पेरिस जलवायु शिखर सम्मेलन से पहले भारत ने जलवायु परिवर्तन को धीमा करने और इसे अनुकूल बनाने के उद्देश्य से 2 अक्टूबर को राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित अपने अभीष्ट योगदान (आईएनडीसी) की बाकायदा घोषणा कर दी। भारत ने अपनी कार्बन उत्सर्जन तीव्रता को वर्ष 2005 के स्तर की तुलना में वर्ष 2030 तक 33 से 35 फीसदी तक घटाने का इरादा व्यक्त किया है। वैसे तो अनेक हलकों में इस प्रतिबद्धता की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है, लेकिन हरियाली के पैरोकारों ने अटकलों के ठीक अनुरूप ही भारत कीस्वच्छ ऊर्जा संबंधीदुष्कर महत्वाकांक्षा को नजर अंदाज कर दिया है औ रइसके बजाय कोयले पर भारत की निर्भरता पर अपना ध्यान केंद्रित किया है।अत: अब समय आ गया है किइन विशेषाधिकार प्राप्त ‘हरियाली के पश्चिमी पैरोकारों’के ‘कोयला पाखंड’ को बेनकाब कर दिया जाए।
भारत की कुल ऊर्जा खपत चीन, अमेरिका, यूरोपीय संघ और ओईसीडी के मुकाबले कहीं भी नहीं ठहरती है।जलवायु परिवर्तन से जुड़ी वार्ताओं में भारत मानव विकास के लिए ऊर्जा तक पहुंच की केन्द्रीयता को निरंतर प्रतिबिंबित करता रहा है। इन वार्ताओं में भारत के प्रामाणिकरुख की पुष्टि विभिन्न आंकड़ों जैसे किऊर्जा तक पहुंच और मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) के बीच के सकारात्मक सह-संबंध से भी होती है।
जीवन रेखा ऊर्जा
वैसे तो अनेक अनुमानों में यह बताया गया है किविकास लक्ष्यों को पाने के लिए कितनी ऊर्जाकी जरूरत है(हम इसे ‘जीवन रेखा ऊर्जा’ कहते हैं), लेकिन एक दिलचस्प बेंचमार्क 2000-वाट (डब्ल्यू) वाली सोसायटी से जुड़ा हुआ है, जोस्विट्जरलैंड के एक अनुसंधान समूह के निष्कर्षों पर आधारित है।अनुसंधान में कहा गया है कि प्रति व्यक्ति 2000-वाट ऊर्जा का एक बुनियादी स्तर हैजिसका वास्ता आवास, गतिशीलता, भोजन, खपत (विनिर्मित वस्तुओं) और बुनियादी ढांचागत सुविधाओं से है। विदेश संबंधों पर यूरोपीय परिषद के लिए एक आगामी प्रपत्र मेंहमने यह दलील दी है कियदि जीवन रेखा ऊर्जा संबंधी जरूरतों को पूरा करने की दिशा में कोयले की खपत के लिए भारत को दी गई ‘गुंजाइश’ नाममात्र भी न्यायसंगत है,तो भारत को विकास और तरक्की से जुड़ी अपनी आकांक्षाओं के लिए समझौता करने की कतई जरूरत नहीं है।
औसतन, अमेरिकी नागरिक कोयले अर्थात ‘अप्रिय ईंधन’का उपयोग करते हुए इस जीवन रेखा ऊर्जा बेंचमार्क की लगभग पूर्ण सीमा तक उपभोग करते हैं। वहीं, दूसरी ओर भारत कोयले के जरिएइस बेंचमार्क के केवल 19 प्रतिशत का ही उपभोग करता है।वास्तव में, ओईसीडी देशों के नागरिकों कोगैर-ओईसीडी देशों की तुलना में 2000-वाटवाले बेंचमार्क के सापेक्षअपनी ऊर्जा जरूरतों का एक बहुत बड़ा हिस्सा कोयले से प्राप्त होता है।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2014 में भारतीयों का औसत उपभोग अमेरिकियों की औसत कोयला खपत का लगभग 20 प्रतिशत और ओईसीडी की जनता की औसत कोयला खपत का लगभग 34 प्रतिशत आंका गया था।