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माओवादियो के ख़िलाफ़ हाल में चलाए गए सफल अभियानों के बावजूद, सरकार और उसके सुरक्षा बलों को राज्य में मज़बूती से अपने पांव जमाने चाहिए, और इसके साथ साथ उग्रवादियों के साथ शांति के लिए बातचीत के दरवाज़े भी खोलने चाहिए.
16 अप्रैल को सुरक्षा बलों ने छत्तीसगढ़ के कांकेर (बस्तर डिवीज़न) में 29 तथाकथित माओवादियों को मार गिराया था. कांकेर में ये संयुक्त अभियान सीमा सुरक्षा बल और कांकेर के ज़िला रिजर्व गार्ड (DRG) की टीमों ने चलाया था. इसे 2000 में छत्तीसगढ़ के गठन के बाद से माओवादियों के ख़िलाफ़ अब तक का सबसे सफल अभियान बताया जा रहा है. इस मुठभेड़ में मारे गए 29 उग्रवादियों में से दो बड़े माओवादी ललिता और शंकर, बस्तर की डिविज़ल कमेटी के सदस्य थे. ये अटकलें भी लगाई जा रही हैं कि कांकेर में हुई इस मुठभेड़ में सीपीआई-माओवादी की पूरी की पूरी परतापुर क्षेत्रीय समिति का सफाया हो गया है.
इस मुठभेड़ से एक पखवारे पहले (30 अप्रैल) DRG और स्पेशल टास्क फोर्स ने एक और सफल अभियान चलाते हुए नारायणपुर और कांकेर ज़िलों की सीमा के पास 20 माओवादियों को मार गिराया था. मारे गए उग्रवादियों में से दो तो डिविज़नल कमेटी के प्रमुख सदस्य थे. इससे पहले 3 अप्रैल को चलाए गए एक और कामयाब संयुक्त अभियान के दौरान DRG, स्पेशल टास्क फोर्स और केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF) की विशेष कोबरा इकाई ने छत्तीसगढ़ के बीजापुर में 13 तथाकथित माओवादियों का सफाया कर दिया था. इससे भी एक सप्ताह पहले (27 मार्च को) DRG, CRPF और CoBRA के जवानों ने बीजापुर के चिपुरभट्टी में 6 उग्रवादियों को मार गिराया था. इस तरह 2024 में जनवरी से अप्रैल के दौरान सीपीआई-माओवादी संगठन के ख़तरनाक माने जाने वाले उग्रवादियों को सुरक्षा बलों के हाथों तगड़े झटके लगे हैं.
चार महीनों के अंतराल में छत्तीसगढ़ में रिकॉर्ड 91 माओवादी मारे जा चुके हैं, जिनमें से कई तो बड़े कमांडर थे. इन आंकड़ों की तुलना 2023 से करें, तो पूरे एक साल के दौरान केवल 23 माओवादी मारे गए थे.
चार महीनों के अंतराल में छत्तीसगढ़ में रिकॉर्ड 91 माओवादी मारे जा चुके हैं, जिनमें से कई तो बड़े कमांडर थे. इन आंकड़ों की तुलना 2023 से करें, तो पूरे एक साल के दौरान केवल 23 माओवादी मारे गए थे. संक्षेप में कहें तो, इस बात के सभी संकेत दिख रहे हैं कि जहां तक बाद माओवादियों पर सुरक्षा बलों के दबदबे की है, तो 2024 का साल पिछले तमाम वर्षों के रिकॉर्ड तोड़ने जा रहा है. इस तरह, क्या हम ये कह सकते हैं कि माओवादियों से मुक़ाबले के मामले में छत्तीसगढ़ ने हवा का रुख़ मोड़ दिया है? क्या सरकार माओवादियों के ऊपर ऐसी बढ़त हासिल कर ली है, जिसे अब पीछे धकेला नहीं जा सकेगा?
