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यह उम्मीद की जा सकती है कि भारतीय नीति-निर्माता और सैन्य योजनाकार अंतहीन से दिखते इन युद्धों से सही सबक ले रहे होंगे.
युद्ध लड़ना अपने आप में घृणित काम है. यह अपने साथ जो राजनीतिक, आर्थिक और नैतिक गिरावट लाता है, उसे समझना उन लोगों के लिए मुश्किल होता है, जो उसे दूर से देख रहे होते हैं. ऐसे लोगों के लिए युद्ध महज एक ऑडियो-विजुअल एक्सपीरिएंस होता है जिसे अक्सर वे उसके राजनीतिक और सामरिक संदर्भों से अलग, मनोरंजन के एक साधन के रूप में लेते है. विकसित देशों के एक बड़े हिस्से के साथ अभी हाल तक यही बात लागू होती थी. उसे लगता था कि युद्ध सुदूर इलाकों में ही लड़े जाते हैं, जिनका उसकी रोजाना की जिंदगी से सीधे तौर पर कोई लेना-देना नहीं होता. इस हिस्से के लिए मौजूदा दौर हकीकत का एक नया अहसास लेकर आया है.
मैक्रां का प्रस्ताव : अभी यूरोप, यूक्रेन पर रूसी हमले की चुनौती से निपटने का सही तरीका खोजने की कोशिश में लगा है. जब फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रां ने हाल में सुझाव दिया कि यूक्रेन में सेना भेजने पर आम सहमति भले न बनी हो, लेकिन कोई भी विकल्प छोड़ा नहीं जाना चाहिए तो इस पर बेहद तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं, न केवल रूस की ओर से बल्कि अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी की ओर से भी.
जब फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रां ने हाल में सुझाव दिया कि यूक्रेन में सेना भेजने पर आम सहमति भले न बनी हो, लेकिन कोई भी विकल्प छोड़ा नहीं जाना चाहिए तो इस पर बेहद तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं, न केवल रूस की ओर से बल्कि अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी की ओर से भी.
सेना नहीं भेजेंगे : अमेरिका ने तत्काल साफ कर दिया कि जीत के लिए सैन्य सहायता उपलब्ध कराना जरूरी है. इसलिए यूक्रेनी सेना को वे सारे हथियार और गोले बारूद मुहैया कराए जाते रहेंगे, जो उसे बचाव करने के लिए चाहिए. लेकिन ‘अमेरिका यूक्रेन में लड़ने के लिए अपनी सेना नहीं भेजने जा रहा.’ ब्रिटेन ने कहा कि उसके कुछ सैनिक पहले से ही यूक्रेनी सैनिकों को ट्रेनिंग दे रहे हैं, उन्हें छोड़ दिया जाए तो यूक्रेन में सैन्य तैनाती की उसकी कोई योजना नहीं है. जर्मन चांसलर ओलाफ शोल्ज़ ने भी दोहराया कि कोई भी यूरोपीय देश या नैटो सदस्य देश यूक्रेन में सेना नहीं भेजेगा.
रूस का पलड़ा भारी : यूक्रेन युद्ध में यह एक नाजुक पल है जब दो साल की भीषण लड़ाई के बाद मैदान में रूस का पलड़ा भारी लग रहा है. पिछले कुछ सप्ताह में उसे कुछ बढ़त हासिल हुई है, हालांकि इस बढ़त के मायनों पर आम राय नहीं है. पुतिन को लग रहा है कि अमेरिका में राजनीतिक ध्रुवीकरण और यूरोपीय देशों में जनता के असंतोष को देखते हुए उन्हें सिर्फ थोड़ा और इंतजार करने की जरूरत है. दूसरी तरफ पश्चिम अभी भी ऐसी स्थिति बनाने की कोशिश ही कर रहा है, जो विश्वसनीय ढंग से यह संदेश दे सके कि वह यूक्रेन के साथ मजबूती से खड़ा है और खड़ा रहेगा, भले ही आर्थिक और राजनीतिक लागत बढ़ जाए.
