Author : Noyontara Gupta

Published on Oct 20, 2022 Updated 0 Hours ago

भारत के कुछ हिस्सों में मासिक धर्म से गुज़र रही महिलाओं को अक्सर सामाजिक और धार्मिक समारोहों से दूर रखा जाता है. पूजा स्थलों में उन्हें प्रवेश नहीं करने दिया जाता, यहां तक कि घर की रसोई से भी अलग कर दिया जाता है.

सुशीला देवी: कूजती गांव में महिलों की ‘माहवारी’ स्वास्थ्य की मुखर आवाज़!

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महिलाओं को अपने मासिक धर्म से जुड़े मसले को हमेशा दबा-छिपाकर रखने को कहा जाता रहा है. इसे अपवित्र समझने से लेकर बुरी आत्माओं तक से जोड़ा गया है. माहवारी के इर्द-गिर्द शर्म का माहौल बना दिया गया है. महिलाओं से जुड़े इस मसले पर दुनिया भर में कई तरह के मिथकों और अंधविश्वासों का दौर रहा है. बहरहाल, अब इस विषय पर खुलकर चर्चा करने की ज़रूरत को लेकर जागरूकता लगातार बढ़ती जा रही है. मासिक धर्म से जुड़े स्वच्छ तौर-तरीक़ों तक महिलाओं की पहुंच को बढ़ावा देने के लिहाज़ से ये क़वायद ख़ासतौर से अहम है.

सुशीला देवी राजस्थान के कूजती गांव में रहती हैं. गांव की आबादी 2,500 से भी कम है. गांव में अब भी मासिक धर्म के मुद्दे पर कई लोग कुछ भी बोलने से कतराते हैं. इसे एक वर्जित (taboo) विषय माना जाता है और इसी वजह से इसको लेकर कई तरह के मिथक, अंधविश्वास और भेदभाव पैदा हुए हैं. भारत के कुछ हिस्सों में मासिक धर्म से गुज़र रही महिलाओं को अक्सर सामाजिक और धार्मिक समारोहों से दूर रखा जाता है. पूजा स्थलों में उन्हें प्रवेश नहीं करने दिया जाता, यहां तक कि घर की रसोई से भी अलग कर दिया जाता है. एक अध्ययन के मुताबिक भारत की 71 प्रतिशत किशोरियों को मासिक धर्म के बारे में कुछ पता ही नहीं होता और उन्हें पहली बार इसके बारे में तभी पता चलता है जब ख़ुद उनकी माहवारी शुरू हो जाती है.[i]

सुशीला देवी राजस्थान के कूजती गांव में रहती हैं. गांव की आबादी 2,500 से भी कम है. गांव में अब भी मासिक धर्म के मुद्दे पर कई लोग कुछ भी बोलने से कतराते हैं. इसे एक वर्जित (taboo) विषय माना जाता है और इसी वजह से इसको लेकर कई तरह के मिथक, अंधविश्वास और भेदभाव पैदा हुए हैं.

सुशीला बताती हैं कि वो भी मासिक धर्म के बारे में तरह-तरह के मिथक सुन-सुनकर बड़ी हुई हैं. बीते दिनों की याद करते हुए वो कहती हैं, “मेरी दादी मुझसे कहा करती थीं कि धार्मिक कथाओं के अनुसार मासिक धर्म एक अभिशाप है. मुझे बताया गया था कि माहवारी के दौरान महिला के शरीर में बुरी आत्माओं के लिए अपना ठिकाना बनाना आसान हो जाता है.” ज़िंदगी में आगे बढ़ने, ग़लत धारणाओं से पार पाने और अपने समुदाय को बेहतरी की ओर लेकर जाने से जुड़ा सुशीला का सफ़र लंबा और दिलचस्प है.

ये कहानी सुशीला के बचपन से शुरू होती है. वो बताती हैं कि उनकी मां सामुदायिक कार्यकर्ता थीं और बचपन से ही उनके लिए प्रेरणा का एक बड़ा स्रोत थीं. वो कहती हैं कि उनके बचपन के दिन ख़ुशनुमा और मज़ेदार थे. उनका मिलनसार स्वभाव अब भी उभरकर सामने आ जाता है. सकुचाते हुए अपनी कहानी बयां करते-करते वो कई बार मुस्कुरा देती हैं और कई बार तो उनकी हंसी छूट जाती है. अपनी मां को समुदाय के साथ नज़दीक से जुड़कर काम करते और आगे बढ़ते देखकर सुशीला में भी इसी तरह का काम करने का जज़्बा पैदा हो गया.

