Author : Aditya Bhan

Published on Sep 02, 2022 Updated 25 Days ago

एक लड़ाकू देश के तौर पर चीन बार बार अपनी हाइपरसोनिक ताक़त का प्रदर्शन कर रहा है और इस तकनीक के चीन से पाकिस्तान तक पहुंचने का भी डर है. ऐसे में भारत को भी रूस के साथ मिलकर विकसित की गई अपनी ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज़ मिसाइल के हाइपरसोनिक वारिस को तैयार करना ज़रूरी हो गया है.

#India-Russia Relations: भारत और रूस के बीच सैन्य व तक़नीकी सहयोग में हाइपरसोनिक संभावनाओं का आकलन

रूस ने अपने कालिनिनग्राद क्षेत्र में हाइपरसोनिक किंझाल मिसाइलों से लैस मिग-31 लड़ाकू विमान तैनात किए हैं. इसी दौरान भारत और रूस के सैन्य तकनीक सहयोग पर अमेरिका के प्रतिबंध लगाने का ख़तरा भी मंडरा रहा है. इन प्रतिबंधों के दायरे में दोनों देशों द्वारा मिलकर हाइपरसोनिक मिसाइलों के विकास का क्षेत्र भी आने का डर है. अधिकतम 2000 किलोमीटर की रेंज और मैक-10 की रफ़्तार वाली किंझाल मिसाइलें निश्चित रूप से दुश्मन को डराने का बेहतरीन जोड़ हैं. चूंकि रूस के कालिनिनग्राद इलाक़े की सीमाएं नेटो के सदस्य देशों पोलैंड और लिथुआनिया से मिलती हैं. ऐसे में इन मिसाइलों की क्षमता देखकर ऐसा लगता है कि रूस अपनी इन मिसाइलों को तैनात करके नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (NATO) के हथियारों को ख़तरे में डालने की ताक़त दिखा रहा है. 

इस हाइपरसोनिक मिसाइल की ख़ूबियां रूस के सिरकोन मिसाइल जैसी ही होंगी और पहले परीक्षण से पहले इसका विकास करने में कम से कम पांच छह बरस तो लग ही जाएंगे.

उधर बेहद लड़ाकू देश चीन ने भी हाल ही में ताइवान के पास अपने युद्धाभ्यास के दौरान अपनी हाइपरसोनिक क्षमता का प्रदर्शन किया था और आशंका तो इस बात की है कि चीन से ये तकनीक उसके ‘भाई’ कहे जाने वाले पाकिस्तान तक पहुंच सकती है. ऐसे में भारत के लिए भी अपनी ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज़ मिसाइलों के हाइपरसोनिक वारिस का विकास करने की ज़रूरत महसूस हो रही है. भारत ने ब्रह्मोस मिसाइल को रूस के सहयोग से विकसित किया है. जैसा कि रक्षा मंत्री ने बिल्कुल सटीक तरीक़े से बयान किया था कि दुश्मनों के दिल में भारत का ख़ौफ़ बनाए रखने के लिए हाइपरसोनिक मिसाइलें देश की न्यूनतम रक्षा आवश्कयता हैं.

रूस की एक समाचार एजेंसी के साथ बातचीत में ब्रह्मोस मिसाइल के असली उपकरण बनाने वाली कंपनी के CEO ने ब्रह्मोस को हाइपरसोनिक क्रूज़ मिसाइल के तौर पर विकसित करने की संभावना की तरफ़ इशारा किया था, जिसे उन्होंने ब्रह्मोस-II का नाम दिया था. इस हाइपरसोनिक मिसाइल की ख़ूबियां रूस के सिरकोन मिसाइल जैसी ही होंगी और पहले परीक्षण से पहले इसका विकास करने में कम से कम पांच छह बरस तो लग ही जाएंगे. उनके शब्दों में कहें तो, ‘आज पूरी दुनिया हाइपरसोनिक तकनीक पर काम कर रही है. मैंने दुनिया में किसी भी ऐसे देश को नहीं देखा जो ये कहे कि उसके पास हाइपरसोनिक क्रूज़ मिसाइलें हैं. लेकिन (रूस) कहता है कि उसने अपनी सिरकोन हाइपरसोनिक क्रूज़ मिसाइल का सफल परीक्षण कर लिया है.’

2001 में इसके सफल परीक्षण के बाद, ब्रह्मोस मिसाइल को सबसे पहले 2005 में नौसेना में शामिल किया गया था. इसके बाद मिसाइल को भारत की थल सेना और वायुसेना में भी शामिल किया गया.

CEO ने कहा कि ब्रह्मोस-II मिसाइल का निर्यात नहीं किया जाएगा और इसे केवल रूस और भारत के इस्तेमाल के लिए बनाया जाएगा. ऐसा इसलिए है क्योंकि मिसाइल तकनीक नियंत्रण व्यवस्था (MTCR) में दस्तख़त करने के चलते, भारत को अपने लिए तो 300 किलोमीटर दूर तक मार करने वाली और 500 किलोग्राम से भारी मिसाइल विकसित करने का अधिकार है. लेकिन वो ये तकनीक या मिसाइल किसी तीसरे देश को नहीं दे सकता है.

