक्ष में उपग्रहों की बढ़ती भीड़ और धरती की निचली कक्षा (LEO) में अंतरिक्ष के कचरे से किसी उपग्रह के टकराने के जोखिम शामिल हैं. अंतरिक्ष के इस्तेमाल को टिकाऊ बनाने की ज़रूरत पहले ही आसमान छू रही है. क्योंकि आज अस्सी से ज़्यादा देशों के 6800 से ज़्यादा उपग्रह धरती की कक्षा में चक्कर लगा रहे हैं. इनमें से कई उपग्रह सैन्य और असैन्य मक़सद से इस्तेमाल किए जा रहे हैं. इसके अलावा कक्षा में चक्कर लगा रहे 30 हज़ार से ज़्यादा कचरे के टुकड़े भी अंतरिक्ष में मौजूद हैं. जैसे जैसे अंतरिक्ष में इस्तेमाल होने वाली नई और उभरती हुई तकनीकों का विकास हो रहा है. अंतरिक्ष का तेज़ी से सैन्यीकरण और सुरक्षा के लिए इस्तेमाल बढ़ रहा है और देशों के बीच अविश्वास बढ़ रहा है, वैसे में अंतरिक्ष की गतिविधियों में और तेज़ी ही आने वाली है और इसका इस्तेमाल राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज़ से ज़्यादा होने वाला है.
अंतरिक्ष की निरंतरता’ से ये सुनिश्चित हो सकेगा कि मानवता निकट भविष्य के साथ साथ, आने वाले लंबे समय तक, बाहरी अंतरिक्ष का इस्तेमाल अपने सामाजिक आर्थिक विकास के लिए कर सकेगा. चूंकि ये ख़याल तेज़ी से लोकप्रिय हो रहा है और इसी का नतीजा है कि इस साल का ‘विश्व अंतरिक्ष सप्ताह’ अंतरिक्ष और टिकाऊपन’ की थीम के इर्द गिर्द केंद्रित है.
ये बात दुनिया के कई देशों में ज़ाहिरा तौर पर दिख भी रही है. हाल के दिनों में कई देशों ने उपग्रह को मार गिराने की क्षमता (ASAT) का विकास और परीक्षण किया है. केवल चार देशों (अमेरिका, रूस, चीन और भारत) ने ही अब तक 26 से ज़्यादा एंटी सैटेलाइट परीक्षण किए हैं, ताकि दुश्मन के लिए तबाही लाने वाली इस तकनीक से ख़ुद को लैस कर सकें. इन दिनों यूरोपीय परिषद की अगुवाई कर रहे फ्रांस ने भी अंतरिक्ष में सैन्य क्षमताओं के विकास में कई अरब यूरो की रक़म ख़र्च की है और फ्रांस लगातार यूरोपीय संघ के अन्य देशों की ओर से भी अंतरिक्ष की सुरक्षा की अहमियत पर ज़ोर देता रहता है. ऑस्ट्रेलिया ने साल 2022 की शुरुआत में अंतरिक्ष की रक्षा कमान की स्थापना की थी, ताकि अंतरिक्ष में अपनी सामरिक संभावनाओं में और इज़ाफ़ा कर सके. इसी तरह, जून 2022 में दक्षिण कोरिया ने अंतरिक्ष में एक ख़ुफ़िया उपग्रह प्रक्षेपित किया था, ताकि उत्तर कोरिया पर नज़र रख सके. क्योंकि ख़ुद उत्तर कोरिया भी अंतरिक्ष के सैन्य इस्तेमाल को काफ़ी तरज़ीह दे रहा है. हालांकि इनमें से किसी भी देश के अंतरिक्ष रक्षा अभियान या कार्यक्रम में टिकाऊ इस्तेमाल की बात या प्रावधान नहीं है.
सुरक्षा और टिकाऊपन दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. लेकिन दोनों के बुनियादी तौर पर एक दूसरे के उलट होने के कारण अक्सर दोनों को एक दूसरे के विरोध में खड़ा किया जाता है. राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए काफ़ी रक़म लगाकर बड़े बड़े अंतरिक्ष कार्यक्रम बनाए जाते हैं. जबकि अंतरिक्ष को टिकाऊ बनाए रखने के लिए होने वाले अंतरराष्ट्रीय संवाद को तुलनात्मक रूप से बहुत कम तरज़ीह दी जाती है. ये इस बात की मिसाल है कि सैन्य ख़र्च को टिकाऊ इस्तेमाल की दिशा में होने वाले व्यय से कहीं ज़्यादा तवज्जो दी जाती है. इस बात को और मज़बूती से रखने के लिए एक मिसाल ही काफ़ी होगी. 20221 में कोविड-19 महामारी के चलते टिकाऊ विकास के लक्ष्यों (SDGs) को हासिल करने के लिए फंड की काफ़ी कमी देखी गई थी और इसके चलते ये लक्ष्य (SDGs) हासिल करने की रफ़्तार काफ़ी पिछड़ गई थी. लेकिन, दुनिया का सेनाओं पर ख़र्च बिल्कुल भी कम नहीं हुआ बल्कि लगातार बढ़ते हुए 2021 में ही ये 2 ख़रब डॉलर के भी पार चला गया था.