कम उम्र में ही उनकी शादी हो गई और उन्हें अपना पहला फ़ोन तब मिला जब उन्होंने अपने पति के साथ रहना शुरू किया. जल्द ही फ़ोन से उनका गहरा नाता जुड़ गया और उन्होंने उसके तमाम प्रयोग सीख लिए. पहला स्मार्टफ़ोन हाथ में आने के बाद बदलाव की अगुवाई का अवसर उनके सामने आया. सुशीला की औपचारिक शिक्षा कक्षा 8 के बाद रुक गई थी. हालांकि, उन्हें हमेशा से सिलाई के काम में दिलचस्पी रही थी. अब स्मार्टफ़ोन पर इंटरनेट के ज़रिए वो सिलाई के तमाम गुर सीख सकती थीं. इंटनेट उनके लिए ज्ञान का ख़ज़ाना और वर्चुअल क्लासरूम की तरह था. सुशीला यहां सिलाई से लेकर रसोई तक की तमाम जानकारियां बस एक क्लिक से हासिल कर सकती थीं. इंटरनेट शिक्षण का भी माध्यम बन सकता है, सुशीला ने लगभग तुरंत ही ये बात समझ ली थी.

राजस्थान में महिलाओं (15-49 साल की उम्र वाली) का प्रौद्योगिकीय सशक्तिकरण
महिलाएं जिनके पास ख़ुद के इस्तेमाल के लिए मोबाइल फ़ोन है 50.2%
मोबाइल फ़ोन रखने वाली महिलाओं में वो महिलाएं जो SMS संदेश पढ़ सकती हैं 69.4%
वित्तीय लेन-देन के लिए मोबाइल का प्रयोग करने वाली महिलाएं 20.1%
इंटरनेट का इस्तेमाल कर चुकी महिलाएं 36.9%

स्रोत: राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5), 2019-21[ii]

उन्होंने अपनी बिरादरी की महिलाओं को फ़ोन के प्रयोग का तौर-तरीक़ा सिखाना शुरू कर दिया. वो उन्हें कॉलिंग और मेसेजिंग जैसे बुनियादी कामों से लेकर इंटरनेट तक पहुंच बनाने और कामकाज और शिक्षा को सहज बनाने वाले ऐप्स डाउनलोड करने के गुर सिखाने लगीं. सुशीला ने कूजती में मोबाइल टेक्नोलॉजी पर ख़ुद का मास्टरक्लास शुरू कर दिया. उनसे प्रेरणा पाकर वहां की कई महिलाओं ने ख़ुद के लिए मोबाइल फ़ोन ख़रीदना शुरू कर दिया. ये उन तमाम महिलाओं की ज़िंदगी में आगे की ओर बढ़ा एक अहम क़दम था.

नॉन-प्रॉफ़िट संगठन टेक्नोसर्व की ओर से मासिक धर्म स्वास्थ्य प्रबंधन पर मिले प्रशिक्षण से सुशीला ने माहवारी के पीछे के जैव-वैज्ञानिक कारणों के बारे में सीखा. इसके अलावा उन्हें प्लास्टिक आधारित सैनिटरी पैड्स से होने वाले नुक़सानों की भी जानकारी दी गई. आसानी से नष्ट नहीं होने वाले ये पदार्थ लंबे समय तक धरती पर रहकर (non-biodegradable nature) पर्यावरण को हानि पहुंचाते हैं. दरअसल, टेक्नोसर्व विकासशील दुनिया में ग़रीबी से निपटने के लिए कारोबारी समाधान मुहैया कराता है. इसी संस्था ने समुदाय के लिए काम करने की सुशीला की क्षमता और उनकी ललक को पहचानकर उन्हें ‘इंटरनेट दीदी’[1] का दर्जा दिया. सिलाई से जुड़े अपने कौशल का इस्तेमाल कर और ऑनलाइन माध्यमों से नए-नए गुर सीखकर सुशीला ने जल्द ही कपड़ों से बने पैड्स की सिलाई में महारत हासिल कर ली. इसके बाद उन्होंने गांव की दूसरी महिलाओं को भी कपड़ों से बने पैड्स की सिलाई का प्रशिक्षण दिया, साथ ही इंटरनेट से भी इस बारे में जानकारियां इकट्ठा करने की सलाह दी. आगे चलकर उन्होंने अपने गांव और उसके आसपास की तमाम लाभार्थियों द्वारा इन पैड्स का इस्तेमाल किए जाने का प्रचार-प्रसार किया. इस तरह सुशीला ने माहवारी स्वास्थ्य कार्यकर्ता और डिजिटल प्रशिक्षक के तौर पर अपने कामकाज का बेहतरीन तरीक़े से घालमेल कर लिया.