ब्लॉक किया बयान : कुछ ही दिन पहले हंगरी ने यूरोपियन काउंसिल के प्रेसिडेंट चार्ल्स मिशेल का यूक्रेन के लिए ‘अडिग’ समर्थन का वादा करने वाला एक बयान ब्लॉक कर दिया. ऐसे में मैक्रां का यह कहना मायने नहीं रखता कि ‘रूस का हारना यूरोप की सुरक्षा और स्थिरता के लिहाज से जरूरी है.’ यह स्पष्ट नहीं है कि पश्चिम के पास इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए पर्याप्त साधन हैं या नहीं. मगर रूस के साथ ऐसी कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि वह खुद अपने संसाधनों के बल पर यह युद्ध लड़ रहा है.
इस्राइल-हमास जंग : दूसरा युद्ध जो मध्य पूर्व में चल रहा है, उसमें भी अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के इस दावे के बावजूद कोई हल निकलता नहीं दिख रहा कि उन्हें अगले सप्ताह तक युद्धविराम होने की उम्मीद है. यह युद्ध तब शुरू हुआ, जब पिछले अक्टूबर में हमास के आतंकी हमले में करीब 1,200 लोगों के मारे जाने के बाद इस्राइल ने गाजा में बड़े पैमाने पर हवाई और जमीनी हमले शुरू कर दिए. अब स्थिति यह है कि पूरी दुनिया का ध्यान इस्राइली कार्रवाई से उत्पन्न मानवीय संकट पर टिका है.
नेतन्याहू सरकार गाजा के भविष्य के मद्देनजर शासन और पुनर्निर्माण की कोई वास्तविक सुसंगत योजना पेश नहीं कर सकी है. इस्राइल सीरिया, इराक और यमन में हमास, हिजबुल्ला और ईरान के प्रॉक्सी ग्रुप्स के हमलों से जूझ रहा है. वह एक साथ कई मोर्चों पर जंग लड़ रहा है.
इस्राइल पर दबाव : इस्राइली सेना की रणनीति को लेकर शुरू से विवाद रहा है. उसकी कार्रवाई ने बड़े पैमाने पर तबाही मचाई है. वह हमास को कुछ प्रत्यक्ष नुकसान पहुंचाने में भी सफल रहा है. लेकिन नेतन्याहू सरकार गाजा के भविष्य के मद्देनजर शासन और पुनर्निर्माण की कोई वास्तविक सुसंगत योजना पेश नहीं कर सकी है. इस्राइल सीरिया, इराक और यमन में हमास, हिजबुल्ला और ईरान के प्रॉक्सी ग्रुप्स के हमलों से जूझ रहा है. वह एक साथ कई मोर्चों पर जंग लड़ रहा है. जाहिर है, ऐसे में तनाव बढ़ने और युद्ध फैलने का खतरा भी लगातार बना हुआ है. अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन पर भी घरेलू राजनीतिक दबाव बढ़ता जा रहा है कि इस्राइली बलों पर लगाम लगाई जाए.
युद्ध से सबक : यूक्रेन और इस्राइल दोनों युद्ध रणनीति के लिए काफी हद तक बाहरी समर्थन पर निर्भर हैं. दोनों ही मामलों में हताहतों की संख्या पश्चिम के समाज और राजनीति को गहरे प्रभावित कर रही है, जबकि दूसरे पक्ष को ऐसी कोई चिंता नहीं है. मतलब यह कि यूक्रेन और इस्राइल दोनों ही अपने लक्ष्यों, संसाधनों और साधनों में तालमेल नहीं बिठा पा रहे. सुसंगत रणनीति की यही कमी है जो ताकतवर पड़ोसी द्वारा अपनी क्षेत्रीय संप्रभुता का उल्लंघन झेल रहे और अपने नागरिकों पर बर्बर आतंकी हमला देख चुके इन देशों को दबाव में डाले हुए है. यह उम्मीद की जा सकती है कि भारतीय नीति-निर्माता और सैन्य योजनाकार अंतहीन से दिखते इन युद्धों से सही सबक ले रहे होंगे.
यह लेख नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है.
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Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...
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