टास्क फ़ोर्स 3: LiFE, रेज़िलिएंस, एंड वैल्यूज़ फ़ॉर वेल-बींग
1.चुनौती
विश्व समुदाय ने भावी पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ संसार छोड़ने को लेकर अपनी प्रतिबद्धता का इज़हार किया है. जलवायु लक्ष्यों से लेकर नेट-ज़ीरो तक की महत्वाकांक्षाएं इसी बात का संकेत करती हैं. बहरहाल, इन प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए दृष्टिकोण में बदलाव लाना निहायत ज़रूरी है: उत्पादन और उपभोग के परंपरागत रेखाकार या लीनियर (linear) मॉडल यानी ‘टेक, मेक, डिस्पोज़’ को बदलकर इसकी जगह ‘मेक, यूज़, रियूज़ और रिसायकल’ की सर्कुलर व्यवस्था स्थापित किए जाने की दरकार है. ‘सर्कुलर अर्थव्यवस्था’ वाला दृष्टिकोण सामग्री प्रबंधन या मटिरियल मैनेजमेंट की दोहरी चुनौतियों को पूरा करने का लक्ष्य रखता है. ये चुनौती है- उत्पादकता बढ़ाना और पदार्थों के जीवनचक्र के हरेक चरण में उनके कार्बन निशान या फ़ुटप्रिंट में कमी लाना. सर्कुलर अर्थव्यवस्था का लक्ष्य चार मुख्य उद्देश्यों को हासिल करना है. इनमें अर्थव्यवस्था के भीतर चक्रीय रूप से प्रवाहित पदार्थों के मोल को अनुकूल या अधिकतम स्तर तक ले जाना; पदार्थों के उपभोग में कमी लाना, इस कड़ी में ख़ासतौर से अनछुए पदार्थों, ख़तरनाक सामग्रियों और कचरे के प्रवाह पर तवज्जो देना. इस सिलसिले में आगे दिए गए पदार्थ ख़ासतौर से चिंता का सबब बने हुए हैं- प्लास्टिक, खाद्य पदार्थ, बिजली और इलेक्ट्रॉनिक साज़ोसामान; कचरा निर्माण की प्रक्रिया को ख़त्म करना; और कचरे और उत्पादों में पाए जाने वाले ख़तरनाक घटकों की तादाद में कमी लाना. व्यापक अर्थव्यवस्था के स्तर पर सतत और टिकाऊ सिद्धांतों के क्रियान्वयन के साथ-साथ ज़िम्मेदारी भरा कारोबार, स्थानीय अर्थव्यवस्था, टिकाऊ टेक्नोलॉजी, कचरे के बग़ैर कार्यकुशलता,
ज़मीनी स्तर के लोकतंत्र, जवाबदेह सरकार और सामुदायिक स्वामित्व से जुड़े गांधीवादी सिद्धांत ऐसे कायाकल्प के मूल में स्थित हैं. इस पॉलिसी ब्रीफ़ में उत्पादन और उपभोग, दोनों में सर्कुलर अर्थव्यवस्था वाला दृष्टिकोण अपनाकर जीवनशैलियों को नया स्वरूप देने की दिशा में प्रस्ताव पेश किए गए हैं.
भौतिक सामग्रियों का घरेलू उपभोग
साल 2000 से 2019 के बीच वैश्विक घरेलू सामग्री उपभोग (DMC) में तक़रीबन 65 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई. 2019 में ये बढ़कर कुल 95.1 अरब मीट्रिक टन (या प्रति व्यक्ति 12.3 टन) हो गया. वैश्विक उपभोग का क़रीब-क़रीब 70 प्रतिशत हिस्सा पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में दर्ज किया गया. इस कालखंड में पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया में घरेलू सामग्री उपभोग में सबसे ज़्यादा बढ़ोतरी देखी गई. 2000 में इस क्षेत्र में वैश्विक घरेलू सामग्री उपभोग का आंकड़ा 31 प्रतिशत पर था जो 2019 में बढ़कर 43 प्रतिशत तक पहुंच गया. वैश्विक घरेलू सामग्री उपभोग में उभार के पीछे कई कारकों का हाथ बताया जा सकता है. इनमें जनसंख्या के ऊंचे घनत्व और औद्योगिकरण के साथ-साथ सामग्रियों भरी उत्पादन व्यवस्था की विकसित से विकासशील देशों में हुई आउटसोर्सिंग शामिल है.
