Author : Kabir Taneja

Issue BriefsPublished on Dec 10, 2024
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Saudi Arabia A Kingdom In Transition

सऊदी अरब: बदलाव के दौर से गुज़रता एक देश

  • Kabir Taneja

    युवराज और सऊदी अरब की सत्ता के वारिस प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के नेतृत्व में सऊदी अरब अपने दो प्रमुख निर्यातों, तेल और इस्लाम को नए सांचे में ढाल रहा है, ताकि एक देश के तौर पर सऊदी अरब और इसको चलाने वाली बादशाहत, दोनों ही भविष्य में सुरक्षित रहें. वैसे तो इतने बड़े बदलाव और उसका व्यापक असर डालने की कोशिशें तो पहले भी हो चुकी हैं. मगर इन प्रयासों में सीमित सफलताएं ही हासिल हो सकी थीं. आज सऊदी अरब के सामने खड़ी चुनौतियां बेहद जटिल हैं, और अवसर नया हौसला पैदा करने वाले हैं. इस आलेख में हम दो अहम नज़रियों से सऊदी अरब के इस सफ़र का मूल्यांकन कर रहे हैं: उसकी विचारधारा में रहा बदलाव और अपनी घरेलू और अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन के प्रयास.

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Attribution:कबीर तनेजा, ‘सऊदी अरब, बदलाव के दौर से गुज़रता एक साम्राज्य’, ओआरएफ इश्यू ब्रीफ नं. 759, नवंबर 2024, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन

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प्रस्तावना

3.6 करोड़ आबादी वाले सऊदी अरब को अक्सर एक रहस्यमय पहेली के तौर पर देखा जाता है. सऊदी अरब, इस्लाम का घर कहा जाता है. क्योंकि इस्लाम धर्म के दो सबसे पवित्र स्थल मक्का और मदीना यहीं पर हैं. सऊदी अरब की बहुसंख्यक आबादी सुन्नी इस्लाम [a] को मानने वाली है, और इस वजह से सऊदी अरब लंबे समय से 18वीं सदी के हनबाली मुस्लिम उलेमा मुहम्मद इब्न अब्द-अल-वहाब कीवहाबीविचारधारा को मानता और इसका प्रचार प्रसार करता रहा है. [1]

1902 में 22 बरस उम्र वाले अब्दुल्लाज़ीज़ बिन अब्दुलरहमान अल सऊद (जिन्हें इब्न सऊद के नाम से भी जाना जाता है) ने अल सऊद ख़ानदान[b] की सत्ता को दोबारा बहाल करने की शुरुआत की थी. पहले उन्होंने सऊदी अरब की प्राचीन राजधानी रियाद पर क़ब्ज़ा किया, और इसके बाद 1924 में अल सऊद ने मक्का और 1925 में मदीना पर भी अपना क़ब्ज़ा जमा लिया. [2] इस मक़सद को हासिल करने के लिए अल सऊद ख़ानदान के इस युवा सरदार ने पहले क़बाइली हथियारबंद लड़ाकों के संगठन इख़्वान को खड़ा किया. और फिर, अपना मक़सद हासिल करने के बाद 1932 में इस क़बाइली संगठन को भी कुचल डाला, ताकि बादशाह के तौर पर अपनी सर्वोच्च सत्ता को स्थापित कर सकें, और आज के दौर के सऊदी अरब राष्ट्र की स्थापना कर सकें.

1933 में इब्न सऊद ने अमेरिकी कंपनियों को तेल के भंडारों की खोज करने के लिए सऊदी अरब आने का न्यौता दिया. बहुत से लोगों उनके इस फ़ैसले को ग़ैर इस्लामिक क़रार दिया था. [c]सऊदी अरब में सबसे पहले तेल का भंडार 1938 में मिला था और बहुत जल्द ये ऐसा संसाधन बन गया, जिसने सऊदी अरब ही नहीं, पूरे पश्चिम एशियाई क्षेत्र (या फिर मध्य पूर्व) और विश्व व्यवस्था [3] का मंज़र ही बदल डाला.

