Author : Harsh V. Pant

Published on Jul 06, 2024 Commentaries 0 Hours ago

भारत को लेकर लेबर और कंजर्वेटिव में मतभेद रहा करते थे लेकिन, स्टार्मर ने इस अंतर को दूर कर दिया है जो भारत के लिए शुभ संकेत है.

ब्रिटेन में विपरीत दिशा में आए चुनाव परिणाम

ब्रिटेन में समय पूर्व चुनाव कराने का प्रधानमंत्री सुनक का दांव इस कदर उल्टा पड़ जाएगा, इसका अंदेशा संभवतः उनको भी नहीं होगा. वह मानकर चल रहे थे कि चुनावी समर में वह न सिर्फ कंजर्वेटिव पार्टी को उबार पाएंगे, बल्कि जनता में अपनी छवि भी सुधार सकेंगे. मगर शुक्रवार को आए चुनाव नतीजों में उन्हें बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी है. बोते 14 वर्षो से कंजर्वेटिव सत्ता में थी, लेकिन इस बार स्टार्मर के नेतृत्व में लेबर पार्टी ने उसे एतिहासिक मात दी है. इतना ही नही निजेल फराज़ की पार्टी ‘रिफार्म यूके’ का उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन या स्कॉटलैंड में स्कॉटिश नेशनल पार्टी की हार भी ब्रिटिश राजनीति में आये आमूल चुल बदलाव के संकेत दे रही है.

प्रधानमंत्री सुनक ने हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया है. मगर देखा जाये तो वह कंजर्वेटिव पार्टी का बोझ ही ढो रहे थे. बेशक पार्टी को मात मिली है लेकिन सुनक को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराना ज़ल्दबाजी होगी. इस हार के कई कारण है.

सत्ता विरोधी रुझान

ब्रिटेन में दरअसल सत्ता परिवर्तन का एक लंबा चक्र चलता रहा है. मसलन 1979 से 1997 तक वहां कंजर्वेटिव का शासन रहा, फिर लेबर पार्टी सत्ता में आई. वह 2010 तक सरकार चलती रही, जिसके बाद कंजर्वेटिव को फिर से ताज मिला. यही कारण था की चुनाव से पहले ही लेबर पार्टी के सत्ता में लौटने का अनुमान लगाया जा रहा था. हां इतनी भारी जीत का आकालन शायद ही था.

प्रधानमंत्री सुनक ने हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया है. मगर देखा जाये तो वह कंजर्वेटिव पार्टी का बोझ ही ढो रहे थे.

कंजर्वेटिव पार्टी की आन्तरिक समस्या

इसे पार्टी ऑफ़ गवर्नेन्स कहा जाता है. यानी यह शासन करने के लिए बनी है, पर इसमें अनुशासन का अभाव स्पष्ट दिखा. पार्टी की असल कमान किसके हाथों में है यह शायद ही किसी को पता था. साल 2019 से सरकार चलाने वाले बोरिस जॉनसन और लीज़ ट्रस जैसे प्रधानमंत्री तमाम तरह के आरोपों में घिरे, जिसके बाद ऋषि सुनक को बतौर क्षतिपूर्ति लाया गया. उन्होंने कोशिश जरुर की लेकिन उनके पास उतना समय नहीं था कि वह पार्टी की पुरानी गलतियों को सुधार सकें. नतीजतन पार्टी न ढंग से शासन कर सकी और न चुनाव जितने के लिए ज़रूरी योजनाओं पर अमल कर सकी.

नीतिगत चूक

जनवरी 2020 में यूरोपीय संघ से बाहर निकलने और कोविड के बाद सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था को संभालने में पार्टी बुरी तरह नाकाम रही. उनका रहन सहन खर्चीला होता जा रहा है, स्वास्थ्य योजनाए ठीक से काम नहीं कर रही है, और सरकार जन-समस्याओं को दूर करने के बजाय अंदरूनी मुश्किलों में उलझी हुई है. हालाँकि सुनक के आने के बाद वहां की आर्थिक कुछ हद तक पटरी पर लौटती दिखीं, लेकिन प्रधानमंत्री के प्रयास लोगों का भरोसा जितने में नाकाफ़ी साबित हुए.

एक तरफ सुस्त अर्थव्यवस्था लोगों की परेशानी का कारण बनी हुई थी दूसरी तरफ अन्य देशों से आ रहे प्रवासी एक बड़ी समस्या थी. सुनक ने भी माना ब्रिटेन में आव्रजन दर अधिक है, जिसे कम करने के लिए ज़रूरी कदम उठाये जाने चाहिए. मगर लगता है उनकी बाते जनता पर असर नहीं डाल सकीं. लिहाज़ा, उनकी आर्थिक नीतियों से खफ़ा लोगों ने लेबर पार्टी पर भरोसा जताया, तो आप्रवासन के मसले पर आक्रामक निजेल फ़राज़ की पार्टी ‘रिफॉर्म यूके’ ने कंजर्वेटिव के वोट हड़पे.