संसाधनों की दक्षता और उत्पादकता में संतुलन बिठाना
दुनिया के ज़्यादातर देशों ने आर्थिक वृद्धि के लिए संसाधनों के उपभोग को अपनी विकास-यात्रा का मुख्य वाहक बनाकर रखा है. इसके चलते किसी राष्ट्र की आर्थिक और पर्यावरणीय प्राथमिकताओं में ट्रेड-ऑफ़ (एक में बढ़ोतरी से दूसरे में नुक़सान) पैदा हो जाता है. लिहाज़ा संसाधन दक्षता और उत्पादकता में संतुलन बिठाना एक भारी-भरकम चुनौती बन जाती है. उत्पादन या उपभोग के क्षेत्र के आधार पर सामग्रियों के स्वरूप में संसाधनों (कच्चे माल, ऊर्जा और अन्य प्राकृतिक संसाधन) के अलग-अलग आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव होते हैं.
पिछले पांच दशकों में वैश्विक संसाधन उपभोग 30 अरब टन से बढ़कर तक़रीबन 95 अरब टन तक पहुंच चुका है. इनमें से सिर्फ़ 9 प्रतिशत को दोबारा आर्थिक इस्तेमाल में वापस लाया जाता है. G20 देशों में उपभोग 19 अरब टन से बढ़कर 73 अरब टन हो चुका है. निरपेक्ष उपभोग में इस इज़ाफ़े के साथ-साथ वैश्विक उपभोग में भी G20 का हिस्सा बढ़कर 62 प्रतिशत से 74 प्रतिशत तक जा पहुंचा है.
उपभोग में बढ़ोतरी के रुझान से कई अन्य विकट समस्याएं (जैसे कचरा निर्माण और उसका प्रबंधन) पैदा हो गई हैं. विश्व बैंक के आकलनों के मुताबिक कचरा निर्माण का मौजूदा वैश्विक औसत प्रति व्यक्ति रोज़ाना 0.74 किलोग्राम है. ऊंची आय वाले देश दुनिया में पैदा होने वाले कचरे का तक़रीबन 34 प्रतिशत हिस्सा (68.3 करोड़ टन) पैदा करते हैं, हालांकि यहां विश्व की जनसंख्या का महज़ 16 फ़ीसदी हिस्सा निवास करता है. उधर, निम्न-आय वाले देश विश्व की कुल आबादी में 9 प्रतिशत का योगदान देते हैं लेकिन वहां वैश्विक कचरे के सिर्फ़ 5 प्रतिशत हिस्से (9.3 लाख टन) का निर्माण होता है.
चित्र 1: कचरा निर्माण, G20 के सदस्य देश (यूरोपीय संघ को छोड़कर; मिलियन टन सालाना)
स्रोत: व्हाट ए वेस्ट डेटाबेस, विश्व बैंक (2019)
परंपरागत रेखाकार (लीनियर) अर्थव्यस्था के साथ प्रतिस्पर्धा
सर्कुलर अर्थव्यवस्था के समर्थक लीनियर या रेखाकार अर्थव्यवस्था के किरदारों के साथ सीधी प्रतिस्पर्धा में हैं. सामग्री जीवन चक्र के हरेक चरण में उत्पादक और उपभोक्ता, दोनों ही पक्षों में ऐसी होड़ दिखाई देती है. इस प्रतिस्पर्धा में सबके लिए समान अवसर (level playing field) सुनिश्चित करने के लिए वित्तीय और तकनीकी सहायता की दरकार है. सर्कुलर इकोसिस्टम में हिस्सा लेने के लिए उत्पादकों और उपभोक्ताओं को समान रूप से प्रोत्साहित करने को लेकर क़ानून और नीतियां सुनिश्चित करनी होंगी. इसके साथ ही पूरक लीनियर प्रक्रियाओं को हतोत्साहित करने की भी दरकार पड़ेगी. हालांकि ये दोनों ही क़वायद पहाड़ चढ़ने जितनी मुश्किल है. उपभोक्ताओं के दायरे में खुदरा दुकानदार, थोक व्यापारी और सरकारी ठेकों का लेन-देन करने वाली संस्थाएं शामिल हैं. हालांकि इस समूह में कुछ अन्य किरदार भी जुड़े हुए हैं.
