ऋषि सुनक का कंज़रवेटिव पार्टी का नेता और ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना अहम है. कम से कम ब्रिटेन के लिए तो ये बात सच है ही. लेकिन, उनके ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने पर भारत में जिस तरह शोर मच रहा है और जश्न मनाया जा रहा है, वो कुछ ठीक नहीं है. भारत के लोग कुछ ज़्यादा ही उछल रहे हैं, जो शायद बचकानापन कहा जाएगा.
सुनक का प्रधानमंत्री बनना
ब्रिटेन के लिए सुनक का प्रधानमंत्री बनना इसलिए अहम है, क्योंकि पहले अश्वेत प्रधानमंत्री के तौर पर शायद उन्होंने एक बहुत बड़ी दीवार ढहाई है. ये कंज़रवेटिव पार्टी के लिए भी अपनी खोई हुई इज़्ज़त दोबारा पाने का मौक़ा है. क्योंकि पहली बात तो ये कि सुनक जैसे युवा नेता के प्रधानमंत्री बनने के बाद, कंज़रवेटिव पार्टी को उस धब्बे को दूर करने में मदद मिलेगी, जिसमें उसे पुरानी, मर्दों के दबदबे वाली बासी पार्टी कहा जा रहा था. दूसरी बात ये कि कंज़रवेटिव पार्टी ब्रिटेन के नस्लवादियों की पहली पसंद रही है. फिर चाहे इनोच पॉवेल हों या विंस्टन चर्चिल, या फिर उनके बाद की पीढ़ी वाले पार्टी के कम चर्चित नेता रहे हों.
फिर भी, सुनक के प्रधानमंत्री बनने को लेकर कुछ अहम बातों का ध्यान रखना होगा. अभी कुछ महीने पहले ही कंजरवेटिव पार्टी के 1,54,500 रजिस्टर्ड सदस्यों ने ऋषि सुनक के ऊपर लिज़ ट्रस को चुनने को तरज़ीह दी थी. ट्रस को 57.4 फ़ीसद वोट मिले थे. हालांकि, हाउस ऑफ कॉमंस के टोरी सांसदों ने साफ़ तौर पर ऋषि सुनक का चुनाव किया था. अगर कंज़रवेटिव पार्टी के दिग्गज नेताओं ने सांसदों को सुनक के पक्ष में एकजुट होने के लिए राज़ी न किया होता, तो ऐसी अटकलें बिल्कुल वाजिब हैं कि मौक़ा दिए जाने पर पार्टी के यही सदस्य शायद सुनक की जगह पेनी मोरडॉन्ट को चुनते.
ऋषि सुनक को चुना गया है, वो चुनाव नहीं जीते हैं. इस हक़ीक़त के आगे खड़े एक सवाल का जवाब अभी मिलना बाक़ी है. क्या टोरी पार्टी के नेता अगले आम चुनाव में ऋषि सुनक को पार्टी की अगुवाई करने वाले नेता के तौर पर चुनते? और क्या कोई अश्वेत नेता वो चुनाव जीत सकता था? इन सवालों के जवाब मिलने पर ही हम ये कह सकते हैं कि सुनक का प्रधानमंत्री बनना, ब्रिटेन का ‘ओबामा लम्हा’ है. हालांकि कुछ उत्साहित पर्यवेक्षक तो अभी भी ये दावा करने से बाज़ नहीं आ रहे हैं.
अभी कुछ महीने पहले ही कंजरवेटिव पार्टी के 1,54,500 रजिस्टर्ड सदस्यों ने ऋषि सुनक के ऊपर लिज़ ट्रस को चुनने को तरज़ीह दी थी. ट्रस को 57.4 फ़ीसद वोट मिले थे. हालांकि, हाउस ऑफ कॉमंस के टोरी सांसदों ने साफ़ तौर पर ऋषि सुनक का चुनाव किया था.
लेबर पार्टी के नेता केर स्टार्मर ने ऋषि सुनक चुनाव न जीतने वाले नेता वाली तल्ख़ सच्चाई को उस वक़्त उजागर किया था, जब उन्होंने जनता को याद दिलाया था कि, ‘ऋषि सुनक का इकलौता चुनावी तजुर्बा यही है कि जब वो मुक़ाबले में उतरे थे, तो उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री ने शिकस्त दे दी थी. हालांकि बाद में वो ख़ुद एक सलाद पत्ते से मात खा गईं. तो क्या ये बेहतर नहीं होता कि सुनक अपनी लोकप्रियता का असली इम्तिहान लेने के लिए आम चुनाव का एलान कर देते?’