वैसे तो पिछले एक दशक के दौरान वामपंथी उग्रवादी हिंसा से प्रभावित ज़्यादातर राज्यों में हिंसक घटनाओं में काफ़ी कमी आ गई है (आंकड़े देखें). लेकिन, छत्तीसगढ़ अभी भी सीपीआई-माओवादियों का एक बड़ा गढ़ बना हुआ है. अभी ज़्यादा पुरानी बात नहीं है, जब राज्य के (27 में से) 18 ज़िले उग्रवादी संगठनों के प्रभाव में थे. दंतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर, बस्तर और कांकेर तो अभी भी माओवादी हिंसा से सबसे ज़्यादा प्रभावित ज़िले कहे जाते हैं. यहां याद रखने वाली बात है कि ज़्यादा दिन नहीं बीते, जब माओवादियों ने कई बड़े हमले किए थे. मसलन 2010 में माओवादी हमले में CRPF के 76 जवानों की नृशंस हत्या कर दी गई थी. वहीं, 2013 में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी के लगभग समूचे नेतृत्व का सफाया कर दिया गया था.
हालांकि, वर्षों तक टाल-मटोल करने और नीतिगत दुविधाओं के बाद, ख़ास तौर से विवादित सलवा जुड़ुम (स्थानीय लोगों की निगरानी वाली पहल) के बाद, हाल के वर्षों में छत्तीसगढ़ की सरकारों ने माओवादियों से मुक़ाबला करने और उनके बढ़ते प्रभाव क्षेत्र को सीमित रखने के मामले में बड़ी दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया है. शुरुआत इस बात से हुई कि छत्तीसगढ़ की सरकार ने आंध्र प्रदेश के ग्रेहाउंड मॉडल को अपनाते हुए अपने पुलिस बल में बड़े पैमाने पर इज़ाफ़ा किया, और विशेष बलों की एक नई बटालियन (जो CoBRA के नाम से मशहूर है) खड़ी की. अहम बात ये है कि छत्तीसगढ़ की तमाम सरकारों ने मानव विकास के अहम सूचकांकों में निवेश करके ये दिखाया है कि माओवाद की चुनौती से निपटने के मामले में उन सबके बीच आम सहमति है. (इसके उल्लेखनीय उदाहरणों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिए आदिवासियों के बीच खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देना है.)
उग्रवाद से निपटने की रणनीति में सबसे बड़ा बदलाव तो सड़क की कनेक्टिविटी सुधारने के मामले में आया है. छत्तीसगढ़ ने सुकमा, बीजापुर और जगदलपुर ज़िलों में 11 अहम सड़क परियोजनाओं को कामयाबी से पूरा कर लिया है.
हालांकि, उग्रवाद से निपटने की रणनीति में सबसे बड़ा बदलाव तो सड़क की कनेक्टिविटी सुधारने के मामले में आया है. छत्तीसगढ़ ने सुकमा, बीजापुर और जगदलपुर ज़िलों में 11 अहम सड़क परियोजनाओं को कामयाबी से पूरा कर लिया है. 2021 में केंद्र सरकार के सक्रिय सहयोग से छत्तीसगढ़ सरकार ने पल्ली और बरसुर के बीच बेहद अहम एक्सिस रोड का निर्माण पूरा कर लिया. इसकी वजह से सुरक्षा बलों के लिए बोदली और केडामेता जैसे दुरूह इलाक़ों में जाना आसान हो गया. पुलिस के आधुनिकीकरण (बस्तरीय बटालियन) के ज़रिए स्थानीय पुलिस के लड़ने की क्षमता में भी बढ़ोत्तरी की गई. इसके अलावा थानों की सुरक्षा बढ़ाई गई और केंद्र एवं राज्य के बीच खुफिया और अर्धसैनिक बलों के मामले में तालमेल बढ़ाया गया, जिसके नतीजे अब नज़र आने लगे हैं.