वित्त तक पहुंच
उत्पादकों के लिए वित्त तक पहुंच एक और चुनौती है, जिसके चलते सर्कुलर अर्थव्यवस्था प्रणाली में उत्पादन का चक्र अव्यावहारिक और आर्थिक तौर पर ग़ैर-टिकाऊ बन जाता है. दरअसल वित्तीय संस्थाओं को साख या ऋण देने के लिए गिरवी के तौर (collaterals) पर भंडार या बुनियादी ढांचों की दरकार होती है. सर्कुलर उत्पादन व्यवस्था में शामिल उद्यमी के पास ऐसे कोलैटरल्स का अभाव होता है. इतना ही नहीं, अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर अचानक झटके लगने से मांग के धराशायी हो जाने का भी जोख़िम रहता है. ज़ाहिर तौर पर सर्कुलर अर्थव्यवस्था के इकोसिस्टम में लगे किसी नए-नवेले कारोबार के लिए ऐसे हालात करो या मरो जैसे बन सकते हैं. मिसाल के तौर पर कोविड-19 महामारी के दौरान कई देशों ने प्रोत्साहन पैकेजों के ज़रिए “ग्रीन रिकवरी” की वचनबद्धता जताई. इन पैकेजों में से अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के उपायों के तौर पर घोषित किए गए क़दमों का एक छोटा हिस्सा (कुल कोष का लगभग 1 प्रतिशत) संसाधन कुशलता और कचरा प्रबंधन के निपटारे के लिए था.
टेक्नोलॉजी तक पहुंच
टेक्नोलॉजी के मोर्चे पर सीमित विकल्प और प्रौद्योगिकी को अपनाने की निम्न दर के चलते उत्पादन के तौर-तरीक़ों में कार्बन-मुक्त तकनीकों को शामिल करना विनिर्माताओं के लिए घाटे का सबब बन गया है. इससे विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्थाओं के रास्ते की रुकावटें और बढ़ जाती हैं. इन देशों के उत्पादों को आयात प्रतिस्पर्धा की क़ीमत चुकानी होती है. ‘प्रगतिशील सतत उत्पादन’ से जुड़ी नीतियों के चलते ऐसा होता है. इनमें यूरोपीय संघ का कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज़्म भी शामिल है. टेक्नोलॉजी को अपनाए जाने की नीची दर उद्योगों, शिक्षण संस्थाओं और वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं के साथ-साथ नीति-निर्माताओं के बीच एकीकरण के अभाव से जुड़ी हुई है.
उद्योग जगत मांग के वाहक के तौर पर महत्वपूर्ण है जबकि शिक्षण संस्थाएं और प्रयोगशालाओं में शोध और विकास को बढ़ावा दिया जाता है. इसी तरह नीति-निर्माता टेक्नोलॉजी के उपलब्ध विकल्पों की आपूर्ति और मांग से जुड़ी क़वायदों को सुचारू रूप देते हैं.
2.G20 की भूमिका
G20 के देश विश्व में सामग्रियों के कुल इस्तेमाल में तक़रीबन 75 प्रतिशत का योगदान देते हैं, जबकि वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों में इनका हिस्सा 80 प्रतिशत है. ऐसे में ज़ाहिर है कि ये देश सर्कुलर अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाएंगे. भारत ने COP-26 (2021 में ग्लासगो में संपन्न संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन) में पर्यावरण के लिए जीवनशैली यानी LiFE का मंत्र दिया था. सर्कुलर अर्थव्यवस्था के विचार के साथ भारत के इस प्रस्ताव को जोड़े जाने से भी ज़िम्मेदारियों और सिद्धांतों का एक समूह सामने आ सकता है. G20 देशों के नागरिक इन सिद्धांतों को अपनाकर वैश्विक मूल्य श्रृंखला में योगदान दे सकते हैं. मूल्य श्रृंखला में नई जान फूंककर और व्यक्तिविशेष के नैतिक आचरण को नई दिशा दिए जाने से टिकाऊ जीवनशैलियों को अपनाए जाने की क़वायद में मदद मिल सकती है.