क्नोसर्व विकासशील दुनिया में ग़रीबी से निपटने के लिए कारोबारी समाधान मुहैया कराता है. इसी संस्था ने समुदाय के लिए काम करने की सुशीला की क्षमता और उनकी ललक को पहचानकर उन्हें ‘इंटरनेट दीदी’ का दर्जा दिया. सिलाई से जुड़े अपने कौशल का इस्तेमाल कर और ऑनलाइन माध्यमों से नए-नए गुर सीखकर सुशीला ने जल्द ही कपड़ों से बने पैड्स की सिलाई में महारत हासिल कर ली.

उन्होंने एक ही वक़्त पर दो जटिल मसलों से निपटने की जुगत लगाई: पहला, महिलाओं को मोबाइल फ़ोन तक पहुंच बनाने के लिए प्रोत्साहित करना और फ़ोन से तमाम संभावनाएं हासिल करना, और दूसरा, अपने समुदाय में मासिक धर्म स्वास्थ्य से जुड़ी जागरूकता बढ़ाना और समुचित रूप से माहवारी स्वच्छता से जुड़े उपकरणों और साज़ोसामानों तक पहुंच सुनिश्चित करना.

माहवारी स्वास्थ्य प्रबंधन और स्वच्छता महिलाओं की सेहत और सशक्तिकरण के लिए बेहद अहम है. इसपर प्रभावी रूप से अमल के लिए पानी, साफ़-सफ़ाई और स्वच्छता (WASH) से जुड़ी सुविधाओं तक नियमित पहुंच की दरकार होगी. इसके अलावा अच्छे तौर-तरीक़ों और दिनचर्या को लेकर सटीक मार्गदर्शन भी अहम है. इस कड़ी में मासिक धर्म से जुड़ी शर्मिंदगी को दूर किया जाना निहायत ज़रूरी है. इन सबके साथ-साथ स्वच्छता से जुड़े सामानों को सस्ते और टिकाऊ रूप से तैयार करना भी आवश्यक है.

चित्र1. भारत में स्मार्टफ़ोन का स्वामित्व (2019-21) (कुल वयस्क आबादी का प्रतिशत हिस्सा)

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स्रोत:  GSMA उपभोक्ता सर्वेक्षण 2019, 2020 और 2021[iii]

सुशीला के काम में ढेरों चुनौतियां रही हैं. कई महिलाएं मोबाइल फ़ोन के बारे में सीखना ही नहीं चाहती थीं. दरअसल उन्हें ये समझ ही नहीं आ रहा था कि मोबाइल फ़ोन उनके किस काम आ सकता है. सुशीला ने धैर्य रखते हुए इन महिलाओं को व्यक्तिगत रूप से आगे बढ़ने, उनके कामकाज और घरेलू क्रियाकलापों और उनके परिवार के कामों में मोबाइल फ़ोन के तमाम उपयोगों के बारे में जानकारी दी. मिसाल के तौर पर एक बटन क्लिक करते ही जानकारी मिलने पर किसान अपनी उपज और पैदावार में सुधार ला सकते हैं. इतना ही नहीं वो संभावित बाज़ारों और उपभोक्ताओं से भी जुड़ सकते हैं. सुशीला ने महिलाओं को अलग-अलग पेशों से जुड़े ऐसे तमाम ऐप्स की जानकारी दी जो निर्माताओं को सीधे ग्राहकों से जोड़ते हैं. इससे उनके छोटे कारोबारों को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से जोड़ना मुमकिन हो सकता है. उन्होंने गांव की औरतों को यूट्यूब से जुड़ी तमाम जानकारियां देकर उन्हें उनके मनपसंद विषयों को सर्च करने का तौर-तरीक़ा समझाया. सुशीला ने उन्हें वीडियो कॉल्स करने और डिजिटल संपर्क तैयार करने के बारे में भी प्रशिक्षित किया. जब बुज़ुर्ग महिलाएं ये दलील देतीं कि उन्हें समझ नहीं आता कि टेक्नोलॉजी उनके किस काम आ सकती है, सुशीला बस इतना समझातीं, “अगर आप अकेली हों और कोई मुसीबत आ जाए तो क्या आप नहीं चाहेंगी कि आप अपने परिवार से जुड़ सकें?”