इसके अलावा, सड़क की कनेक्टिविटी बेहतर होने से राज्य को उन अंदरूनी इलाक़ों में भी सुरक्षा बलों के शिविर स्थापित करने में सहायता मिली है, जिन्हें कभी माओवादियों का गढ़ माना जाता था. मिसाल के तौर पर दिसंबर 2023 से अप्रैल 2024 के बीच CRPF ने सुकमा-बीजापुर इलाक़े में अपने 20 नए कैंप स्थापित किए हैं. वहीं, सीमा सुरक्षा बल (BSF) ने भी कांकेर ज़िले में अपने तीन नए शिविर स्थापित किए हैं. उल्लेखनीय है कि फरवरी में सुरक्षा बलों ने (सुकमा ज़िले के) पुवार्ती गांव में एक पुलिस कैम्प स्थापित किया है, जिसे ख़तरनाक माओवादी कमांडर हिडमा का इलाक़ा कहा जाता है. सुरक्षा बलों का आत्मविश्वास इस क़दर बढ़ गया है कि कांकेर और नारायणपुर में दाख़िले के दो प्रमुख ठिकानों पर नए पुलिस कैम्प स्थापित करके अब वो इस लड़ाई को अबूझमाड़ (जिसे माओवादियों के छुपने का प्रमुख ठिकाना कहा जाता है) तक ले गए हैं. हाल के हफ़्तों के दौरान केंद्रीय बलों ने कोटरी नदी को पार करके अबूझमाड़ में एक नया बेस कैम्प स्थापित किया है. अधिकारियों का दावा है कि इसी नए शिविर की वजह से कांकेर में हाल ही में हुई मुठभेड़ को अंजाम दिया गया था.
संक्षेप में कहें तो सुरक्षा औऱ विकास के क्षेत्र में उठाए गए कई क़दमों और सीपीआई-माओवादी के संगठन में पूरे देश में आई कमज़ोरी ने छत्तीसगढ़ को उग्रवादियों के ऊपर बढ़त दे दी है. इसका सबूत आंकड़ों में दिखता है. मिसाल के तौर पर, सुरक्षा के बढ़े हुए उपायों की वजह से 2018 से 2024 (6 मई तक) के बीच 465 माओवादी मारे जा चुके हैं. इसी दौरान, उग्रवादियों से मुक़ाबला करते हुए सुरक्षा बलों के 206 जवान भी शहीद हो चुके हैं. भले ही मौत के मामले में सुरक्षा बलों का पलड़ा भारी हो. अहम बात ये है कि हिंसक घटनाओं और उससे भी महत्वपूर्ण बात ये कि आम नागरिकों की मौत की संख्या में भी गिरावट आई है (देखें ग्राफ 1). इससे भी कहीं ज़्यादा ध्यान देने वाली बात ये है कि बढ़ते दबाव की वजह से माओवादियों के बीच आत्मसमर्पण का चलन बढ़ा है. हाल ही में कम से कम 35 माओवादियों ने दंतेवाड़ा पुलिस के सामने हथियार डाले थे. पुनर्वास की आकर्षक नीति, माओवाद को लेकर वैचारिक आकर्षण में कमी और सुरक्षा बलों के अभियानों के ज़रिए बढ़ाए गए दबाव की वजह से 2020 से अब तक 800 से ज़्यादा उग्रवादी हथियार डाल चुके हैं.