सर्कुलर अर्थव्यवस्था, एक ऐसा ही दृष्टिकोण है जिसे नीति-निर्माता आगे बढ़ा सकते हैं. यहां तक कि सामग्री संसाधनों के उपभोक्ता भी LiFE के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए इसे अपना सकते हैं. G20 के कई देशों ने सामग्रियों के सतत प्रबंधन, संसाधन उत्पादकता और सर्कुलर अर्थव्यवस्था को लेकर घरेलू योजनाओं के निर्माण की गतिविधियां शुरू कर दी है. 2017 से ही G20 ने चर्चा के विषय के तौर पर संसाधन दक्षता को शामिल कर रखा है. साथ ही नीतिगत अनुभवों और बेहतरीन अभ्यासों को साझा करने के लिए G20 हर साल संसाधन दक्षता संवादों की मेज़बानी भी करता आ रहा है. भविष्य में G20 संसाधन कुशलता और सर्कुलर अर्थव्यवस्था के क्षेत्रों में अपनी गठजोड़कारी क़वायदों को और आगे बढ़ा सकता है.
कच्चे मालों के लिए टिकाऊ स्रोत बनाना
G20 की अध्यक्षता भारत के लिए संसाधन उपभोग और सामग्री निर्माण के क्षेत्र में सर्कुलर अर्थव्यवस्था के एजेंडे को आगे बढ़ाने का अच्छा अवसर है. LiFE नीचे से ऊपर की ओर प्रवाह (bottom-to-top) वाला एक अहम दृष्टिकोण है. इसमें अंतिम उपभोक्ताओं की हिस्सेदारी बनाने की गुंजाइश मौजूद है, ताकि वो राष्ट्रव्यापी और वैश्विक मसलों में योगदान दे सके. इसके साथ ही दूसरे किरदारों द्वारा भी सर्कुलर अर्थव्यवस्था के एजेंडे में योगदान दिए जाने की ज़रूरत और अवसर मौजूद हैं. कच्चे मालों के दोहन और सामग्री उत्पादन के कार्य में लगे कारोबारों द्वारा इस दिशा में सबसे अहम भूमिका निभाए जाने की दरकार है. संसार के अलग-अलग हिस्सों में सरकारों ने टिकाऊ कच्चे मालों के इस्तेमाल की ओर रुख़ करने को लेकर कई तरह के कार्यक्रम शुरू कर रखे हैं. प्रमुख रूप से ऊर्जा के क्षेत्र में ये प्रयास दिखाई दे रहे हैं. कारोबार जगत को अपनी मूल्य श्रृंखलाओं को हरित जामा पहनाने के लिए भी अपने-अपने कार्यक्रम तैयार करने चाहिए. इसके लिए प्रोत्साहन दोहरे स्वरूप वाले हो सकते हैं. जैसे- ब्रांड तैयार करना और आर्थिक. धातुओं पर आधारित वस्तुओं के निर्माण की मौजूदा क़वायद से धीरे-धीरे दूर हटने की ज़रूरत है. एक मज़बूत जैविक-आर्थिक इकोसिस्टम खड़ा करना भविष्य के लिहाज़ से ज़रूरी लक्ष्य बन सकता है. इनमें जैविक आधार वाले कच्चे माल, प्रॉसेसिंग टेक्नोलॉजी और मूल्य वर्धन शामिल हैं.