 

 दुनिया की भू-राजनीति में आए बदलाव और अपने औद्योगीकरण की लगातार बढ़ती ख़्वाहिश को पूरा करने के लिए, तेल की बढ़ती ज़रूरत के चलते अमेरिका इस इलाक़े में दाख़िल हुआ. अमेरिका का ये क़दम तब इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया जब इब्न सऊदी ने फरवरी 1945 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डेलानो रूज़वेल्ट से मुलाक़ात की थी. [4] इस मुलाक़ात के साथ ही अमेरिका और सऊदी अरब के बीच सुरक्षा के समझौते की शुरुआत हुई थी, जिसका आगे चलकर अमेरिका की राजनीति और सऊद ख़ानदान पर गहरा असर पड़ा: अमेरिका ने सऊदी अरब को राजनीतिक सुरक्षा और सत्ता में बने रहने की गारंटी दी, और इसके बदले में सऊदी अरब ने अमेरिका को ऊर्जा सुरक्षा की गारंटी दी.

 इसके दशकों बाद आज 2020 के दशक में तेल के युग औरपैक्स अमेरिकानायानीअमेरिकी दबदबेके विचार, दोनों ही ज़बरदस्त चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. [5] वैसे तो विकासशील देशों के लिए तेल अभी भी ऊर्जा का एक प्रमुख स्रोत बना हुआ है. लेकिन, विकसित देश अब अक्षय ऊर्जा संसाधनों की तरफ़ बढ़ रहे हैं. अपने यहां मिले शेल भंडारों की वजह से अमेरिका आज ख़ुद तेल का बड़ा निर्यातक देश बन गया है. वहीं, अमेरिका की विदेश नीति में भी नई परिस्थितियों के मुताबिक़ बदलाव रहा है. आज अमेरिका पश्चिमी एशिया के परस्पर विरोधी भू-राजनीतिक मोर्चों से पैदा होने वाले जोख़िमों का सामना करने की अपनी क्षमता और इच्छाशक्ति, दोनों को नए सिरे से ढाल रहा है. [6]

 इस मक़सद को हासिल करने के लिए अल सऊद ख़ानदान के इस युवा सरदार ने पहले क़बाइली हथियारबंद लड़ाकों के संगठन इख़्वान को खड़ा किया. और फिर, अपना मक़सद हासिल करने के बाद 1932 में इस क़बाइली संगठन को भी कुचल डाला, ताकि बादशाह के तौर पर अपनी सर्वोच्च सत्ता को स्थापित कर सकें, और आज के दौर के सऊदी अरब राष्ट्र की स्थापना कर सकें.

हालांकि, पश्चिमी एशिया में अमेरिकी सेनाओं की तैनाती के ऐतिहासिक तौर तरीक़े में बुनियादी परिवर्तन से भी उल्लेखनीय बात तब हुई जब 2017 में मुहम्मद बिन सलमान को सऊदी अरब का युवराज और देश की सत्ता का वारिस नियुक्त किया गया. [7],[8] इसके बाद से ही सऊदी अरब में नाटकीय बदलावों का एलान होता रहा है. प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान की अगुवाई में सऊदी अरब के शासन तंत्र ने अपनेविज़न 2030’[9]  के तहत दो मक़सद हासिल करने के लिए क़दम उठाने शुरू किए हैं. पहला तो सऊदी अरब को भविष्य में भी सुरक्षित बनाने के लिए ऐसे वैकल्पिक आर्थिक मॉडलों का निर्माण करना, जो तेल पर निर्भर हों; दूसरा, इन बदलावों को हासिल करने के लिए सऊदी अरब को बुनियादी वैचारिक बदलाव लाते हुए रूढ़िवादी इस्लाम या फिर परंपरावाद से परे हटकर नरमपंथी इस्लाम की ओर क़दम बढ़ाना होगा. [10]

इस नए नज़रिए को लागू करने के लिए पहली ज़रूरत तो सऊदी अरब के सत्ताधारी ख़ानदान के भीतर की राजनीति को साधने की थी. कमान संभालने के बाद, प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान ने संस्थागत भ्रष्टाचार से निपटने के नाम पर सैकड़ोंवीआईपीलोगों को जेल में डाल दिया. [11] इनमें शाही ख़ानदान के बड़े बड़े ओहदों वाली शख़्सियतें भी शामिल थीं. जैसे कि प्रिंस अलावीद बिन तलाल को रियाद के रिज़-कार्लटन होटल में क़ैद कर दिया गया था. उनका ये क़दम सत्ता पर नियंत्रण स्थापित करने, विरोधियों को निहत्था करने और उनके दिल में अपनी दहशत क़ायम करने की दूरगामी योजना का एक हिस्सा था.