चार्ट 1: छत्तीसगढ़ में वामपंथी उग्रवाद से जुड़ी हिंसा में हुई मौतें (30 अप्रैल 2024 तक)
स्रोत: साउथ एशिया टेररिज़्म पोर्टल और गृह मंत्रालय से जुटाए गए आंकड़े
जैसा कि हम ऊपर की परिचर्चा में देख चुके हैं कि छत्तीसगढ़ ने माओवादियों के ख़िलाफ़ काफ़ी अहम सफलताएं हासिल की हैं. बड़ी संख्या में उग्रवादियों को मार गिराया गया है, जो सुरक्षा बलों के हालिया अभियानों से ज़ाहिर होता है. वहीं, अबूझमाड़ के बेहद क़रीब सुरक्षा के शिविर लगाकर अधिक आत्मविश्वास भी दिखाया गया है. ऐसे में हो सकता है कि कुछ लोग सीपीआई-माओवादियों के ख़िलाफ़ जीत का एलान करना चाहें. हालांकि, राज्य के नेतृत्व और उग्रवाद के ख़िलाफ़ अभियानों की निगरानी करने वाले सुरक्षा तंत्र के लिए समझदारी इसी में है कि वो सावधान रहें और झूठी बहादुरी के जाल में फंसने से बचें. कई अहम ज़िलों पर से नियंत्रण गंवाने और सुरक्षा बलों के हाथों कई लड़ाकों को गंवाने के बावजूद, माओवादी अभी भी अबूझमाड़ और नारायणपुर, बीजापुर, बस्तर और दंतेवाड़ा जैसे अहम ज़िलों में बेहद ताक़तवर बने हिए हैं. यही नहीं, माओवादी गतिविधियों के आधार पर किए गए ज़िलों के हालिया वर्गीकरण के मुताबिक़, 58 प्रभावित ज़िलों में से 15 तो अकेले छत्तीसगढ़ में ही हैं. बस्तर का पहाड़ी औऱ जंगली इलाक़ा बारूदी सुरंगों से अटा पड़ा है, जिससे सुरक्षा बलों के लिए स्वतंत्र रूप से आवाजाही करना और तलाशी अभियान चलाना बेहद मुश्किल होता है. इसके अलावा, पहले की घटनाओं ने साबित किया है कि सीपीआई-माओवादी अभी भी सुरक्षा बलों पर दुस्साहसिक हमले करने की क्षमता रखते हैं. ज़्यादा पुरानी बात नहीं (26 अप्रैल 2023) जब माओवादियों ने घात लगाकर एक बड़ा हमला किया था, जिसकी वजह से दंतेवाड़ा में ज़िला रिज़र्व गार्ड (DRG) के दस जवान शहीद हो गए थे. सड़कों की कनेक्टिविटी और सुरक्षा की तैयारी में काफ़ी सुधार के बावजूद उग्रवादी ये दुस्साहसिक हमला करने में सफल रहे थे.
उग्रवाद निरोधक अभियानों की कामयाबी से जो सबक़ मिले हैं, वो यही संकेत देते हैं कि राज्य और उसके सुरक्षा बलों को लंबी लड़ाई के लिए अपने मोर्चे पर डटे रहना होगा. इसके साथ साथ उन्हें उग्रवादियों के साथ शांति वार्ता के दरवाज़े भी खोलने चाहिए.
हालांकि, जैसा कि इस लेख में दिखाया गया है कि सुरक्षा बलों द्वारा चलाए गए कई अभियानों के ज़रिए बड़ी तादाद में माओवादियों को ढेर किए जाने से संकेत मिलता है कि ऐसी घटना दोहराए जाने की आशंका कम ही है. इसकी बड़ी वजह यही है कि सुरक्षा बल हाल के दिनों में अबूझमाड़ समेत माओवादियों के कई मज़बूत ठिकानों में अपने शिविर लगाने में सफल रहे हैं. फिर भी, उग्रवाद निरोधक अभियानों की कामयाबी से जो सबक़ मिले हैं, वो यही संकेत देते हैं कि राज्य और उसके सुरक्षा बलों को लंबी लड़ाई के लिए अपने मोर्चे पर डटे रहना होगा. इसके साथ साथ उन्हें उग्रवादियों के साथ शांति वार्ता के दरवाज़े भी खोलने चाहिए. सिर्फ़ माओवादी लड़ाकों के खात्मे भर से 50 साल से भी ज़्यादा समय से चली आ रही उग्रवाद की समस्या का हल नहीं निकलने वाला है.
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Niranjan Sahoo, PhD, is a Senior Fellow with ORF’s Governance and Politics Initiative. With years of expertise in governance and public policy, he now anchors ...
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