पर्यावरण के लिए डिज़ाइन (DfE)
अक्सर उत्पादों की संरचना बनाते वक़्त उनकी क्रियाशीलता, प्रयोगकर्ताओं के हिसाब से अनुकूलता और सुंदरता जैसे विचारों को ही ध्यान में रखा जाता है. ऐसे में पर्यावरण के लिए डिज़ाइन का विचार एक अतिरिक्त पहलू को भी ज़ेहन में रखता है. वो ये है कि तैयार उत्पाद की संरचना पर्यावरण के हिसाब से अनुकूल हो. उत्पादों के विश्लेषण की क़वायद में अक्सर डिज़ाइन को कम करके आंका जाता रहा है और इसके बारे में बहुत कम बातें होती रही हैं. उत्पाद की डिज़ाइन का सामग्री के संघटन से परे पर्यावरण के लिए बेहद अहम प्रभाव हो सकता है. लंबे अर्से तक चलने वाली, आसानी से नष्ट हो जाने वाली और सरलता से निबटारा कर दिए जा सकने वाली संरचनाएं टिकाऊ उत्पाद के अहम पहलुओं में शुमार हैं. इतना ही नहीं, उत्पाद मूल्य श्रृंखला का बढ़ा हुआ टिकाऊपन पर्यावरण के लिए संरचना बनाए जाने के तौर पर जाना जाता है. इनमें सतत श्रोतों का इस्तेमाल और हरित कच्चे मालों का प्रयोग शामिल है.
उत्पादों और प्रक्रियाओं का जीवन चक्र आकलन (LCA) एक ऐसा उपकरण है जो उत्पादकों को अपने उत्पादों की संरचना बनाने में मददगार साबित हो सकता है. इसकी सहायता से ऐसे उत्पाद तैयार किए जा सकते हैं जो पर्यावरण के अनुकूल हों. LCA के तहत उत्पाद के समूचे जीवन चक्र में हरेक चरण के पर्यावरणीय भार का आकलन किया जाता है. जीवन चक्र आकलन जैसे औज़ारों का प्रयोग उत्पाद के बाज़ार में पहुंचने पर नुक़सान की भरपाई करने की क़वायदों को समय से पहले ही ख़त्म कर सकता है. पर्यावरण पर कम बोझ डालने वाले उत्पादों को ही आख़िरकार बाज़ार तक पहुंचने दिया जाना चाहिए. इस सिलसिले में G20 के देश अगुवा भूमिका निभा सकते हैं. वो ऐसी जानकारियों को सामने लाकर उन तक आसानी से पहुंच सुनिश्चित कर सकते हैं. साथ ही इसके उपयोग को इस प्रकार प्रोत्साहित कर सकते हैं जिससे उत्पादक और उपभोक्ता दोनों प्रमाण-आधारित फ़ैसले ले पाएं.
चुनौतियों को अवसरों में बदलना
बढ़ते शहरीकरण और जीवन स्तरों में इज़ाफ़े के साथ शहरों में सामग्रियों के इस्तेमाल में भारी बढ़ोतरी होती जाएगी. पूर्वानुमान के मुताबिक साल 2050 तक विश्व की कुल आबादी का 55 प्रतिशत हिस्सा शहरों में निवास कर रहा होगा. फ़िलहाल दुनिया में कुल ऊर्जा उपभोग में शहरों का हिस्सा तक़रीबन दो तिहाई है, नगरों में 50 प्रतिशत तक ठोस कचरा पैदा हो रहा है और वो ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों के 70 प्रतिशत हिस्से के लिए ज़िम्मेदार हैं. सिर्फ़ शहरी स्तर पर ही भौतिक पदार्थों का उपभोग 2050 तक बढ़कर 90 अरब टन हो जाने के आसार हैं. 2010 में ये उपभोग 40 अरब टन के स्तर पर था. इस बढ़ोतरी के पीछे मुख्य वाहक उभरती अर्थव्यवस्थाओं में इमारतों के निर्माण के काम आने वाली ज़रूरी सामग्रियां (construction materials) होंगी.
लिहाज़ा लीनियर अर्थव्यवस्था से सर्कुलर अर्थव्यवस्था की ओर रुख़ करने में शहरों की बेहद अहम भूमिका है.
शहरों के पास संसाधन दक्षता और सर्कुलर अर्थव्यवस्था की अहम क्षमताएं मौजूद हैं. इनमें कचरा प्रबंधन और रिसायक्लिंग, शहरी परिवहन, पानी की आपूर्ति और स्वच्छता, भूमि का इस्तेमाल और स्थान (spatial) से जुड़ी प्लानिंग शामिल हैं.