सुशीला अब अपने गांव में एक इज़्ज़तदार शख़्सियत हैं. वो अपनी सोच में दृढ़ हैं. उनका मानना है कि इंटरनेट पर महिलाओं के सीखने के लिए बहुत कुछ है और उनको ये जानकारी इकट्ठा करने से कोई रोक नहीं सकता. सुशीला कहती हैं कि उन्होंने अपनी आसपास की महिलाओं के जीवन में बदलाव होते देखा है. इंटरनेट के बारे में और उसके ज़रिए बाक़ी मसलों के बारे में उन्हें जितनी ज़्यादा जानकारी मिलती है, उनमें उतना ही आत्मविश्वास भरता जाता है. अपने हाथों में नए-नए कौशल पाकर वो पहले से ज़्यादा उत्साही और ऊर्जावान होती जाती हैं.

सुशीला ने इंटरनेट, उससे हासिल जानकारियों और उसकी मदद से प्रशिक्षण के काम को आगे बढ़ाकर इंटरनेट की मूल भावना को साकार कर दिया है. इंटरनेट की ही तरह वो रुकती नहीं है. सुशीला हंसते हुए कहती हैं, “आख़िरकार मैं इंटरनेट दीदी जो हूं.”

सुशीला ने महिलाओं को अलग-अलग पेशों से जुड़े ऐसे तमाम ऐप्स की जानकारी दी जो निर्माताओं को सीधे ग्राहकों से जोड़ते हैं. इससे उनके छोटे कारोबारों को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से जोड़ना मुमकिन हो सकता है. उन्होंने गांव की औरतों को यूट्यूब से जुड़ी तमाम जानकारियां देकर उन्हें उनके मनपसंद विषयों को सर्च करने का तौर-तरीक़ा समझाया.

मुख्य सबक़

* सामुदायिक कार्यकर्ता और नेता मोबाइल फ़ोन को प्रचार-प्रसार के औज़ार के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं. वो माहवारी स्वास्थ्य और WASH से जुड़ी कारगर सुविधाओं के मसलों पर जागरूकता फैलाने के बेशक़ीमती साधन के तौर पर इसे काम में ला सकते हैं.

*मोबाइल फ़ोन के इस्तेमाल को व्यवहार में बदलाव लाने वाले अभियानों के साथ जोड़ा जा सकता है. माहवारी को लेकर नकारात्मक बर्तावों और मिथकों को दूर करने और उससे जुड़ी शर्मिंदगी और वर्जनाओं की रोकथाम के लक्ष्य से इसका प्रयोग किया जा सकता है

NOTES

[1] डिजिटल प्रशिक्षण के ज़रिए समुदाय की सहायता करने वाली कार्यकर्ताओं के लिए टेक्नोसर्व द्वारा प्रयोग की जाने वाली शब्दावली

[i]Azera Praveen Rehman, “Changing the future with lessons from the past,” UNICEF India, May 27, 2022,

https://www.unicef.org/india/stories/changing-future-lessons-past#:~:text=A%20UNICEF%20report%20had%20found,lives%20during%20the%20menstr ual%20cycle.

[ii] International Institute for Population Sciences, National Family Health Survey (NFHS-5), 2019–21: India: Volume 1, March 2022

[iii] Ashutosh Kumar and Ananya Gupta, “India’s progress on closing mobile gender gap stalled in last one year”, Economic Times, June 27, 2022, https://telecom.economictimes.indiatimes.com/news/indias-progress-on-closing-mobile-gender-gap-stalled-in-last-one-year-gsma-study/92494076

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