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Image Source: नवभारत
नए साल में हम एक ऐसी विश्व व्यवस्था देख रहे हैं जिसे राजनीतिक, आर्थिक और कूटनीतिक तौर पर पुनर्गठित किया गया है. पिछले कुछ वर्षों से जो रुझान सतह के नीचे थे, वे अपनी पूरी जटिलता के साथ खुलकर सामने आ गए हैं. इनसे उपजी चुनौतियों से निपटना मौजूदा ढांचे और संस्थानों के लिए मुश्किल होता जा रहा है. दरअसल अंतरराष्ट्रीय संबंधों के केंद्र में एक बौद्धिक शून्य है जिसे एक शब्द के बार-बार इस्तेमाल से भरा जा रहा है. वह है- ‘डिसरप्शन’. जिस चीज को भी दुनिया समझ नहीं पाती या स्वीकार नहीं कर पाती, उसे डिसरप्शन करार दिया जाता है.
दरअसल अंतरराष्ट्रीय संबंधों के केंद्र में एक बौद्धिक शून्य है जिसे एक शब्द के बार-बार इस्तेमाल से भरा जा रहा है. वह है- ‘डिसरप्शन’. जिस चीज को भी दुनिया समझ नहीं पाती या स्वीकार नहीं कर पाती, उसे डिसरप्शन करार दिया जाता है.
सच यह है कि दुनिया बदलते शक्ति संतुलन, असाधारण तकनीकी प्रगति और संस्थानों की गिरावट के कारण आ रहे मूलभूत बदलावों से जूझ रही है. यह प्रक्रिया कोविड-19 महामारी, यूरेशिया तथा मध्य पूर्व में युद्धों के कारण और तेज हो गई है. इससे महंगाई का दबाव, भोजन और ऊर्जा का संकट तथा व्यापक आर्थिक मंदी के हालात दिख रहे हैं. तमाम देश अपने नागरिकों की बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए बेतहाशा खर्च कर रहे हैं और हम सतत विकास लक्ष्यों (SDG) से दूर खड़े हैं.
वैश्विक प्रतिस्पर्धा के केंद्रीय क्षेत्र हिंद-प्रशांत में भारत के सामने भी कई चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं. इनमें बड़ी शक्तियों की आपसी प्रतिद्वंद्विता, संघर्ष, आर्थिक संकट, डी-ग्लोबलाइजेशन और जलवायु परिवर्तन से जुड़ी घटनाएं शामिल हैं. हालांकि, इनमें से हर चुनौती भारत के लिए अवसर भी है. इन चुनौतियों से सही ढंग से निपटते हुए और अवसरों का उचित इस्तेमाल करके भारत विश्व व्यवस्था में अपनी हैसियत बढ़ाकर कई तरह के अहम सामरिक लाभ हासिल कर सकता है.
पिछले साल की बात करें तो भारत ने आत्मविश्वास के साथ वैश्विक नेतृत्व की भूमिका निभाई. जी-20 की अध्यक्षता ने नई दिल्ली को कोविड-19 महामारी के साये से उबरती दुनिया में वैश्विक सहयोग के अजेंडे को आकार देने का मौका दिया. जी-20 मंच इस मायने में खास है कि यह विकसित और विकासशील देशों को एक साथ लाकर उन्हें ग्लोबल गवर्नेंस की राह में आ रही चुनौतियों पर चर्चा करने और उनके हल तलाशने का मौका देता है. नई दिल्ली ने ग्लोबल साउथ की आकांक्षाओं को आवाज देने के लिए इसका बेहतरीन इस्तेमाल किया. वह भी ऐसे समय में जब कई बड़ी ताकतें अपनी घरेलू समस्याओं से इस कदर घिरी हैं कि उनके पास कमजोर देशों की मदद करने के लिए न तो समय है और न संसाधन. भारी अशांति और उथल पुथल के इस दौर में महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय जमावड़े की मेजबानी करते हुए तमाम ग्लोबल स्टेकहोल्डर्स के बीच आम सहमति बनाकर नई दिल्ली ने बड़ा सोचने और बड़े नतीजे देने की अपनी तैयारी का संकेत दिया, जिसकी दुनिया लंबे समय से भारत से उम्मीद कर रही थी.