आम तौर पर इन सेवाओं को स्थानीय शहरी निकायों के स्तर पर संभाला जाता है. ऐसे में सर्कुलर अर्थव्यवस्था के नज़दीक पहुंचने के लिए संसाधन दक्षता के उप-राष्ट्रीय और राष्ट्रीय कार्यक्रमों के साथ शहरी निकायों की क़वायदों को जोड़ना अहम हो जाता है.
3.G20 के लिए सिफ़ारिशें
इस पॉलिसी ब्रीफ़ में सर्कुलर अर्थव्यवस्था से जुड़े दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने में G20 से अगुवा भूमिका निभाने की सिफ़ारिश की जाती है. ये उत्पादन और उपभोग के लीनियर तौर-तरीक़ों को मोड़ सकता है. चार क्षेत्रों में आर्थिक और सामाजिक ढांचों में ऐसे बदलावों के लिए विश्व स्तर पर सलाहकारी व्यवस्था की दरकार है:
क. कचरा-मुक्त जीवनशैलियों को बढ़ावा देने को लेकर व्यवहारों में उपभोक्ता की ओर लक्षित बदलाव लाने के लिए भागीदारियां बनाना और स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर काम करना
सर्कुलर अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों को आगे बढ़ाने का एक स्तंभ है- कच्चे मालों के स्थानीय आपूर्तिकर्ताओं को साथ जोड़ना. स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर काम करना भी बेहद ज़रूरी है. घरेलू, क्षेत्रीय और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलों में कचरा-मुक्त जीवनशैलियों को बढ़ावा देने के लिए भागीदारियों का निर्माण आवश्यक है. इसी के ज़रिए उत्पादकों और उपभोक्ताओं में समान रूप से जीवनशैली बदलाव की प्रेरणा डाली जा सकती है. कचरा-मुक्त जीवनशैली संसाधनों के संरक्षण का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ती है. ज़िम्मेदार उत्पादन, उपभोग, दोबारा इस्तेमाल और उत्पादों की रिकवरी और पैकेजिंग इस क़वायद के प्रमुख साधन हैं. इनके अलावा बिना कुछ जलाए और ज़मीन, पानी और हवा में कुछ प्रवाहित किए बिना उत्पादन करना भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है. इससे पर्यावरण और मानवीय स्वास्थ्य को पहुंचने वाले ख़तरों की रोकथाम हो सकेगी. कचरा मुक्त स्टोर्स वस्तुओं की संरचना और प्रबंधन के साथ-साथ उनकी प्रॉसेसिंग पर ज़ोर देते हैं, ताकि कचरे और सामग्रियों की मात्रा और ज़हरीलेपन पर लगाम लगाई जा सके.
वैसे तो ये रुझान लगातार लोकप्रियता हासिल करता जा रहा है, टिकाऊ या सतत ख़रीदारी की व्यापक परिकल्पना के साथ इसकी प्रासंगिकता अब भी एक आला विचार है. नीति-निर्माताओं द्वारा ये सुनिश्चित किए जाने की दरकार है कि तमाम क्षेत्रों के बीच प्रभावी गठजोड़ और सार्वजनिक-निजी भागीदारियों से और ज़्यादा स्टोर्स के विकास को सुगम बनाया जाए. वो समुदायों के स्तर पर भी व्यवहार संबंधी बदलाव लाने में मदद कर सकते हैं. इस सिलसिले में अन्य बातों के साथ-साथ ‘अपना थैला ख़ुद लाएं’ जैसी नीतियों के ज़रिए पैकेजिंग से जुड़े अनचाहे कचरों में कमी सुनिश्चित की जा सकती है. इन स्टोर्स को वित्तीय, तकनीकी और व्यापक स्तर पर सहारा दिए जाने की दरकार है ताकि ख़रीदारी के पारंपरिक विकल्पों के मुक़ाबले इनकी प्रतिस्पर्धिता सुनिश्चित हो सके.