सुरक्षा और टिकाऊपन के बीच चुनाव करने से टिकाऊ विकास कई मामलों मे पिछड़ सकता है. ऐसे में सीमित संसाधनों के और अधिक दोहन की आशंका बढ़ जाती है. फिर चूंकि संसाधन दुर्लभ होने लगते हैं तो संघर्ष की आशंका और बढ़ती जाती है और आख़िर में इसके चलते सुरक्षा और संघर्ष का दुष्चक्र बन जाता है. इसकी एक मिसाल, अंतरिक्ष की मौजूदा होड़ है. जिसमें एक तरफ़ तो सुरक्षा संबंधी ज़रूरतें हैं और दूसरी तरफ़ कारोबारी फ़ायदा. इसके चलते अंतरिक्ष के क्षेत्र में सरकारों के ख़र्च में लगातार इज़ाफ़ा होता जा रहा है और 2021 में ये बढ़कर 98 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गया था. वहीं दूसरी ओर अंतरिक्ष को टिकाऊ बनाने की गतिविधियां अभी हाल की बात है और ये स्वैच्छिक अंतरराष्ट्रीय प्रयासों के भरोसे है.
केवल चार देशों (अमेरिका, रूस, चीन और भारत) ने ही अब तक 26 से ज़्यादा एंटी सैटेलाइट परीक्षण किए हैं, ताकि दुश्मन के लिए तबाही लाने वाली इस तकनीक से ख़ुद को लैस कर सकें. इन दिनों यूरोपीय परिषद की अगुवाई कर रहे फ्रांस ने भी अंतरिक्ष में सैन्य क्षमताओं के विकास में कई अरब यूरो की रक़म ख़र्च की है.
नियमों पर नए सिरे से ज़ोर देने की ज़रूरत
2010 में बाहरी अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण इस्तेमाल की समिति (COPUOS) ने बाहरी अंतरिक्ष की गतिविधियों को लंबी अवधि के लिए टिकाऊ बनाने के कार्यकारी समूह का गठन किया था. इस वर्किंग ग्रुप में संयुक्त राष्ट्र के 95 सदस्य देश शामिल थे. इस समूह ने 2019 में आम सहमति से कुछ दिशा निर्देशों को मंज़ूरी दी थी. हालांकि ये समूह इन दिशा निर्देशों या अन्य नियमों का पालन करना किसी भी देश के लिए बाध्यकारी या क़ानूनी रूप से अनिवार्य बनाने में नाकाम रहा था. ये समूह इस बात पर भी सहमत हुआ था कि 2022 से अगले पांच साल तक वो इस बात पर भी काम करेगा. लेकिन चूंकि ये कार्यकारी समूह किसी समझौते पर पहुंचने के लिए आम सहमति के रास्ते पर चलता है, तो ये उम्मीद करना बेमानी है कि इस समूह से कोई व्यापक या सख़्त नियामक रूप-रेखा बनकर निकलेगी. बहुपक्षीय मंचों का हथियारों या सुरक्षा संबंधी किसी अन्य मक़सद से आम सहमति बनाने वाला नज़रिया, अक्सर इसमें शामिल देशों के अपने राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों से टकराने लगता है और लंबे समय से इनकी धीमी चाल और बेअसर होने को लेकर आलोचना होती रही है. इसका एक और उदाहरण कन्वेंशन ऑन सर्टेन कन्वेंशनल वेपन्स (CCW) की घातक स्वचालित हथियारों (LAWS) पर सरकारी विशेषज्ञों के समूहों (GGE) की बैठकें हैं. इन हथियारों को लेकर समूह की बैठकें 2014 में शुरू हुई थीं और अब तक केवल 11 निर्देशक सिद्धांतों पर सहमति बन सकी है, जिन्हें मानने की किसी भी देश की मजबूरी नहीं है.
इन बहुपक्षीय कोशिशों के अलावा भी कई संगठन या तो अंतरिक्ष को टिकाऊ इस्तेमाल के लिए सुरक्षित बनाने से जुड़ी गतिविधियां चला रहे हैं, या फिर ऐसी गतिविधियों को आर्थिक मदद दे रहे हैं. मिसाल के तौर पर विश्व आर्थिक मंच ने 2022 में स्पेस सस्टेनिबिलिटी रेटिंग (SSR) के नाम से एक नए मानक को शुरू किया है. इसका मक़सद अंतरिक्ष के क्षेत्र में सक्रिय कंपनियों और संगठनों को ऐसे टिकाऊ मिशन की योजना बनाने के लिए प्रेरित करना और प्रोत्साहन देना है, जो टिकाऊ और उत्तरदायी कार्यक्रम बनाते हैं. हालांकि अभी ये देखना बाक़ी है कि क्या अंतरिक्ष में काम कर रहे देश SSR जैसे औज़ारों के प्रति सकारात्मक रुख़ अपनाते हैं या नहीं. क्योंकि ये मानक सकारात्मक नियम लागू करने पर आधारित हैं और लोगों को अंतरिक्ष को टिकाऊ बनाने के प्रति जागरूक बनाने का काम करते हैं.
हम किसी भी पैमाने पर कसें, फिलहाल तो अंतरिक्ष की निरंतरता को लेकर काम शुरू ही हो रहा है. जब अंतरिक्ष के विशेषज्ञ, देशों के सरकारी अंतरिक्ष संगठन या वो देश ख़ुद इस नतीजे पर नहीं पहुंचते कि निरंतरता उनके अपने अंतरिक्ष मिशन का हिस्सा बननी चाहिए और जब तक ये देश ये लक्ष्य हासिल करने के लिए ख़ुद से सकारात्मक तरीक़े नहीं तैयार करते हैं, तब तक वो अंधेरे में तीर नहीं चला सकते हैं. जैसे धरती के संसाधनों को टिकाऊ बनाए रखने के लिए कोई क़दम उठाने से पहले तमाम पेचीदगियों पर ग़ौर करना पड़ता है. तमाम परिभाषाएं गढ़नी पड़ती हैं, और क़दमों को असरदार बनाने के लिए, मिली-जुली प्राथमिकताएं और सूचकांक तय करने पड़ते हैं. उसी तरह ये बातें अंतरिक्ष को टिकाऊ बनाने की कोशिशों पर भी लागू होती हैं.
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