हालांकि, विकसित देश इस बात को लेकर काफी चिंतित हैं कि जहां एक ओर वे प्रति व्यक्ति कोयला खपत को वित्तीय संकट से पहले के स्तरकी तुलना में कम करने में कामयाब रहे हैं, वहीं दूसरी ओर भारत में इसी अवधि के दौरान कोयले की खपत बढ़ गई है।अपने विश्लेषण मेंहमनेइस ओर ध्यान दिलाया है कि जिस तरह से वित्तीय संकट के बाद विकसित देशों में कोयले की खपत में आई कमी इस तथ्य की पुष्टि निश्चित तौर पर नहीं करती है किवे अब जलवायु के प्रति कहीं ज्यादा ‘जिम्मेदार’हो गए हैं,ठीक उसी तरह से भारत में कोयले की खपत में दर्ज की गई वृद्धि उसकी ‘लापर वाही’को कतई प्रतिबिंबित नहीं करती है।
वित्तीय संकट के बाद नजर आ रहे दो अहम रुझानों से इस तथ्य को कहीं बेहतर ढंग से समझाया जा सकता है। पहला, जहां एक ओर विकसित देश ऊर्जा की खपत को पूर्णरूपेण कम करने में जुट गए हैं, वहीं दूसरी ओर विकासशील देश ऊर्जा की खपत को बढ़ाते रहे हैं। हालांकि, यह गति धीरे-धीरे कम हो रही है।दूसरा, जहां एक तरफ विकसित देश प्राथमिक ऊर्जा खपत के मुकाबले कोयले की खपत में कहीं ज्यादा तेजी से कटौती कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ विकासशील देशों में प्राथमिक ऊर्जा खपत के मुकाबले कोयले की खपत में कहीं ज्यादा तेजी से वृद्धि हुई है। इससे साफ जाहिर है कि औद्योगिक खपत (विनिर्माण और नौकरियां) विकासशील देशों के मामले में जीवन रेखा खपत मैट्रिक्स का एक अहम हिस्सा है।
विकास व तरक्की की कड़ी
अनेक वित्तीय संस्थानों जैसे कि अमेरिकी एक्जिम बैंक ने कोयला आधारित विद्युत उत्पादन परियोजनाओं का वित्त पोषण बंद कर दिया है। विश्व बैंक भी इसी दिशा में आगे बढ़ता नजर आ रहा है। हालांकि, कोयले की खपत विकासशील देशों में बढ़ती जा रही है और ऊर्जा के उत्पादन स्तर को बढ़ाने के लिहाज से कोयला आधारित ऊर्जा ही अब भी सबसे व्यावहारिक विकल्प है।यह प्रवृत्ति आर्थिक विकास को जीवन रेखा ऊर्जा से अलग कर देती है और विकास के भीतर तरक्की के केंद्रीय लक्ष्य को एक किनारे पर रख देती है।
भारत की स्थिति न तो प्रति व्यक्ति कोयला खपत के मामले में विकसित देशों की भांति है और न ही उसकी तुलना चीन से की जा सकती है।वास्तव में, हमने तो यह बाकायदा दिखा दिया है कि भारत विकसित देशों की तुलना में 2000-वाटबेंचमार्क के कहीं ज्यादा बड़े हिस्से को ‘स्वच्छ’ ईंधनों के जरिए हासिल करेगा।अत: भारत के लिए इस बात की काफी गुंजाइश है कि वह अक्षय ऊर्जा पर अपने विशेष जोर को तेजी से आगे बढ़ाने का सिलसिला जारी रखते हुए अपनी कोयला खपत को बढ़ाए।और यह ठीक वही स्थिति है जिसे भारतीय आईएनडीसी प्रतिबिंबित करते हैं।
भारत ने वर्ष 2022 तक 175 गीगावाट की नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता हासिल करने का लक्ष्य रखा है और इसके साथ ही उसने ‘ईंधनों की आपूर्ति सुनिश्चित होने’ पर 63 गीगावाट परमाणु ऊर्जाप्राप्त करने कावादा किया है।भारत भी उन चुनिंदा विकासशील और विकसित देशों में शामिल होगा जो अपनी जीवन रेखा ऊर्जा जरूरतों का एक बड़ा हिस्सा गैर-परंपरागत स्रोतों से हासिल करेगा।