स्टार्मर ने कहा भी है कि दोनों देशों के रिश्तों पर इतिहास की छाया रही है. इसे दूर करते हुए ‘नए भारत’ के साथ आगे बढ़ने पर जोर दिया जायेगा.

रही बात लेबर पार्टी की, तो इसके लिए यही कहा जाता है इसमें अनुशासन का अभाव रहत है, लेकिन स्टार्मर के नेतृत्त्व में इस दल ने खुद को साबित किया है. स्टार्मर ने सबसे पहले वाम नीतियों की ओर बढ़ चली अपनी पार्टी को मध्यममार्ग पर लौटाया और फिर यहूदी समाज के साथ भेदभाव करने संबंधी धरना मिटाई. पार्टी ने अपने लोगो पर भी कार्रवाई की, जिससे जनता में इसकी छवि सुधरी. चुनाव अभियान के दौरान इसने कंजर्वेटिव पार्टी की नीतियों पर हमला बोला, लोगों की जीवनशैली को बेहतर बनाने का आश्वाशन दिया व सुशासन एवं निवेश की जोरदार वकालत की. संगठनात्मक बदलाव का भी नतीजा रहा कि पार्टी को इतनी भारी जीत मिली है. दिलचस्प बात यह है कि ऐसे वक्त में दक्षिणपंथी राजनीति अपना आधार बढ़ा रही है, ब्रिटेन ने वामपंथ की ओर झुकाव रखने वाली मध्यममार्गी पार्टी पर अपना भरोसा जताया है. यह ब्रेग्जिट के दिनों की पुनरावृति जैसी है, क्योंकि जब ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के लिए तत्पर था, तब सभी यूरोपीय देश संघ की एकजुटता की वकालत किया करते थे. हालांकि ब्रिटेन में रिफार्म यूके की जीत का मतलब यही है किदक्षिणपंथी का आधार अब भी व्यापक है और शायद कंजर्वेटिव का उस पर अब उतना दावा नहीं रहा. ऐसे में नज़र इस बात पर भी बनी रहेगी कि कंजर्वेटिव नेता इस हार से क्या सबक लेते है.

बहरहाल लेबर पार्टी के सत्तासीन होने के बाद शायद ही ब्रिटेन की विदेश नीति में बहुत बड़ा बदलाव हुआ होगा. ऐसा इसलिए क्योंकि कंजर्वेटिव की विदेश नीतियों को कमोबेश उसने मंजूरी दी थी. चाहे ब्रेग्जिट के बाद ‘ग्लोबल ब्रिटेन यानी बाकी दुनिया से राब्ता रखने संबंधी नीतियों का मसला हो या हिंद प्रशांत में ब्रिटेन की भूमिका का या फिर अमेरिका से रिश्ते, इन सबमें निरन्तरता बनी रहने की सम्भावना अधिक है. इसी कारण भारत से बनी नीतियों में शायद ही कोई फेरबदल हो. दोनों देशों के बिच मुक्त व्यापार समझौता एक बड़ा मसला है, जिसमें कंजर्वेटिव पार्टी विशेष रूचि ले रही थी, पर किसी कारणवश हो नहीं सका है. चूँकि बतौर विपक्ष लेबर पार्टी ने भी इसकी हामी भरी थी, इसलिए उम्मीद है यह समझौता जल्द साकार होगा. पार्टी ने कहा भी वह सुनिश्चित करेगी कि ब्रेग्जिट बेहतर तरीके से काम करें, यूरोपीय संघ के साथ नया समझौता हो और अन्य देशों के साथ रिश्तों में गति मिले.

जाहिर है भारत के साथ सामरिक संबंध की और मजबूत किया जा सकता है. स्टार्मर ने कहा भी है कि दोनों देशों के रिश्तों पर इतिहास की छाया रही है. इसे दूर करते हुए ‘नए भारत के साथ आगे बढ़ने पर जोर दिया जायेगा. दिलचस्प बात यह है कि पहले भारत को लेकर लेबर और कंजर्वेटिव में मतभेद रहा करते थे लेकिन, स्टार्मर ने इस अंतर को दूर कर दिया है जो भारत के लिए शुभ संकेत है.


यह लेख मूल रूप से हिन्दुस्तान में प्रकाशित हो चूका है

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