ब्रिटेन में रहने वाले 16 लाख भारतीय मूल के लोगों के लिए सुनक का प्रधानमंत्री बनना निश्चित रूप से जश्न मनाने का पल है और इससे शायद दूसरी और तीसरी पीढ़ी के युवाओं को ब्रिटेन की सियासत में और भाग लेने का हौसला मिले. ये मौक़ा ब्रिटेन की सॉफ्ट पावर के लिए भी एक ताक़तवर ख़ुराक है. इसकी मिसाल देकर ब्रिटेन को ‘महान’ बताने का अभियान चलाने वाले प्रबंधक अपने देश की छवि को एक ऊर्जावान बहुलतावादी संस्कृति वाले ऐसे समुदाय के तौर पर पेश कर सकते हैं, जो नस्ल, जाति या मज़हब के बजाय क़ाबिलियत को इनाम देता है.
सुनक का प्रधानमंत्री बनना, ब्रिटेन का ‘ओबामा लम्हा’ है. हालांकि कुछ उत्साहित पर्यवेक्षक तो अभी भी ये दावा करने से बाज़ नहीं आ रहे हैं.
क्या सुनक का प्रधानमंत्री बनना भारत के लिए भी अहम?
लेकिन, क्या ऋषि सुनक का प्रधानमंत्री बनना भारत के लिए भी इतना ही अहम है? सोशल मीडिया पर ब्रिटेन के ‘भारतीय’ प्रधानमंत्री की धार्मिक आस्थाओं की ख़ूब चर्चा हो रही है. कहा जा रहा है कि वो एक कट्टर हिंदू हैं, जो शराब को हाथ तक नहीं लगाते. शाकाहारी हैं और गाय की पूजा करते हैं. सुनक के प्रधानमंत्री बनने को सनातन धर्म की बड़ी जीत के तौर पर पेश किया जा रहा है और इसका जश्न ‘भारत माता की जय’ ट्वीट करके मनाया जा रहा है. सुनक के भारतीय मूल का होने को ब्रिटेन और भारत के रिश्तों के सुनहरे दौर के तौर पर भी पेश किया जा रहा है.
रिश्ते बहुआयामी और पेचीदा
ऐसी कल्पनाएं बहुत जल्द घरेलू राजनीति और राष्ट्रीय हितों की तल्ख़ राजनीति की चट्टान से टकराकर चूर-चूर होने वाली हैं. ब्रिटेन के साथ भारत के रिश्ते बहुआयामी और पेचीदा हैं. मई 2021 में घोषित किया गया ‘रोडमैप 2030’, दोनों देशों के रिश्तों को नई ऊंचाई पर ले जाने वाली एक महत्वाकांक्षी योजना है. इसमें अप्रवास और आवाजाही की व्यापक साझेदारी को लागू करने का वादा भी शामिल है, जिसके दायरे में छात्र और पेशेवर भी आएंगे.
गृह मंत्री सुएला ब्रेवरमैन का भारत के अप्रवासियों के बारे में बेलगाम बयान और कुछ अवैध अप्रवासियों को रवांडा भेजने को लेकर उनके अतिउत्साह ने पहले ही दिवाली तक मुक्त व्यापार समझौता (FTA) करने की राह में अड़ंगा डाल दिया है. सुएला ब्रेवरमैन अप्रवासियों की तादाद को कम करने की ज़ोर-शोर से वकालत करती हैं. सुएला ब्रेवरमैन को ख़राब आचरण के चलते लिज़ ट्रस ने अपनी कैबिनेट से बर्ख़ास्त कर दिया था. लेकिन, एक हफ़्ते के भीतर उनकी सुनक मंत्रिमंडल में वापसी इस बात की मिसाल है कि टोरी पार्टी के कट्टरपंथियों का सुनक के एजेंडे पर किस क़दर दबदबा है. इससे उन वार्ताकारों की मुश्किलें भी बढ़ गई हैं, जो भारत और ब्रिटेन के बीच व्यापार, निवेश, कर और आवाजाही से जुड़े मामलों की मुश्किलों को सुलझाने में जुटे हैं. जबकि दोनों देशों द्वारा दिवाली से पहले समझौता कर लेने की मियाद पहले ही पूरी हो चुकी है.
ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था दिनों-दिन ख़राब होती जा रही है और पूर्व इन्वेस्टमेंट बैंकर ऋषि सुनक को 43 अरब डॉलर के बजट घाटे और जनता की भलाई की बढ़ती मांगों को पूरा करने के बीच संतुलन बनाने की चुनौती का सामना करना होगा और इसके साथ साथ उन्हें आर्थिक विकास को आगे बढ़ाने की मुश्किल से भी जूझना पड़ेगा.
