Author : Harsh V. Pant

Originally Published नवभारत टाइम्स Published on May 22, 2023 Commentaries 0 Hours ago
मोदी की पापुआ न्यू गिनी यात्रा का क्या है मकसद

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पापुआ न्यू गिनी में जिस फोरम फॉर इंडिया-पैसिफिक आइलैंड्स कोऑपरेशन (FIPIC) की बैठक में भाग लेने जा रहे हैं, उसमें 18 प्रशांत द्वीपीय राष्ट्रों के नेताओं के साथ ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन भी शिरकत करने वाले थे. लेकिन वॉशिंगटन में चल रही डेट सीलिंग वार्ता के कारण बाइडेन को अपना दौरा अचानक रद्द करना पड़ा. यह बैठक ऐसे समय हो रही है, जब दुनिया की प्रमुख शक्तियां हिंद-प्रशांत क्षेत्र के रणनीतिक समीकरण को नया आकार देने में लगी हैं.

बढ़ती चीनी पैठ

चीन और अमेरिका के बीच उभरते भू-राजनीतिक विवादों में प्रशांत द्वीप समूह की केंद्रीय भूमिका पिछले काफी समय से स्पष्ट है. पेइचिंग 1980 के दशक से ही इस क्षेत्र के साथ आर्थिक रूप से जुड़ा रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में यह जुड़ाव सुरक्षा केंद्रित रिश्ते में तब्दील होता चला गया.

  • पिछले साल चीन और सोलोमन द्वीप ने एक समझौता किया, जिसके मुताबिक पेइचिंग इस देश की राष्ट्रीय सुरक्षा क्षमता को बढ़ाने में मदद करेगा.
  • इसमें ऐसे प्रावधान भी शामिल हैं जिनके तहत चीन वहां अपने जहाज भेज सकता है, रसद पहुंचा सकता है, यहां तक कि अपने कर्मचारियों और बड़े प्रॉजेक्टों की सुरक्षा के लिए बल का प्रयोग भी कर सकता है.
  • अतीत में इस क्षेत्र में प्रभाव बनाने की होड़ चीन और ताइवान के बीच ही थी. लेकिन जैसे-जैसे चीन का आर्थिक दबदबा बढ़ता गया, ज्यादातर प्रशांत क्षेत्र के द्वीपीय राष्ट्र अपनी निष्ठा चीन को समर्पित करते गए.
  • हालांकि स्थानीय स्तर पर असंतोष कम नहीं है. जैसा कि इस क्षेत्र के कई वरिष्ठ नेता कहते हैं, हमारे देश के दीर्घकालिक हित- विकास की आकांक्षा, लोकतांत्रिक मूल्य, मानवाधिकार, कानून का शासन, मानवीय गरिमा और आपसी सम्मान- चीन के साथ जुड़ने में नहीं, ताइवान के साथ रहने में है. इसके बावजूद क्षेत्र में चीन का दबदबा लगातार बढ़ता ही रहा है. 

इसी साल फरवरी में दक्षिण प्रशांत देश मलाइता प्रांत के प्रमुख डेनियल सुइदानी को विधायिका ने पद से हटा दिया. सुइदानी इस देश में चीनी उपस्थिति के घोर विरोधी थे.