 

भू-आर्थिक नीति की अगुवाई में इस्लाम को लेकर सोच का विकास

 

एक विचारधारा के तौर पर सियासी इस्लाम, 1920 के दशक से ही पश्चिमी एशिया में मौजूद रहा है. इसकी कमान मिस्र के उलेमा और मुस्लिम ब्रदरहुड के संस्थापक हसन अल-बन्ना जैसे विचारकों के हाथ में रही है. [12] इस्लाम के आध्यात्मिक पहलू में रची बसी वहाबी जैसी विचारधाराओं ने भी सऊदी समाज में जन्म लिया है, और फिर इसने ख़ुद को सरकार और प्रशासन की संरचनाओं के इर्द गिर्द ढाल लिया है. विद्वानों का कहना है कि वहाबी विचारधारा को अल सऊद ख़ानदान के साथ इसलिए जोड़ा गया ताकि, अरब क़बीलों के बीच क़बीलाई [13] और वैचारिक मतभेदों को एक राजनीतिक ढांचे में पिरोकर सऊदी राष्ट्रवाद के जज़्बे को पाला पोसा जा सके. इस्लाम के सबसे पवित्र और अहम ठिकानों वाले देश सऊदी अरब के लिए आर्थिक फ़ायदों के बदले में ऐसी विचारधाराओं से सख़्ती से निपटने के प्रयास अभूतपूर्व हैं. उल्लेखनीय है कि ऐसी चुनौती क़ुबूल करने के मामले में तो मुहम्मद बिन सलमान पश्चिमी एशिया के पहले शख़्स हैं, सऊदी अरब की सरकार अव्वल है. इस मामले में सऊदी अरब अपने छोटे मगर ताक़त में बराबर पड़ोसी संयुक्त अरब अमीरात के मॉडल को अपनाना चाहेगा. मीडिया की ख़बरें बताती हैं कि 2019 तक, यानी मुहम्मद बिन सलमान के सत्ता में आने से दो साल के भीतर ही, संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति मुहम्मद बिन ज़ायद अल नाहयान ख़ुद को प्रिंस सलमान के संरक्षक के तौर पर देखने लगे थे. [14]

 संयुक्त अरब अमीरात (UAE) ने 2007 में ही अपनी अर्थव्यवस्था और कुछ हद तक अपने यहां की राजनीति मेंउदारीकरणकी शुरुआत कर दी थी, ताकि आर्थिक लाभों को बिना दख़लंदाज़ी के विकसित होने दिया जा सके. UAE को एहसास हो गया था कि उसको रूढ़िवादी और कट्टरपंथी इस्लाम के समाज में पैठ बनाने और राज्य प्रायोजित मज़हबी विचारधारा वाली पश्चिमी एशिया की साझा क्षेत्रीय छवि से ख़ुद को अलग करना होगा. [15]

सितंबर 2001 में अमेरिका में आतंकवादी हमलों से पश्चिमी एशियाई क्षेत्र और ख़ास तौर से सऊदी अरब जिस तरह के इस्लाम को बढ़ावा देता है, उसे बड़ा झटका लगा था. उसके बाद इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में युद्धों की वजह से अरब देशों के पास, अलकायदा के ख़िलाफ़ अमेरिका और उसकी अगुवाई वाले वैश्विक गठबंधन से हाथ मिलाने के सिवा कोई और चारा था ही नहीं. क्योंकि अरब देशों का आर्थिक भविष्य और उनकी राजशाहियों की स्थिरता, पश्चिम के आर्थिक मॉडलों और सुरक्षा के ढांचों के साथ एकीकरण पर ही निर्भर थी. यही वजह थी कि वैसे तो अरब देश अमेरिका के व्यापक प्रभाव से कई बार नाख़ुश होते हुए भी उसकी उपयोगिता समझते थे, क्योंकि 1990 और 2000 के दशक में दुनिया पर अमेरिकी दबदबे के सामने कोई चुनौती नहीं थी. [16]

 

मज़बूत आध्यात्मिक झुकाव के इर्द गिर्द किए जाने वाले वैचारिक बदलाव लाना आसान नहीं होता. मानव अधिकारों समेत कई मसलों पर मुहम्मद बिन सलमान को अक्सर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की तरफ़ से आलोचना का सामना करना पड़ता है. फिर भी उनकी अगुवाई में सऊदी अरब को वहाबी विचारधारा और कट्टरपंथी इस्लाम से दूर करके बाज़ार और मज़हबी नरमपंथी वाले ज़्यादा खुली सियासत और समाज बनाने की इस परियोजना को भारत समेत दुनिया के तमाम देशों से व्यापक समर्थन मिल रहा है. [17],[18]

 इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में युद्धों की वजह से अरब देशों के पास, अलकायदा के ख़िलाफ़ अमेरिका और उसकी अगुवाई वाले वैश्विक गठबंधन से हाथ मिलाने के सिवा कोई और चारा था ही नहीं. क्योंकि अरब देशों का आर्थिक भविष्य और उनकी राजशाहियों की स्थिरता, पश्चिम के आर्थिक मॉडलों और सुरक्षा के ढांचों के साथ एकीकरण पर ही निर्भर थी.