इस बात पर विशेष जोर देने की जरूरत है किअपनी ऊर्जा खपत को पहले ही चरम पर पहुंचा चुके विकसित देशों के विपरीत भारत को प्रति व्यक्ति 2000-वाट की जीवन रेखा ऊर्जा सभी को मुहैया कराने की कोशिश करनी चाहिए, भले ही वह इस ऊर्जा मिश्रण को स्वच्छ करने में क्यों न जुटा हो। भारत अपने औद्योगिक आधारको बढ़ाने, मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) को बेहतर करने और अपनी अर्थव्यवस्था को विकसित करने के लिए कोयले की खपत के क्रम को आगे भी जारी रखेगा। इससे भारत को गैर-परंपरागत स्रोतों में भारी-भरकम निवेशकरने के लिए वित्तीय क्षमता हासिल होगी। भारतीय आईएनडीसी इस चिरस्थायी विरोधाभास को प्रतिबिंबित करते हैं। भारत को अगर सफलतापूर्वक पर्यावरण अनुकूल बनना है, तो उसे अपनी कोयला क्षमता विकसित करनी होगी।
विकसित देश जैसे कियूरोपीय संघ में शामिल राष्ट्र अपने उत्सर्जन को वर्ष 2050 तक घटाकर प्रति व्यक्ति दो टन के स्तर पर लाना चाहते हैं, जो आगे चलकर प्रति व्यक्ति उपलब्धकुल कार्बन‘गुंजाइश’ को प्रतिबिंबित करेगा, बशर्ते किपूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग को सीमित करके प्रबंधन योग्य स्तर पर लाने के पक्ष में हो। वैसे तो पेरिस का मार्ग इस तरह के अच्छे इरादों से प्रशस्त प्रतीत होता है, लेकिन यह आवश्यक है किइस धरती पर रहने वाला हर व्यक्ति समुचित कार्बन प्रोफ़ाइल हासिल करने की ओर आगे बढ़ना शुरू कर दे। इसके दो स्पष्ट प्रभाव होंगे।
पहला, भारत जैसे बड़े विकासशील देशों को नवीकरणीय ऊर्जा के तय मानकों मेंअवश्य ही उतना निवेश करना चाहिए, जो विकसित देशों से मेल खाता हो। दूसरा, विकसित देशों को अवश्य ही प्रति व्यक्ति कोयलाखपत को घटाकर उस स्तर पर लाना चाहिए, जोकोयले के माध्यम से भारत की भावी जीवन रेखा खपत के बराबर होगा।
आसान शब्दों में कहें, तो जब भी एक नया कोयला संयंत्र भारत में लगे, तो ओईसीडी में एक कोयला संयंत्र को बाकायदा बंद कर दिया जाना चाहिए।यदि कोयले के उपयोग को स्वच्छ स्रोतों से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, तो यूरोपीय संघ और अमेरिका में करोड़ों टन की कोयला क्षमता को बेहद आसानी से निपटाया जा सकता है। भारत अपनी संभावित जीवन रेखा ऊर्जा जरूरतों के पांचवें से भी कम हिस्से को पूरा करने के लिए कोयले का उपयोग करता है,जबकिओईसीडी के सदस्य देश अपनी दो-तिहाई ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए इस ‘अप्रिय’ ईंधन का उपयोग करते हैं। अत: अब समय आ गया है कि हम मिल-जुलकर कुछ ठोस तय करें। बेशक, हम ऐतिहासिक जिम्मेदारी लेने की सलाह नहीं दे रहे हैं। हम केवल सुरक्षित भविष्य के लिए कंधे से कंधा मिलाकर चलने की सलाह दे रहे हैं।
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