ब्रह्मोस की कामयाबी

ब्रह्मोस मिसाइल भारत और रूस के बीच बरसों से चले आ रहे सहयोग का नतीजा है और ये मिसाइल इस बात की मिसाल है कि रूस और भारत के रक्षा उद्योग एक दूसरे से कितनी नज़दीकी से जुड़े हुए हैं. हालांकि, अब तक ब्रह्मोस मिसाइल की ताक़त का किसी असली युद्ध में इम्तिहान नहीं लिया गया है. लेकिन इसके तमाम परीक्षणों से निकले नतीजे इसके बेहद घातक होने की तरफ़ इशारा करते हैं.

PJ-10 के नाम से भी जाने वाली ब्रह्मोस मिसाइल भारत के रक्षा उद्योग के लिए उम्मीद का प्रतीक बन गई है. इसके निर्माण में रूस का योगदान, मिसाइल के कुछ उपकरणों की आपूर्ति तक ही सीमित रहा है. 

मिसाइल के उत्पादन के लिए भारत और रूस का ये साझा अभियान 1998 में स्थापित किया गया था. उसके बाद से ही मिसाइल का विकास शुरू हुआ. 2001 में इसके सफल परीक्षण के बाद, ब्रह्मोस मिसाइल को सबसे पहले 2005 में नौसेना में शामिल किया गया था. इसके बाद मिसाइल को भारत की थल सेना और वायुसेना में भी शामिल किया गया. वायुसेना ने तो इस मिसाइल को रूस में बने सुखोई (Su-30MKI) विमानों में भी लैस कर लिया है.

ऐसा लगता है कि ब्रह्मोस, रूस की P-800 ओनिक्स क्रूज़ मिसाइल का ही बेहतर स्वरूप है. PJ-10 मिसाइ की बुनियादी रेंज 300 से 500 किलोमीटर होने का अंदाज़ा लगाया जाता है. वहीं इस मिसाइल का जो विकल्प निर्यात किया जाता है उसकी रेंज 290 किलोमीटर तक सीमित रखी गई है, ताकि मिसाइल तकनीक नियंत्रण संधि की शर्तों का पालन किया जा सके. ब्रह्मोस को ज़मीन, हवा या समुद्र से लॉन्च किया जा सकता है और इसके ज़रिए पारंपरिक या परमाणु विस्फोटक से हमला किया जा सकता है.

अगर ब्रह्मोस-II कार्यक्रम परवान चढ़ता है तो ये न सिर्फ़ रूस के रक्षा उद्योग के लचीलेपन की मिसाल बनेगा बल्कि भारत भी अपनी विदेश नीति के एक अहम पहलू यानी सामरिक स्वायत्तता बरकरार रखने की मज़बूत इच्छाशक्ति दिखा सकेगा.

ब्रह्मोस मिसाइल के निर्यात का पहला ग्राहक फिलीपींस बना था, जब जनवरी 2022 में उसने भारत के साथ 36.8 करोड़ डॉलर के सौदे के तहत ये मिसाइलें ख़रीदी थीं. दक्षिणी चीन सागर में अपने विशेष आर्थिक क्षेत्र में चीन की घुसपैठ से निपटने के लिए वियतनाम भी ब्रह्मोस मिसाइलें ख़रीदने के बारे में विचार कर रहा है. हालांकि अभी ख़रीदने का वास्तविक सौदा नहीं हो पाया है. थाईलैंड, सिंगापुर और मलेशिया भी इस मिसाइल सिस्टम में दिलचस्पी दिखा रहे हैं.

आगे की राह

अगर ब्रह्मोस-II कार्यक्रम परवान चढ़ता है तो ये न सिर्फ़ रूस के रक्षा उद्योग के लचीलेपन की मिसाल बनेगा बल्कि भारत भी अपनी विदेश नीति के एक अहम पहलू यानी सामरिक स्वायत्तता बरकरार रखने की मज़बूत इच्छाशक्ति दिखा सकेगा. सच तो ये है कि सीनेट की सैन्य सेवा समिति के अध्यक्ष के तौर पर अमेरिका के सीनेटर जैक रीड ने ये माना था कि, ‘हम (अमेरिका) एक वक़्त में तकनीक के मामले में अपना दबदबा रखते थे. मगर, अब वो बात नहीं रही. हाइपरसोनिक तकनीक के मामले में साफ़ है कि चीन, भारत और रूस ने हम पर बढ़त बना ली है’.

इसके साथ साथ रूस के साथ मिसाइलों के मामले में सहयोग पर अमेरिकी प्रतिबंध की आशंकाओं को देखते हुए, भारत दूसरे विकल्प के तौर पर ख़ुद के हाइपरसोनिक तकनीक डिमॉन्स्ट्रेटर व्हीकल (HSTDV) पर भी काम कर रहा है. स्वदेश में विकसित किये जा रहे इस कार्यक्रम पर रिसर्च ब्रह्मोस-II से अलग की जा रही है और इसके लिए पूंजी का भी अलग से इंतज़ाम किया गया है. जोखिमों के बावजूद इस बात की संभावना काफ़ी अधिक है कि रूस के साथ अच्छे रिश्तों की बार-बार साबित हो चुकी ख़ूबियां और फ़ायदे, भारत की हाइपरसोनिक हथियार विकसित करने की महत्वाकांक्षा को आगे बढ़ाने में हक़ीक़त के ज़्यादा क़रीब लगती हैं.

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