 एक पीढ़ी पहले की तुलना में आज सऊदी अरब के लोग पश्चिमी संस्कृति और नरमपंथ को उतनी तिरस्कार भरी नज़र से नहीं देखते हैं. 2018 में सऊदी अरब ने एक किंग सलमान बिन अब्दुल्लाज़ीज़ अल सऊदी के दस्तख़त वाले एक शाही फ़रमान के ज़रिए महिलाओं के गाड़ी चलाने पर लगी पाबंदी हटा ली थी. ऐसा लगता है कि किंग सलमान भीउदारीकरणकी इन पहलों का समर्थन करते हैं. [19]  उसके बाद से सऊदी समाज में और सांस्कृतिक खुलापन लाने के कई क़दम उठाए गए हैं, ताकि तेल के कारोबार से इतर एक नई अर्थव्यवस्था खड़ी की जा सके जिसमें खेल और मनोरंजन उद्योग भी शामिल हैं. मिसाल के तौर पर सऊदी अरब ने फुटबॉल के लिए सऊदी प्रो लीग की शुरुआत की है, जिसमें भारी रक़म देकर कई नामचीन अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों को भी जोड़ा गया है. विडंबना ये है कि इसके लिए तेल से की गई कमाई या पेट्रो-डॉलर को ही लगाया जा रहा है; [20]सऊदी अरब में कई विदेशी कलाकारों के कॉन्सर्ट भी आयोजित किए गए हैं. [21]

एक और वैचारिक बदलाव- जो शायद ज़्यादा मुश्किल और विदेश में सऊदी अरब की छवि को बदलने के लिहाज़ से काफ़ी अहम भी है- वो सऊदी अरब की बदनाममज़हबी पुलिसया मुतावा (शरीयत पुलिस) के पर काटना भी था. इसे आधिकारिक रूप से सवाब को बढ़ावा देने और पाप को रोकने का आयोग कहा जाता है. पिछले पांच दशकों के दौरान सऊदी अरब में पुलिस व्यवस्था के जिस अंग की सबसे ज़्यादा आलोचना की जाती रही है, वोमूतवा की व्यवस्था है. [22] इस शरीयत पुलिस की ज़िम्मेदारी समाज में इस्लाम के रूढ़िवादी उसूलों का सख़्ती से पालन कराने की है. सऊदी अरब के कट्टर धार्मिक झुकाव वाला रास्ता पकड़ने में मूतवा का एक अहम योगदान रहा है. इस झुकाव को अल-सहवा अल-इस्लामिया कहा जाता है, जो 1960 से 1980 के दशक के दौरान हुआ था. [23]

उल्लेखनीय है कि 1979 का साल इस पूरे इलाक़े में भयंकर उथल-पुथल वाला दौर था, जिसने सऊदी अरब को मजबूर किया था कि वो राजनीतिक मक़सद के लिए इस्लाम को अपने मूल सिद्धांत के तौर पर इस्तेमाल करें. उस साल ऐसी दो बड़ी घटनाएं हुई थीं, जिन्होंने सऊदी अरब के उस वैचारिक कट्टरपंथ को आकार दिया था, जिसका ढांचा अब मुहम्मद बिन सलमान तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. पहली घटना ईरान में इस्लामिक क्रांति थी, जिसके दौरान प्रदर्शनकारियों ने पश्चिम के समर्थन वाले मुहम्मद रज़ा पहलवी की राज़शाही को उखाड़ फेंका था, और उनकी जगह बेहद रूढ़िवादी आयतुल्लाह रुहोल्लाह मुसावी खुमैनी की सत्ता में वापसी हुई थी. [24] ईरान की सत्ता में इस परिवर्तन की वजह से सऊदी अरब को कट्टरपंथी इस्लामिक विचारधारा के प्रचार प्रसार में और ज़्यादा ज़ोर देना शुरू करना पड़ा था. क्योंकि ईरान में इस्लामिक क्रांति की वजह से शियाओं और सुन्नियों के बीच सांप्रदायिक विभाजन ही आध्यात्मिक और उसकी वजह से इलाक़े में दबदबे को लेकर संघर्ष का आधार बन गया था. [25]