यह न केवल प्रमुख वैश्विक गठबंधनों और बहुपक्षीय गठबंधनों में भाग लेकर, बल्कि नए गठबंधन बनाते हुए बड़ी वैश्विक भूमिका निभाने, और इस तरह जलवायु परिवर्तन, टिकाऊ विकास, वैश्विक स्वास्थ्य और शांति सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने की भारत की इच्छा के अनुरूप है. एक जिम्मेदार ग्लोबल स्टेकहोल्डर के तौर पर प्राकृतिक आपदाओं या संघर्षों के दौरान सबसे पहले प्रतिक्रिया देना भारत के वैश्विक प्रोफाइल को बढ़ाने में मददगार साबित हुआ है. हर बात पर ना कहने वाले से देश से ग्लोबल गवर्नेंस में जिम्मेदारी निभाने को तैयार देश बनने की यात्रा भारतीय विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण ट्रेंड रहा है.
2023 में वर्ष दिखाई देने वाली दूसरी प्रवृत्ति थी अपनी महत्वपूर्ण साझेदारियों को लगातार संतुलित रखने की भारत की क्षमता. चुनौतियों के बावजूद प्रमुख ग्लोबल ताकतों के साथ नई दिल्ली के संबंध आगे बढ़ते रहे. यूक्रेन युद्ध ने पश्चिम के साथ भारत के संबंधों में कोई दरार पैदा नहीं की. हालांकि जब युद्ध शुरू हुआ था तब इसकी आशंका जताई जा रही थी. इसके उलट, ये रिश्ते और मजबूत होते रहे. सिख अलगाववादी नेता और अमेरिकी नागरिक गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की साजिश से जुड़े आरोपों के बावजूद भारत-अमेरिका संबंधों में गति बनी रही. क्वाड्रिलैटरल सिक्यॉरिटी डायलॉग – क्वाड – का दोबारा उभर आना साफ इशारा है कि भारत और अमेरिका उभरती वास्तविकताओं के आधार पर एक नई साझेदारी शुरू करने के इच्छुक हैं. इसके साथ ही भारत रूस के साथ अपने करीबी रक्षा और सामरिक संबंध बनाए रखने में भी कामयाब रहा.
2023 में भारत का रक्षा निर्यात 15,920 करोड़ रुपये तक पहुंच गया जो 2016-17 के रक्षा निर्यात (1,521 करोड़ रुपये) के 10 गुने से भी ज्यादा है.
बीते वर्ष भारत की बाहरी भागीदारी का एक और पहलू इस बात का बढ़ता अहसास रहा कि महत्वपूर्ण क्षेत्रों में घरेलू क्षमता निर्माण का कोई विकल्प नहीं है. केवल एक मजबूत और आत्मनिर्भर भारत ही चीन की बढ़ती आक्रामकता का मुकाबला कर सकता है. यदि कोविड-19 ने भारत को महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे में आत्मनिर्भरता की आवश्यकता को लेकर सचेत किया, तो रूस-यूक्रेन युद्ध ने उसे रक्षा आपूर्ति के लिए दूसरों पर अति निर्भरता के खतरों से आगाह किया.
2023 में भारत का रक्षा निर्यात 15,920 करोड़ रुपये तक पहुंच गया जो 2016-17 के रक्षा निर्यात (1,521 करोड़ रुपये) के 10 गुने से भी ज्यादा है. देश के बढ़ते सैन्य-औद्योगिक क्षेत्र के लिए तो यह एक उपलब्धि है ही, सरकार की आत्मनिर्भरता मुहिम के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है. यही नहीं आर्थिक मोर्चे पर इससे समान सोच वाले देशों के साथ ठोस व्यापारिक साझेदारी की संभावना और मजबूत हुई है.
मौजूदा विश्व व्यवस्था और भारत दोनों के लिए यह एक अहम मोड़ है. भारत एक बड़ी उपलब्धि की दहलीज पर खड़ा है. न केवल अगली पांत की एक ऐसी आर्थिक शक्ति के रूप में जो एक बहुसांस्कृतिक लोकतंत्र भी है, बल्कि एक ऐसे जियो पॉलिटिकल प्लेयर के तौर पर भी, जो केवल संतुलन ही नहीं बनाता, नेतृत्व भी करता है. अगले कुछ वर्षों में नई दिल्ली जो फैसले करेगी, उनसे ही इस उत्कर्ष की रूपरेखा तय होगी.
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Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...
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