ख. पूरे जीवनकाल तक उपयोगी बनाए रखने के लिए उत्पादों की इको-लेबलिंग और डिज़ाइन की मानकीकृत व्यवस्था तक पहुंचने के लिए काम करना.
निरंतरता को बढ़ावा देने और उपभोक्ताओं और विनिर्माताओं, दोनों द्वारा ज़िम्मेदार बर्ताव को प्रोत्साहित करने के लिए उत्पादों की इको-लेबलिंग एक अहम औज़ार है. अन्य विकल्पों की जगह हरित विकल्प चुनने की ओर पहला क़दम है- “पर्यावरण के हिसाब से पसंदीदा” उत्पादों की जानकारी रखना. ऐसे में स्वैच्छिक और अनिवार्य लेबलिंग की मिली-जुली क़वायद को अंजाम दिया जाना चाहिए. स्वैच्छिक लेबलिंग के तहत तमाम स्वैच्छिक सर्वसम्मति निकायों यानी वॉलेंटरी कंसेंसस बॉडीज़ (VCS) द्वारा अनेक प्रकार के परीक्षणों, मानकों, विशिष्टताओं और शब्दावलियों का विकास किए जाने की दरकार है. इसके लिए उन प्रक्रियाओं का इस्तेमाल किया जाना चाहिए जिनमें बचावकारी उपाय शामिल हों. इससे ये सुनिश्चित हो सकेगा कि मानकों के विकास की प्रक्रिया इसमें दिलचस्पी लेने वाले सभी पक्षों के लिए खुली हो. इस सिलसिले में संबंधित पक्षों के व्यापक समूह द्वारा दिए गए सुझावों और सामने रखे गए दृष्टिकोणों पर विचार किए जाने और उनके साथ न्यायपूर्ण बर्ताव किए जाने की दरकार है.
इसी तरह अनिवार्य लेबलिंग में उत्पाद डिकोडिंग के ज़्यादा विस्तृत स्वरूप शामिल होंगे. इनको लागू किए जाने की क़वायद के बारे में उपभोक्ताओं को पूरी तरह से जागरूक किए जाने की ज़रूरत पड़ेगी. जिन संकेतकों की बुनियाद पर पसंद को रेटिंग दी जाएगी, उनका विस्तृत ब्योरा दिए जाने की आवश्यकता है. ऐसे क़दम पर होने वाले सार्वजनिक विमर्श में नागरिकों, उत्पादकों और उपभोक्ताओं को जोड़ने की क़वायद में नीति-निर्माताओं के कंधों पर भारी ज़िम्मेदारी है.
ग. जानकारियां साझा करने और सर्कुलर अर्थव्यवस्था में स्टेकहोल्डर्स को सहारा देने के लिए प्लेटफ़ॉर्म तैयार करना.
कारोबारों, सरकारों और शिक्षण संस्थानों के बीच नेटवर्क स्थापित करने से सहयोग को बढ़ावा मिल सकता है. इससे बुनियादी बदलावों को प्रोत्साहित भी किया जा सकता है. सस्ती टेक्नोलॉजी के अभाव के चलते सर्कुलर अर्थव्यवस्था की संभावनाएं और उनकी व्यावहारिकता भारी चुनौती बन गई है. उद्योग और शिक्षा जगत के बीच शोध और विकास भागीदारियां क़ायम करके इस पहाड़ जैसी चुनौती से पार पाया जा सकता है. सरकारों और शोध संस्थानों को उद्योग जगत के साथ गठजोड़ करना चाहिए. इससे नवाचारों को व्यावहारिक कारोबारी मॉडलों में बदल पाना मुमकिन हो सकेगा.
सूक्ष्म, लघु और मझौले उद्यमों (MSMEs) के लिए सहायता संगठन इस बदलाव का मार्गदर्शन करते हुए इसे सुगम बना सकते हैं. शिक्षा जगत, नीति-निर्मातों और संभावित निवेशकों/वित्त प्रदाताओं के बीच गठजोड़ को आगे बढ़ाकर इस क़वायद को अंजाम दिया जा सकता है.