  • चीन-प्रशांत द्वीप समूह को अपने बेल्ट एंड रोड इनिशटिव के लिहाज से खासा अहम मानता है और उसने प्रशांत द्वीप समूह फोरम (पीआईएफ) और चीन-प्रशांत द्वीप राष्ट्र आर्थिक विकास और सहयोग फोरम (ईडीसीएफ) जैसे क्षेत्रीय मंचों का असरदार ढंग से उपयोग भी किया है. हाल के वर्षों में चीन और दक्षिण प्रशांत के देशों के बीच नियमित उच्च स्तरीय बातचीत होती रही है. पिछले साल चीन के तत्कालीन विदेश मंत्री वांग यी ने दस प्रशांत द्वीप राष्ट्रों के साथ आर्थिक और सुरक्षा समझौता करने की काफी कोशिश की. इस प्रस्तावित समझौते को साझा विकास की पंचवर्षीय कार्य योजना कहा गया. हालांकि ये प्रयास सफल नहीं हुए, लेकिन इनसे इस क्षेत्र को लेकर चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षा जरूर रेखांकित हुई.
  • इसके उलट, अमेरिका का रवैया इस मामले में बड़ा लचर रहा है. उसने कभी इन देशों के साथ अपने संबंधों को प्राथमिकता नहीं दी. नतीजा यह कि जैसे-जैसे इन इलाकों में चीन की पैठ बढ़ी, अमेरिका का असर कम होता गया. जो थोड़ा-बहुत जुड़ाव उसका रहा भी वह इस मायने में एकांगी कहा जाएगा कि उसकी दिलचस्पी सैन्य मौजूदगी तक सीमित रही. उसने इस क्षेत्र की विकास संबंधी जरूरतों पर कभी ध्यान नहीं दिया.
  • चीन की लगातार बढ़ती सक्रियता से आखिर अमेरिका की नींद टूटी. बाइडेन के इंडो-पैसिफिक एक्सपर्ट कर्ट कैंपबेल ने आगाह किया कि प्रशांत क्षेत्र में चीनी सैन्य उपस्थिति से कभी स्थिति बिगड़ सकती है और इसलिए अमेरिका को भी यहां अपनी मौजूदगी बढ़ानी होगी.
  • इसके बाद वाइट हाउस ने क्षेत्र में अमेरिकी राजनयिक उपस्थिति का विस्तार करने के लिए यूएस-पैसिफिक द्वीप रणनीति घोषित की और पिछले सितंबर में पहला
  • यूएस-पैसिफिक आइलैंड कंट्री समिट किया, जिसने इस क्षेत्र को लेकर अमेरिका की प्रतिबद्धता दर्शाई.
  • इसकी नौ-सूत्री घोषणा में यूएस-प्रशांत साझेदारी के लिए समर्थन, क्षेत्र में अमेरिकी क्षमता का निर्माण, सहयोगियों और साझेदारों के साथ समन्वय, जलवायु, अर्थव्यवस्था, सुरक्षा और समुद्री सहयोग, साइबर सुरक्षा, कनेक्टिविटी और कोविड-19 तथा स्वास्थ्य सुरक्षा के साथ-साथ संघर्षों की विरासत को संभालना भी शामिल है.
  • अमेरिका के इस अहसास ने कि इस इलाके पर उसके फोकस न करने के कारण ही चीन उस शून्य को भरने की स्थिति में आया, उसे क्षेत्रीय भागीदारों के साथ तालमेल बनाकर काम करने को प्रेरित किया है.
  • ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जापान और ब्रिटेन के साथ मिलकर अमेरिका ने पार्टनर्स इन द ब्लू पैसिफिक इनिशिएटिव लॉन्च किया जिसका मकसद पैसिफिक आइलैंड देशों को क्षेत्रवाद, संप्रभुता, पारदर्शिता, उत्तरदायित्व के सिद्धांतों के अनुरूप और प्रशांत द्वीप समूह की अगुआई व उनके निर्देशन में समर्थन उपलब्ध कराना है. इस समूह में एक ऑब्जर्वर के तौर पर भारत भी विकास में अहम भूमिका निभा सकता है.
  • नई दिल्ली ने मोदी की फिजी यात्रा के दौरान 2014 में 14 प्रशांत द्वीप राष्ट्रों के साथ एफआईपीआईसी लॉन्च किया था. तब से भारत ने नियमित उच्च स्तरीय बातचीत को बहाल रखने की कोशिश की है. 

भारत-अमेरिका साझेदारी  

भले ही बाइडेन की यात्रा रद्द हो गई, लेकिन मोदी के वहां रहते हुए पापुआ न्यू गिनी जाने की उनकी योजना अपने आप में एक स्पष्ट संदेश देती है. यह कि अमेरिका-भारत साझेदारी अब नए क्षेत्रों में नई संभावनाए तलाशने को लेकर किसी तरह की झिझक नहीं रखती और यह भी कि दोनों प्रशांत क्षेत्र में चीन के दबाव का एक प्रभावी विकल्प प्रदान करने को लेकर प्रतिबद्ध हैं. हालांकि, अमेरिका को जरूर अब यह सुनिश्चित करना होगा कि उसकी घरेलू समस्याएं उसे अपने सहयोगियों और साझेदारों को दीर्घकालिक रणनीतिक इरादों के संबंध में आश्वस्त रखने में बाधक न बनें.


यह लेख नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है. 

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