भारत सरकार को निश्चित रूप से इन बातों का एहसास है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऋषि सुनक को बधाई देने वाला जो ट्वीट किया था वो काफ़ी संयमित था. उसमें सिर्फ़ इस बात का ज़िक्र था कि, ‘मैं आप के साथ वैश्विक मुद्दों पर मिलकर काम करने की और रोडमैप 2030 को लागू करने की अपेक्षा कर रहा हूं.’ अगले महीने बाली में होने वाला G20 शिखर सम्मेलन शायद पहला मौक़ा होगा जब दोनों देशों के नेताओं की द्विपक्षीय मुलाक़ात हो सकती है. इस दौरान दोनों नेता मिलकर वार्ता को गति देने की कोशिश करेंगे और इसके साथ साथ भारत को ये समझने का मौक़ा भी मिलेगा कि मुक्त व्यापार समझौता करने के लिए सुनक अपनी कितनी सियासी इच्छाशक्ति लगाने को तैयार हैं.
यहां इस बात को समझना भी ज़रूरी है कि सुनक के एजेंडे में भारत पहले नंबर पर बिल्कुल नहीं है. ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था दिनों-दिन ख़राब होती जा रही है और पूर्व इन्वेस्टमेंट बैंकर ऋषि सुनक को 43 अरब डॉलर के बजट घाटे और जनता की भलाई की बढ़ती मांगों को पूरा करने के बीच संतुलन बनाने की चुनौती का सामना करना होगा और इसके साथ साथ उन्हें आर्थिक विकास को आगे बढ़ाने की मुश्किल से भी जूझना पड़ेगा. कोविड-19 महामारी की शुरुआत में बोरिस जॉनसन की ग़लत नीतियों के चलते पैदा हुई मुसीबत के बाद, सुनक ने जिस तरह वित्तीय नुक़सान की स्थिति को संभाला था, उसके लिए की गई उनकी तारीफ़ बिल्कुल वाजिब थी.
लेकिन, ऊर्जा की क़िल्लत और रूस द्वारा यूक्रेन पर हमला करने के चलते आपूर्ति श्रृंखलाओं में आई बाधा के चलते कोविड-19 के आर्थिक दुष्प्रभाव और गंभीर हो गए हैं. ब्रिटेन के ऊपर इन मुसीबतों का पहाड़ उस वक़्त टूटा है, जब वो यूरोपीय संघ से अलग होने के ज़ख़्म से जूझ ही रहा है. हालांकि ब्रेग्ज़िट का फ़ैसला करके ख़ुद ब्रिटेन ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी थी. 17 नवंबर को सुनक की सरकार अपनी वित्तीय योजना संसज के सामने रखेगी, जो शायद इस बात का इशारा देगा कि ऋषि सुनक ने 26 अक्टूबर को संसद में अपने पहले बयान में देश से जो वादा किया किया था, उसे किस हद तक पूरा कर पाएंगे. सुनक ने संसद में कहा था कि, ‘उन्हें आर्थिक स्थिरता क़ायम करने के लिए मुश्किल फ़ैसले लेने होंगे.’
सुनक की प्राथमिकता
अर्थव्यवस्था के अलावा, सुनक की अन्य प्राथमिकताओं में यूरोपीय संघ के साथ रिश्तों को व्यवस्थित करना, अमेरिका के नेतृत्व से निजी गर्मजोशी क़ायम करना और यूक्रेन में चल रहे युद्ध पर ध्यान देने जैसी बातें शामिल होंगी. सुनक ने चीन के बारे में भी सख़्त बयान दिए हैं और उसे ब्रिटेन के लिए आर्थिक और सामरिक ख़तरा बताया है और शायद इस आधार पर वो भारत के प्रति कुछ ज़्यादा झुकाव रखें. इस बीच हमें शांति से बैठना चाहिए और उन्हें अपना काम करने देना चाहिए. जियोपॉलिटिक्स और राष्ट्रीय हितों के मामले में सुनक के हिंदू होने या सुएला ब्रेवरमैन के बौद्ध धर्म का होने से कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ेगा.
सुंदर पिचाई जैसे भारतीय मूल का प्रमुख होने के बाद भी गूगल ख़ुद को भारत के कॉम्पिटिशिन कमीशन द्वारा 2200 करोड़ रुपए के जुर्माना लगाने से बचा नहीं सका. ऐसे में इस बात की संभावना बिल्कुल नहीं है कि भारत महज़ इसलिए जगुआर गाड़ियों और स्कॉच व्हिस्की पर व्यापार कर कम कर देगा क्योंकि सुनक और ब्रेवरमैन, भारतीय मूल के हैं! हो सकता है कि ऐसा हो भी जाए. लेकिन ये जज़्बाती फ़ैसला नहीं होगा, बल्कि नफ़ा-नुक़सान की हक़ीक़त पर आधारित होगा.
ये लेख मूल रूप से दि ट्रिब्यून में प्रकाशित हुआ था.
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