अलग-अलग क्षेत्रों में भागीदारियों और तमाम स्टेकहोल्डर्स (जैसे MSMEs, सरकार, शहरी स्थानीय निकायों, ग़ैर-सरकारी संगठनों और उपभोक्ताओं) के बीच हिस्सेदारी को आगे बढ़ाना चाहिए. समूची आपूर्ति श्रृंखला में असंगठित क्षेत्र के एकीकरण को भी साथ जोड़कर एकजुट करना चाहिए. इनमें विनिर्माण की अनाधिकृत इकाइयां, अनौपचारिक तौर पर कचरा उठाने वाले लोग, व्यापारी और प्रॉसेसर्स शामिल हैं.
घ. सतत उपभोग और उत्पादन (SCP) की दिशा में गतिविधियों को सुचारू रूप देने के लिए वित्तीय तंत्र तैयार करना.
सूक्ष्म, लघु और मझौले उद्यमों के लिए निर्यात बाज़ारों में वित्त और बीमा व्यवस्थाओं तक पहुंच सुनिश्चित करना और इन्हें लक्षित वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना ज़रूरी है. सर्कुलर अर्थव्यवस्था की श्रृंखला के हिस्से के तौर पर या लीनियर से सर्कुलर अर्थव्यवस्था की और आगे बढ़ते उद्यमों के रूप में इन्हें ऐसी मदद पहुंचाया जाना आवश्यक है. सामग्री जीवन चक्र के हरेक चरण में डिजिटल औज़ारों का उपयोग किए जाने से किसी उत्पाद से जुड़े निशान या फ़ुटप्रिंट के बारे में फ़ीडबैक मुहैया कराने में मदद मिलेगी. इससे ना सिर्फ़ किसी भी प्रकार की स्वैच्छिक या अनिवार्य अनुपालना, बल्कि उत्पाद का बिकाऊपन (marketablity) भी सुनिश्चित हो सकेगा. लक्षित उपभोक्ताओं को इको-फ़्रेंडली विकल्प की ख़रीद के बारे में संवेदनशील और जागरूक बनाकर ऐसी कामयाबी हासिल की जा सकती है.
एट्रिब्यूशन: सुकृत जोशी और त्रिनयना कौशिक, “फ़्रॉम लीनियर टू सर्कुलर: पाथवेज़ फ़ॉर सस्टेनेबल लाइफ़स्टाइल्स”, T20 पॉलिसी ब्रीफ़, मई 2023.
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[2] Collated by the authors from Mahatma Gandhi’s autobiography, The Story of My Experiments with Truth.
[3] UN DESA. The Sustainable Development Goals Report 2022. (New York: UN DESA, 2022), 50-51.
[4] UN DESA. The Sustainable Development Goals Report 2022, 50-51.
[5] UNEP IRP. The Weight of Cities: Resource Requirements of Future Urbanization. (Nairobi: United Nations Environment Programme, 2018), chap. 2, 40-42.
[6] Kaza et al., What a Waste 2.0: A Global Snapshot of Solid Waste Management to 2050, (Washington, DC: World Bank, 2018), chap. 2, 18-24.
[7] SEED. Fostering the Circular Economy: Role of MSMEs. (Berlin: SEED, 2021), chap. 3, 13-15.
[8] OECD. Towards a more Resource Efficient and Circular Economy. (Paris: OECD Publishing, 2021), 4-5.
[9] OECD, Towards a more Resource Efficient and Circular Economy, 7-8.
[10] OECD/European Commission. Cities in the World: A New Perspective on Urbanisation. (Paris: OECD Publishing, 2020), chap. 1, 15-17.
[11] IEA. Energy Technology Perspectives 2016. (Paris: IEA, 2016), part 2, chap. 3, 140-143.
[12] UNEP IRP. The Weight of Cities: Resource Requirements of Future Urbanization, chap. 2, 40-42.
[13] “How Communities Have Defined Zero Waste.” Managing and Transforming Waste Streams- A Tool for Communities. US EPA. Last updated on October 26, 2022.
[14] “Introduction to Ecolabels and Standards for Greener Products.” US EPA. Last updated on September 12, 2022.
[15] OECD. Promoting Sustainable Consumption: Good practices in OECD countries. (Paris: OECD Publishing, 2008).
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