 1979 में एक और बड़ी घटना हुई थी, जिसने सऊदी अरब की सियासी और सुरक्षा संबंधी सोच पर गहरा असर डाला था, हालांकि अब सार्वजनिक परिचर्चाओं में उसका ज़िक्र बहुत कम होता है. असल में नवंबर 1979 में इस्लामिक हिजरी कैलेंडर या मुहर्रम के पहले दिन एक इस्लामिक प्रचारक जुहेमान अल ओतैबी और उसके सैकड़ों हथियारबंद समर्थकों ने मक्का की पवित्र मस्जिद पर क़ब्ज़ा कर लिया था. [26],[27] अल उतैबी और उसके समर्थक अल-जमा अल सलाफिया अल-मुहतसिबा (या JSM) नाम के कट्टरपंथी संगठन के सदस्य थे, जो 1960 के दशक में सऊदी अरब में एक इस्लामिक आंदोलन के तौर पर पनपा था. JSM की विचारधारा बहुत व्यापक आध्यात्मिक सोच पर आधारित थी, जिसका केंद्र बिंदु मुख्य इस्लामिक विचारधाराओं और सरकार प्रायोजित इस्लाम से मुक़ाबला करना था. इसमें वहाबी विचारधारा और मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे संगठनों से टकराव शामिल था. इसके अलावा ये संगठन, तेल की कमाई से बढ़ते उपभोक्तावाद, शहरीकरण और समाज में औरतों और मर्दों के बीच कम होती दूरी के भी ख़िलाफ़ था. [28],[29] सऊदी हुकूमत और उसके सैन्य बलों को मक्का की मस्जिद, इन लड़ाकों के क़ब्ज़े से छुड़ाने के लिए काफ़ी संघर्ष करना पड़ा था. उन्हें फ्रांस की गुपचुप मदद के बाद जाकर इसमें सफलता मिल पायी थी. [30] वैसे तो बाद में अल उतैबी और उसके 60 साथियों को बाद में मार दिया गया था. लेकिन, इस घटना की वजह से सऊदी अरब के भीतर ख़ास तौर से सत्ता, अधिकार, समाज और विचारधारा के मामले में दूरगामी परिवर्तन हुए थे. इसी घटना के बाद सऊदी अरब ने मूतवा या शरीयत पुलिस को अथाव ताक़त दे दी थी, जिससे वो इस्लामिक क़ानूनों के मुताबिक़ समाज मेंनैतिकताको बरक़रार रखे.

आज जब सऊदी अरब तेल पर निर्भरता ख़त्म करने की कोशिश कर रहा है, तो उसके यहां निवेश के लिए दुनिया का भरोसा जगे, इसके लिए इन इस्लामिक मान्यताओं को पलटना आवश्यक है. हालांकि, मुहम्मद बिन सलमान के शासन काल में मूतवा की ताक़त में तो कटौती की गई है, पर उसे पूरी तरह से भंग नहीं किया गया है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि सऊदी अरब एक नाज़ुक और मुश्किल बदलाव के दौर से गुज़र रहा है, जिसकी ज़िम्मेदारी इकलौते नेता के कंधों पर टिकी है. शायद इसमें 1979 की घटनाओं से मिले सबक़ ने काफ़ी अहम भूमिका निभाई है और अभी ये बात मालूम नहीं है कि विशाल अल सऊद ख़ानदान के दूसरे सदस्य, विज़न 2030 के तहत लागू किए जा रहे इन बदलावों को किस तरह से देखते हैं. [31]

आज जब सऊदी अरब तेल पर निर्भरता ख़त्म करने की कोशिश कर रहा है, तो उसके यहां निवेश के लिए दुनिया का भरोसा जगे, इसके लिए इन इस्लामिक मान्यताओं को पलटना आवश्यक है. हालांकि, मुहम्मद बिन सलमान के शासन काल में मूतवा की ताक़त में तो कटौती की गई है, पर उसे पूरी तरह से भंग नहीं किया गया है.

इसके साथ ही साथ, सऊदी अरब खाड़ी क्षेत्र से बाहर एक बड़े निवेशक के तौर पर भी उभर रहा है. अनुमान है कि इस वक़्त सऊदी अरब के पब्लिक इन्वेस्टमेंट फंड के